Wednesday, June 29, 2011

महंगाई की असहनीय मार


डीजल, रसोई गैस और केरोसिन के दामों में बढ़ोतरी को लेकर यदि आम जनता क्षोभ से भर गई है तो इसके उचित कारण हैं। अब यह तय है कि पेट्रोलियम उत्पादों में इस मूल्य वृद्धि के बाद आम जनता के लिए महंगाई और असहनीय हो जाएगी। यह संभव नहीं कि केंद्र सरकार के नीति-नियंता इससे अवगत न हों कि डीजल के दाम बढ़ाकर महंगाई को एक और तगड़ी खुराक देने के साथ ही आम आदमी की मुश्किलें बढ़ाई जा रही हैं, लेकिन बावजूद इसके वे ठोस फैसले लेने से बच रहे हैं। डीजल, रसोई गैस और केरोसिन के जरिये सरकार ने सिर्फ और सिर्फ उन तेल कंपनियों को राहत दी है जिनके घाटे का रोना बेवजह रोया जाता है। अब इस थोथी दलील से काम चलने वाला नहीं है कि तेल कंपनियों को घाटे से उबारने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ाना मजबूरी है, क्योंकि आम जनता यह अच्छी तरह समझ रही है कि सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थो पर जानबूझकर करों का बोझ लाद रखा है ताकि तेल कंपनियों के घाटे में डूबने का हौव्वा खड़ा किया जा सके। जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्यों में कमी के आसार नहीं नजर आते तो फिर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में किस्म-किस्म के करों की हिस्सेदारी का क्या मतलब? आखिर यह कौन सा अर्थशास्त्र है कि आयातित सामग्री पर केंद्र सरकार भी तमाम तरह के कर एवं उपकर थोपे और राज्य सरकारें भी? यदि अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों से लैस सरकार यह साधारण सी बात नहीं समझ पा रही है कि पेट्रोलियम पदार्थो के जरिये करों की वसूली करने से महंगाई का मुकाबला नहीं किया जा सकता तो इसका मतलब है कि जानबूझकर जोखिम मोल लेने का खेल खेला जा रहा है। यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्यों की स्थिति से परिचित होने के बावजूद घरेलू स्तर पर आवश्यक उपायों पर अमल करने से बच रही है। वह यह अच्छी तरह जान रही है कि पेट्रोलियम उत्पादों में सब्सिडी लक्षित वर्गो तक नहीं पहुंच रही है, फिर भी राजनीतिक कारणों से सब्सिडी देना जारी रखे हुए है। जिस केरोसिन पर भारी-भरकम सब्सिडी दी जा रही है वह गरीबों तक पहुंच ही नहीं पाता। उसका अधिकांश हिस्सा काले बाजार में बिकता है और उसमें से एक हिस्सा मिलावटखोरी में इस्तेमाल होता है। केरोसिन की तरह डीजल में भी किसानों को राहत देने के नाम पर सब्सिडी दी जाती है, लेकिन यह देखने से इंकार किया जा रहा है कि किस तरह बड़ी मात्रा में डीजल का इस्तेमाल उद्योगों में भी होता है और लग्जरी गाडि़यों में भी। यह आश्चर्यजनक है कि सरकार यह क्यों नहीं देख पा रही है कि केरोसिन और डीजल में सब्सिडी का कितने बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है? यदि सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थो से जुड़े कर ढांचे और सब्सिडी के तौर-तरीके में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया तो ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि उससे निपटना मुश्किल हो जाए। कम से कम अब तो सरकार को तेल कंपनियों की आड़ में अपना खजाना भरने की नीति का परित्याग करना ही चाहिए। यह भी निराशाजनक है कि सरकार पेट्रोलियम पदार्थो की खपत घटाने और घरेलू स्तर पर उनका उत्पादन बढ़ाने के उपायों पर ध्यान नहीं दे रही है। यह किसी से छिपा नहीं कि देश में तेल और गैस की खोज करने का काम सही ढंग से नहीं हो रहा है। अब तो यह भी नजर आ रहा है कि सरकार के पास न तो कोई तात्कालिक उपाय है और न ही दीर्घकालिक।

