Monday, December 5, 2011

खेत रहेगी खेती


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रत्यक्ष विदेश निवेश को कृषि क्षेत्र के लिए वरदान समझकर थोप रहे हैं। अगर इसे वास्तविकता की कसौटी पर पर परखें तो दुर्भाग्यवश यह खेती के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। यह भारतीय किसानों के अंत का प्रारंभ होगा। ऐसा अमेरिका में हुआ है। चूंकि अमेरिकी बाजारों में वॉल मार्ट जैसे बहु ब्रांड खुदरा व्यापारियों का प्रभुत्व कायम हो चुका है, किसान गायब हो गये हैं और गरीबी बढ़ गई है। इसी तरह भुखमरी भी बढ़ी है। आज अमेरिका में सात लाख से ज्यादा किसान नहीं रह गए हैं। वहां गरीबी बढ़ी है और भुखमरी ने 14 साल के रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया है। यूरोप में भी, जहां खुदरा क्षेत्र में बड़े घरानों का दखल है, हरेक मिनट पर एक किसान खेती से तौबा कर रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस में किसानों की आय 2009 में 39 फीसद घट चुकी है जबकि 2008 में यह 20 फीसद थी। अभी हाल में स्कॉटलैंड में सुपर बाजारों की कम कीमतों ने दुग्ध उत्पादकों का भट्ठा बैठा दिया। इससे क्षुब्ध किसानों को अपने उत्पाद के एवज में वाजिब दाम पाने के लिए फेयर डील फूडनाम से एक गठबंधन बनाना पड़ा। एक अध्ययन यह भी बताता है कि टेस्को अपने उत्पादकों को बाजार के औसत दामों से चार फीसद कम देता है। इन तथ्यों के आलोक में यह उम्मीद फिजूल है कि सुपर बाजार भारतीय किसानों का मुक्तिदाता होने जा रहा है। सुपर बाजारों द्वारा वैिक स्तर पर खेती-बाड़ी को चौपट करने के बावजूद वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय मल्टी ब्रांड वाले खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के गुणों को लेकर उत्साहित है। इसका सीधा मतलब वॉल मॉर्ट और टेस्को जैसे बड़े खिलाड़ियों को भारतीय बाजारों पर छा जाने देना है। औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग की विचार-विमर्श के लिए तैयार रिपोर्ट में कहा गया है संवृद्धि, रोजगार और ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक सम्पन्नता के लिए कृषि क्षेत्र को बेहतर तरीके से काम करने वाले बाजार की आवश्यकता है।यह समूची परिकल्पना जानबूझकर गलत आधारों पर रची गई है। क्या सुपर बाजार वास्तव में लाभदायक हैं। भारत 2006 से ही अपने खुदरा क्षेत्र को आंशिक रूप से इसके लिए खोल चुका है। क्या इसकी इकाइयों ने भारतीय किसानों और अपने उपभोक्ताओं को फायदा पहुंचाया है? इसका जवाब है-नहीं। यह तर्क कि सुपर बाजारों की श्रृंखला बिचौलिये को बाहर कर देगा जिससे किसानों को उनके उत्पादकों का ऊंचे दाम मिलेंगे और इसी प्रकार, यह खेती बाद तथा शीतगृहों के आधारभूत ढांचे के विकास में बड़ी मात्रा में निवेश करेगा। यह सारे दावे गलत हैं क्योंकि वैिक अनुभव बताते हैं कि बड़े खुदरा व्यापारियों ने किसानों को कहीं ऐसी मदद नहीं दी है। यहां तक कि ब्राजील, अजेंटिना, उरुग्वे और कोलम्बिया समेत लैटिन अमेरिकी देशों में; जहां सुपर बाजार दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा संचालित होते हैं और जिनका वहां के 65 से 95 प्रतिशत बाजारों पर कब्जा है, वहां के किसान खेती छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। अगर सुपर बाजार अपने आप में इतना ही पूर्ण और गतिशीलता को बढ़ावा देने वाला होता तो फिर अमेरिका खेती के लिए भारी-भरकम सब्सिडी क्यों दे रहा है? आखिरकार वॉल मॉर्ट अमेरिकी कंपनी है, उसे अमेरिकी किसानों को आर्थिक रूप से सम्पन्न करने में सहायता देनी चाहिए थी। पर ऐसा हुआ नहीं। अमेरिकी किसानों को बचाने के लिए सरकार को 1995 से 2009 तक 12.50 लाख करोड़ का पैकेज देना पड़ रहा है और इसमें प्रत्यक्ष आय सहायता शामिल है। अमेरिकी सरकार द्वारा दी जा रही यह सबसे बड़ी सब्सिडी है। अगर इस सब्सिडी को, जो वि व्यापार संगठन के आकलन में ग्रीन बॉक्स के तहत आती है, रोक (जैसी कि यूएनसीटीएडी-इंडिया ने चर्चा की है) दी जाए तो अमेरिकी कृषि व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। दुनिया के 30 सम्पन्न देशों की संस्था, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) की 2010 की ताजा रिपोर्ट में कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सहायता 2008 के 21 फीसद के मुकाबले 2009 में 22 फीसद हो गई है। केवल 2009 में ही इन औद्योगिक सम्पन्न देशों को 12.60 करोड़ रुपये की मदद कृषि क्षेत्र को देनी पड़ी है। यही वजह है कि वहां के कृषि क्षेत्र से होने वाली आमदनी ललचा रही है। बड़े खुदरा घराने की बात जाने दें तो अब तक यूरोप के किसान अपना बोरिया-बिस्तर गोल कर गए होते। इसके विपरीत भारत में बाजारों का वजूद किसानों और उनके उत्पादों की वजह से है, उन्हें दी जाने वाली सब्सिडी के चलते नहीं। इसी संदर्भ में कहा जा सकता है कि हम अमेरिका से एक विफल मॉडल का आयात कर रहे हैं। जहां तक खेती से होने वाली आय की बात है तो 1950 तक अमेरिकी किसान खाद्यान्न पर होने वाले प्रति डॉलर खर्च का 70 फीसद प्राप्त करता था। 2005 तक यह घट कर तीन-चार प्रतिशत से ज्यादा नहीं रह गया। अगर बिचौलिये हट जाते, जैसा कि सुपर बाजारों के लाने में फायदे के बतौर दावा किया जा रहा है, तो किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। फिर क्यों उनकी आमदनी घट रही है? इसलिए कि बिचौलियों की नई प्रजाति ने गिद्ध की तरह उन पर झपट्टा मार दिया है। यही वजह है कि अमेरिका और यूरोपीय समुदाय के देशों को अपने किसानों को जिंदा रखने के लिए सहायता देनी पड़ रही है। यह सभी को मालूम कहावत है कि बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। बिल्कुल इसी कहावत की तरह सुपर बाजार व्यवहार करते हैं। वे छोटे बिचौलिये की तादाद को हटा देते हैं। धोती-कुर्ता वाले अढ़ातिये की जगह सूट-बूटधारी बिचौलिये को ला खड़ा करते हैं। इसलिए यह भ्रम ही है कि सुपर बाजार व्यवसाय से बिचौलिये को एकदम से साफ कर देते हैं। वास्तविकता यह है कि बड़े घराने उनके साथ अपने मुनाफे में उन्हें साझीदार बनाते हैं। परम्परागत बिचौलिये की जगह लेने वाले नये समूह गुणवत्ता नियंत्रक (क्वालिटी कंट्रोलर), प्रमाणक एजेंसी, पैकेजिंग इंडस्ट्रीज, प्रोसेसर्स, थोकविक्रेता आदि के रूप में हो सकते हैं। क्या सुपर बाजार गरीबी हटाने में मदद करते हैं? परामर्श देने वाली कुछ संस्थाओं के गुमराह करने वाले अध्ययनों के आधार पर सरकार को भरोसा है कि सुपरबाजार रोजगार का सृजन करेंगे और इस तरह वह गरीबी हटाने में मददगार होंगे। यह भी दोषपूर्ण अनुमान है। अमेरिका के पेन्सिलवेनिया के विविद्यालय में कृषि आर्थिक और ग्रामीण समाजशास्त्र विभाग के स्टीफन जे गोत्ज और हेमा स्वामीनाथन द्वारा 2004 में किये गए अध्ययन के सबक को याद करने की जरूरत है। लेखक द्वय ने अमेरिका के विभिन्न प्रांतों में व्यापक पैमाने पर वॉल मॉर्ट के दखल से बढ़ने वाली गरीबी का अध्ययन किया है। वॉल-मॉर्ट और गरीबी
शीषर्क से किया गया समग्र अध्ययन आंखें खोल देने वाला है। यह दिखाता है कि 1987 में उन राज्यों के मुकाबले गरीबी वहां-वहां तेज गति से बढ़ी जहां वॉल-मार्ट के केंद्र ज्यादा खुले थे। रिपोर्ट का निष्कर्ष है, ‘इसी तरह, 1987 से 1998 की अवधि में अमेरिका के जिन जिलों में वॉल-मॉर्ट की यूनिटें खुलीं, वहां भी गरीबी बढ़ने की दर ज्यादा रही।यह तथ्य भी दिलचस्प है कि वॉल-मॉर्ट के अभियान के बाद गरीबी ऐसे समय बढ़ी जब अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी की दर में गिरावट दर्ज की गई थी। इस पाखंडपूर्ण दावे की भी कलई खुल गई है कि सुपर बाजार हजारों रोजगारों का सृजन करके आर्थिक सम्वृद्धि दिलाने वाला एक अहम कारक है। ब्रिटेन में टेस्को और सैन्सबरी सुपर बाजारों की श्रृंखला हजारों लोगों को रोजगार देकर आर्थिक सम्वृद्धि बढ़ाने में विफल हो गई है। विगत दो सालों में टेस्को ने 11000 और सैन्सबरी ने 13000 लोगों को रोजगार देने का वादा किया हुआ था। इसके बजाए टेस्को ने मात्र 726 लोगों को रोजगार दे सका जबकि सैन्सबरी ने अपने मौजूदा कर्मचारियों में से 1600 को हटा दिया जबकि 874 लोगों को बेरोजगार छोड़ दिया। ऐसे हालात में हम यह कैसे उम्मीद पाल सकते हैं कि टेस्को/सैन्सबरी भारत में रोजगार के अतिरिक्त अवसर मुहैया करेगा जबकि वे अपने घरों में ही अपने वादे निभाने में विफल रह गए हों? दरअसल, बड़े खुदरा घराने अतिरिक्त रोजगार के अवसर नहीं गढ़ते बल्कि वे मौजूदा अवसरों को भी खत्म कर देते हैं। यहां रखा गया तुलनात्मक अध्ययन के नतीजे हमारी आंखों पर पट्टी हटा देगा। भारतीय खुदरा बाजार 400 बिलियन डॉलर का है, जिसमें 1.20 करोड़ से ज्यादा खुदरा व्यापारी हैं और जिसके व्यवसाय से चार करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इसके विपरीत, वॉल-मार्ट जिसका सकल व्यापार 400 बिलियन डॉलर का ही है, उसमें मात्र 2.1 मिलियन (20 लाख से कुछ ज्यादा) लोगों को ही रोजगार मिला है। अब घरेलू या विदेशी बड़े खुदरा घरानों में से कौन ज्यादा रोजगार दिला सकता है, यह एकदम साफ है। अब अगर कोई समझता है कि वॉल-मॉर्ट भारत में रोजगार मुहैया करा सकता है तो उसे मूखरे के स्वर्ग में रहना ही कहा जाएगा। यह सरल बात है, वह मुनाफा कमाने के लिए भारत में निवेश करने आ रहे हैं। मैं नहीं समझता कि देश के अर्थशास्त्री, नीति-निर्माता और मंत्री यह सोच सकते हैं कि बड़े खुदरा व्यापारी उनके लोगों को रोजगार देंगे जबकि पूरे वि के प्रमाण हैं कि इन्होंने पहले से काम कर रहे लाखों लोगों की रोजी-रोटी ही छीनी है। तो इस तरह गलत आंकड़े और तथ्य के पेश करके हम अपने देशवासियों के साथ छल नहीं कर रहे? बड़े घरानों को न्योतने से करोड़ों हॉकरों, छोटे व्यवसायियों और किसानों की आजीविका संकट में पड़ गई है। आम आदमी के लिए काम करने का दावा करने वाली कोई संवेदनशील सरकार प्रत्यक्ष विदेश निवेश के नाम पर करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी पर व्यापक संकट ला सकती है? क्यों हमारी सरकार अमेरिका और यूरोपीय समुदाय की अर्थव्यवस्थाओं को मंदी से निजात दिलाने और इस प्रक्रिया में भारत को अंधाधुंध मंदी में धकेलने के लिए बेताब है?

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