अर्थशास्त्र विषय में नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले सबसे ज्यादा विद्वान अमेरिका में ही हैं, पर वहां का हाल सबके सामने है। स्थिति संभाले नहीं संभल रही है। दरअसल, वक्त आ गया है कि भारत सरकार साफ-साफ कह दे कि महंगाई को कम करना उसके बस की बात नहीं है। इस कड़वी हकीकत को वैसे भी यह देश पिछले कई सालों से देख रहा है
अब यह गिनना भी निर्थक हो चुका है कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कितनी बार यह वादा कर चुके हैं कि महंगाई कम हो जाएगी। ताजातरीन बयान वित्त मंत्री ने दिया है, जिसके मुताबिक दिसम्बर तक महंगाई की स्थिति में फर्क आने की उम्मीद है। पर उम्मीदों से महंगाई कम होती, तो 2007 में ही कम हो जाती। तब से लगातार उम्मीदें ही व्यक्त की जाती रही हैं कि महंगाई कम होगी। रिजर्व बैंक ने एक के बाद एक लगातार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की दवा देने की कोशिश की। इस उम्मीद में कि तमाम कजरे के ब्याज की बढ़ोतरी से उनकी मांग कम होगी, सो भाव गिरेंगे और महंगाई कम होगी। इस चक्कर में हुआ यह है कि तमाम चीजों की मांग कम हो गयी, जैसे कारों की मांग में कमी आयी, क्योंकि ब्याज दर बढ़ने से किश्तें महंगी हो गयी। कार बाजार में अब मांग लगातार कम हो रही है। पर टमाटर के भाव कम होने के नाम नहीं ले रहे हैं। जहां भाव कम होने चाहिए थे, वहां भाव कम नहीं हो रहे हैं। और इस पर दावा यह कि सरकार को चलाने वाले लोग जबरदस्त किस्म के अर्थशास्त्री हैं। अर्थशास्त्र से ही अर्थव्यवस्था चलती होती, तो अमेरिका का यह हाल नहीं होता। अर्थशास्त्र विषय में नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले सबसे ज्यादा विद्वान अमेरिका में ही हैं, पर वहां का हाल सबके सामने है। स्थिति संभाले नहीं संभल रही है। दरअसल, वक्त आ गया है कि भारत सरकार साफ-साफ कह दे कि महंगाई को कम करना उसके बस की बात नहीं है। इस कड़वी हकीकत को वैसे भी यह देश पिछले कई सालों से देख रहा है। एक दौर में बात की जा रही थी कि 2011-12 में विकास दर नौ प्रतिशत रहेगी। फिर यह आंकड़ा आठ फीसद पर आया। अब विकास दर आठ प्रतिशत भी रहेगी या नहीं, कुछ पक्का नहीं है। पक्का यह है कि राजकोषीय घाटा जितना बताया गया था, उससे ज्यादा होगा। उम्मीद की गई थी कि राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद का 4.6 प्रतिशत तक होगा। पर अब स्थिति यह है कि यह घाटा बढ़कर साढ़े पांच फीसद होने का अनुमान लगाया जा रहा है। यह इससे भी ज्यादा हो सकता है। राजकोषीय घाटा कम करने का एक रास्ता यह है कि घर की चांदी बेची जाये। घर की चांदी मतलब है घर की संपत्ति- सरकार चाहती है कि तमाम सरकारी कंपनियों के शेयर बेचे जाएं। कायदे से यह संपत्ति किसी दीर्घकालीन परियोजना में लगनी चाहिए, जिससे विकास की गति तेज होती और देश का भला होता। पर इस संपत्ति का इस्तेमाल भी घाटा कम किये जाने के लिए किया जायेगा, ऐसी संभावना या कहें कि आशंका है। सरकार का लक्ष्य था कि 2011-12 में चालीस हजार करोड़ रु पये सरकारी कंपनियों के शेयर बेचकर उगाहे जाएंगे। पर अभी तक सिर्फ 1,145 करोड़ रु पये ही इस मद से उगाहे गए हैं। शेयर बाजार का जो हाल है, उसे देखते हुए लगता नहीं है कि मार्च, 2012 तक के बचे हुए महीनों में इस लक्ष्य को पूरा कर लिया जाएगा। घाटा कम करना सरकार की चिंता जरूर होनी चाहिए, पर यह अभी सरकार की प्राथमिकता सूची में ऊपर नहीं है। कमजोर शेयर बाजार में औने-पौने दामों पर सरकारी कंपनियों के शेयर बेचना निहायत मूर्खतापूर्ण काम होगा, चाहे यह जितना भी जरूरी क्यों न हो। लेकिन घाटा घटाने की मजबूरी को देखते हुए सरकार यह उपाय भी आजमा सकती है। सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट विसनीयता का है। इस सरकार की विसनीयता पर उसके सहयोगी दल ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। सरकार में शामिल शरद पवार ने हाल में कु छ इसी किस्म का बयान दिया है। मतलब यह है कि ऐसी सूरत जब सरकार की हो, तो कोई बड़ा फैसला लेना उसके लिए संभव नहीं होता। सरकार चलाये रखने, बचाये रखने के मसले सबसे ज्यादा प्राथमिकता के हो जाते हैं। दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर करना किसी की प्राथमिकता में नहीं होता है। इसका एक परिणाम हाल में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया झेल चुका है। स्टेट बैंक की क्रे डिट रेटिंग पहले के मुकाबले कमजोर हुई है। इसका बड़ा कारण यह है कि इस बैंक को पूंजी की जरूरत है। सरकार की तरफ से इसे पूंजी मिलनी चाहिए, या पूंजी जुटाने के वैकिल्पक स्रेतों पर विचार होना चाहिए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूंजी की कमी से जूझ रहे सरकारी बैंकों को कब तक पूंजी मिलेगी, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। बैंकों की क्रे डिट रेटिंग अगर कम हो जाती है, तो उनके लिए संसाधन जुटाना मुश्किल हो जाता है। जब बैंक के लिए संसाधन जुटाना मुश्किल होता है, तो उन्हे मंहगी दर से संसाधन जुटाने होते हैं। इसका असर फिर से बैंकों की स्थिति पर पड़ता है। क्रेडिट रेटिंग कम होने के बाद स्टेट बैंक के लिए पूंजी बाजार से रकम उठाना उतना आसान नहीं है, जितना पहले था। यह एक दुष्चक्र है। पर इस दुष्चक्र से निकालने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्तिकहीं दिखाई नहीं पड़ती। सरकार के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी वित्त मामलों के अलावा सैकड़ों दूसरे मसलों को निपटाते हुए दिखते हैं। सरकार के लगभग हर कामकाज पर उनका बयान दिखता है। पर गहन आर्थिक मसले कैसे निपटेंगे, इसके बारे में थोड़ा बहुत अंदाज तब ही हो पाता है, जब वित्त मंत्री पत्रकारों से मिलते हैं। महंगाई कम होने के आसार इसलिए नहीं हैं क्योंकि कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भावों में कमी होने के बावजूद घरेलू पेट्रोलियम उत्पादों के भाव कम होने के आसार नहीं हैं। इस आशय के संकेत पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने दिये हैं। महंगे होते पेट्रोलियम उत्पादों के बैकग्राउंड में महंगाई कम होने की उम्मीद व्यर्थ है। कु ल मिलाकर संकेत यही हैं कि दिसम्बर में सरकार की तरफ से एक बार फिर आासन आ सकता है कि अगले बजट के बाद उम्मीद है कि महंगाई कम होगी। इस तरह के आासन इतने व्यर्थ हो गए हैं कि कई टीवी चैनल और अखबार तो इन्हें महत्व तक नहीं देते। बढ़ता घाटा, बढ़ती महंगाई के सामने सरकार की गायब इच्छाशक्ति ने और समस्याएं पैदा की हैं। सहयोगी दलों की नाराजगी, हिसार उपचुनाव में हारने के बाद सरकारी मशीनरी में एक डर-सा बैठ गया है। कोई भी मंत्री ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिख रहा है। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जाए, यह हालत आर्थिक मंत्रालयों की हो गई है। ऐसी सूरत में इस सरकार से कु छ विशेष की उम्मीद करना ठीक नहीं है। ठीक यही है कि महंगाई के और बढ़ने का इंतजार किया जाए और इसके बाद कुछ आासन और आ जाएं। आासन इस सरकार के पास इफरात में हैं, वे जितने चाहे लिये जा सकते हैं। अर्थशास्त्र से ही अर्थव्यवस्था चलती होती, तो अमेरिका का यह हाल नहीं होता।
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