स्वरोजगार में लगा है देश का आधा श्रम बल


कामकाज करने योग्य देश की आधी से अधिक आबादी स्वरोजगार में लगी है। इसी तरह श्रम बाजार में एक ही तरह के काम के लिए महिला कर्मचारियों को अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। यह खुलासा एक सरकारी सर्वे में हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के 66वें सर्वे के मुताबिक देश के कुल श्रम बल का 51 प्रतिशत स्वरोजगार में लगा है। केवल 15.6 प्रतिशत लोग ही नियमित नौकरी करते हैं। जबकि श्रम योग्य आबादी का 33.5 प्रतिशत अस्थायी मजदूरी करता है। ग्रामीण क्षेत्रों के 54.2 प्रतिशत कामकाजी लोग स्वरोजगार में लगे हैं। जबकि नगरों में 41.4 प्रतिशत कामगार स्वरोजगार में लगे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 7.3 प्रतिशत कामगार ही नियमित वेतन पाते हैं। वहीं नगरों में यह अनुपात 41.4 प्रतिशत है। श्रम बाजार में महिलाओं की स्थिति के बारे में यह निष्कर्ष निकला है कि उन्हें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नगरीय क्षेत्रों में पुरुषों का औसत दैनिक वेतन 365 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में यह 232 रुपये प्रति दिन है। सर्वे में कहा गया है कि गांवों में पुरुष कामगारों का औसत प्रतिदिन आय 249 रुपये व महिलाओं की 156 रुपये ही है। इस प्रकार गांवों में महिला और पुरुष के आय का अनुपात 63-100 है। इसी तरह शहरी क्षेत्र में पुरुष कामगार प्रतिदिन 377 रुपये कमाते हैं, जबकि महिला कामगारों की आय 309 रुपये ही है। यह रिपोर्ट 1,00,957 परिवारों पर किए गए सर्वे पर आधारित है। सर्वे में शामिल परिवारों में ग्रामीण क्षेत्र और नगरीय क्षेत्र के क्रमश: 59,129 और 41,828 परिवार थे। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने एक बयान में कहा है कि नमूने का संग्रह जुलाई 2009 से जून 2010 के बीच देशभर के 7402 गांवों और 5252 शहरों से किया गया। सर्वे में पाया गया कि सार्वजनिक कार्यो से इतर अनियमित मजदूरों को पारिश्रमिक के तौर पर प्रतिदिन 93 रुपये दिया जाता है। जबकि नगरीय क्षेत्रों में यह राशि 122 रुपये है। अगर इसे लिंग के हिसाब से देखें तो ग्रामीण क्षेत्रों में अनियमित पुरुष कामगार को 102 रुपये और महिला कामगार को मात्र 69 रुपये मिलते हैं। सार्वजनिक कार्यो से इतर नगरीय क्षेत्रों में अनियमित पुरुष कामगार को 132 रुपये और महिला कामगार को मात्र 77 रुपये मिलते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के तहत कराए जाने वाले कार्यो में भी महिला और पुरुष कामगारों के वेतन में अंतर है। मनरेगा के तहत अनियमित पुरुष कामगारों को 91 रुपये जबकि महिला कामगार को 87 रुपये पारिश्रमिक दिया जाता है। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 63 प्रतिशत पुरुष कामगार कृषि कार्य में लगे हैं, जबकि 19 प्रतिशत और 18 प्रतिशत लोग क्रमश: द्वितीयक (विनिर्माण) और तृतीयक (सेवा) क्षेत्र के कार्यो में लगे हैं। कृषि क्षेत्र बहुत हद तक महिला कामगारों पर आश्रित है। 79 प्रतिशत महिला कामगार कृषि कार्य में लगी हुई हैं, जबकि 13 प्रतिशत और 8 प्रतिशत महिला श्रमिक क्रमश: द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र के कार्यो में लगी हैं। ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों के लोगों के कार्यो पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि नगरों के अधिकांश लोग सेवा क्षेत्र के कार्यो में लगे हुए हैं। नगरीय क्षेत्रों में करीब 59 प्रतिशत पुरुष कामगार और 53 प्रतिशत महिला कामगार सेवा क्षेत्र में लगे हुए हैं। वहीं करीब 35 प्रतिशत पुरुष कामगार और 33 प्रतिशत महिला कामगार विनिर्माण क्षेत्र में लगे हैं। नगरीय कामगारों में 6 प्रतिशत पुरुष कामगार और 14 प्रतिशत महिला कामगार कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं।


