बाजार में कोई वस्तु महंगी क्यों हो जाती है? अर्थशास्त्र का एक सामान्य सिद्धांत कहता है कि उत्पादन में कमी और मांग की अधिकता से वस्तु महंगी हो जाती है और उत्पादन की अधिकता और मांग में कमी की स्थिति में वस्तु का दाम गिर जाता है। इसका तात्कालिक उदाहरण सोने का दाम है। सहालग का मौसम रहने तक मांग की अधिकता के कारण सोना ऐतिहासिक ऊंचाई पर रहा लेकिन सहालग खत्म होते ही यह नीचे उतरना शुरू हो गया है। हालांकि दाम में इस तरह के घट-बढ़ के अंतरराष्ट्रीय कारण भी होते हैं। लेकिन बाजार अगर अर्थशास्त्र के सिद्धांत के विपरीत व्यवहार करता है तो निश्चित ही उसके पीछे कोई प्रभावकारी ताकत होती है। इसी प्रभावकारी ताकत को नियंत्रित या निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, जो कि आज भारत में कहीं दिख नहीं रही है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक पिछले पांच वर्षो से प्राय: हर महीने कीमतों के घट जाने का आासन देते आ रहे हैं लेकिन महंगाई का ताप दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। आलू और चीनी का उदाहरण लें। फिलहाल खुदरा बाजार में आलू का दाम 15 रुपये प्रति किलो के आसपास है। पिछले साल इन्हीं दिनों यह पांच रुपये प्रति किलो के करीब था। आलू की इस साल बंपर पैदावार हुई है। गत वर्ष कुल 404 लाख टन आलू देश में हुआ था तो इस साल यह 10 प्रतिशत बढ़कर 437 लाख टन हुआ है। इस हिसाब से तो आलू का दाम घटे भले नहीं लेकिन स्थिर तो जरूर रहना चाहिए था, जबकि हो रहा है इसका उल्टा। गौरतलब यह भी है कि अभी 2-3 माह पूर्व जब आलू की फसल तैयार हुई थी तो इसके रेट इतने ज्यादा गिर गए थे कि बहुत से स्थानों पर किसानों ने बेचने के बजाय इसे सड़क पर फेंक देना ही ठीक समझा था और आज उसी आलू के दाम तिगुने हो गए हैं। अभी उत्तर प्रदेश की कई बड़ी मंडियों में आलू 119 प्रतिशत तक महंगा हो चुका है। इस साल आलू की फसल तैयार होने से पहले ही केंद्र सरकार ने ‘बाजार हस्तक्षेपीय योजना’ यानी ‘एमआईएस’ के तहत यूपी सरकार को एक लाख टन आलू न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की वित्तीय अनुमति दी थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने ऐसा करने में कोई रुचि ही नहीं दिखाई। यही हाल चीनी का है। देश में चीनी की सालाना खपत 2.2 करोड़ टन है। इस वर्ष चीनी की भी बंपर पैदावार देश में हुई है- कुल 2.52 करोड़ टन। यानी हमारी सकल घरेलू जरूरत से 32 लाख टन ज्यादा। बावजूद इसके बाजार में चीनी का दाम लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बीते अप्रैल माह के आखिरी सप्ताह में अंतरराष्ट्रीय चीनी परिषद यानी ‘आईएससी’ को संबोधित करते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने देसी चीनी उद्योग से कीमतों पर अंकुश को कहा था लेकिन बाजार में चीनी के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। चीनी के अभूतपूर्व उत्पादन से उत्साहित सरकार ने चीनी उद्योग की मांग पर 30 लाख टन चीनी के निर्यात की भी अनुमति दे दी क्योंकि एक अरसे से चीनी उद्यमियों का कहना था कि यदि निर्यात की अनुमति मिल जाए तो