Monday, February 28, 2011

दादा ने आम आदमी को क्या दिया!


 महंगाई से जूझ रहे लोगों को उम्मीद थी कि प्रणब मुखर्जी जब देश का 80वां बजट पेश करेंगे तो उसमें महंगाई से राहत के उपाय होंगे, लेकिन प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में ऐसा कुछ खास नहीं निकला, जिससे महंगाई से जूझ रही जनता राहत की उम्मीद कर सके। सरकार और कांग्रेस पार्टी इसे किसानों और आम आदमी का बजट बताते थक नहीं रही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी को भी पता है कि यह बजट आम आदमी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के शब्दों पर गौर फरमाएं तो यह तथ्य साफ हो जाएगा। बजट पेश होने के बाद प्रतिक्रिया देते हुए मनीष तिवारी का कहना कि वित्तमंत्री ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने वाला बजट पेश नहीं किया है, साफ करता है कि कांग्रेस भी मानती है कि प्रणब मुखर्जी का बजट आम लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। शायद यही वजह है कि समूचा विपक्ष इस बजट को सिर्फ वायदों का पिटारा बता रहा है। यों तो वित्तमंत्री बजट को दो हिस्सों में पढ़ते हैं, लेकिन लोगों को बजट प्रावधानों से ज्यादा नजर अपनी आम जरूरत की चीजों की कीमतों पर रहती है। लोग यह भी चाहते हैं कि आयकर की छूट सीमा बढ़े। इस लिहाज से प्रणब मुखर्जी का बजट कमजोर है। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार आयकर की छूट सीमा एक लाख साठ हजार से बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी जाएगी, लेकिन यह छूट महज बीस हजार रुपये की बढ़ी। महिलाओं को पिछले कई साल से छूट देने की परंपरा ही बन गई है, लेकिन इस बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। बुजुर्ग लोगों को आयकर की छूट सीमा दो लाख चालीस हजार से बढ़ाकर ढाई लाख रुपये कर दी गई। हां, अस्सी साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गो के लिए यह छूट सीमा पांच लाख रुपये तक कर दी गई है। अभी तक पैंसठ साल के बुजुर्गो को ही वृद्धावस्था पेंशन देने का प्रावधान था। अब यह उम्र सीमा घटाकर साठ साल कर दी गई है। फिर राशि भी दो सौ से बढ़ाकर पांच सौ रुपये कर दी गई है। महंगाई के इस दौर में जैसी गति दो सौ रुपये की थी, वैसी ही गति पांच सौ की है। ऐसे में बुजुर्गो को क्या फायदा मिलेगा। बीस हजार रुपये की आयकर छूट का साढ़े आठ फीसदी महंगाई दर के दौर में लोगों को क्या फायदा मिलेगा, इसे वित्तमंत्री ही ठीक तरीके से बता सकते हैं। लेकिन यह तय है कि आम लोगों को खास फायदा नहीं मिला है। वित्तमंत्री ने एक बोल्ड कदम जरूर उठाने का ऐलान किया है कि केरोसिन और एलपीजी के लिए अब सीधे नगद ही सब्सिडी दी जाएगी। अब तक यह सब्सिडी तेल कंपनियों को ही मिलती थी। जब किसानों को 73 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई थी, तब कुछ एनजीओ और राजनीतिक दलों ने मांग रखी थी कि यह सब्सिडी सीधे नगदी तौर पर किसानों को ही दी जाए तो हर किसान को साढ़े छह हजार रुपये मिलेंगे और उसका सीधा फायदा उसे मिलेगा। सरकार ने तब किसानों को ऐसा फायदा भले ही लेने नहीं दिया, लेकिन केरोसिन और एलपीजी पर नगद सब्सिडी देने का ऐलान करके एक सराहनीय कदम उठाने की कोशिश जरूर की है। लेकिन इसके लिए क्या सरकारी प्रक्रिया होगी, किन्हें यह फायदा मिलेगा, कहीं यह फायदा सिर्फ सरकार की नजर में रहे गरीब लोगों को ही मिल पाएगा..? ये कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। लेकिन यह तय है कि अगर इस सब्सिडी को लागू करने के लिए पारदर्शी और अचूक तरीका अख्तियार नहीं किया गया तो इससे सरकारी बाबुओं के मालामाल होने और भ्रष्टाचार की नई राह खुल जाएगी। सरकार के नए ऐलानों से लोहा, ब्रांडेड रेडिमेड कपड़े, ब्रांडेड सोना, विदेशी हवाई यात्रा महंगी हो जाएगी। जबकि सौर लालटेन, साबुन, मोबाइल, एलईडी टीवी, कागज, प्रिंटर, साबुन, गाडि़यों के पुर्जे, कच्चा रेशम, सिल्क, रेफ्रिजरेटर, मोबाइल, सीमेंट, स्टील का सामान, कृषि मशीनरी, बैटरी वाली कार, बच्चों के डायपर आदि सस्ते होंगे। लेकिन सरकार ने जिस तरह सर्विस टैक्स के दायरे में बड़े अस्पतालों में इलाज समेत कई सेवाओं को लागू किया है, उससे तय है कि महंगाई और बढ़ेगी। आज के तनाव भरे दौर में जिस तरह से लोगों की जिंदगी पर खतरा बढ़ा है, उसमें बीमा पर लोगों का आसरा बढ़ा है। लेकिन बीमा पॉलिसी पर भी सेवाकर बढ़ाकर