Saturday, December 8, 2012

यहां मर्ज और भी हैं



सरकार की ओर से दी जाने वाली सब्सिडी अब कैश में तब्दील हो रही है। कैश शब्द कानों को सुहाता है, इसलिए शायद अभी हम इसकी उसी तस्वीर के उसी पहलू को देख पा रहे हैं, जो चटख रंगों के साथ हमें दिखाई जा रही है। करीब दो सौ वर्षो की आर्थिक सोच के बावजूद कोई ऐसा सिद्धांत प्रतिपादित नहीं हुआ, जिससे हम बेरोजगारी का समाधान निकाल पाते। यह विश्व स्तर पर राजनीतिक दलों की विफलता या राष्ट्रों के निजी स्वार्थ हैं, जहां उपलब्ध मानव संसाधनों के प्रयोग में कोताही बरती जा रही है। यह भी संभव है कि आर्थिक नीति अर्थशास्ति्रयों के हाथों से सरका कर चुनिंदा पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनाई गई है। यूरोपीय और अमेरिकी देशों में भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अपने यहां अर्थव्यवस्था के लिए सीआइआइ या फिक्की के टॉप बॉस ही निर्णायक होते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर यह स्पष्ट होना जरूरी है कि किसी भी देश की आर्थिक नीति का पहला उद्देश्य रोजगार है। विदेशी धन, विदेशी पूंजी निवेश, आयात-निर्यात यह सब रोजगार के अवसर और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पाद को दृष्टिगत रखते हुए तय किए जाने चाहिए। दस व्यक्तियों को स्मार्ट रोजगार और सौ को बेकार करने वाला फैशनेबल विकास अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलेगा। बहस के इस विषय पर अर्थशास्ति्रयों की बेबाकी सामने आनी चाहिए। अर्थशास्त्री राष्ट्र की धरोहर हैं, पूंजीपतियों की मंत्रिपरिषद नहीं। इस सूत्र को राजनीतिज्ञ अपना धर्म समझ लें। व्यवसायियों-उद्योगपतियों को परामर्श देने के लिए पृथक से प्रबंध विज्ञान के विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। विकास का पैमाना एक बहुत बड़ी गलती हम औसतन गुणांक लेने की कर रहे हैं। यह खुद को धोखा देने की बात है। पूंजी के वितरण, उत्पादन उपभोग, आयात, निर्यात व प्रति व्यक्ति आय सभी में औसत का फार्मूला फिट करना अन्याय है। एक व्यक्ति एक लाख रुपये कमाए और सौ बेरोजगार भूखे रहें, इस पर अर्थशास्त्री से कहलवाएं कि औसत आय एक हजार रुपये प्रति व्यक्ति है तो क्या यह राजनीतिक तौर पर न्याय होगा? कपड़ा उत्पादन के मामले में बड़ी मिलों की उत्पादन क्षमता और घर में लगी खड्डी को जोड़कर औसत निकालेंगे तो बेरोजगारी दूर करने के आंकड़े गड़बड़ा जाएंगे। इस प्रकार की औसत गणना के प्रतिफल के कारण जब मूल आंकड़े ही गलत होंगे तो उनके आधार पर परिकल्पित की गई नीति की इमारत के नीचे खुद वास्तुकार खड़े होने से डरेंगे। यही कारण है कि वित्त मंत्रालय, योजना आयोग या रिजर्व बैंक नौसिखियों की तरह सड़क पर उबड़-खाबड़ पैबंद में ही अपनी कुशलता समझ रहा है। उसके सामने स्पष्ट लक्ष्यों की समतल सड़क है ही नहीं। चमकीले पैबंदों और रेशमी धागे की रफू की राजनीति, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की फूहड़ पोशाक से ध्यान बंटाने या भ्रमित करने में कामयाब नहीं हो सकती। पहले यह तय करें कि औद्योगिक क्रांति शेयर बाजार के सूचकांक से नापी जाएगी या बेरोजगारी के आंकड़ों से निर्धारित होगी। एटम बम और हाइड्रोजन बम इसी षड्यंत्र का एक भाग हैं, जिसमें किसी को बहुत मोटा कर अपने ही वजन से मार देने की युक्ति छिपी है। एक बार राष्ट्र एटम बम बनाने का निर्णय ले तो शत्रु को हमले की क्या जरूरत है? इसके निर्माण, तैनाती और सुरक्षा की चकल्लसों में वह खुद भूल जाएगा कि राष्ट्र में चालीस करोड़ गरीबी रेखा से नीचे के लोग भी हैं। इसे विकास कहने वाले अपनी सोच का आत्ममंथन करें। बम बनाने की बहस चलाने वाले लोग जानते हैं कि इससे भावुक मतदाता की भावना भड़केगी। वह भूख को भूलकर दिमाग से नहीं, दिल को उत्तेजना से वशीभूत होकर बात करेगा। सभी अर्थशास्ति्रयों को ऐसे में चुप रहने के बजाय खुलकर पहल करनी चाहिए। डायनासोर का शिकार तो किसी ने नहीं किया। फिर यह प्राणी पृथ्वी से लुप्त क्यों हुआ? प्राणी समाज विज्ञान शास्ति्रयों का कहना है कि डायनासोर का विशालकाय आकार ही उसके विनाश का कारण बना। आबादी के बढ़ते दबाव से वनों के कटाने के कारण लिविंग स्पेस में कमी आई होगी। जंगल छोटे हुए होंगे तो उसके भोज्य जीवों की संख्या भी कम हुई होगी। धीरे-धीरे वह अपने ही वजन से लुप्त हो जाने वाला प्राणी बन गया। कार उद्योग का उदाहरण सामने है, जो अपने वजन से दमघोंटू स्थिति में जा रहा है। क्या भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान में उत्पादित हो रही कारों की संख्या के समानुपाती वास्तविक खरीद का बाजार रखती है? अब कारें लोगों की मांग पर नहीं, इच्छा जागृत कर बेची जा रही हैं। जेब में कार खरीदने लायक धन न होने के बावजूद कार रखने की इच्छा लालसा मात्र है। मंदी के कारण कार बनाने व बेचने वाली कंपनियों ने कार रखने की लालसा वाले वर्ग को ही अपना प्रस्तावित ग्राहक बनने का लक्ष्य रखा और इच्छुक खरीददार को कार मूल्य के लिए ऋण भी अपनी तरफ से उपलब्ध कराए। इससे मध्यम व वेतनभोगी वर्ग की बचत की राशि फाइनेंस कंपनी को किस्त के रूप में जाने लगी। प्रसिद्ध ऑटोमोबाइल घरानों से जुड़ी हुई फाइनेंस कंपनियों ने इस प्रयोजन के लिए आसानी से धन जुटा लिया। इससे दोहरी हानि हुई। बचत का जो धन राष्ट्रीय योजनाओं के अनुरूप विकास कार्यो के लिए मिलना चाहिए था, वह गैर विकासीय व्यापारी मुनाफे में लग गया। दूसरी ओर समाज में मात्र प्रतिष्ठा के लिए कार रखने की होड़ से ऐसे व्यक्ति की बजट क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा और आय का एक बड़ा भाग, जो पहले बचत में जाता था, अब ब्याज में जाने लगा। यह दशा भी बहुत समय तक चलने वाली नहीं है। अंतत: भारी मात्रा में निरंतर चलती उत्पादन क्षमता के कारण पहले तो कार कंपनियां मूल्यों में रियायत की घोषणा करेंगी। फिर अपने वजन से यह उद्योग स्वयं ही चौपट हो जाएगा। कार जरूरी या कृषि-रोजगार देश में कार से अधिक आवश्यकता कृषि यंत्रों की है। सार्वजनिक यातायात के साधन परिपूर्ण नहीं हैं। ऐसे में व्यक्तिगत यातायात के साधनों के बजाय सार्वजनिक या आम आदमी को यातायात के साधनों की सुलभता में मध्यमवर्गीय बचत का धन लगता तो अधिक उपयोगी सिद्ध होता। बस और रेल की सवारी की विश्वसनीयता, सेवा सुधार और विस्तार इस समस्या के निदान का एकमात्र तरीका है। आर्थिक सुधार को आधुनिक व प्रतिष्ठित शब्दावली बनाने के लिए राजनीतिक दल भाषणों के घोड़े दौड़ा रहे हैं, लेकिन वृहद रूप से प्रयोग किया गया अपरिभाषित आर्थिक मोर्चे पर वैश्वीकरण का नारा देशवासियों विशेषकर नौजवानों को क्या तृप्त कर सकेगा? बढ़ते औद्योगीकरण, विदेशी निवेश और हथियारों की दौड़ में कोई भी राजनीतिक दल संपूर्ण देश या सभी नागरिकों के कल्याण के लिए कुछ कर पाएंगे, इसमें संदेह है। औद्योगीकरण व विदेशी निवेश बड़ी मछली की तरह कुटीर और छोटे उद्योगों का सफाया कर देंगे। देश के चालीस करोड़ भूखे और खुले आकाश के नीचे सोने वाले नागरिकों के विकास को अछूता रखने वाली अर्थव्यवस्था को व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। राजनीति में धन और बाहुबल की बढ़त के कारण गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे लोगों की अहमियत दिनों-दिन कम होती जा रही है। जब आम मतदाता की उपेक्षा कर चुनाव में विजश्री प्राप्त की जा सकती है तो लक्ष्य भी आम मतदाता से हटकर चुनाव के सहयोग करने वालों तक सीमित रह जाता है। यहीं से फिर कोटा परमिट का दूसरा चक्र आरंभ होता है। गठबंधन सरकारों की बाध्यता बड़े घोटालों को धृतराष्ट्र की तरह देखती है। परिणामस्वरूप उपेक्षित वर्ग पुन: उपेक्षित रह जाता है। रोजगार घटाकर उत्पादन बढ़ाने के लिए अभी देश तैयार नहीं है। पूंजी बाजार की मजबूती से मिलों की चिमनियों के धुएं की गति बढ़े तो ठीक है, अन्यथा शेयर बाजार को गर्म कर पूंजी प्राप्ति के बावजूद कारखानों की भट्टियां ठंडी हों और तालाबंदी हो तो उससे क्या लाभ? व्यवस्था वही है, जो कुछ खास व्यक्तियों या वर्ग के पोषण तक सीमित न रहे। इसके लिए राजनीतिक दलों और अर्थशास्ति्रयों को लीक से हटकर नए सिरे से सोचना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 8-12-2012 अर्थव्यवस्था Page -8