कृष्ण क्रांति की जरूरत


किसी आधारभूत उत्पाद या तकनीक के संदर्भ में दूसरों पर आश्रित रहना देश के अर्थतंत्र के लिए कितना भारी पड़ता है इसका ज्वलंत प्रमाण है भारत में कच्चे तेल की कमी। इसके अंतरराष्ट्रीय मूल्य के निरंतर बढ़ते जाने और वर्तमान में 110 डॉलर प्रति बैरल पार कर जाने से न सिर्फ विश्व के शेयर और अन्य बाजारों में हड़कंप मच गया है, बल्कि उसने मजबूत से मजबूत अर्थतंत्र वाले देशों को भी जड़ से हिला दिया है। इस परिस्थिति के कारण भारत को भी समय-समय पर पेट्रोलियम उत्पादों की मूल्यवृद्धि के लिए विवश होना पड़ता है। वर्तमान समय में देश की प्रमुख तेल कंपनियों की माली हालत अच्छी नहीं है और उनका घाटा बढ़ता जा रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में हमें इसका स्थायी समाधान खोजना होगा। हरित क्रांति एवं श्वेत क्रांति के बाद अब समय है कृष्ण क्रांति का। पेट्रोलियम उत्पादों के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास को कृष्ण क्रांति नाम दिया गया है। इसका उद्देश्य देश को पेट्रोल और डीजल में आत्मनिर्भर बनाना है। इसके लिए देश में एथेनॉल मिश्रित पेट्रोल एवं बायोडीजल के प्रयोग पर बल दिया जाएगा। विश्व के कई देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील आदि में एथेनॉल मिश्रित पेट्रोलियम का सफल प्रयोग हो रहा है। एथेनॉल गन्ना, चुकंदर, मकई, जौ, आलू, सूरजमुखी या गंध सफेदा से तैयार किया जाता है। यह पेट्रोल के प्रदूषक तत्वों को भी कम करता है। ब्राजील में बीस प्रतिशत मोटरगाडि़यों में इसका प्रयोग होता है। अगर भारत में ऐसा किया जाए तो पेट्रोल की बचत के साथ-साथ विदेशी मुद्रा की बचत में भी यह सहायक होगा। देश में 18 करोड़, 60 लाख हेक्टेयर भूमि बेकार पड़ी है। अगर मात्र एक करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही एथेनॉल बनाने वाली चीजों की खेती की जाए तो भी देश तेल के मामले में काफी हद तक आत्मनिर्भर हो जाएगा। इसी तरह बायोडीजल के लिए रतनजोत या जटरोपा का उत्पादन किया जा सकता है। कई विकसित देशों में वाहनों में बायोडीजल का सफल प्रयोग किया जा रहा है। इंडियन ऑयल द्वारा इसका परीक्षण सफल रहा है। वर्तमान वाहनों के इंजन में बिना किसी प्रकार का परिवर्तन लाए इसका प्रयोग संभव है। जटरोपा समशीतोष्ण जलवायु का पौधा है जिसे देश में कहीं भी उगाया जा सकता है। इसे उगाने के लिए पानी की भी अत्यंत कम आवश्यकता होती है। यह बंजर जमीन पर भी आसानी से उग सकता है। जटरोपा की खेती के लिए रेलवे लाइनों के पास खाली पड़ी भूमि का उपयोग किया जा सकता है। देश में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, आइआइटी-दिल्ली, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम, देहरादून ने जटरोपा की खेती के सफल फील्ड ट्रायल किए हैं। रेलवे ने भी बायोडीजल का सफल प्रयोग किया है। 31 जनवरी 2003 को पहली बार दिल्ली-अमृतसर शताब्दी एक्सप्रेस में इसका सफल प्रयोग किया गया। जटरोपा की व्यावसायिक खेती के लिए सरकार किसानों को अनुदान एवं आसान शर्तो पर ऋण देकर प्रोत्साहित कर सकती है। बायोडीजल को ज्यादा परिष्कृत करने की आवश्यकता भी नहीं होती। यह प्रदूषण रहित होता है। इसमें सल्फर की मात्रा शून्य होती है। इसे पर्यावरण के यूरो-3 मानकों में रखा गया है। बायोडीजल ज्वलनशील भी नहीं है। अत: इसका भंडारण और परिवहन भी आसान है। यह ईधन का श्रेष्ठ और सस्ता विकल्प होगा तथा इस ईधन की कीमत 11-12 रुपये प्रति लीटर होगी जो परंपरागत डीजल की कीमत से काफी कम है। यह सीएनजी और एलपीजी से भी सस्ती होगी। बायोडीजल की खेती से ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दूर होगी तथा लोगों की आय बढ़ने से आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। इस दिशा में सरकार को जनसाधारण में भी जागरूकता करने के लिए प्रयास करना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


