Friday, December 2, 2011

अपने जाल में फंसी सरकार


संप्रग सरकार एक बड़े संकट का सामना कर रही है। मल्टी ब्रांड रिटेल क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को मंजूरी देने का फैसला सरकार ने गलत समय पर लिया-देश की आर्थिक सच्चाइयों के लिहाज से भी और मौजूदा राजनीतिक स्थिति के लिहाज से भी। इस फैसले के समय पर प्रत्येक राजनीतिक प्रेक्षक को आश्चर्य होगा। सरकार की विश्वसनीयता अपने सबसे निचले स्तर पर है। सरकार का नेतृत्व भ्रष्टाचार और आर्थिक कुप्रबंधन के आरोपों का जवाब दे पाने में असफल रहा है। संसद का एजेंडा पहले ही ऐसे मसलों से भरा पड़ा था जो सरकार के लिए परेशानी का कारण बनते। अत्यंत कठिनाई से सरकार ने मूल्यवृद्धि पर मतदान वाले प्रस्ताव से खुद का बचाव किया और वह काले धन तथा भ्रष्टाचार पर मतदान वाले प्रस्ताव पर चर्चा के लिए सहमत हुई। संसद सत्र के बीच में ही कैबिनेट ने मल्टीब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देने का फैसला कर लिया। इस फैसले के पीछे क्या राजनीतिक बाध्यता थी? पिछले कुछ वर्षो में सरकार ने यह प्रदर्शित किया है कि उसने आर्थिक सुधारों की राह छोड़ दी है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर व्यावसायिक जगत का विश्वास इसी कारण डगमगा रहा है। पिछले तीन वर्षो से मुद्रास्फीति अनियंत्रित रही है। पेट्रोल की कीमतें भी नई ऊंचाई पर पहुंच रही हैं। इसका एक कारण जहां अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ना है वहीं दूसरा कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए जाने वाले ऊंचे कर भी हैं। बुनियादी ढांचे का विकास भी धीमा पड़ चुका है। देश में निवेश का माहौल भी सही नहीं है। राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और जीडीपी विकास दर इस वर्ष घटने के आसार नजर आ रहे हैं। कुछ न कर पाने के कारण आलोचना का सामना कर रही सरकार ने अचानक मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति देने का बड़ा फैसला कर लिया। सरकार के इस फैसले ने विपक्षी दलों को भी एकजुट कर दिया है। संप्रग के दो प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस तथा द्रमुक भी इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को देखते हुए सपा और बसपा के पास भी इसके अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं कि वे सरकार के फैसले के खिलाफ खड़ी हों। इस मसले पर संसद में संख्याबल निश्चित रूप से सरकार के साथ नहीं है। सच तो यह है कि सरकार अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई है और उसे बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। अगर वह इस फैसले से पीछे हटती है अर्थात रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश को अनुमति देने का फैसला वापस लिया जाता है तो प्रधानमंत्री की साख चली जाएगी। अगर वह इस मसले पर मतदान की व्यवस्था वाले स्थगन प्रस्ताव के लिए राजी होती है तो उसकी हार सुनिश्चित है। सरकार मतदान में पराजय का जोखिम नहीं उठा सकती इसलिए उसकी पूरी ऊर्जा द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस को मनाने में लगी है ताकि वे उसे इस स्थिति से उबार लें। छोटे खुदरा व्यापारी बंगाल की अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण घटक हैं। व्यापारी परंपरागत रूप से माकपा के विरोधी रहे हैं। अगर तृणमूल कांग्रेस सरकार के समर्थन में खड़ी होती है तो वह व्यापारियों का मत माकपा को उपहार में दे देगी। संसद विपक्षी दलों के कारण ठप नहीं पड़ी है, बल्कि सच यह है कि सरकार खुद ही कोई रास्ता नहीं निकाल पा रही है। अगर इस फैसले पर होने वाले मतदान में सरकार की हार होती है अथवा उसे अपना फैसला वापस लेना पड़ता है तो सरकार को वाकई तकलीफ का सामना करना पड़ेगा। आज संप्रग सरकार एक ऐसी स्थिति में आ फंसी है कि उसे दोनों ही स्थितियों में हार नजर आ रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र ऐसा है कि मल्टी ब्रांड में विदेशी निवेश निश्चित ही अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाएगा। भारत में केवल 18 प्रतिशत श्रम संगठित अवस्था में है। 30 प्रतिशत या तो बेरोजगार हैं या आकस्मिक श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, जबकि 51 प्रतिशत स्व-व्यवसाय में हैं। स्व-रोजगार की श्रेणी में सबसे बड़ा योगदान कृषि का है। चार करोड़ से अधिक भारतीय रिटेल कारोबार में लगे हुए हैं। साफ है कि रिटेल कारोबार अपने देश में रोजगार देने वाले सबसे बड़े क्षेत्रों में से है। संगठित अंतरराष्ट्रीय व्यापार मौजूदा रिटेल सेक्टर में लगे लोगों की आजीविका छीन लेगा। यह कड़वी सच्चाई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी देखी जा रही है। यही कारण है कि अमेरिका सरीखा विकसित देश भी वालमार्ट सरीखी कंपनियों को अपने रिटेल सेक्टर में उतरने की अनुमति नहीं दे रहा है। रिटेल में विदेशी निवेश आने का एक अन्य बड़ा प्रभाव उत्पादन क्षेत्र पर पड़ेगा। हमारे मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में अब तक सुधार नहीं हो सके हैं। हमारी ब्याज दरें बहुत ऊंची हैं, बुनियादी ढांचा खराब हालत में है, बिजली सरीखी जरूरतें महंगी हैं और व्यापार की सुविधाएं भी अस्त-व्यस्त हालत में हैं। जब तक हम क्षेत्र में सुधारों की गाड़ी आगे नहीं बढ़ाते हैं तब तक हम चीन के समान कम लागत वाला उत्पादन नहीं कर सकते हैं। उपभोक्ता वे उत्पाद खरीदेंगे जो सस्ते हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अपने उत्पादों की बिक्री की संभावनाएं अच्छी होंगी। इसका असर हमारे उत्पादन क्षेत्र पर पड़ेगा। यह तर्क भी वास्तविक नहीं प्रतीत होता है कि रिटेल कारोबार में एफडीआइ आने से बिचौलियों की भूमिका खत्म हो जाएगी और खेत से स्टोर तक उत्पादों के पहुंचने में आने वाली लागत भी कम हो जाएगी तथा इसका फायदा भी किसानों को मिलेगा। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि गन्ना किसान अपने उत्पाद खेतों से चीनी मिलों तक स्वयं ही पहुंचाते हैं और इसमें बिचौलियों की कोई भूमिका नहीं होती। यदि सरकार समर्थन मूल्य के रूप में उन्हें उनके उत्पादों के लिए सुरक्षा न दे तो बाजार की शक्तियां उनके शोषण में पीछे नहीं रहतीं। सवाल यह भी है कि यदि सरकार की दलील सही है तो बड़े रिटेल चेन वाले देश अपने किसानों को सब्सिडी क्यों दे रहे हैं? यूरोप और अमेरिका अपने किसानों को भारी सब्सिडी दे रहे हैं। क्यों रिटेल चेन अकेले ही उनका कल्याण नहीं कर पा रहे हैं? रिटेल में एफडीआइ के संदर्भ में यह जो उदाहरण दिया जा रहा है कि चीन को इससे लाभ हुआ है वह भी पूरी तरह सही नहीं है। चीन ने रिटेल में एफडीआइ को अनुमति देने के पहले खुद को सस्ते मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के रूप में स्थापित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय रिटेलरों के लिए चीनी उत्पादों की बिक्री करना जरूरी हो गया। जब राजग केंद्र की सत्ता में था तो हमें भी पश्चिमी शक्तियों की इस मांग का सामना करना पड़ा था कि रिटेल सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए खोला जाए, लेकिन हमने दबाव का सामना किया। इस पर राष्ट्रीय सहमति बनी कि अभी इसके लिए सही समय नहीं आया है। सरकार इस सहमति के खिलाफ चली गई है। उचित यही है कि सरकार अपने कदम पीछे खींचे। (लेखक राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं) 

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