वित्तमंत्री ने एक तरह से लोगों की पॉकेट पर ही निगाह गड़ा दी है। ऐसे में महंगाई से राहत की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आयातित कार बैटरियों और सीएनजी किट पर सीमा शुल्क घटाकर सरकार ने पर्यावरणवादी कदम उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन सच तो यह है कि इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए सीमा शुल्क का आधा किया जाना ही राहत भरा बड़ा कदम नहीं हो सकता। कच्चे रेशम पर भी सीमा शुल्क घटाकर पांच प्रतिशत किया गया है, लेकिन देसी बुनकरों के लिए खास छूटों का ऐलान नहीं है। हालांकि नाबार्ड के जरिए तीन हजार करोड़ की मदद का ऐलान जरूर किया गया है। सरकार का दावा है कि इसका फायदा तीन लाख हथकरघा मजदूरों को मिलेगा। वित्तमंत्री ने किसानों को 4.75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देने का ऐलान किया है। इसके साथ ही वक्त पर कर्ज लौटाने पर उन्हें 3 फीसदी की छूट देने का ऐलान भी किया गया है। इसके साथ ही उन्हें 7 फीसदी ब्याज पर कर्ज देने की भी घोषणा है। इसके साथ ही कोल्ड स्टोरेज के लिए एसी पर कोई एक्साइज नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र को मजबूती देने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है, लेकिन इसका फायदा किसानों की बजाय छोटे उद्यमियों को आर्थिक मदद के तौर पर दिलाने का वायदा है। सच तो यह है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा किसानों को मिलना चाहिए। उन्हें कम पूंजी के जरिये अपनी खेती को उन्नत बनाने की जरूरत हर साल पड़ती है, लेकिन सरकार ने अपनी माइक्रोफाइनेंसिंग के दायरे में किसानों पर ध्यान नहीं दिया। वित्तमंत्री ने 2000 से ज्यादा आबादी वाले गांवों में बैंक की सुविधा देने और ग्रामीण बैंकों को 500 करोड़ रुपये देने का भी ऐलान किया है। जाहिर है, गांवों तक सरकारी बैंक ही पहुंचेंगे, लेकिन गांवों में सरकारी बैंकों की जो हालत है और किसानों के साथ उनका क्या सलूक है, यह छुपा नहीं है। उनकी हालत सुधारने और किसान हितैषी बनाने के संबंध में प्रणब मुखर्जी का बजट मौन है। पिछले साल बढ़ी दालों की कीमतों और दूध के आसन्न संकट से निबटने के लिए वित्तमंत्री ने अपने बजट में प्रावधान तो किए हैं। दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्होंने जहां 300 करोड़ की रकम का प्रावधान किया है, वहीं इतनी ही रकम दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी देने का ऐलान है। लेकिन वित्तमंत्री यह भूल गए हैं कि इतने बड़े देश में सिर्फ 300 करोड़ की रकम से दाल और दूध का उत्पादन उस स्तर तक नहीं पहुंचाया जा सकता, जितनी कि देश को जरूरत है। भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्षी दलों और बाबा रामदेव ने जिस तरह काले धन को देश व्यापी मुद्दा बना रखा है, उसका दबाव भी प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में दिखा। बजट भाषण पढ़ते हुए उन्होंने काले धन के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकार इससे निपटने के लिए पांच सूत्रीय कार्ययोजना चला रही है। जिसके तहत काले धन के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष में साथ, देना उपयुक्त कानूनी ढांचा तैयार करना, अनुचित तरीकों से कमाए गए धन से निपटने के लिए संस्थाएं स्थापित करना, क्रियान्वयन के लिए प्रणालियां विकसित करना और लोगों को कौशल का प्रशिक्षण देना शामिल किया गया है, लेकिन काले धन को लेकर सरकार के कड़े कदम क्या होंगे, उसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके बजट भाषण में नहीं दिखी। जाहिर है कि वित्तमंत्री ने सिर्फ चतुराई का ही परिचय दिया है। इससे साफ है कि वित्तमंत्री के मौजूदा बजट भाषण का जमीनी स्तर पर खास फायदा नहीं होने जा रहा। किसान पहले की तरह हलकान रहेंगे, मध्यवर्ग अपनी कमाई में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर रहेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

लोकलुभावन लेखा-जोखा


अर्थव्यवस्था की बेहतरी अथवा आम आदमी की उम्मीदों के लिहाज से बजट को निराशाजनक मान रहे हैं लेखक
वित्तमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी का यह छठा बजट था, लेकिन इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे अर्थव्यवस्था की बेहतरी अथवा आम आदमी की उम्मीदों को नया आकाश मिल सके। यह होल्डिंग बजट है, जिसमें देश के सभी वर्गो और तबकों को खुश करने के तरीकों के अलावा आंकड़ों की बाजीगरी भी बखूबी की गई है। प्रणब मुखर्जी ने किसानों, असंगठित क्षेत्र के कामगारों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए कुछ लुभावनी योजनाओं की घोषणा करना ही बेहतर समझा। शायद ऐसा करने के पीछे उनकी मुख्य मजबूरी आम आदमी के बीच सरकार की लगातार धूमिल होती छवि को बचाने व बढ़ाने के अलावा राज्यों के आगामी चुनावों में कांग्रेस को लाभ दिलाने की मंशा है। इस क्रम में पूरे देश में करीब 22 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के वेतन को दोगुना करने की घोषणा की गई है। यहां ध्यान दिए जाने योग्य बात यह है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का वेतन 1500 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर तीन हजार कर दिया गया। यह वेतन पहले भी गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आता था और अब बढ़ने के बाद भी गरीबी रेखा के नीचे ही रहेगा। इस तरह के अंतरविरोध बजट में कई जगह देखे जा सकते हैं जिससे पता चलता है कि यह बिना ज्यादा सोच-विचार के जल्दबाजी में अथवा सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए तैयार किया गया है। कोल्ड चेन में निवेश के बहाने अमीरों को आगे लाने की बात है। मार्केटाइजेशन, कारपोरेटाइजेशन को बढ़ावा देने वाली नीतियों से आम आदमी को लाभ मिलने की बात की जा रही है, लेकिन खेती के लिए यह तर्क उपयुक्त नहीं है। राष्ट्रीय किसान विकास योजना में एक हजार करोड़ रुपये देने के अलावा किसानों को चार लाख पचहत्तर हजार करोड़ रुपये कर्ज देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त दलहन, तिलहन, सब्जी और चारा विकास योजनाओं के लिए वित्तमंत्री ने थोड़ी बहुत राशि दी है, लेकिन हमारा आर्थिक विकास करीब 9.25 प्रतिशत है और इस लिहाज से दी गई राशि बहुत थोड़ी है। बुनकर और हथकरघा श्रमिकों के लिए भी बजट में प्रावधान किया गया है। पढ़ने-सुनने में यह बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन इसका जमीनी क्रियान्वयन कितना मजबूत है, यह सरकार भी जानती है। इन वर्गो के लिए दी गई राशि का पांच प्रतिशत हिस्सा भी शायद इन तक नहीं पहंुच पाता है और सारा पैसा बीच में ही हड़प हो जाता है। आवश्यकता इस बात की थी कि सरकार भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ सुनिश्चित उपायों की घोषणा करती ताकि योजनाओं का लाभ इन वर्गो को वास्तविक रूप में मिल पाता। कैश सब्सिडी की शुरुआत अच्छी बात है, लेकिन इसका क्रियान्वयन किस तरह हो पाता है यह देखने वाली बात होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य पर निवेश बढ़ाने की नीति सही है, लेकिन रोजगार सृजन तेज करने पर भी ध्यान देना होगा अन्यथा यह निवेश व्यर्थ चला जाएगा। काले धन के संदर्भ में वित्तमंत्री ने पांच सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की है, जिसमें इसे वैश्विक लड़ाई का स्वरूप दिए जाने, कानूनी ढांचे में सुधार लाने व क्रियान्वयन को मजबूत करने के साथ-साथ जनशक्ति को जगाने की बात कही गई है। विदेशों में जमा काले धन के लिए विभिन्न देशों के साथ डीटीएए दोहरे कराधान वाले समझौते करने की बात भी की गई है। यहां एक बड़ा अंतरविरोध यह है कि दोहरे कराधान का समझौता केवल कानूनन वैध और जानकारी में आए काले धन पर ही लागू होता है, न कि अज्ञात काले धन पर। इस कारण सरकार की पांच सूत्रीय योजना अव्यावहारिक और दिखावटी ज्यादा है। इसके अलावा इसमें इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं है कि काला धन वापस कैसे लाया जाएगा अथवा इसकी प्रक्रिया क्या होगी? इसी तरह भ्रष्टाचार की समस्या से लड़ने के लिए सरकार से जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की अपेक्षा की जा रही था वह भी रसातल में गया हुआ दिखा, क्योंकि वित्तमंत्री ने इससे लड़ने के लिए किसी ठोस उपाय की बजाय इसे मंत्रियों के समूह के पास अभी तक विचारार्थ होने की बात कही है। इससे पता चलता है कि सरकार की असली मंशा क्या है और किस तरह इस समस्या से लड़ना चाहती है। उल्लेखनीय है कि प्रणब मुखर्जी ने भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए जिन उपायों को बताया है उसमें कहीं भी राजनीतिक नेताओं, नौकरशाहों अथवा बिजनेसमैन द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से