सामयिक वैिक मंदी के बढ़ते हुए निराशाजनक दौर में यद्यपि डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने से निर्यातकों को कुछ राहत है, लेकिन उनकी दूसरी कठिनाइयां यथावत हैं। ऐसे में भारत को मंदी की चुनौतियों के बीच नए निर्यात बाजार खोजने होंगे। ब्रिक्स और आसियान देशों में निर्यात बढ़ाने के नए प्रयास करने होंगे। चीन में भी भारतीय निर्यात की नई संभावनाएं खोजनी होंगी
इस समय जैसे-जैसे पूरी दुनिया एक बार फिर से वैिक मंदी की ओर तेजी से आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे वैिक व्यापार कम हो रहा है और दुनिया में निर्यात संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसे में भारत के निर्यात भी घटते हुए दिखाई दे रहे हैं। वस्तुत: वैिक व्यापार और निर्यात घटने के पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों का कर्ज संकट सबसे प्रमुख कारण है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में दोहरी मंदी, (डबल डिप रिसेशन) का संकट खड़ा हो गया है। नवीनतम सव्रेक्षण बता रहे हैं कि अमेरिका में लोग वर्तमान परिदृश्य से निराश और चिंतित हैं। मिशिगन विविद्यालय के उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक की गिरावट अगस्त 2011 के अंत में 30 वर्षो के न्यूनतम स्तर पर आ गई है। यह स्तर नवम्बर 2008 की पिछली मंदी के स्तर से भी कम है। स्थिति यह है कि अमेरिका की दोहरी मंदी को दूसरे वि युद्ध के समय शुरू हुई मंदी से भी घातक माना जा रहा है। यह उल्लेखनीय है कि अमेरिका और यूरो जोन के कर्ज संकट और विकसित अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय अस्थिरता से विकासशील देशों में भी पूंजी के प्रवाह और निर्यातों पर स्पष्ट असर पड़ा है। वर्ष 2008 में जहां दुनिया मंदी के संकट से निपटने के लिए बेहतर स्थिति में थी और उसने इसकी प्रतिक्रिया में कठिनाई से निपटने के लिए बेहतर तालमेल और समन्वय भी दिखाया था वहीं अब वर्ष 2011 में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। फिलहाल अमेरिका और कई यूरोपीय देशों की सरकारें सरकारी निष्क्रियता, भारी महंगाई और राजकोषीय दबाव का सामना कर रही हैं। स्थिति यह है कि अटलांटिक पार की अर्थव्यवस्थाओं में मंदी और ऋण संकट की दोहरी चुनौती और विकसित देशों की सरकारों द्वारा कदम न उठाए जाने के चलते वैिक अर्थव्यवस्था के समक्ष विदेश व्यापार और निर्यातों में कमी का खतरा उत्पन्न हो गया है। हालांकि भारत अपनी कृषि अर्थव्यवस्था, लोगों की बचत और मजबूत बैंकिंग व्यवस्था के कारण दोहरी मंदी और निर्यात संकट से कम प्रभावित हो रहा है। लेकिन अमेरिका भारत का सबसे बड़ा उद्योग- व्यापार सहभागी है, इसलिए भारत पर कमोबेश प्रभाव होना स्वाभाविक है। देश में गहराते आर्थिक संकट के बीच गैर आईटी क्षेत्रों में नौकरियां घटी हैं। टेलीकॉम, वित्तीय सेवाओं, निर्माण और ऑटो क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों में होने वाली भर्तियों में कमी दर्ज की गई है। गौरतलब है कि भारत के आईटी व्यापार का 60 प्रतिशत निर्यात अमेरिका से संबंधित है जबकि कुल निर्यात का लगभग 35 प्रतिशत अमेरिका और यूरोप के बाजार में पहुंचता है। मंदी के कारण इन देशों में भारतीय निर्यात के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं, उनमें जेम एंड ज्वैलरी, लेदर, टेक्सटाइल, आईटी, फार्मा और कुछ अन्य सेवा क्षेत्र शामिल हैं। दरअसल, अमेरिका और यूरोप में खचरे में कटौती की जो प्रक्रिया चल रही है, उससे भारतीय निर्यातकों को मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों में वित्तीय अस्थिरता और कच्चे माल व लागत में भारी बढ़ोतरी के कारण भारतीय चमड़ा निर्यात की वृद्धि दर कमजोर पड़ रही है। लघु और मझोले उद्योगों की बहुलता वाले चमड़ा उत्पादन क्षेत्र में लागत बढ़ने से इकाइयों का मार्जिन 50 फीसद घट गया