होम व ऑटो लोन की बढ़ेंगी किस्तें


करीब डेढ़ महीने के अंतराल के बाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने एक बार फिर होम और ऑटो लोन को महंगा करने का रास्ता साफ कर दिया है। अपनी मौद्रिक नीति की पहली मध्य तिमाही समीक्षा में आरबीआइ ने गुरुवार को रेपो रेट (प्रमुख नीतिगत ब्याज दर) एक चौथाई फीसदी बढ़ाने का एलान किया। इसके साथ ही रिवर्स रेपो में भी स्वत: ही इतनी बढ़ोतरी हो जाएगी। रिजर्व बैंक ने साफ कर दिया है कि महंगाई को काबू पाने की रणनीति के तहत मौद्रिक नीति को कठोर बनाने की प्रक्रिया जारी रहेगी। केंद्रीय बैंक का कहना है कि महंगाई में हो रही वृद्धि को देखते हुए इस तरह के कदम उठाना अनिवार्य हो गया था। मार्च, 2010 के बाद यह दसवां मौका है, जब रिजर्व बैंक ने इन ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है। रिजर्व बैंक के इस कदम का इशारा साफ है कि इस बढ़ोतरी के चलते घर कर्ज व वाहन कर्ज की दरें और बढ़ानी होंगी। रेपो दर में वृद्धि के पास जैसे ही बैंक अपनी आधार दर बढ़ाने का फैसला करेंगे, आपके होम लोन की ईएमआइ (मासिक किस्त) में भी इजाफा हो जाएगा। हालांकि, बैंकों ने अभी यह साफ नहीं किया है कि वे ग्राहकों पर ब्याज दरों में वृद्धि का बोझ कब से डालेंगे। देश में महंगाई के काबू में नहीं आने के बाद रिजर्व बैंक पर मौद्रिक नीति को कठोर बनाने का दबाव लगातार पड़ रहा था। मई, 2011 में ही महंगाई की दर नौ प्रतिशत के पार पहुंच गई थी। रेपो रेट यानी वह दर जिस दर पर बैंक अपनी अल्पकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से कर्ज लेते हैं। अब यह दर 0.25 फीसदी बढ़कर साढ़े 7.5 प्रतिशत हो गई है। इसके आधार पर बैंक अपनी आधार दर (कर्ज पर ब्याज की दर) तय करते हैं। जबकि रिवर्स रेपो वह दर होती है, जिस पर बैंकों द्वारा बेहद कम अवधि के लिए जमा की जानी वाली अतिरिक्त नकदी पर रिजर्व बैंक ब्याज देता है। अब यह दर 6.5 फीसदी हो गई है। इसके अलावा रोजाना की जरूरतों को पूरा करने के लिए नकदी समायोजन सुविधा (एलएएफ) के तहत ब्याज दर को बढ़ाकर 8.5 प्रतिशत कर दिया गया है। आरबीआइ का मानना है कि इससे बाजार में मांग का दबाव कम होगा और महंगाई पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। मगर ब्याज दरों में बढ़ोतरी से औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार के धीमा होने की आशंका भी जताई जा रही है। माना जा रहा है कि इससे न सिर्फ वाहन उद्योग, बल्कि रियल एस्टेट क्षेत्र की रफ्तार भी कम होगी। आरबीआइ के कर्ज दर बढ़ाने के फैसले को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सही ठहराते हुए कहा है कि इसकी पहले से ही उम्मीद की जा रही थी। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने भी रिजर्व बैंक के कदम को सही दिशा में उठाया गया कदम बताया। उन्होंने कहा कि इसका असर आर्थिक विकास पर नहीं होगा। हालांकि, केंद्रीय बैंक का मानना है कि आर्थिक विकास दर पर इसका असर अल्पकालिक हो सकता है, लेकिन उसने आठ प्रतिशत के अपने पूर्वानुमान में कोई फेरबदल नहीं किया है।