Saturday, December 1, 2012

अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार बरकरार



vर्थव्यवस्था के लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए भी चालू वित्त वर्ष के बाकी छह महीने काफी चुनौतीपूर्ण रहने वाले हैं। आर्थिक विकास दर के दस वर्षो के न्यूनतम स्तर पर खिसकने के खतरे को दूर करने के लिए केंद्र सरकार को और कठोर फैसले लेने पड़ सकते हैं। जानकारों की मानें तो सरकार को अगर चालू वित्त वर्ष में छह फीसद की विकास दर का लक्ष्य हासिल करना है तो पेट्रोलियम सब्सिडी घटानी होगी। साथ ही वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी को लागू करने पर दो टूक फैसला करना होगा और ब्याज दरों को भी घटाना होगा। सरकार के ताजा अनुमान के मुताबिक पहली छमाही में देश की विकास दर 5.4 फीसद रही है, जबकि पूरे वर्ष के लिए सरकार ने 5.7 से छह फीसद का लक्ष्य रखा है। इस हिसाब से अक्टूबर-मार्च की दूसरी छमाही में लगभग साढ़े छह फीसद की विकास दर हासिल करनी होगी। उद्योग चैंबर फिक्की के अध्यक्ष आरवी कनोरिया का कहना है कि अगर सरकार ने कठोर फैसले नहीं किए तो विकास दर छह फीसद से काफी नीचे रहेगी। यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा, क्योंकि यह सीधे तौर पर देश के युवाओं के रोजगार के अवसरों को प्रभावित करेगा। केंद्र की सरकार को बगैर हिचकिचाहट के आर्थिक सुधारों का यह सिलसिला आगे भी जारी रखना चाहिए। साथ ही मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को भी पर्याप्त प्रोत्साहन देना चाहिए। अन्य उद्योग संगठन सीआइआइ के महासचिव चंद्रजीत बनर्जी का कहना है कि सरकार को पेट्रोलियम सब्सिडी में और कटौती करने के लिए कदम उठाने होंगे। साथ ही जीएसटी को हर कीमत पर अंतिम रूप देकर लागू करने की कोशिश करनी चाहिए। माना जाता है कि जीएसटी को लागू कर विकास दर में एक फीसदी की वृद्धि हो सकती है। इसके साथ ही ब्याज दरों में कटौती की मांग एक बार फिर उद्योग जगत की तरफ से उठी है। खास तौर पर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की बेहद खस्ताहाल स्थिति को देखते हुए तमाम अर्थशास्ति्रयों और उद्योग चैंबरों ने रिजर्व बैंक से तत्काल ब्याज दरों को घटाने की गुहार लगाई है। अब इन सभी को इंतजार है कि राजनीतिक दबाव और आगामी चुनावों को देखते हुए संप्रग सरकार अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने वाले फैसले करने की हिम्मत दिखा पाती है या नहीं।सरकार के नीतिगत अनिर्णय, महंगे कर्ज और खराब मानसून ने अर्थव्यवस्था को मुश्किल में डाल दिया है। चालू वित्त वर्ष 2012-13 की दूसरी तिमाही में आर्थिक विकास की दर 5.3 प्रतिशत तक नीचे उतर आई है। तिमाही आधार पर यह तीन साल में सबसे कम विकास दर है। अगली छमाही में अगर हालात नहीं बदले तो अर्थव्यवस्था की सालाना विकास दर एक दशक के न्यूनतम स्तर तक जा सकती है। दूसरी तिमाही यानी जुलाई-सितंबर के आर्थिक विकास के आंकड़ों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि हालात और खराब हुए हैं। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की यह वृद्धि दर 5.5 प्रतिशत रही थी। मगर खराब मानसून से बिगड़ी खेती व महंगे कर्ज से ठप कारखानों ने आर्थिक विकास की दर को और नीचे ला दिया है। बीते वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर 6.7 प्रतिशत रही थी। पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही से अर्थव्यवस्था में सुस्ती का जो माहौल बना वह इस तिमाही में भी बरकरार रहा है। अर्थव्यवस्था के ताजा आंकड़ों ने सरकार के साथ साथ रिजर्व बैंक पर भी इसमें तेजी लाने संबंधी कदम उठाने का दबाव बना दिया है। रिजर्व बैंक अगले महीने 18 तारीख को अपनी मौद्रिक नीति की मध्य तिमाही समीक्षा करेगा। वैसे, वित्तीय बाजारों पर आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार का बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ। उम्मीद से कम रहने के बावजूद बीएसई का सेंसेक्स 169 अंक चढ़ा। दूसरी तिमाही में आर्थिक विकास की रफ्तार को धीमा करने में सबसे ज्यादा योगदान कृषि का रहा है। इस अवधि में अनियमित मानसून ने खरीफ की पैदावार को प्रभावित किया है। इसके चलते खेती की वृद्धि दर 1.2 प्रतिशत पर ही सिमट गई है। पहली तिमाही में इसकी विकास दर 2.9 प्रतिशत रही थी। इसी तरह मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की रफ्तार में भी बहुत फर्क नहीं पड़ा है। महंगे ब्याज के चलते मांग में लगातार कमी हो रही है, जिसका असर औद्योगिक उत्पादन पर पड़ रहा है। सुस्ती का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि दूसरी तिमाही में वित्तीय सेवा क्षेत्र की रफ्तार भी बीती तिमाही के मुकाबले कम हो गई है। वित्तीय सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 10 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई थी, मगर जुलाई-सितंबर की तिमाही में यह 9.4 प्रतिशत पर आ गई है।

Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page -10 अर्थव्यवस्था

Wednesday, November 21, 2012

भारत 2-3 साल में फिर पकड़ लेगा तेज रफ्तार



नई दिल्ली, प्रेट्र : भारतीय अर्थव्यवस्था फिर से कुलांचे भरती नजर आएगी। विश्व विख्यात अर्थशास्त्री जगदीश भगवती की मानें तो इसमें बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी। महज दो-तीन साल में यह फिर से ग्लोबल वित्तीय संकट से पूर्व वाली नौ फीसद की विकास दर हासिल कर लेगी। हां, इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार हालिया आर्थिक सुधारों को और धार दे। भगवती अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। भारतीय मूल के जगदीश ने साक्षात्कार में कहा, अगर सरकार हाल में उठाए गए अपने कदमों पर डटी रही और इन्हें मजबूत करने से नहीं चूकी तो हम 2-3 वर्षो में आठ से नौ फीसद की ऊंची आर्थिक विकास दर पर वापस पहुंच सकते हैं। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार तीन वर्षो तक नौ फीसद के आसपास रही थी। पिछले वित्त वर्ष 2011-12 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की यह वृद्धि दर गिरकर नौ साल के निचले स्तर 6.5 फीसद पर आ गई। चालू वित्त वर्ष 2012-13 में इसके और घटकर 5.5 फीसद पर आने का अनुमान है। हाल ही में केंद्र सरकार ने रिटेल व विमानन क्षेत्र के लिए अपनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) नीति को खासा उदार बनाया है। सिंगल ब्रांड में 100 फीसद एफडीआइ की अनुमति के बाद मल्टी ब्रांड रिटेल में भी 51 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी जा चुकी है। विमानन के मामले में विदेशी एविएशन कंपनियां घरेलू एयरलाइनों में 49 फीसद की हिस्सेदारी ले सकती हैं। बीमा और पेंशन कानूनों में बदलाव करते हुए इन क्षेत्रों में भी एफडीआइ की अधिकतम सीमा बढ़ा दी गई है। विकास बनाम कल्याण की बहस को लेकर भगवती ने कहा, अम‌र्त्य सेन, महबूब उल हक जैसे अर्थशास्त्री कहते रहे हैं कि आर्थिक विकास गरीबी पर असर नहीं डालता। मगर अब यह साफ हो गया है कि ऐसा नहीं है। 1991 के बाद हम कह सकते हैं कि विकास में लोगों को अधिक लाभदायक रोजगार देने की क्षमता है।

