Tuesday, August 2, 2011

खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के खतरे



भारत सरकार के सचिवों के समूह ने कुछ शर्तों के साथ देश में विदेशी कंपनियों को खुदरा व्यापार करने की अनुमति देने की सिफारिश कर दी है। समूह ने इन कंपनियों को ५१ प्रतिशत तक पूंजी निवेश का अधिकार देने की बात भी कही है। महंगाई नियंत्रण के उपाय सुझाने वाली समिति की भी यही राय है। इसके पहले सरकार ने इस मुद्दे पर व्यापक बहस के लिए एक पर्चा भी प्रकाशित-प्रचारित किया था, जिसमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के प्रवेश की जोरदार वकालत की गई थी। इस मामले में कुछ संस्थाएं पहले से ही काफी सक्रिय रही हैं और अपने तथाकथित शोधपत्रों के माध्यम से इस आशय की लॉबिंग करती रही हैं।

यूपीए-1 के कार्यकाल में ही भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री ने अपने अमेरिकी दौरे में वहां की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह आश्वासन दे दिया था कि उन्हें जल्द ही भारत में खुदरा व्यापार की अनुमति मिल जाएगी। दसवीं पंचवर्षीय योजना की मध्यावधि समीक्षा के पहले अध्याय के बावनवें पैराग्राफ में कहा गया था कि आधुनिक खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को प्रवेश देने का पक्ष बहुत मजबूत है। ऐसा होने से खुदरा विक्रेता और ऐसी वस्तुओं के आपूर्तिकर्ता दोनों लाभान्वित होंगे। यहीं नहीं इससे उपभोक्ताओं को विश्वस्तरीय सामान उपलब्ध हो सकेगा। इससे विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को तमाम वस्तुओं की आपूर्ति करने वाली भारतीय कंपनियां आगे चलकर विदेशों में भी अपना उत्पाद निर्यात कर सकेंगी। इसका एक सकारात्मक असर यह भी होगा कि इन उद्योगों में रोजगार की संख्या में बढ़ोतरी होगी।

इस संदर्भ में योजना आयोग की एक टिप्पणी खासी दिलचस्प है। उसने कहा है कि विदेशी पूंजी के आगमन से देशी खुदरा व्यापारियों को धक्का लगने की बात बेमानी हो चुकी है, क्योंकि भारत की बड़ी कंपनियों के रिटेल स्टोर और मॉल कल्चर ने यह काम पहले ही कर दिया है। इसका आशय तो यह है कि जब आठ-दस करोड़ की पूंजी वाली देशी कंपनियां खुदरा व्यापारियों को चोट पहुंचा रही हैं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इस काम से क्यों वंचित रखा जाए।

जाहिर है कि सरकार आम लोगों के दैनंदिन जीवन से जुड़े व्यापार को भी परंपरागत खुदरा व्यापारियों के भरोसे नहीं छोडऩा चाहती। यह विडंबनापूर्ण स्थिति है। आज तक के किसी भी सरकारी दस्तावेज या अध्ययन में सदियों से चली आ रही खुदरा दुकानदारी को देश की आर्थिक-सामाजिक सेहत के लिए खतरा नहीं बताया गया है।

यह असंगठित क्षेत्र में रोजगारविहीन लोगों का स्वनिर्मित रोजगार का साधन है। देश में होने वाली कुल खुदरा खरीदारी का बड़ा भाग १२-१५ करोड़ लोगों तक ही सिमटा हुआ है। वे ही खुदरा व्यापारियों की रोजी-रोटी के मुख्य साधन हैं। इस तरह की अधिकांश बिक्री छोटे-मोटे दुकानों, पटरी या फुटपाथ पर या साप्ताहिक बाजारों में होती है। जब ऐसे खरीदार भी विदेशी स्टोरों की तरफ आकर्षित होने लगेंगे तो इन फुटकर दुकानदारों की क्या हालत होगी, सहज ही समझा जा सकता है। जाहिर है वे रोजी-रोटी को मोहताज हो जाएंगे। यह कहना कि वे अपनी दुकानदारी बंद नहीं करेंगे, अर्थहीन है क्योंकि हमारे यहां वैकल्पिक आजीविका स्रोतों का भयंकर अकाल है। ज्यादातर दुकानदार बेरोजगारी के कारण ही इस तरह के धंधे में लगे हुए हैं। उन्हें धक्का लगने पर स्थिति विस्फोटक स्तर पर पहुंच जाएगी। रोजगारविहीनता का असली अर्थ है आजीविका के स्रोतों का अपर्याप्त एवं अनिश्चित होना एवं काम करने के कष्टकर हालात। जब बड़ी पूंजी का इस क्षेत्र में प्रवेश होगा तो ऐसे दुकानदारों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। यह ऐसी विषम स्थिति होगी, जिसमें वे अपना धंधा कर भी नहीं पाएंगे और छोड़ भी नहीं पाएंगे।

यही नहीं, बहुराष्ट्रीय रिटेल स्टोरों में खपत होने वाली बिजली हमारे ऊर्जा संकट को और ज्यादा बढ़ाएगी। ये स्टोर अपना माल बड़े उद्योगों से खरीदेंगे और ऐसा करके वे देश के लघु व मझोले उद्योगों को भी क्षति पहुंचाएंगे। बहुत सी उपभोक्ता वस्तुओं का वे आयात करेंगे। किसानों से एकमुश्त बड़ी मात्रा में माल खरीदकर, वायदा बाजार में सौदे करके, जमाखोरी के द्वारा कृत्रिम अभाव पैदा करके वे महंगाई को और बढ़ा देंगे। यह कहना गलत है कि वे बिचौलियों की भूमिका घटाकर लागत कम कर देंगे और आधुनिक गोदामों का निर्माण कर फलों और सब्जियों की बर्बादी रोकेंगे। इनका इंफ्रास्ट्रक्चर, कर्मचारियों और विज्ञापनों पर खर्च काफी ज्यादा होगा और सरकार की शर्त मानकर अगर ये सप्लाई चेन में निवेश करते हैं तो इनकी लागत काफी बढ़ जाएगी। ऐसी स्थिति में इनसे उपभोक्ताओं को भी खास लाभ नहीं होगा। इनसे कम मुनाफे पर सस्ता माल बेचने की उम्मीद सरकार को भी नहीं होगी, लेकिन बाहरी पूंजी के प्रति भक्तिभाव के चलते वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रवेश की अनुमति देना चाहती है। 





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