लड़ने की बात नहीं की गई है। इस बात पर भी विचार किए जाने की आवश्यकता है कि 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद आर्थिक अपराधों को रोकने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया गया और इस बजट में इसकी क्षतिपूर्ति और विश्वासबहाली के लिए कदम के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय के कर्मियों की संख्या दोगुनी करने की घोषणा की गई, जो वाहवाही लूटने से ज्यादा कुछ और नहीं है। उदारीकरण तेज होने के साथ-साथ काला धन भी बढ़ रहा है और प्रतिवर्ष हमारी अर्थव्यवस्था का तकरीबन 10 प्रतिशत काला धन विदेशों में जमा हो रहा है। बजट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशी (एफडीआइ) और संस्थागत निवेश(एफआइआइ) को बढ़ावा दिए जाने की बात कही गई है, जो एक गलत नीति है, क्योंकि अभी भी हमारे यहां इस तरह के निवेश कम हैं जिस कारण हमारी अर्थव्यवस्था पर वाह्य जोखिम भी कम है। बेहतर तो यह होता कि सरकार पब्लिक इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने की नीति अपनाए ताकि हमारे लोगों के पास मौजूद बचत का पैसा अर्थव्यवस्था में लगे और इसका लाभ देश के लोगों को ज्यादा से ज्यादा मिल सके। इसी तरह अप्रत्यक्ष कर से ज्यादा पैसा उगाहने की नीति के बजाय प्रत्यक्ष कर द्वारा पैसा ज्यादा निकालने की नीति का पालन किया जाए। अप्रत्यक्ष कर का अनुपात बढ़ने से महंगाई की दर तेज होती है और आम आदमी पर इसका प्रभाव भी ज्यादा पड़ता है। इसके अलावा सरकार को चाहिए था कि वह महंगाई से निजात पाने के लिए पेट्रोलियम पदार्थो पर से कस्टम और एक्साइज ड्यूटी को कम करती। इससे बढ़ती महंगाई पर लगाम लगती और लोगों को राहत मिलती, लेकिन सरकार शायद मान बैठी है कि आर्थिक विकास के लिए महंगाई आवश्यक है। इसी तरह जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर और डीटीसी को लागू करने की बात कही गई है। महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए जरूरत यूनिफॉर्म ड्यूटी लागू किए जाने की थी, जिससे सरकार फिलहाल आंखें मूंदे हुए है। यदि हम टैक्स स्लैब को देखें तो इसमें भी एक और वर्ग जोड़ा गया है, जो अनावश्यक जटिलता पैदा करने वाला कदम है। कोई नया कर नहीं जोड़ा गया है, लेकिन करों की उगाही में अप्रत्यक्ष कर को घटाने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया गया है। (लेखक जेएनयू में वरिष्ठ प्रोफेसर और सीईएसपी के अध्यक्ष हैं)

मुश्किल चुनौती है वित्तमंत्री के सामने


आम बजट से अपेक्षाओं के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं सीआइआइ के महानिदेशक
देश-दुनिया की नजरें वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर टिकी हुई हैं। आम आदमी से लेकर उद्योग जगत तक आज पेश होने वाले बजट में अपनी परेशानियों का समाधान खोजने की कोशिश करेगा। देश के प्रमुख उद्योग संगठन सीआइआइ के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी ने दैनिक जागरण के जयप्रकाश रंजन के साथ बातचीत में कहा कि वित्त मंत्री को संभावनाओं और मुश्किल चुनौतियों के बीच सामंजस्य बिठाना होगा। पेश हैं इस बातचीत के अंश- जिस माहौल में बजट पेश होने जा रहा है, आप उसे किस तरह से देखते हैं? भारत में आम बजट एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है। आम आदमी से लेकर खास वर्ग तक को इससे कुछ न कुछ उम्मीदें होती हैं। बजट पेश करने का यह समय काफी अद्भुत है। एक तरफ अर्थव्यवस्था बेहद तेजी से छलांग लगाने को तैयार है तो दूसरी तरफ लगता है कि इसके सामने दुश्वारियां भी कम नहीं है। चालू वित्त वर्ष के दौरान हमारी आर्थिक विकास दर नौ फीसदी के करीब रहने वाली है, लेकिन महंगाई, निर्यात बाजार में अस्थिरता, विदेशी अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त रफ्तार, राजकोषीय घाटे का बढ़ता स्तर, घरेलू स्तर पर ब्याज दरों में वृद्धि जैसी तमाम चुनौतियां भी सामने हैं। ऐसे में वित्त मंत्री के सामने बेहतरीन संभावनाओं और मुश्किल चुनौतियों के बीच सामंजस्य बिठाना है। ब्याज दरों में वृद्धि की बात आपने उठाई, क्या हमारे सामने अर्थव्यवस्था के उच्च लागत वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील होने का खतरा है? देखिए, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता कि हमारे यहां उत्पादन लागत बढ़ रही है, लेकिन यह मुद्दा पूरी दुनिया के सामने