है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि चमड़ा निर्यात बढ़ाने के लिए तथा इससे संबंधित उत्पादों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सरकार कच्चे माल के आयात पर शुल्क और उससे जुड़े करों को घटाने, प्राकृतिक रबड़ के आयात पर शुल्क कम करने की दिशा में पहल करे। वैिक मंदी के बढ़ते हुए निराशाजनक दौर में यद्यपि डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने से निर्यातकों को कुछ राहत है, लेकिन उनकी दूसरी निर्यात कठिनाइयां यथावत हैं। ऐसे में भारत को मंदी की चुनौतियों के बीच नए निर्यात बाजार खोजने होंगे। ब्रिक्स और आसियान देशों में निर्यात बढ़ाने के नए प्रयास करने होंगे। चीन में भी भारतीय निर्यात की नई संभावनाएं खोजनी होंगी। माना जा रहा है कि भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) लागू होने के बाद भारतीय उद्योगों के लिए असीम अवसर पैदा हुए हैं, लेकिन आसियान देशों से होने वाले आयात पर शुल्क में कमी से भारतीय उद्योगों को कुछ नुकसान भी उठाना पड़ा है। आसियान समझौता जनवरी 2010 में लागू हुआ था। भारत- आसियान एफटीए का भारतीय उद्योगों पर प्रभाव के मामले में फिक्की द्वारा कराए गए नवीनतम अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है कि भारत आसियान देशों में निर्यात और बढ़ा सकता है। इसी तरह खाड़ी देशों में चीन के साथ भारत की भी समान निर्यात संभावनाएं उभरकर सामने आ रही हैं। निश्चित रूप से वर्ष 2020 तक चीन खाड़ी देशों का सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार होगा लेकिन इस दौरान इन देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध भी सही दिशा में प्रगति करेंगे और भारत से निर्यात संभावनाएं भी बढ़ेंगी। लेकिन भारत की निर्यात वृद्धि जिन कुछ खास खतरों से जूझ रही है इन खतरों से सही तरीके से निपटा गया तो ही खाड़ी देशों के साथ व्यापार और निवेश बढ़ेंगे। हमारे लिए बुनियादी ढांचे के विकास और अनुकूल कारोबारी माहौल पर ध्यान देना जरूरी है। चूंकि हमारा विदेश व्यापार असंतुलन तेजी से बढ़ता जा रहा है, इसलिए एक ओर मंदी की चुनौतियों के बावजूद निर्यात बढ़ाने होंगे, वहीं दूसरी ओर आयात को नियंत्रित करने की रणनीति भी बनानी होगी। हमें देश के निर्यात को दूसरे देशों में दी जा रही सुविधाओं के दृष्टिगत प्रोत्साहित करना होगा। भारतीय निर्यात को वि बाजार में चीन से मिल रही निर्यात चुनौतियों का भी सामना करना है। फिलहाल जहां वि निर्यात में भारत का हिस्सा महज एक फीसद है, वहीं चीन का हिस्सा दस फीसद है। इस समय निर्यात में जबरदस्त इजाफे के बाद 1.20 लाख करोड़ डॉलर का निर्यात रिकार्ड बनाते हुए चीन जर्मनी से आगे निकलकर दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। जिन देशों के साथ भारत के एफटीए हुए है, उनमें से अधिकांश देशों के साथ चीन के भी एफटीए हैं। लिहाजा, चीन के साथ भारत की प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गई है। स्थिति यह बनी है कि भारत को एफटीए वाले देशों के बाजारों में ताकतवर खिलाड़ी चीन से आमने-सामने का मुकाबला करना पड़ रहा है। ऐसे में भारतीय निर्यात को वैिक प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने के लिए निर्यात लागत घटानी होगी। निर्यातकों को वर्तमान से दो फीसदी कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराए जाने चाहिए। वस्तुत: हमारे देश में निर्यात ऋण पर ब्याज दर चीन सहित दुनिया के अन्य देशों की तुलना में ज्यादा है। देश के औद्योगिक क्षेत्र को सुस्ती के दौर से निकालने के लिए प्रोत्साहन देने होंगे। औद्योगिक एवं व्यापारिक ऋणों पर लगातार ब्याज दर बढ़ाए जाने संबंधी मौद्रिक कदमों को रोकना होगा। इन सबके साथ-साथ देश की नई पीढ़ी को प्रतिभा और कौशल उन्नयन से सुसज्जित करके निर्यात की डगर पर आगे बढ़ना होगा।
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