फिर मंदी का खतरा


लेखक सरकार की गलत मौद्रिक नीतियों के कारण देश को फिर से मंदी की गिरफ्त में जाता देख रहे हैं...
एक साल पहले मैंने महंगाई की विभीषिका से निपटने के संबंध में सरकार की गलत नीतियों पर चिंता जाहिर की थी। शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक के ढुलमुल रवैये और भारत सरकार के जबानी जमाखर्च और अब आरबीआइ के अत्यधिक आक्रामक रुख के कारण देश पर फिर से मंदी के बादल मंडराने लगे हैं। भारत निम्न विकास दर और उच्च महंगाई के दोहरे भंवर में फंस रहा है। मौद्रिक अधिसत्ता के युद्ध सरीखे तेवरों ने पिछले छह माह में ब्याज दरों में 350 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर दी है। भारतीय मानकों के हिसाब से भी वित्तीय पूंजी बेहद महंगी हो चुकी है। अतिरिक्त राशि घटती जा रही है। इस कारण वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादक दाम बढ़ाने को मजबूर हो रहे हैं। 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान शिथिल पड़ गया क्षमता संवर्धन और कमजोर हो रहा है। परिणामस्वरूप महंगाई ने, जिसके बारे में शुरू में कुछ अर्थशास्ति्रयों का मानना था कि यह कमजोर मानसून के कारण खाद्यान्न की फसल में होने वाली गिरावट की चक्रीय श्रृंखला है, अब वस्तुओं और सेवाओं की तमाम श्रेणियों को अपनी चपेट में ले लिया है। अब इसकी पहचान संरचनात्मक मुद्दे के रूप में की जा रही है। मौद्रिक सत्ताओं के इस व्यवहार का पूरा असर अभी पड़ना शेष है। इस बीच चौथी तिमाही के विकास दर के आंकड़ों ने 2010-11 वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को नीचे खींच लिया। साथ ही 2011-12 के अनुमान को भी पुननिर्धारित करना पड़ा। वर्तमान रुख से पता चलता है कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर डेढ़ प्रतिशत गिरकर सात प्रतिशत के करीब सिमट गई है। बजट में अनुमान से कम जीडीपी दर से कर वसूली प्रभावित होगी। फलत: सरकार को मजबूरन अधिक उधारी करनी होगी, जिससे भविष्य में ब्याज दरों में और वृद्धि होगी। कच्चे तेल के ऊंचे दाम और पेट्रोल व गैस का आंशिक भार उपभोक्ताओं तक हस्तांतरित करने से महंगाई में और आग लग रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च बचत दर, बढ़ते निवेश और उद्यमियों के बढ़ते विश्वास के स्तर से दहाई अंकों की विकास दर में आसानी से प्रवेश कर सकती थी। दुर्भाग्य से, समुचित और पर्याप्त नीतिगत पहल के अभाव में अर्थव्यवस्था का पहिया धीमा पड़ता जा रहा है। अब रणसिंहा बजाने का समय आ गया है। क्षमताओं के संवर्धन के लिए निवेश में वृद्धि के मौद्रिक उपायों को अनुदान व खैरात बांटने की प्रवृत्ति पर वरीयता देनी होगी। अतिवादी सुझाव यह हो सकता है कि युद्ध सरीखे हालात मानते हुए, जैसाकि विपत्ति के समय होता है, नीति निर्माताओं, मौद्रिक अधिसत्ताओं और सिविल सोसाइटी को देश को उस गढ्डे से निकालने के लिए कमर कस लेनी चाहिए, जिसमें हमने इसे धकेल दिया है। सौभाग्य से, इकॉनोमिस्ट कमोडिटी प्राइस इंडेक्स के अनुसार मध्य फरवरी से वैश्विक स्तर पर वस्तुओं की कीमतों में हल्की गिरावट आई है। नीतिगत प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अल्पकालिक कमियों से निपटने के लिए हमें इन अवसरों का भरपूर लाभ उठाना चाहिए। साथ ही दीर्घकालीन आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए नई क्षमताओं के निर्माण में उत्साह से जुट जाना चाहिए। साथ ही, खासतौर से कृषि क्षेत्र में सुधार के माध्यम से देश को संकट से उबारने का प्रयास करना चाहिए। अल्पकालिक उपायों में महंगाई को बढ़ाने वाली आवश्यक वस्तुओं के आयात को बढ़ावा देना चाहिए। इसके लिए आयात शुल्क में कमी लानी होगी। इन वस्तुओं के उत्पादक इस विकल्प का इस्तेमाल न करने के लिए सरकार पर दबाव बनाएंगे। आपूर्ति में सुधार आम आदमी के हित में है, जो बढ़ती महंगाई से सर्वाधिक त्रस्त है। मध्य अवधि के उपायों के तौर पर सरकार को सुधारवादी एजेंडे की गति बढ़ा देनी चाहिए। इसे दो भागों में बांट देना चाहिए। सर्वप्रथम आर्थिक सुधार संबंधी, खासतौर पर वित्तीय सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए लंबित बिलों को संसद में पारित करने के लिए तत्परता दिखानी चाहिए। इन क्षेत्रों में बीमा, बैंकिंग, पेंशन, वैट और डीटीसी शामिल हैं। अगर प्रमुख विपक्षी दल की शंकाओं को दूर किया जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह इन बिलों पर समर्थन देने के लिए राजी हो सकता है। राज्यसभा में पीएफआरडीए बिल पेश करने में भाजपा के समर्थन से इस कथन की पुष्टि हो जाती है। इसके बाद सुधार का अगला चरण लागू करना चाहिए। इस चरण में लंबे समय से लंबित मांगें जैसे संगठित रिटेल की शुरुआत, निजी क्षेत्र द्वारा कृषि में निवेश, कृषि उत्पादों के वितरण में सुधार, श्रम नीतियां आदि आती हैं। यह सूची और भी लंबी हो सकती है लेकिन फिलहाल इतने भर से ही काम चल सकता है। इन तमाम क्षेत्रों में उदारीकरण की प्रक्रिया संबंधित मंत्रालयों को शुरू करनी चाहिए। यह देखने के लिए कि सुधार अपेक्षित गति से हो रहे हैं या नहीं, संबंधित मंत्रालयों की मासिक समीक्षा बैठक सुनिश्चित करनी चाहिए। सुधार प्रक्रिया में आने वाली तमाम दिक्कतों को दूर करने और अधिकारियों व मंत्रियों की जवाबदेही तय करने के स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए। उच्च पदों पर भ्रष्टाचार गंभीर रुख अख्तियार कर चुका है। पिछले कुछ महीनों से राजनीति और उद्योग जगत के कुछ चमकते सितारे फिलहाल तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। पूर्व में कुछ सामाजिक एक्टिविस्ट और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले एक स्वामी सरकार को भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। भ्रष्टाचार का दानव पूरे भारतीय समाज में रच-बस गया है। भ्रष्टाचार का सबसे अधिक खामियाजा भी आम आदमी को ही उठाना पड़ता है। सरकार की निष्कि्रयता से जनता अधीर हो रही है। इस दानव को अगर पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता तो फौरी तौर पर कम से कम ई-गवर्नेंस के माध्यम से इस पर अंकुश तो लगाया ही जा सकता है। यद्यपि सरकार ई गवर्नेस की दिशा में आगे बढ़ रही है, किंतु इसकी गति को तेज करने और तमाम विभागों में इसका विस्तार करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य में लगने वाली समयसीमा की सूचना प्रत्येक विभाग की वेबसाइट पर डाल दी जानी चाहिए। इससे पहले जनसांख्यिकीय लाभ जनसांख्यिकीय आपदा में बदल जाएं, राजनीतिक कार्यपालिका को नींद से जाग जाना चाहिए। हमें ऐतिहासिक अवसरों को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए। मंदी की गिरफ्त से बच निकलने के लिए और लोगों का जीवनस्तर उठाने के लिए हमें महंगाई के राक्षस का वध करना होगा। (लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

महंगाई ने हजम किए 5.8 लाख करोड़ रुपये


सखी सैंया तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाए जात है, पीपली लाइव के इस गाने को तो अब तक आप भूले नहीं होंगे। वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में शुरू महंगाई अब तक 5.8 लाख करोड़ रुपये हजम कर चुकी है। यानी तीन साल में भारतीय उपभोक्ताओं पर इतनी राशि का अतिरिक्त बोझ पड़ा है। वित्तीय परामर्श एवं शोध फर्म क्रिसिल ने अपने अध्ययन इन्फलेशन ह‌र्ट्स में यह निष्कर्ष निकाला है। इसमें कहा गया है कि 2008-09 से 2010-11 के तीन साल में मुद्रास्फीति पांच फीसदी से बढ़कर आठ फीसदी हो गई है। इस कारण जहां भारतीय उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति घटी वहीं उनका बिल 5.8 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया। इस दौरान उपभोक्ताओं को खाने पीने पर ज्यादा खर्च करना पड़ा क्योंकि खाद्य उत्पादों की कीमतों में गैर खाद्य उत्पादों की तुलना में ज्यादा तेजी देखने को मिली। रपट के मुताबिक शुरुआत में तो मांग के मुकाबले आपूर्ति में कमी की वजह से खाद्य और ईधन की कीमतें चढ़ीं, जबकि बाद में यह मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों तक पहुंच गई। देश में अनाज के बंपर उत्पादन के बावजूद अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में तेजी का रुख है। इस वजह से भी महंगाई काबू में नहीं आ रही है। रपट में कहा गया है कि इन तीन सालों में जहां खाद्य मुद्रास्फीति औसतन 11.6 फीसदी रही, जबकि सामान्य मुद्रास्फीति का औसत 5.7 फीसदी रहा। रिजर्व बैंक के मुताबिक 3-4 फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। क्रिसिल के अनुसार भारतीय परिवारों पर महंगाई में वृद्धि के कारण पड़े अतिरिक्त बोझ का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मौजूदा कीमतों पर देश की जीडीपी वित्त वर्ष 2010-11 में 78,75,627 करोड़ रुपये थी। सामान्य मुद्रास्फीति जनवरी 2010 से ही आठ प्रतिशत से ऊंची बनी हुई है। मई 2011 में यह 9.06 प्रतिशत थी। हाल ही में डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के दाम में वृद्धि के बाद महंगाई के भड़क कर फिर से दोहरे अंक में पहुंच जाने की पूरी संभावना है। मुद्रास्फीति पर अंकुश के लिए मार्च 2010 के बाद से रिजर्व बैंक 10 बार प्रमुख नीतिगत दरों में वृद्धि कर चुका है। हालांकि आरबीआइ ने मार्च 2012 तक इसके घटकर छह फीसदी पर रहने का अनुमान लगाया है।