Dainik jagran National Edition 21-11-2012 vFkZO;oLFkk  ist -10

Tuesday, November 6, 2012

अर्थव्यवस्था पर आरोपों से बचने की जुगत में सरकार




ठ्ठ नितिन प्रधान, नई दिल्ली भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी सरकार के लिए शीतकालीन सत्र अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को लेकर भी परेशानी का सबब बन सकता है। रेटिंग घटने की आशंका में सरकार का पूरा अमला अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की कोशिश में जुट गया है। राजकोषीय संतुलन बिठाने से लेकर खजाने में राजस्व का प्रवाह बढ़ाने तक वित्त मंत्रालय ने तमाम विकल्प आजमाने शुरू कर दिए हैं। अगले महीने अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी फिच को भारत पर अपनी रिपोर्ट देनी है। उस वक्त संसद का शीतकालीन सत्र भी चालू होगा। संसद का सत्र इस महीने 22 तारीख से शुरू हो रहा है। ऐसे में यदि फिच भारत की रेटिंग घटा देती है तो सरकार को संसद में विपक्ष के आरोपों का सामना करना मुश्किल हो जाएगा। इस स्थिति से बचने की कोशिश में ही सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर सुधार की रफ्तार बढ़ाने के साथ साथ राजकोषीय संतुलन बनाने के प्रयास तेज कर दिए हैं। राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.3 प्रतिशत तक सीमित रखने की वित्त मंत्रालय की हालिया घोषणा का मकसद ही अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों को संतुष्ट करना था। सूत्र बताते हैं कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत से वित्त मंत्रालय खुद बहुत अधिक संतुष्ट नहीं है। निर्यात में तेज गिरावट के बाद चालू खाते का घाटा मंत्रालय के लिए सरदर्द बना हुआ है। उस पर राजस्व संग्रह की रफ्तार भी उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ रही। शेयर बाजार की स्थिति विनिवेश पर आगे नहीं बढ़ने दे रही है। अब सरकार को गैर कर संग्रह में केवल स्पेक्ट्रम की नीलामी से मिलने वाली करीब 40,000 करोड़ रुपये की राशि पर ही भरोसा है। आर्थिक विकास की दर भी सरकार की चिंता बढ़ाए हुए है। ब्याज दरों को लेकर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के मतभेद सामने आने के बाद विकास की रफ्तार बढ़ने की उम्मीद धूमिल पड़ने लगी है। सूत्र बताते हैं कि इसके मद्देनजर सरकार अर्थव्यवस्था की चालू वित्त वर्ष की मध्यावधि समीक्षा में विकास दर के अनुमान को घटा सकती है। जीडीपी की इस वृद्धि दर को वित्त मंत्रालय घटाकर 5.7 से छह प्रतिशत तक कर सकता है। रिजर्व बैंक ने भी अपनी दूसरी तिमाही की मौद्रिक नीति समीक्षा में अर्थव्यवस्था की रफ्तार के अनुमान को घटाकर 5.8 प्रतिशत कर दिया है। अर्थव्यवस्था की तस्वीर जो भी हो, मगर सरकार रेटिंग एजेंसियों की नजर में आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर अब कमजोर पड़ते नहीं दिखना चाहती। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां किसी भी देश की साख का आकलन करते वक्त अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति से ज्यादा सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों और उनकी दिशा पर ज्यादा ध्यान रखती हैं। इसीलिए केंद्र की कोशिश आर्थिक सुधारों के साथ-साथ राजकोषीय संतुलन बनाने का खाका खींचने पर है।

Dainik Jagran National Edition -6-11-2012 अर्थव्यवस्था Page 10