है। तमाम जिंसों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। यही स्थिति औद्योगिक क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले कच्चे मालों की है। कई वजहें हैं। हाल के दिनों में कई देशों में शुरू हुई राजनीतिक उठापटक से भी स्थिति बिगड़ी है। कच्चे तेल की कीमतों में लगातार वृद्धि की वजह से भारत में स्थिति थोड़ी चुनौतीपूर्ण हो गई है, लेकिन इसके लिए भारत सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। हां, सरकार इन परिस्थितियों में किस तरह से कदम उठाती है, यह तय करेगा कि हम ज्यादा लागत वाली अर्थव्यवस्था बन रहे हैं या नहीं। इसके लिए वित्त मंत्री को वित्तीय कदम और मौद्रिक कदम के बीच बेहतर तालमेल बिठाना होगा। महंगाई पर काबू पाने के लिए अभी और क्या विकल्प हो सकते हैं? महंगाई से सभी परेशान हैं। आम आदमी भी, उद्योग जगत भी और सरकार भी। हमारा मानना है कि खाद्य उत्पादों में महंगाई की स्थिति का गहन अध्ययन कर उपाय करने की जरूरत है। यह समस्या बहुत हद तक आपूर्ति पक्ष से जुड़ी हुई है, सरकार भी कई बार इस तथ्य को स्वीकार कर चुकी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस प्रश्न का जवाब तलाशने के लिए हमने गंभीर प्रयास किए हैं। हमारा मानना है कि कृषि क्षेत्र को लेकर बहुत ही नई सोच के साथ हमें अपनी नीति बनाने की दरकार है। खाद्य उत्पादों की महंगाई दर मुख्य तौर पर फल-सब्जियों, दूध, मांस, अंडे जैसे उत्पादों की वजह से सामने आई है। एक अन्य बड़ी वजह बिचौलिये हैं। इस महंगाई का किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ है। कई अन्य चीजें हैं जो चल रही हैं मसलन, सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करना, उन्नत खाद व बीज समय पर और उचित दर पर मुहैया कराना आदि। खाद्य भंडारण व प्रबंधन को उद्योग जगत के लिए और आकर्षक बनाना होगा। इसके अलावा हमें सुधारों को भी आगे बढ़ाना होगा। प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि बजट लंबित सुधारों को आगे बढ़ाएगा। आपकी नजर में लंबित सुधार कौन-कौन से हैं? मेरे ख्याल से लंबित सुधारों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सिर्फ केंद्र की नहीं है। सबसे पहले तो राज्यों के कानूनों में सुधार करने की जरूरत है। जहां तक इस बजट का सवाल है तो बेहतर होगा कि विदेशी निवेश सीमा बढ़ाने को लेकर जो वायदे किए गए थे उन पर अमल किया जाए। बीमा और रिटेल सेक्टर को खोलने का कदम माहौल सुधारने में काफी मददगार साबित होगा। एक महत्वपूर्ण सुधार उद्योग स्थापित करने में आने वाली दिक्कतों को दूर करने का हो सकता है। इसी तरह से कर भुगतान की मौजूदा प्रणाली को और अधिक सुधारने और सामान व सेवा कर (जीएसटी) को लेकर साफ संदेश देना भी प्रमुख सुधारवादी कदम होंगे। जीएसटी लागू करने में आ रही दिक्कतें क्या देश की अर्थव्यवस्था पर कोई असर डाल सकती हैं? निश्चित तौर पर। हमारा अध्ययन बताता है कि जीएसटी को लागू करना देश में व्यावसायिक गतिविधियों को काफी बढ़ा सकता है। मोटे तौर पर हमारा अनुमान है कि जीएसटी के लागू होने से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 1.5 फीसदी तक और बढ़ सकती है। यह तो तय है कि इसे लागू किया जाना है, लेकिन इसको लेकर कुछ राज्यों के साथ सहमति नहीं बन पा रही है। सभी पक्षों को समझना होगा कि यह सभी के लिए फायदेमंद है। यह कारोबार करने के रास्ते में आने वाली तमाम दिक्कतों को अपने आप दूर कर सकता है। यह कई तरह की सहायक औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा देगा। ढांचागत क्षेत्र की दिक्कतें खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं, यहां किस तरह की उम्मीदें देखते हैं आप? ढांचागत क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जितनी बड़ी मात्रा में हमें राशि चाहिए उसे उपलब्ध कराना किसी के लिए आसान नहीं है। आगामी योजना में सड़क, बिजली सहित अन्य ढांचागत क्षेत्र में एक खरब डॉलर की राशि लगाने की जरूरत होगी। रास्ते तीन ही हैं। सरकार लगाए या निजी क्षेत्र लगाए या फिर दोनों मिल कर लगाएं। सरकारी-निजी साझेदारी (पीपीपी) में संभावनाएं दिखती हैं, लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। मुझे लगता है कि कारपोरेट बांड्स जारी करने पर सरकार अपनी नीति और साफ कर सकती है। हम इसके लिए सिर्फ बजट के भरोसे नहीं रह सकते। बजट में वित्त मंत्री ढांचागत निवेश पर और ज्यादा कर छूट देने का ऐलान कर सकते हैं। सामाजिक विकास के क्षेत्र के लिए क्या उपाय होने चाहिए? यह खुशी की बात है कि सरकार लगातार सामाजिक विकास के लिए आवंटित राशि में वृद्धि कर रही है। लेकिन सड़क व बिजली की तरह यहां भी काफी बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि जिस तरह से अन्य ढांचागत क्षेत्र के लिए सरकार और निजी क्षेत्र की साझेदारी शुरू की गई है उसी तरह से सामाजिक विकास के क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र को आमंत्रित किया जाना चाहिए। वित्तमंत्री इस बार बजट में प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व निजी क्षेत्र के सहयोग से बड़ा अभियान शुरू करने का ऐलान करें तो यह बहुत ही स्वागत योग्य कदम हो|

Saturday, February 26, 2011

महंगाई देखकर बढ़ाइए आयकर सीमा


इस बार के बजट से देश की जनता को बहुत उम्मीदें हैं। जनता चाहती है कि सरकार कुछ ऐसे ठोस कदम उठाए जिनसे लोगों का कल्याण हो और उन पर पड़ने वाला करों का बोझ कुछ कम हो। इसलिए कि महंगाई और अन्य समस्याओं से लोगों का हाल बेहाल है। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को नये वित्त वर्ष का बजट पेश करते हुए सबसे ज्यादा जिस विषय पर ध्यान देने की जरूरत है, वह है महंगाई। सरकार को नये बजट के जरिए बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम उठाने की घोषणा करनी चाहिए। आयकर की दरें निर्धारित करते समय भी वित्त मंत्री को बढ़ती महंगाई को दिमाग में रखना चाहिए। अगर सरकार महंगाई को जनता को परेशान करने वाला मुद्दा मानती है तो उसे नये बजट में सबसे पहले तो आयकर में छूट की सीमा बढ़ानी चाहिए। अभी यह आम लोगों के लिए 1.60 लाख रुपये है जबकि महिलाओं के लिए आयकर में छूट की सीमा 1.90 लाख रुपये है। पिछले साल की महंगाई को देखें तो यह साफ मालूम पड़ता है कि लोगों के खर्च काफी बढ़ गए हैं। इस दृष्टि से आयकर में छूट की सीमा बढ़ाने की जरूरत स्पष्ट तौर पर महसूस होती है। आयकर सीमा को कम से कम 40,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये बढ़ा देना चाहिए। इसका मतलब यह है कि आयकर में छूट की समान्य सीमा तकरीबन दो लाख रुपये से लेकर 2.10 लाख रुपये हो जाएगी और महिलाओं के लिए यह सीमा मौजूदा 1.90 लाख से बढ़कर 2.30 से 2.40 लाख तक पहुंच जाएगी। महंगाई की मार से बेहाल देश के आम नागरिकों को सरकार के इस कदम से बड़ी राहत मिलेगी। अब देखना है कि सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है? आयकर के स्लैब में परिवर्तन एक साहसिक कदम होगा और बड़ा सवाल यही है कि क्या वित्त मंत्री ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे? सरकार देश की अर्थव्यवस्था को वाकई सही दिशा में ले जाना चाहती है तो उसे आयकर के स्तर पर ही एक बेहद जरूरी और साहसिक कदम उठाना होगा। सरकार को आयकर में ही कोई ऐसा ठोस बंदोबस्त करना चाहिए जिसके जरिए काला धन बाहर निकल सके। सरकार को ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे काला धन बनने की संभावना ही खत्म हो जाए या कम से कम हो जाए। इसके अलावा सरकार को देश के बाहर जमा यहां के लोगों के काले धन को वापस लाने के लिए भी जरूरी बंदोबस्त करना चाहिए। इस मसले पर सरकार अब तक कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिखी है। इसलिए बजट में ही कुछ ऐसे प्रावधान होने चाहिए जिसके जरिए विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की प्रक्रिया शुरू हो सके। अगर सरकार ने काले धन की समस्या पर काबू पा लिया तो यकीनन यह कहा जा सकता है कि देश की कई आर्थिक समस्याओं का समाधान खुद ब खुद हो जाएगा। जहां तक आयकर का सवाल है तो सरकार को वित्त वर्ष 2011-12 के बजट में आयकर के समग्र ढांचे में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं करना चाहिए। इसलिए भी ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि अगले साल से प्रत्यक्ष कर संहिता लागू करने की योजना सरकार ने बनाई है। इसके बावजूद अगर सरकार आयकर के वर्तमान ढांचे में बहुत ज्यादा बदलाव करती है तो इससे समस्या आसान होने के बजाए और कठिन होगी। खामख्वाह नई बहस पैदा होगी। इससे कई तरह के विवाद अनावश्यक रूप से उभरेंगे। इसके अलावा, सरकारी वेतनभोगियों के लिए एक और अहम कदम उठाना चाहिए। ये लोग इस बात से परेशान हैं कि उन्हें अब स्टैंर्डड डिडक्शन नहीं मिल रहा है। 40 साल से मिल यह सुविधा पांच साल पहले यह सेवा वापस ले ली गई। इससे वेतनभोगियों में बड़ा रोष है। इनका कहना है कि बढ़ती महंगाई और दूसरे मद में बढ़ते हुए खर्च को देखते हुए उनसे इस सुविधा को वापस लिया जाना ठीक नहीं है। इसलिए इन वेतनभोगियों के लिए स्टैंर्डड डिडक्शन की सुविधा एक बार फिर से बहाल की जानी चाहिए। ऐसा करने से देश के एक बड़े वर्ग को लाभ मिलेगा और ऐसे लोगों पर महंगाई की वजह से जो बोझ बढ़ा है, उससे इन्हें थोड़ी राहत मिलेगी।

किसानों के लिए बने राष्ट्रीय आयोग


2003-04 के नैशनल सैंपल सव्रे संगठन के आंकड़ों के मुताबिक एक किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 2,115 रुपये हैं। इसका मतलब यह है कि तकरीबन 60 करोड़ किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं
पिछले कई दिनों से टेलीविजन पर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण बढ़ गया है जिनमें इस बात पर र्चचा की जा रही है कि इस बजट में आम आदमी को क्या हासिल होगा? इसमें आम तौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों की महिलाएं और कर्मचारी अपनी बात कहते हुए दिख रहे हैं। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस आम आदमी को टीवी पर दिखाया जा रहा है, उसमें किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं शामिल हैं। या यों कहें कि देश की दो तिहाई आबादी को आम आदमी की श्रेणी में नहीं गिना जा रहा है। किसान और किसानी न सिर्फ मीडिया से बल्कि पूरी आर्थिक व्यवस्था से ही गायब कर दिए गए हैं। ऐसा करने पर वैसे अर्थशास्त्री खास जोर देते हैं जो जमीनी हकीकत से कटे हुए हैं। पिछले पांच साल के आर्थिक सव्रेक्षणों ने इस बात को साबित कर दिया है कि कृषि क्षेत्र भयानक संकट से गुजर रहा है। हर गुजरते साल के साथ मरने वाले किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। आर्थिक उत्पीड़न की वजह से पिछले 15 सालों में देश भर में तकरीबन ढाई लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। ऐसे में किसी भी वित्त मंत्री की प्राथमिकता इसे रोकने और किसानों के चेहरे पर मुस्कुराहट वापस लौटाने की होनी चाहिए।
हालांकि, मुझे नहीं लगता कि 2011 का बजट किसानों के लिए बड़ी राहत लेकर आएगा। 1991 के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के बाद से जितने वित्त मंत्री बने हैं और उन्होंने किसानों के साथ जो किया है, वही प्रणब मुखर्जी भी करेंगे। किसानों की अहमियत की बात करेंगे और कृषि क्षेत्र की सेहत सुधारने की जरूरत पर बल देंगे। अब तक जो र्चचाएं हुई हैं, उनसे तो यह नहीं लगता कि आर्थिक संकट से जूझ रहे किसानों को वित्त मंत्री कोई राहत देने वाले हैं। कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या उत्पादन में कमी नहीं बल्कि किसानों की घटती आमदनी है। किसानों के कल्याण के लिए योजना बनाने की बात चलती है तो विचारों का अकाल पड़ जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में अगर बढ़ोतरी होती है तो इसका फायदा सिर्फ 30 से 40 फीसद किसानों तक ही पहुंच पाता है क्योंकि इनके पास ही मंडी में कुछ बेचने के लिए होता है। 60 फीसद से ज्यादा किसानों का तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में यह बजट इस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का अवसर वित्त मंत्री को मुहैया कराएगा। 2003-04 के नैशनल सैंपल सव्रे संगठन के आंकड़ों के मुताबिक एक किसान परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 2,115 रुपये हैं। इसका मतलब यह है कि तकरीबन 60 करोड़ किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं। ऐसे में वित्त मंत्री को किसानों की आमदनी के लिए एक राष्ट्रीय आयोग के गठन का सुझाव रखना चाहिए। इस आयोग को एक निश्चित जमीन में किसानों के लिए एक निश्चित मासिक आमदनी सुनिश्चित करने की दिशा में काम करने की जिम्मेदारी देनी चाहिए। मुझे पता है कि मौजूदा आर्थिक हालत में वित्त मंत्री के पास बहुत ज्यादा वित्तीय आजादी नहीं है। पर ऐसे में उन्हें उद्योगों को दिए जा रहे राहत पैकेज को हटाकर इसे किसानों को दे देना चाहिए। किसानों को गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और रागी पर बोनस देने का बंदोबस्त कर देना चाहिए। किसानों को आर्थिक मदद की जरूरत है लेकिन उद्योगों को मिल रही आर्थिक मदद को वापस लेने के लिए सियासी साहस की जरूरत है। किसान अभी ज्यादा जरूरतमंद हैं, इसलिए यह मदद उन्हें दी जानी चाहिए। इस बजट में किसानों को दिए जाने वाले कर्ज में 50,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर इसे 4.25 लाख करोड़ रुपये किया जा सकता है। पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कृषि के नाम पर दिए जाने वाले कर्ज का मोटा हिस्सा उन कंपनियों को मिल जाता है जो इस क्षेत्र में काम कर रही हैं और छोटे किसानों को कर्ज नहीं मिल पाता। साफ है कि कर्ज देने से किसानों का भला
