आंकड़े फिर से छलने के लिए आ गए हैं। फिजा को अनुकूल बनाने का हर उपाय आजमाया जा रहा है। जी, हां! पीपीपी यानी पर्चेजिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर भारत दुनिया की शीघ्र ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। इंटरनेशनल मॉनीटरिंग फंड यानी आइएमएपफ का आकलन है कि भारत जापान को पछाड़कर इस साल दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का खिताब खुद हासिल कर सकता है। जापान अभी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: अमेरिका और चीन का कब्जा है। कहने-सुनने में यह अच्छा लगता है। रोमांच भी महसूस होता है, लेकिन सोचने और एहसास करने की बात है कि भारत में एक तरफ जहां इतने बड़े पैमाने पर पर्चेजिंग पॉवर है कि वह जापान जैसे देश को पछाड़ने की कगार पर खड़ा है, वहीं दूसरी ओर विडंबना यह है कि भारत दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब लोगों का निवास स्थान है। भारत में 40 करोड़ से ज्यादा लोग सरकारी पैमाने के हिसाब से ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। क्या उनका जीडीपी से कोई रिश्ता नहीं होना चाहिए? अगर सकल घरेलू उत्पाद का मतलब सिर्फ देश के एक तबके का उत्पाद है यानी सकल घरेलू उत्पाद पर अगर एक तब्के का ही कब्जा है तो फिर इसे देश का सकल घरेलू उत्पाद क्यों कहते हैं? इसे क्यों नहीं ईमानदारी से कुछ भारतीयों का घरेलू उत्पाद कहते हैं। लोकतंत्र के कुछ पाखंड बहुत भयावह होते हैं। लोकतंत्र मर्यादा और लिहाज के नाम पर गेहूं के साथ घुन के पीस जाने को ज्यादती नहीं, मूल्य बताता है। यह खतरनाक है। बहरहाल, जो आइएमएफ का आकलन है, वह 2010 के आंकड़ों के आधार पर है, जिनके मुताबिक पिछले साल जापान की अर्थव्यवस्था 4.31 लाख करोड़ डॉलर की थी, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था इसी दौरान 4.06 लाख करोड़ की थी। अब चूंकि इसी साल मार्च में जापान पर जबरदस्त सूनामी की मार पड़ी है, इसलिए विशेषज्ञों का आकलन है कि मोर्चे से अब जापान लगभग बाहर हो चुका है और नहीं हुआ तो हो जाएगा। दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के मुताबिक 2012 में भारतीय अर्थव्यवस्था के 7-8 फीसदी की दर से विकास की उम्मीद है। जब पूरे यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं औसतन 2.5 की विकासदर से भी कुछ नीचे हों और अमेरिका एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ हो, जहां हर पल विकास के ठप होने की तलवार लटक रही हो, वहां भारत की अर्थव्यवस्था की यह गतिशीलता रोमांचित तो करती ही है, भारतीय होने के नाते गर्व भी दिलाती है। लेकिन सवाल है कि एक तरफ जहां भारतीय अर्थव्यवस्था आसमान चूमने की ओर बढ़ रही है, ठीक उसी समय बड़ी तादाद में गरीब भारतीय पाताल की तरफ क्यों धंसे जा रहे हैं? यह विचित्र विरोधभास है कि दुनिया एक पैमाने पर तो हमें अमेरिका, जापान और चीन के बराबर खड़ा करती है तो दूसरी तरफ हमारा शुमार अंगोला, हैती जैसे देशों में होता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है? इसका साफ मतलब है कि भारत में लोकतंत्र का भले नाम हो, लेकिन यहां भी विकास एक खास तबका का ही हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पूर्वानुमानों में भारत को चमकते सूरज के देश की संज्ञा दी गई है और उगते सूरज के देश पर हमारा वर्चस्व होगा, इसका अनुमान व्यक्त किया गया है। लेकिन यह अनुमान इस हकीकत पर नजर क्यों नहीं घुमाता कि चमकते सूरज के देश में एक बहुत बड़ी आबादी अंधकार के कुंए में क्यों धंसी जा रही है? क्या उसे रोशनी पसंद नहीं? क्या उसे चमकने में कोई रुचि नहीं? नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल, लोकतंत्र की ढाल ने मलाईदार तबके को यह सहूलियत और विशिष्टता दे दी है कि दूसरों के लिए मलाई में हिस्सेदारी का कोई विधान ही नहीं बन रहा। हम इसीलिए हंसी का पात्र भी बन रहे हैं कि एक तरफ तो हमसे दुनिया के बड़े से बड़े देश डर रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था का आकार उनमें दहशत भर रहा है। दूसरी तरफ हमारी यह भारी-भरकम अर्थव्यवस्था अपने ही कुछ लोगों को बिल्कुल अनदेखा कर रही है। सिर्फ अनदेखा ही नहीं कर रही, बल्कि मौका पड़ने पर उनके ऊपर गिरकर अपने वजन से उनकी जान भी लेने पर उतारू है। समझ में नहीं आ रहा है कि जीडीपी के बढ़ने पर खुश हों या महंगाई के बढ़ने पर मातम मनाएं? भारत भले दुनिया के चुनिंदा देशों में अपनी हैसियत दर्शाने के लायक हो गया हो, लेकिन जब तक देश के बहुसंख्यक लोग इस स्थिति में नहीं पहंुच जाएंगे कि उन्हें भी फील गुड का एहसास हो, तब तक यह बिल्कुल बेकार की उपलब्धि होगी। जब तक जीडीपी का मतलब देश नहीं होगा, तब तक भारत की इस कामयाबी से सारे भारतीयों का दिल भी नहीं धड़केगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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