Tuesday, June 28, 2011

अर्थव्यवस्था पर तिहरा दबाव


वित्तीय घाटा बढ़ने से अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को रेखांकित कर रहे हैं  लेखक 
वर्तमान में अर्थव्यवस्था तीन तरह से दबाव में है। विश्व बाजार में तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। फरवरी में ये करीब 100 डॉलर प्रति बैरल थीं। आज 110 से 115 डालर पर पहुंच गई हैं। विश्व बाजार में तेल के दाम बढ़ने से सरकार को सब्सिडी अधिक देनी होती है, क्योंकि डीजल के घरेलू दाम न्यून निर्धारित किए गए हैं। इससे सरकार का घाटा बढ़ रहा है। दूसरे, अर्थव्यवस्था की विकास दर में भी हल्की गिरावट आ रही है। पूर्व की 9 प्रतिशत विकास दर के सामने वर्तमान अनुमान लगभग 8 प्रतिशत का है। विकास दर के गिरने से सरकार को टैक्स कम ंिमलता है। तीसरे, सरकार आम आदमी को राहत दिलाने के लिए भोजन सुरक्षा कानून बनाने जा रही है। इससे भी सब्सिडी खर्च बढ़ेगा। इस प्रकार अर्थव्यवस्था तीन तरफ से दबाव में है। ऐसे में सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ेगा। इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकार को नोट छापने पडें़गे। इससे महंगाई बढ़ेगी, जिसकी मार अंतत: आम आदमी पर ही पड़ेगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए योजना आयोग तथा अन्य द्वारा पांच बिंदु की रणनीति सुझाई जा रही है। पहला बिंदु है कि तेल, खाद्य सामग्री, एलपीजी गैस आदि पर दी जा रही सब्सिडी को घटाया जाए, परंतु ऐसा करने पर इन वस्तुओं के दाम बढ़ेंगे और आम आदमी त्रस्त होगा। दूसरा बिंदु है कि सरकारी कर्मियों को दी जाने वाली पेंशन में कटौती की जाए। यह सुझाव सही है, किंतु क्रियान्वयन कठिन है। सरकार ने कर्मियों के वेतन और पेंशन में अप्रत्याशित वृद्धि इसलिए की है कि यह फौज सरकार के प्रति वफादार रहे और जरूरत पड़ने पर आम आदमी का दमन करने से न चूके। मसलन रामदेव के शिविर पर रात में धावा बोलने वाले अनेक सिपाही सरकार के निर्णय से सहमत नहीं होंगे, लेकिन ऊंचे वेतन और पेंशन के लोभ में उन्होंने अपनी अंतरात्मा को दबा दिया और रात में सोते हुए निरीह लोगों पर डंडे बरसाए। अत: सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों के वेतन और पेंशन में कटौती करना अपनी नींव खोदने जैसा होगा। तीसरा बिंदु रक्षा खचरें में कटौती करने का है। यह उपयुक्त नहीं हैं। मैंने कुछ वर्ष पूर्व अध्ययन किया था तो पाया कि जिन देशों के रक्षा खर्च ऊंचे थे उनकी आर्थिक विकास दर भी ऊंची थी। रक्षा खर्च में कटौती से आर्थिक विकास दर घटेगी। चौथा बिंदु निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने का है। बुनियादी सेवाओं में निवेश को इन्हें आमंत्रित किया जा सकता है। यह दिशा सही है। दिल्ली के एयरपोर्ट तथा अनेक हाईवे इसी विधा से बनाए गए हैं, परंतु दूसरे क्षेत्रों में निजी क्षेत्रों की रुचि नहीं है, जैसे पानी के वितरण, ग्रामीण सड़कों के निर्माण, जंगल की रक्षा इत्यादि में। अत: निजी क्षेत्र की भागीदारी के बावजूद सरकारी निवेश में वृद्धि जरूरी होगी। पांचवां बिंदु खपत टैक्स आरोपित करने का है। इस संदर्भ में सुझाव यह है कि उच्च वर्ग द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं जैसे एयर कंडीशनर, कलर टीवी, लक्जरी कार आदि पर बिक्री कर के अलावा लग्जरी टैक्स लगा दिया जाए। यह सुझाव सही दिशा में है, परंतु इससे मिलने वाला राजस्व कम ही होगा। इससे मूल