नहीं होने वाला क्योंकि पहले से ही किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। ऐसे में अधिक कर्ज देने का मतलब यह है कि वे कर्ज के बोझ तले और दबेंगे। जहां तक सवाल तिलहन और दालों की उपज घटने का है तो तिलहन का उत्पादन तो सरकार की नीतियों की वजह से घटा है। सरकार ने इनके आयात पर लगने वाले शुल्क को घटा दिया और इसका नतीजा यह हुआ कि घरेलू बाजार सस्ते तिलहन से पट गया। 1993-94 में भारत खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भर था लेकिन आयात शुल्क में साल-दर-साल की गई कमी का नतीजा यह हुआ कि आज भारत दुनिया भर में सबसे ज्यादा खाद्य तेल आयात करने के मामले में दूसरे स्थान पर है। ऐसे में तिलहन और दलहन का उत्पादन तब तक नहीं बढ़ेगा जब तक सरकार आयात शुल्क को पुराने स्तर पर नहीं लाती है। विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत तिलहन पर भारत 300 फीसद तक आयात शुल्क लगा सकता है लेकिन इसे शून्य कर दिया गया है। दलहन के लिए भी आयात शुल्क शून्य कर दिया गया है। जब तक ये शुल्क बढ़ाए नहीं जाते, भारतीय किसान रियायत पर उपजाए जाने वाले सस्ते अनाजों का मुकाबला नहीं कर पाएंगे।
सस्ते अनाज का आयात करने का सीधा मतलब बेरोजगारी आयात करना है। हरित क्रांति को पूर्वोत्तर के राज्यों में ले जाने के लिए वित्त मंत्री ने पिछले साल 400 करोड़ रुपये दिए थे। पर यह एक भ्रम में डालने वाली रणनीति है क्योंकि हरित क्रांति की प्रौद्योगिकी ने पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश की जमीन की उत्पादकता को खत्म करने का काम किया है। हरित क्रांति की वजह से पैदा हुईं समस्याओं का ही नतीजा है कि आज किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं। ऐसे में हरित क्रांति के मॉडल को पूर्वोत्तर के राज्यों में ले जाने का सीधा अर्थ यह निकाला जाएगा कि देश ने पुरानी गलती से कोई सबक नहीं लिया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक वित्त मंत्री का ध्यान आकृष्ट करेगा। अनाज की बढ़ती कीमतों को देखते हुए संभव है कि बीमार और भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण पण्राली को और पैसे मुहैया कराए जाएं। इसके बजाए गांव और तालुका स्तर पर अनाज भंडार तैयार करने के लिए धन मुहैया करवाया जाना चाहिए। इसे हर राज्य में क्षेत्रीय अनाज भंडार से जोड़ा जाना चाहिए। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पंचायत घर स्थापित करने के लिए संसाधन मुहैया करवाए हैं। ऐसे में हर पंचायत में बीज भंडार बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। इससे अनाज की बर्बादी थमेगी और स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगा। इससे सार्वजनिक वितरण पण्राली का बोझ भी घटेगा और जिसे फिर सुधारने में भी सहूलियत होगी। मुझे यह जानकर बेहद प्रसन्नता हुई कि वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य बीमा के तहत रोजगार गारंटी योजना के तहत साल में कम से कम 15 दिन काम करने वाले मजदूरों को भी शामिल कर लिया है। आने वाले सालों में स्वास्थ्य बीमा के दायरे को बढ़ाकर इसमें पूरे किसान समुदाय को शामिल करने की जरूरत होगी। अभी फसल को भी बीमा के दायरे में नहीं लाया गया है। कुछ राज्यों में किसानों को स्वास्थ्य बीमा दिया गया है लेकिन ज्यादातर राज्यों में ऐसा नहीं हुआ है। बजट में हुए आवंटन के साथ 2010 के आर्थिक सव्रेक्षण को पढ़ने पर इस बात का पता चलता है कि सरकार खेती पर कॉरपोरेट और निजी कारोबारी घरानों का वर्चस्व बढ़ाना चाहती है। आर्थिक सव्रेक्षण में अनाज को लेकर जिन कदमों के उल्लेख किए गए हैं, उनसे साफ है कि सरकार कृषि में औद्योगिकरण बढ़ाना चाहती है और कृषि उत्पादों को संगठित खुदरा उद्योग से जोड़ना चाहती है। इसका मतलब यह हुआ कि किसानों पर बोझ और बढ़ेगा।