देश के जिस नए पेंशन स्कीम (एनपीएस) को बचत क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए था वह मृतप्राय बना हुआ है। कम से कम अभी तो यही स्थिति है। यह मैं नहीं बल्कि सरकार द्वारा गठित वह समिति कह रही है जिसे एनपीएस की मौजूदा स्थिति के मूल्यांकन के लिए गठित किया गया है। औपचारिक क्षेत्र पेंशन क्रियान्वयन समीक्षा समिति (एनपीएस सुधारों पर वाजपेयी समिति) की सिफारिशें पेंशन नियामक पीएफआरडीए की वेबसाइट पर जारी की गई हैं। एनपीएस में सुधार के लिए दिए सुझावों की इस रिपोर्ट में जिस बात ने लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया है वह है एनपीएस बेचने वालों को 0.5 प्रतिशत कमीशन देने की अनुशंसा। यह एनपीएस की मूल संरचना में एक बड़ा भारी बदलाव करने वाली अनुशंसा है लेकिन यह रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि एनपीएस की मौजूदा संरचना में सभी चीजें त्रुटिपूर्ण हैं। इसकी खामियों के चलते ही कोई इसे खरीदना नहीं चाहता और न ही कोई इसे बेचने की कोशिश करता है। एनपीएस में फिलहाल जो भी पैसा आ रहा है वह इस योजना में शामिल हुए सरकारी कर्मचारियों का है। हाल ही में पता चला है कि अपनी पसंद से एनपीएस का विकल्प चुनने वाले लोगों ने अब तक केवल 100 करोड़ रुपये ही निवेश किए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह राशि भी दो कॉरपोरेट समूहों द्वारा इस योजना को अपनाए जाने के कारण जमा हुआ है। अंतिम उपभोक्ता की इस योजना में हिस्सेदारी शून्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो नई पेंशन योजना पूरी तरह से असफल है। एनपीएस की मौजूदा स्थिति का एक पक्ष यह है कि इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं हुई। सरकारी कर्मचारियों को इस योजना में हिस्सेदारी निभाने के लिए जोड़ने में केद्र और राज्य सरकारों की असफलता का यह परिणाम है। इसमें प्रस्ताव किया गया था कि एनपीएस योजना में शामिल प्रत्येक सरकारी कर्मचारी का अपना एक अकाउंट होगा। वह इसे बढ़ते हुए देख सकेंगे और इसकी निगरानी कर सकेंगे। वर्ष 2004 में शुरू हुए इस निवेश विकल्प (हिस्सेदारी आवंटन के साथ) को निर्धारित आय विकल्पों की तुलना में कहीं ज्यादा रिटर्न देना था। सबसे खास बात यह कि अपने भविष्य के लिए एनपीएस में पैसा लगाने वाले 12 लाख सरकारी कर्मचारी इसके लिए उदाहरण बनने वाले थे जो अपने पैसे में वृद्धि के निजी अनुभव दूसरों को बता सकें। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एनपीएस का मूल क्रियान्वयन पूरी तरह से असफल रहा। वर्ष 2004 के बाद से इसमें पैसे का निवेश ही नहीं हुआ। सरकारी कर्मचारियों के पास एनपीएस के तहत सीआरए (सेंट्रल रिकॉर्ड कीपिंग एजेंसी) का खाता नहीं है। उन्हें इस बात की सीधी सूचना भी नहीं मिलती है कि उनके नाम पर किस तरह से निवेश किया गया और इसका रखरखाव किस तरह से किया जा रहा है। उन्हें नहीं पता कि उन्होंने कितना पैसा जुटाया और कौन सा फंड मैनेजर अच्छा काम कर रहा है और कौन खराब। गड़बड़ी का सिलसिला यहीं नहीं थमा। वाजपेयी समिति ने खुलासा किया है कि वह इस बात का पता लगाने में भी अक्षम रही है कि कुल कितने कर्मचारी एनपीएस में शामिल हुए हैं। साथ ही उसे यह भी पता नहीं चल पाया कि वर्ष 2004 में सरकारी नौकरी हासिल करने वाले सभी लोग एनपीएस योजना का हिस्सा हैं या नहीं। या फिर उनकी पेंशन राशि किस अन्य विकल्प में निवेश की जा रही है। रिपोर्ट में लिखा गया यह बयान अचंभित करने वाला है। इसमें कहा गया है कि इस बात के कोई ठोस दस्तावेज मौजूद नहीं हैं (पीआरएएन रजिस्टर के आधार पर) कि एक जनवरी, 2004 के बाद सरकारी नौकरी शुरू करने वाले सभी लोग एनपीएस योजना में शामिल हैं या नहीं। हालांकि कुल निवेशकों की संख्या और नौकरी पर रखे गए लोगों की कुल संख्या के बीच का अंतर इसमें जरूर मौजूद है। जिन निवेशकों की हिस्सेदारी अब तक एनपीएस में रही है उनकी मामूली संख्या को लेकर भी संतुष्टि का भाव है। यह स्पष्ट है कि एनपीएस की मौजूदा संरचना को लेकर कुछ ज्वलंत मुद्दे हैं जिसे समिति की अनुशंसाओं में उठाया गया है। इस बात को स्पष्ट तरीके से स्वीकार किया गया है कि वित्तीय उत्पादों को सक्रिय तरीके से ही बेचा जा सकता है और बैंक वही चीजें बेचते हैं जिससे उन्हें लाभ हो। समिति की इस निर्णय की उपेक्षा करना कठिन है कि महत्वपूर्ण बचत विकल्प के रूप में एनपीएस पूरी तरह से असफल हो गया जिसे जल्द से जल्द सुधारा जाना चाहिए।
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