Tuesday, July 10, 2012

महंगाई और मुद्रा का मूल्य


रुपये के गिरते मूल्य को लेकर देशवासी चिंतित हैं। पिछले दस वर्षो में रुपये का मूल्य स्थिर रहा। एक डॉलर की कीमत लगभग 45 रुपये थी। सितंबर 2011 से रुपये का मूल्य तेजी से गिरा है। आज यह लगभग 55 रुपये पर आ टिका है। 55 रुपये प्रति डॉलर का अर्थ रुपये का सस्ता होना है-बिल्कुल उसी तरह जैसे पांच किलोग्राम आलू 10 रुपये सस्ता होता है। रुपये के मूल्य में गिरावट का मुख्य कारण महंगाई है। सामान्य रूप से महंगाई और मुद्रा का मूल्य विपरीत दिशा में चलता है, जैसे भारत में पूर्व में तांबे के सिक्के चलते थे। एक पैसे के सिक्के में जो तांबा रहता था उसकी कीमत एक पैसे के बराबर थी। अब एल्म्युनियम के सिक्के चलते हैं। कारण यह है कि महंगाई की दर ज्यादा है। एक पैसे के सिक्के में तांबे की जितनी मात्रा थी उसका दाम बढ़ गया। सिक्के में निहित तांबे का मूल्य चार पैसा हो गया, परंतु सिक्के की सरकारी कीमत एक पैसा ही रही। इसलिए व्यापारियों ने रिजर्व बैंक से तांबे के सिक्के खरीदे, उन्हें गलाया और मिले तांबे को बेचकर भारी लाभ कमाया। यही कारण है कि रिजर्व बैंक ने तांबे के सिक्के बनाना बंद कर दिया और एल्म्युनियम के सिक्के जारी किए। तात्पर्य यह है कि महंगाई बढ़ने के साथ-साथ देश की मुद्रा का दाम गिरता है, जैसे एक पैसे की कीमत तांबे से घटकर एल्म्युनियम के बराबर रह गई। वर्ष 2001 से 2011 के बीच भारत में औसत महंगाई लगभग आठ प्रतिशत रही है। इस अवधि में महंगाई लगभग दोगुनी हो गई। 2001 में जो टी-शर्ट 45 रुपये में मिलती थी अब वह 90 रुपये की मिल रही है। यदि अमेरिकी मुद्रा स्थिर रहती तो आज रुपये का मूल्य 90 रुपये प्रति डॉलर हो गया होता, परंतु अमेरिका में भी तीन प्रतिशत की दर से महंगाई बढ़ी है। इसलिए आज रुपये का मूल्य लगभग 70 रुपये प्रति डॉलर होना उचित है। इसे ऐसे समझिए कि एक गाड़ी की स्पीड आठ प्रतिशत प्रति मिनट की दर से बढ़ रही है और दूसरी की तीन प्रतिशत प्रति मिनट की दर से। ऐसे में दोनों के बीच अंतर पांच प्रतिशत प्रति मिनट की दर से बढ़ेगा। इसी प्रकार अमेरिकी डॉलर के सामने रुपये के मूल्य का पांच प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिरना उचित है। आश्चर्य की बात है कि 2001 से 2011 में रुपये का मूल्य उपर्युक्त फार्मूले के हिसाब से नहीं गिरा था, बल्कि 45 रुपये की दर पर टिका रहा था। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, रुपये का मूल्य केवल महंगाई से नहीं तय होता है। पूंजी के बहाव का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। रुपये का मूल्य विदेशी मुद्रा बाजार में तय होता है। मुद्रा बाजार में सब्जी मंडी की तरह डॉलर की खरीद-फरोख्त होती है। मंडी में आलू की आवक ज्यादा हो जाए तो दाम गिर जाते हैं। इसी प्रकार मुद्रा बाजार में डॉलर की आवक बढ़ जाए तो डॉलर का मूल्य गिरता है और रुपये का चढ़ता है। पिछले दशक में भारत में विदेशी निवेश भारी मात्रा में आया है। इससे डॉलर की आवक बढ़ी है। तदानुसार रुपये का मूल्य चढ़ा है और महंगाई बढ़ने के कारण रुपये के मूल्य में जो गिरावट होनी थी वह नहीं हुई। रुपये का अवमूल्यन रुक गया था। यूं समझें कि एनीमिया के रोग से पीडि़त रोगी को लगातार खून चढ़ाया जाए तो उसके खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा स्थिर बनी रहेगी। इसी प्रकार महंगाई के रोग से पीडि़त भारतीय अर्थव्यवस्था में लगातार विदेशी पूंजी की आवक से रुपये का मूल्य स्थिर बना रहा। अर्थ हुआ कि रुपये के मूल्य में जो गिरावट वर्तमान में दिख रही है वह पूर्व में ही होनी थी, परंतु विदेशी पूंजी की आवक के कारण कृत्रिम रूप से रुकी रही। पिछले दिनों विदेशी पूंजी की आवक मंद पड़ी है अत: पूर्व में हुई यह गिरावट अब उभरकर दिखने लगी है। महंगाई बढ़ने का प्रमुख कारण सरकार की वित्तीय अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार है। सरकारी कर्मचारियों को सरकार भारी वेतन और पेंशन दे रही है, जिससे राजस्व का उपयोग खपत के लिए हो रहा है। इसके अलावा भ्रष्टाचार के कारण खजाने से रिसाव हो रहा है। वैश्विक रेटिंग एजेंसियों ने पिछले अगस्त के बाद लगातार भारत की रेटिंग घटाई है, इस कारण विदेशी निवेशकों ने अपने हाथ खींच लिए हैं। विदेशी पूंजी की आवक ढीली पड़ी है और पूर्व में रुपये के मूल्य में आई गिरावट प्रकट हो गई है। रुपये के मूल्य का निर्धारण करने में महंगाई के अतिरिक्त दूसरे प्रभाव भी काम करते हैं। पहला प्रभाव तकनीकी सुधार का है। पिछले दशक में उद्यमियों ने आधुनिक तकनीकों को अपनाया है। जिस टी-शर्ट को वे 45 रुपये में बना रहे थे आज उसे 30 रुपये में बना रहे हैं। तदानुसार डॉलर के सामने रुपये का मूल्य बढ़ा है। पिछले समय में भारत में तेल की खपत में भारी वृद्धि हुई है। इसका भारी मात्रा में आयात होने से हमें डॉलर भी भारी मात्रा में अर्जित करना पड़ रहा है। उसी अनुपात में निर्यात को बढ़ाना जरूरी हो गया है। निर्यात को बढ़ाने के लिए रुपये का अवमूल्यन जरूरी हो गया है। इसके अलावा भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी कंपनियों को खरीदा जा रहा है। इस कार्य के लिए भारत से पूंजी का प्रवाह विदेश की ओर हो रहा है। सुई 180 डिग्री घूम गई है। पहले विदेशी पूंजी आ रही थी और रुपये का मूल्य चढ़ रहा था। अब पूंजी बाहर जाने लगी है, जिसके कारण रुपये का मूल्य टूट रहा है। वैश्विक आर्थिक संकट गहराने से विदेशी निवेशकों की जोखिम लेने की क्षमता में गिरावट आई है। वे अमेरिकी सुरक्षा को पसंद कर रहे हैं। विश्व पूंजी अमेरिका की तरफ बह रही है। इससे अमेरिकी डॉलर उठ रहा है और भारतीय रुपया टूट रहा है। तकनीकी सुधार को यदि छोड़ दिया जाए तो शेष सभी प्रभाव रुपये के लिए नकारात्मक हैं। इसलिए रुपये के अवमूल्यन के जारी रहने की संभावना है। इस नकारात्मक प्रवृत्ति को रोकने का पहला उपाय भारत सरकार के खजाने से रिसाव को रोकने का है। तब ही महंगाई रुकेगी। दूसरा उपाय सरकारी खर्च की गुणवत्ता में सुधार करना है। तीसरा उपाय तेल की खपत में कटौती करना है। रुपये के मूल्य में वर्तमान में हो रही गिरावट रिटेल में विदेशी निवेश को खोलने जैसे टोटकों से नहीं रुकेगी। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे