जबसे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी फिच ने भारत की रेटिंग स्थिर से नकारात्मक की है, तबसे पूरे देश में खलबली मच गई है। भारत की रेटिंग घटाने पर सरकार ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह आकलन सही नहीं है। कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में बराबर कमी आ रही है। इस साल मानसून की वर्षा भी अच्छी होने की उम्मीद है। इन कारणों से भारत में विकास दर पहले की तरह ही संतोषजनक हो जाएगी, किंतु सरकार की ये दलीलें महज आंखों में धूल झोंकने के समान हैं। असलियत यह है कि बढ़ती महंगाई और घटते उत्पादन ने देश की जनता और अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ कर रख दी है।इस साल देश का आर्थिक विकास पिछले नौ वषरें में सबसे कम रहा है। 2011-12 की अंतिम तिमाही में विकास दर 5.3 प्रतिशत के निम्नतम स्तर पर पहुंच गई है और मुद्रास्फीति की दर जीडीपी की 5.75 प्रतिशत हो गई है। परिणामस्वरूप विदेशी निवेश तेजी से घट रहा है। विदेशी निवेशक भारत से अपनी पूंजी निकाल रहे हैं और चीन, वियतनाम तथा इंडोनेशिया जैसे देशों में लगा रहे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में अधिक मजबूत है। आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय उद्योगपति भी देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और कमजोर राजनीतिक हालात को देखकर देश के बजाय विदेश में पूंजी निवेश करना अधिक पसंद कर रहे हैं। विश्व में तीन प्रमुख रेटिंग एजेंसियां हैं- स्टेंडर्ड एंड पुअर्स, मूडी तथा फिच। तीनों ने एक स्वर में कहा है कि भारत के आर्थिक और राजनीतिक हालात अत्यंत चिंताजनक है। यहां भ्रष्टाचार चरम पर है। अत: जो विदेशी निवेशक भारत में निवेश करना चाहते हैं वे सोच-समझकर करें। एक कहावत है कि हम स्वयं अपने गुणदोष का सही आकलन नहीं कर सकते हैं। जो बात रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं, पिछले कुछ महीनों से वही ब्रिटेन और अमेरिका के समाचारपत्रों में छपती रही हैं। हमें सुनने में बुरा जरूर लगेगा, परंतु विदेश में आम धारणा है कि भारत में राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव है। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में खींचतान जारी है। संप्रग के सहयोगी दल आए दिन कांग्रेस के आर्थिक और राजनीतिक प्रस्तावों में टांग अड़ा देते हैं, जिस कारण सरकार निष्कि्रय होकर बैठ जाती है। कांग्रेस को डर है कि यदि सहयोगी दल अलग हो गए तो सरकार गिर जाएगी और यदि सहयोगी दलों के रवैये में परिवर्तन नहीं हुआ तो 2014 के लोकसभा चुनाव में संप्रग को गहरा धक्का लग सकता है। प्रबल संभावना है वह सत्ता में न आ सके। इसी कारण कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्रीय सरकार निष्कि्रय होकर बैठ गई है। इस निष्कि्रयता का सीधा प्रभाव देश की जनता पर पड़ रहा है। औद्योगिक उत्पादन की गिरावट से समस्या और बढ़ गई है। इसका सीधा असर रोजगार पर पड़ेगा। मजदूरों की छंटनी होने लगेगी। उनकी क्रय शक्ति में कमी आएगी। यह सीधे-सीधे मंदी को निमंत्रण देना होगा। इसलिए जरूरत है कि समय रहते राजनीतिक और आर्थिक दोनों मोचरें पर चुस्ती बरती जाए। कांग्रेस का हाल में मंथन शिविर हुआ जिसमें सरकार से कहा गया कि वह देश की अर्थव्यवस्था को शीघ्रातिशीघ्र सुधारे। इसके बाद प्रधानमंत्री ने विभिन्न मंत्रालय के मंत्रियों को बुलाकर इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के निर्देश दिए। हम अकसर अपनी तुलना चीन से करते हैं। चीन ने अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को बहुत ही मजबूत कर लिया है जिसके कारण यदि कभी उसकी विकास दर में थोड़ी-बहुत कमी भी आती है तो मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर होने के कारण वह झट से उस सुधार लेता है। भारत का यह दुर्भाग्य है कि केंद्र सरकार की बात कोई सुनता ही नहीं है। देश में सैकड़ों परियोजनाएं वषरें से अटकी पड़ी हैं और उन्हें पूरा करने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। ऐसे में यदि नए इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट लगाए जाएं तो उनसे क्या लाभ होगा? दरअसल, उद्योगपति वहीं पूंजी निवेश करता है जहां उसे लाभ की संभावनाएं दिखाई देती हैं। देश के प्रमुख उद्योगपतियों का मानना है कि भारत की सरकार बिना पतवार वाली नाव है। अत: इसकी बातों पर भरोसा करके पूंजी निवेश कैसे किया जा सकता है? यह भी बार-बार कहा जा रहा है कि सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति को लकवा मार गया है जिसके कारण विकास दर गिर रही है। अभी बहुत देर नहीं हुई है। जरूरत इस सुस्ती से बाहर निकलने की है, तभी औद्योगिक विकास का वातावरण तैयार किया जा सकता है। हमारे देश में बड़ी तेजी से बेरोजगार युवकों की संख्या बढ़ रही है। यदि अर्थव्यवस्था में इसी तरह सुस्ती रही और देश मंदी की चपेट में आ गया तो इसके भयावह परिणाम होंगे। बेरोजगार नवयुवक धीरे-धीरे नक्सलपंथियों और माओवादियों के कैंपों में जाने लगेंगे। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व तो लकवाग्रस्त हो ही गया है, दूसरे सबसे बड़े राष्ट्रीय दल भाजपा की भी हालत कोई अच्छी नहीं है। भाजपा में जमकर गुटबाजी चल रही है और बड़े नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एकदूसरे की कटु आलोचना करने से झिझकते नहीं हैं। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व बढ़ेगा और यदि उनका वर्चस्व बढ़ा तो राष्ट्रीय हितों को कौन देखेगा? कुल मिलाकर स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। यदि सरकार ने राजनीतिक और आर्थिक मोचरें पर महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाए तो देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा सकती है। अभी भी समय है हम दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ें और सरकार को बाध्य करें कि वह अपने रवैये में मूलभूत परिवर्तन करे। (लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
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