वे गन्ना किसानों का बकाये पैसे का भुगतान शीघ्र कर देंगे। लेकिन निर्यात की अनुमति मिलने के बाद से चीनी के दाम में अप्रत्याशित उछाल आना शुरू हो गया है। यहां जिक्र सिर्फ आलू और चीनी का नहीं है बल्कि इनके बहाने बाजार और उस पर नियंत्रणकारी शक्तियों की चर्चा का है। आलू और चीनी आम आदमी के दैनिक भोजन के दो आवश्यक तत्त्व हैं। गरीब आदमी तो आलू के बगैर अपने दैनिक जीवन की भोजन संबंधी आवश्यकता पूरी ही नहीं कर सकता। अभी कुछ वर्ष पहले तक गरीब लोग चीनी के बजाय गुड़ से अपना काम चला लेते थे लेकिन गुड़ अब चीनी से भी ज्यादा महंगा हो गया है। ये कैसा खेल है? यह समझने की बात है कि देश में सिर्फ गेहूं और चावल ही दो प्रमुख खाद्यान्न हैं जिनका दाम सरकार के काबू में है क्योंकि यही दो जिंस हैं जिनका विपुल भंडार सरकार के पास है। मतलब यह कि अगर सट्टेबाज या जमाखोर इन दोनों जिंसों पर अपनी काली नजर डालना चाहें तो सरकारी भंडार उनमें सबसे बड़ी बाधा हैं। इसके उलट चीनी, उद्योगपतियों और बिचौलियों के हाथ में हैं तो आलू शीतगृहों के मोहताज हैं। देश में खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व बिहार में शीतगृहों की अत्यंत कमी है और जो हैं भी वे दलालों और कालाबाजारियों के हाथ में रहते हैं। आलू भंडारण का समय आते ही बिचौलिये व शीतगृह मालिक सांठगांठ करके फर्जी ढंग से शीतगृहों को भरा हुआ बता देते हैं। चूंकि आलू को किसान ज्यादा समय तक खुले में रख नहीं सकता, इसलिए वह उसे औने-पौने बेचने को मजबूर हो जाता है। लेकिन यही आलू जब बिचौलियों के हाथ में आ जाता है तो उसका रेट इन कालाबाजारियों का मोहताज हो जाता है। इस सारी प्रक्रिया में सरकार का कोई हस्तक्षेप किसी भी स्तर पर दिखाई ही नहीं पड़ता। सरकारी शीतगृह अगर पर्याप्त संख्या में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हों तो किसान अपनी उपज उसमें रखकर उचित समय आने पर बेच सकता है। सरकारी नीतियों के कारण बाजार अब सही मायने में मुक्त हो गए हैं। किसी वस्तु की उत्पादन लागत क्या आ रही है और वह बाजार में किस दर पर बेची जा रही है, इसके नियंतण्रकी कोई भी पण्राली दिखाई नहीं पड़ रही है। महंगाई के कारण उत्पादन लागत बढ़ती है, यह सही है; लेकिन किस लागत पर कितना लाभ लिया जा सकता है, क्या इसकी कोई नीति और उसका बाजार में क्रियान्वयन किसी को दिखाई पड़ रहा है? इस साल उत्तर प्रदेश के 10-12 जिलों में पाला और कोहरे के प्रकोप के कारण आलू का उत्पादन प्रभावित हुआ था लेकिन इसके उलट पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में आलू की बंपर पैदावार हुई। फिर उसके दाम में वृद्धि क्यों हो रही है? अब यह बाजार का मिजाज होता जा रहा है कि उपलब्धता चाहे कितनी ही क्यों न हो, किसी न किसी वस्तु का दाम अचानक आसमान छूने लगता है और सरकार आंख-कान मूंदकर बैठी रहती है। यही प्याज के सिलसिले में हुआ, अरहर की दाल के बारे में हुआ और यही अब आलू को लेकर हो रहा है। क्या यह कालाबाजारियों का षड्यंत्र नहीं लगता कि किसी न किसी वस्तु का कृत्रिम अभाव पैदा कर व उसका दाम आसमान चढ़ाकर अपनी तिजोरियॉ भर ली जाएं?
Monday, May 28, 2012
अमीरी-गरीबी की खाई
एशिया की प्रमुख आर्थिक शक्तियों भारत और चीन द्वारा आर्थिक मंदी के इस दौर में भी जीडीपी दर सात फीसदी से ऊपर बनाए रखने पर दुनिया को आश्चर्य हो रहा है। इसके साथ ही 21वीं सदी को एशिया की सदी भी माना जा रहा है। जहां फोर्ब्स की सूची में शामिल होने वाले भारतीय अरबपतियों की संख्या में हर वर्ष इजाफा हो रहा है, वहीं दुनिया के अमीरों की फेहरिस्त में चीनियों का दबदबा भी बढ़ रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि क्या असल में ये देश इतना विकास कर रहे हैं, जितना दावा किया जा रहा है? क्या गरीबों की सेहत पर इस विकास दर का कोई असर पड़ रहा है। अगर आप किसी आम व्यक्ति से सवाल पूछेंगे तो जवाब नहीं में होगा, क्योंकि गरीबों की हालत और बदतर हो रही है। अब चीन सरकार ने भी अमीरी-गरीबी के बीच भारी अंतर को स्वीकार करते हुए कदम उठाने का निर्णय लिया है। इसके लिए एक नया इनकम-डिस्ट्रीब्यूशन फ्रेमवर्क तैयार किया गया है। यह फ्रेमवर्क ऐसे समय में बना है, जब देश में कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत एलीट क्लास सबसे गरीब 10 प्रतिशत का 23 गुना अधिक कमाता है। वर्ष 1988 में यह अंतर सिर्फ सात गुना था। इस फ्रेमवर्क को तैयार करने में आठ साल का समय लगा है। इसे स्टेट काउंसिल ने मंजूरी दे दी है। संभवत: इस साल के आखिर में लागू किए जाने की उम्मीद है। सामाजिक विकास शोध संस्थान के निदेशक यांग कहते हैं कि इस खाई को पाटने के लिए डिस्ट्रीब्यूशन रिफॉर्म के साथ-साथ केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारी एजेंसियां अधिक टैक्स वसूलेंगी और उद्योगों व निजी कंपनियों को इसके दायरे में लाया जाएगा। वहीं मिडिल इनकम गु्रप और उससे ज्यादा कमाने वालों को पहले से अधिक टैक्स देना पड़ेगा। यांग का मानना है कि सिर्फ एक योजना से सभी सवालों का समाधान नहीं होगा, क्योंकि देश की 1 अरब 30 करोड़ से अधिक आबादी में कुछ तो समय लगेगा ही। वैसे इस फ्रेमवर्क में शहरी और ग्रामीण आमदनी के बीच भारी असमानता और विभिन्न उद्योगों के बीच वेतन के बड़े अंतर को भी पाटने का लक्ष्य रखा गया है, जो किसी चुनौती से कम नहीं है। मगर हाल के वर्षो में चीन सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर नजर डालें तो कहा जा सकता है कि वह इस बाबत गंभीर है। चीन में आयकर एक बड़ी भूमिका निभाता है। चीन के इतर भारत की बात करें तो घोटालों और विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में वापस लाने समेत तमाम मोर्चो पर नाकाम संप्रग सरकार शायद ही इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने का साहस दिखा पाएगी। प्यास कैसे बुझेगी यह हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी की सतह पर 70 फीसदी से अधिक हिस्से में जल मौजूद है। इसके बावजूद दुनिया के एक अरब से अधिक लोगों को स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं हो पाता। कुल जल का 97 प्रतिशत भाग महासागरों में है, जिसे पीने लायक बनाना आसान काम नहीं है। भारत में दिल्ली सहित तमाम शहरों की स्थिति से सभी वाकिफ हैं, जबकि बीजिंग में भले ही खास संकट न हो, फिर भी विशेषज्ञों की नजर में भविष्य में बढ़ती आबादी के लिए अभी से वैकल्पिक उपाय सोचने की जरूरत है। इसके लिए समुद्री जल को पीने लायक बनाने पर जोर दिया जा रहा है। यहां कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव पेश किया है कि शोधित समुद्री जल को बीजिंग में पेयजल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए सरकार को सब्सिडी देनी चाहिए। चीन में समुद्री जल को शुद्ध करने वाले कुछ प्लांट हैं, लेकिन शुद्धिकरण की प्रक्रिया खर्चीली होने के चलते ये उतने कामयाब नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय समुद्री विज्ञान ब्यूरो से जुड़े रुआन क्वोलिंग कहते हैं कि सरकार को इस तरह के जल के इस्तेमाल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार डिसैलिनेटेड वॉटर पीने में सामान्य शुद्ध जल से अलग नहीं होता। वैसे बीजिंग से कोई 260 किमी दक्षिण-पश्चिम स्थित थांगशान में समुद्र तट पर 50 हजार टन क्षमता का एक प्लांट स्थापित किया गया था, मगर वह भी बीजिंग में पेयजल की जरूरत को पूरा करने में सक्षम नहीं है। डिसैलिनेटेड सी वॉटर नेटवर्क बनाने के लिए कम से कम ऐसे तीन-चार प्लांट्स लगाने होंगे। इसके लिए लोगों को चार-पांच साल इंतजार करना पड़ सकता है। हालांकि भारत में भी कुछ वर्ष पहले इसी तरह का प्लांट लगाया गया था, जबकि सऊदी अरब वर्ष 2013 तक सोलर एनर्जी से चालित दुनिया का सबसे बड़ा डिसैलिनेटेड वॉटर प्लांट स्थापित कर लेगा। (लेखक चाइना रेडियो, बीजिंग से जुड़े हैं)
हर भारतीय पर Rs33 हजार का कर्ज
भारी सब्सिडी के बोझ और राजस्व वसूली में कमी के कारण सरकार के ऋण में हो रही बढ़ोतरी से वित्त वर्ष 2011-12 में देश का प्रत्येक नागरिक 33000 रुपए का कर्जदार हो गया। वित्त मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक वित्त वर्ष 2011-12 में प्रति व्यक्ति आय में 14 फीसद की वृद्धि हुई लेकिन ऋण में 23 फीसद बढ़ोतरी हो सकती है। मार्च 2012 में प्रति व्यक्ति ऋण के 32812 रुपए पर और प्रति व्यक्ति आय के 14 फीसद बढ़कर 60972 रुपए पर पहुंचने की उम्मीद है। वित्त वर्ष 2010-11 में प्रति व्यक्ति ऋण 26600 रुपए पर था और यह प्रति व्यक्ति आय की तुलना में 50 फीसद से नीचे था। प्रति व्यक्ति ऋण में यह बढ़ोतरी मुख्य रूप से सरकार के साथ ही कंपनियों द्वारा घरेलू और विदेशी बाजारों से उठाये गए कर्ज से हुई है। इसके अतिरक्त व्यक्तिगत ऋण, आवास ऋण और वाहन ऋण भी अधिकांश लोगों पर है। सरकार बढ़े ऋण ऋण के साथ ही लघु बचत स्कीमों जैसे राष्ट्रीय बचत प्रमाण पत्र या जन भविष्य निधि के माध्यम से और बाजार से भी उधार लेती है। विदेशी ऋण की बढ़ोतरी में निजी क्षेत्र हिस्सेदारी अधिक है क्योंकि विदेशी ऋण सस्ते पड़ते हैं। कुल मिलाकर देश का बढ़ता ऋण अंतरराष्ट्रीय साख निर्धारण एजेंसियों की नजर में आ सकता है और इसका असर साख निर्धारण पर पड़ सकता है। ‘आईएमएफ’ के अनुमान के मुताबिक भारत का कुल ऋण सकूल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब 67 फीसद तक रहने की संभावना है जो दुनिया में तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थायें ब्रिक्स के चार सदस्यों देशों से अधिक है। ब्रिक्स में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफीका शामिल है। हालांकि भारत का ऋण अभी भी विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बेहतर स्थिति में है। ऋण में हो रही वृद्धि से ब्याज का भार भी बढ़ रहा है। सरकार ने ब्याज के रूप में 2.75 लाख करोड रुपए भुगतान करने का बजटीय प्रावधान किया है जो उसके कुल व्यय का 16.45 फीसद है। वित्त वर्ष 2012-13 के बजट को तैयार करने के दौरान अर्थशास्त्रियों ने सरकारी ब्याज भुगतान और सब्सिडी में कमी करने का आग्रह करते हुए कहा था कि इससे व्यावहारिक एवं सामाजिक बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सब्सिडी को कम कर जीडीपी के दो फीसद पर लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
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