समस्या का समाधान नहीं होता है। मेरी समझ में योजना आयोग द्वारा सुझाए गए बिंदु मूल समस्या का समाधान हासिल करने में सफल नहीं हैं। योजना आयोग ने समस्या को सही ढंग से चिह्नित नहीं किया है। आयोग सरकारी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि की वकालत कर रहा है। आयोग की चिंता मात्र इन खचरें के लिए पर्याप्त रकम जुटाने की है, परंतु रकम जुटाने में तमाम कठिनाइयां हैं, जैसा कि ऊपर बताया गया है। इसके अलावा आयोग को समझना चाहिए कि जनता समझदार हो गई है। वह कल्याणकारी खर्चो से प्रभावित नहीं हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार को इसके बावजूद सत्ताच्युत होना पड़ा था कि उन्होंने तमाम कल्याणकारी योजनाएं चालू की थीं। करुणानिधि ने मुफ्त टेलीविजन सेट बांटे, लेकिन सत्ता खोनी पड़ी। कारण यह है कि सरकारी योजनाओं से जनता को लाभ कम ही पहुंचता है। सरकारी स्कूलों में बच्चे फेल होते हैं, मनरेगा के प्रधान कमीशन खाते हैं इत्यादि। मूल समस्या इस प्रकार है। कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ाने के लिए रकम चाहिए। इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। घाटा बढ़ने से महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी त्रस्त हो रहा है। साथ ही निवेशकों का भरोसा भी कम हो रहा है और आर्थिक विकास पर खतरा मंडराने लगा है। इस समस्या का हल छिटपुट कदम उठाने से नहीं निकलेगा, जैसा कि योजना आयोग इंगित कर रहा है। इस समस्या का हल सर्जरी से निकलेगा। पूंजी सघन उद्योगों एवं मशीनरी पर टैक्स लगा दिया जाए तो श्रम का उपयोग सहज ही ज्यादा होने लगेगा और आम आदमी को राहत मिल जाएगी। जैसे ट्रैक्टर पर टैक्स लगा दिया जाए तो हलवाहे का कारोबार स्वत: चल पड़ेगा और उसे मनरेगा की जरूरत नहीं रह जाएगी। अथवा यूं समझें कि चाकलेट खाने से बच्चे का स्वास्थ बिगड़ रहा है। इस समस्या का समाधान च्यवनप्राश पर खर्च बढ़ाकर किया जा सकता है अथवा चाकलेट पर टैक्स लगाकर। चाकलेट पर टैक्स लगाने से दोहरा लाभ है। स्वास्थ्य ठीक रहेगा और आय भी होगी। इसी प्रकार पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स लगाकर श्रम की मांग बढ़ानी चाहिए। दूसरा सुझाव है कि आम आदमी को राहत देने के नाम पर भारी भरकम कल्याणकारी माफिया को पोषित करने की जरूरत नहीं है। इस मद पर खर्च की जाने वाली रकम को सीधे जनता को नकद दे देना चाहिए। मेरा आकलन है कि सभी सब्सिडी एवं कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके प्राप्त रकम को वितरित किया जाए तो प्रति परिवार प्रति माह 2500 रुपये दिए जा सकते हैं, जो मूल जरूरत के लिए पर्याप्त होंगे। तीसरा सुझाव है कि डीजल के मूल्य में वृद्धि करके उस रकम से आम आदमी द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं पर टैक्स में छूट देनी चाहिए। डीजल पर दी जा रही सब्सिडी भी अंतत: आम आदमी से ही टैक्स के रूप में वसूली जाती है। यह व्यर्थ का प्रपंच है। डीजल सब्सिडी समाप्त करके उतनी रकम की छूट आम आदमी द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं पर दी जानी चाहिए। तेल के बढ़ते मूल्य एवं विकास दर में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था पहले ही दबाव में है। कल्याणकारी खचरें में वृद्धि से यह दबाव और बढ़ रहा है। इन खचरें की सर्जरी करके आम आदमी की रक्षा करनी चाहिए। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं).