Monday, October 24, 2011

नहीं रुकने वाली है महंगाई


अर्थशास्त्र विषय में नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले सबसे ज्यादा विद्वान अमेरिका में ही हैं, पर वहां का हाल सबके सामने है। स्थिति संभाले नहीं संभल रही है। दरअसल, वक्त आ गया है कि भारत सरकार साफ-साफ कह दे कि महंगाई को कम करना उसके बस की बात नहीं है। इस कड़वी हकीकत को वैसे भी यह देश पिछले कई सालों से देख रहा है
अब यह गिनना भी निर्थक हो चुका है कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कितनी बार यह वादा कर चुके हैं कि महंगाई कम हो जाएगी। ताजातरीन बयान वित्त मंत्री ने दिया है, जिसके मुताबिक दिसम्बर तक महंगाई की स्थिति में फर्क आने की उम्मीद है। पर उम्मीदों से महंगाई कम होती, तो 2007 में ही कम हो जाती। तब से लगातार उम्मीदें ही व्यक्त की जाती रही हैं कि महंगाई कम होगी। रिजर्व बैंक ने एक के बाद एक लगातार ब्याज दरों में बढ़ोतरी की दवा देने की कोशिश की। इस उम्मीद में कि तमाम कजरे के ब्याज की बढ़ोतरी से उनकी मांग कम होगी, सो भाव गिरेंगे और महंगाई कम होगी। इस चक्कर में हुआ यह है कि तमाम चीजों की मांग कम हो गयी, जैसे कारों की मांग में कमी आयी, क्योंकि ब्याज दर बढ़ने से किश्तें महंगी हो गयी। कार बाजार में अब मांग लगातार कम हो रही है। पर टमाटर के भाव कम होने के नाम नहीं ले रहे हैं। जहां भाव कम होने चाहिए थे, वहां भाव कम नहीं हो रहे हैं। और इस पर दावा यह कि सरकार को चलाने वाले लोग जबरदस्त किस्म के अर्थशास्त्री हैं। अर्थशास्त्र से ही अर्थव्यवस्था चलती होती, तो अमेरिका का यह हाल नहीं होता। अर्थशास्त्र विषय में नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले सबसे ज्यादा विद्वान अमेरिका में ही हैं, पर वहां का हाल सबके सामने है। स्थिति संभाले नहीं संभल रही है। दरअसल, वक्त आ गया है कि भारत सरकार साफ-साफ कह दे कि महंगाई को कम करना उसके बस की बात नहीं है। इस कड़वी हकीकत को वैसे भी यह देश पिछले कई सालों से देख रहा है। एक दौर में बात की जा रही थी कि 2011-12 में विकास दर नौ प्रतिशत रहेगी। फिर यह आंकड़ा आठ फीसद पर आया। अब विकास दर आठ प्रतिशत भी रहेगी या नहीं, कुछ पक्का नहीं है। पक्का यह है कि राजकोषीय घाटा जितना बताया गया था, उससे ज्यादा होगा। उम्मीद की गई थी कि राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद का 4.6 प्रतिशत तक होगा। पर अब स्थिति यह है कि यह घाटा बढ़कर साढ़े पांच फीसद होने का अनुमान लगाया जा रहा है। यह इससे भी ज्यादा हो सकता है। राजकोषीय घाटा कम करने का एक रास्ता यह है कि घर की चांदी बेची जाये। घर की चांदी मतलब है घर की संपत्ति- सरकार चाहती है कि तमाम सरकारी कंपनियों के शेयर बेचे जाएं। कायदे से यह संपत्ति किसी दीर्घकालीन परियोजना में लगनी चाहिए, जिससे विकास की गति तेज होती और देश का भला होता। पर इस संपत्ति का इस्तेमाल भी घाटा कम किये जाने के लिए किया जायेगा, ऐसी संभावना या कहें कि आशंका है। सरकार का लक्ष्य था कि 2011-12 में चालीस हजार करोड़ रु पये सरकारी कंपनियों के शेयर बेचकर उगाहे जाएंगे। पर अभी तक सिर्फ 1,145 करोड़ रु पये ही इस मद से उगाहे गए हैं। शेयर बाजार का जो हाल है, उसे देखते हुए लगता नहीं है कि मार्च, 2012 तक के बचे हुए महीनों में इस लक्ष्य को पूरा कर लिया जाएगा। घाटा कम करना सरकार की चिंता जरूर होनी चाहिए, पर यह अभी सरकार की प्राथमिकता सूची में ऊपर नहीं है। कमजोर शेयर बाजार में औने-पौने दामों पर सरकारी कंपनियों के शेयर बेचना निहायत मूर्खतापूर्ण काम होगा, चाहे यह जितना भी जरूरी क्यों न हो। लेकिन घाटा घटाने की मजबूरी को देखते हुए सरकार यह उपाय भी आजमा सकती है। सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट विसनीयता का है। इस सरकार की विसनीयता पर उसके सहयोगी दल ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। सरकार में शामिल शरद पवार ने हाल में कु छ इसी किस्म का बयान दिया है। मतलब यह है कि ऐसी सूरत जब सरकार की हो, तो कोई बड़ा फैसला लेना उसके लिए संभव नहीं होता। सरकार चलाये रखने, बचाये रखने के मसले सबसे ज्यादा प्राथमिकता के हो जाते हैं। दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर करना किसी की प्राथमिकता में नहीं होता है। इसका एक परिणाम हाल में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया झेल चुका है। स्टेट बैंक की क्रे डिट रेटिंग पहले के मुकाबले कमजोर हुई है। इसका बड़ा कारण यह है कि इस बैंक को पूंजी की जरूरत है। सरकार की तरफ से इसे पूंजी मिलनी चाहिए, या पूंजी जुटाने के वैकिल्पक स्रेतों पर विचार होना चाहिए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूंजी की कमी से जूझ रहे सरकारी बैंकों को कब तक पूंजी मिलेगी, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। बैंकों की क्रे डिट रेटिंग अगर कम हो जाती है, तो उनके लिए संसाधन जुटाना मुश्किल हो जाता है। जब बैंक के लिए संसाधन जुटाना मुश्किल होता है, तो उन्हे मंहगी दर से संसाधन जुटाने होते हैं। इसका असर फिर से बैंकों की स्थिति पर पड़ता है। क्रेडिट रेटिंग कम होने के बाद स्टेट बैंक के लिए पूंजी बाजार से रकम उठाना उतना आसान नहीं है, जितना पहले था। यह एक दुष्चक्र है। पर इस दुष्चक्र से निकालने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्तिकहीं दिखाई नहीं पड़ती। सरकार के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी वित्त मामलों के अलावा सैकड़ों दूसरे मसलों को निपटाते हुए दिखते हैं। सरकार के लगभग हर कामकाज पर उनका बयान दिखता है। पर गहन आर्थिक मसले कैसे निपटेंगे, इसके बारे में थोड़ा बहुत अंदाज तब ही हो पाता है, जब वित्त मंत्री पत्रकारों से मिलते हैं। महंगाई कम होने के आसार इसलिए नहीं हैं क्योंकि कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भावों में कमी होने के बावजूद घरेलू पेट्रोलियम उत्पादों के भाव कम होने के आसार नहीं हैं। इस आशय के संकेत पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने दिये हैं। महंगे होते पेट्रोलियम उत्पादों के बैकग्राउंड में महंगाई कम होने की उम्मीद व्यर्थ है। कु ल मिलाकर संकेत यही हैं कि दिसम्बर में सरकार की तरफ से एक बार फिर आासन आ सकता है कि अगले बजट के बाद उम्मीद है कि महंगाई कम होगी। इस तरह के आासन इतने व्यर्थ हो गए हैं कि कई टीवी चैनल और अखबार तो इन्हें महत्व तक नहीं देते। बढ़ता घाटा, बढ़ती महंगाई के सामने सरकार की गायब इच्छाशक्ति ने और समस्याएं पैदा की हैं। सहयोगी दलों की नाराजगी, हिसार उपचुनाव में हारने के बाद सरकारी मशीनरी में एक डर-सा बैठ गया है। कोई भी मंत्री ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिख रहा है। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जाए, यह हालत आर्थिक मंत्रालयों की हो गई है। ऐसी सूरत में इस सरकार से कु छ विशेष की उम्मीद करना ठीक नहीं है। ठीक यही है कि महंगाई के और बढ़ने का इंतजार किया जाए और इसके बाद कुछ आासन और आ जाएं। आासन इस सरकार के पास इफरात में हैं, वे जितने चाहे लिये जा सकते हैं। अर्थशास्त्र से ही अर्थव्यवस्था चलती होती, तो अमेरिका का यह हाल नहीं होता।

तेल कंपनियों के लिए मांगे 58,000 करोड़


अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल (क्रूड) की ऊंची कीमतों के चलते तेल कंपनियों पर बढ़ते बोझ से पेट्रोलियम मंत्रालय खासा चिंतित है। तेल कंपनियों के घाटे की भरपाई करने के लिए मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय से 58 हजार करोड़ रुपये की राशि मांगी है। इसमें तीसरी तिमाही में कंपनियों की अंडर रिकवरी (घाटे में पेट्रो उत्पादों की बिक्री) के 15 हजार करोड़ रुपये की राशि भी शामिल है। चालू वित्त वर्ष 2011-12 की पहली तिमाही (अप्रैल से जून तक) तक तेल मार्केटिंग कंपनियों का नुकसान 43,000 करोड़ रुपये था। इसमें से वित्त मंत्रालय 14,000 करोड़ रुपये का भुगतान कंपनियों को कर चुका था। इसके अतिरिक्त 15,000 करोड़ रुपये का आश्वासन वित्त मंत्रालय से मिला था, लेकिन यह राशि कंपनियों को अब तक नहीं मिली है। इसलिए वित्त मंत्रालय पर तेल कंपनियों का पहली तिमाही का करीब 29,000 करोड़ रुपये बकाया है। दूसरी तिमाही (जुलाई- सितंबर) के लिए पेट्रोलियम मंत्रालय ने फिर से 14,000 करोड़ रुपये की मांग रखी, लेकिन वित्त मंत्रालय से अभी तक इस राशि पर भी कोई जवाब नहीं मिला है। सूत्रों के मुताबिक, पेट्रोलियम मंत्रालय ने वित्त वर्ष की दूसरी अनुदान मांगें भेजते समय तेल कंपनियों के लिए तीसरी तिमाही के 15,000 करोड़ रुपये की राशि भी जोड़ ली है। इसे मिलाकर पेट्रोलियम मंत्रालय ने अनुदान मांगों की दूसरी किस्त में तेल कंपनियों के लिए करीब 58,000 करोड़ रुपये की मांग वित्त मंत्रालय के सामने रख दी है। पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारी मानते हैं कि वित्त मंत्रालय से तेल कंपनियों के लिए इतनी ज्यादा राशि मिलने की उम्मीद उन्हें भी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड की कीमत अभी भी 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास बनी हुई है। ऊपर से डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी ने तेल मार्केटिंग कंपनियों पर बोझ बढ़ा दिया है, क्योंकि उनके लिए आयात अब महंगा हो गया है। इसकी वजह से इन तेल कंपनियों का नुकसान घरेलू बाजार की मौजूदा कीमत के मुकाबले लगातार बढ़ रहा है। पेट्रोलियम मंत्रालय चाहता है कि सरकार अगर पेट्रोल के दाम और बढ़ाने की इजाजत नहीं देती तो कम से कम तेल कंपनियों के नुकसान की भरपाई उसे करनी चाहिए।

Saturday, October 15, 2011

उड़ीसा स्टील प्लांट से हाथ खींच सकती है आर्सेलर मित्तल


फाइलों और मंजूरियों के खेल में उलझी स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल उड़ीसा के प्रस्तावित प्लांट से हाथ वापस खींच सकती है। लगभग 1.2 करोड़ टन स्टील उत्पादन वाले इस संयंत्र में भूमि अधिग्रहण से लेकर मंजूरियों तक को लेकर कई समस्याएं सामने आ रही हैं। कंपनी सूत्रों के मुताबिक पिछले डेढ़ साल में कंपनी को इस परियोजना में कोई प्रगति हासिल नहीं हुई है। ऐसे में कंपनी कर्नाटक और झारखंड में प्लांट लगाने पर ज्यादा गंभीर होती जा रही है। अधिग्रहण के लिए जरूरी 15 ग्रामसभाओं में से अभी तक मात्र आठ सभाएं ही आयोजित हुई हैं। यह ग्रामसभाएं 2010 के मध्य तक ही हो गई थीं। इसके बाद एक भी ग्रामसभा नहीं हुई। आर्सेलर मित्तल ने 2006 में उड़ीसा सरकार के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत क्योंझर में लगभग 10 अरब डॉलर (50 हजार करोड़ रुपये) के निवेश से 1.2 करोड़ टन स्टील उत्पादन का प्लांट लगाया जाना था। इस एमओयू की अवधि दिसंबर में खत्म हो रही है। जब इस प्रोजेक्ट के भविष्य के बारे में कंपनी प्रतिनिधि से पूछा गया तो उन्होंने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। इस बीच आर्थिक मंदी के चलते कंपनी ने लगभग एक अरब डॉलर की बचत करने का अभियान चला दिया है। कंपनी प्रवक्ता ने बताया कि इस अभियान से कंपनी को दूरगामी फायदे होंगे। हालांकि इसका भारत में किए जा रहे निवेश पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वहीं कर्नाटक में स्थिति कहीं बेहतर है। कंपनी के प्रस्तावित 60 लाख टन उत्पादन वाले प्लांट के लिए वहां लगभग पूरी जमीन अधिग्रहित की जा चुकी है। वहीं कंपनी झारखंड में खुद ही भूमि अधिग्रहण कर रही है। कंपनी वहां करमपाड़ा में लौह अयस्क खनन परियोजना शुरू करना चाह रही है। कंपनी का अनुमान है कि इन खदानों से लगभग 20 करोड़ टन का उत्पादन किया जा सकेगा।

फिर ब्याज दरें बढ़ने का खतरा


ब्याज दरों में एक और वृद्धि की संभावना जोर पकड़ने लगी है। महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही। सरकार भी लगभग यह मान चुकी है कि महंगाई के खिलाफ उसके पास ब्याज दर बढ़ाने के अलावा और कोई चारा नहीं है। सितंबर में महंगाई की दर 9.72 फीसदी रही है जो अगस्त, 2011 के मुकाबले थोड़ा बेहतर तो है लेकिन सितंबर, 2010 के मुकाबले (8.98 फीसदी) खराब है। महंगाई के आंकड़े आने के कुछ ही देर बाद रिजर्व बैंक ने साफ संकेत दे दिए कि वह फिर ब्याज दरों को बढ़ाएगा। महंगाई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि सितंबर, 2011 में सबसे ज्यादा मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की कीमतों में तेजी आई है। चाहे चमड़े के उत्पाद हों या कपड़े या फिर पैकेज्ड खाद्य उत्पाद, सभी की कीमतें बढ़ी है। खाद्य उत्पादों की श्रेणी में इस महीने 0.9 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। खाद्य उत्पादों की थोक कीमतें पिछले एक वर्ष के भीतर 9.23 फीसदी बढ़ी हैं। जानकारों का कहना है कि मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की कीमतों में लगातार वृद्धि से साफ है कि ब्याज दरें बढ़ने के बावजूद औद्योगिक क्षेत्र में महंगाई पर कोई काबू नहीं पाया जा सका है। अप्रैल, 2010 के बाद से अभी तक आरबीआइ 12 बार ब्याज दरों को बढ़ा चुका है। ब्याज दरों में संभावित कमी के बारे में जब आरबीआइ के डिप्टी गर्वनर केसी चक्रबर्ती से शुक्रवार को पूछा गया तो उनका सीधा जबाव था कि जब तक महंगाई काबू में नहीं आएगी, ब्याज दरों में वृद्धि जारी रहेगी। उन्होंने कहा, ब्याज दरों की वजह से महंगाई नहीं है बल्कि महंगाई की वजह से ब्याज दरों को बढ़ाना पड़ रहा है। आरबीआइ के पास और कोई तरीका नहीं है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष व पूर्व आरबीआइ गर्वनर सी. रंगराजन भी मानते हैं कि जब तक महंगाई में साफ तौर पर कमी के संकेत नहीं मिले, आरबीआइ कड़ी मौद्रिक नीति जारी रख सकता है। उन्होंने उम्मीद जताई कि अगले कुछ महीनों में महंगाई की दर मौजूदा स्तर से नीचे आएगी। हालांकि वे पिछले छह महीने से ऐसा कर रहे हैं। सरकार और आरबीआइ पिछले वर्ष की रबी की कटाई के बाद से ही यह बता रहे हैं कि महंगाई की दर अब कम होगी। जबकि हकीकत यह है कि जबरदस्त अनाज उत्पादन के बावजूद खाद्य उत्पादों की कीमतों में भी नरमी का रूख नहीं दिख रहा है। जानकारों का कहना है कि नवंबर, 2011 में वार्षिक मौद्रिक नीति की छमाही समीक्षा के दौरान आरबीआइ ब्याज दरों को और बढ़ा सकता है। आरबीआइ का यह कदम मध्यम वर्ग के साथ ही औद्योगिक क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचा सकता है। हाल के महीने में औद्योगिक विकास दर भी लगातार कम हुई है। इसके लिए महंगे कर्ज को एक बड़ी वजह माना जा रहा है।

आज से रेल माल भाड़ा भी महंगा


बढ़ते खर्चो के बीच कमाई बढ़ाने की गरज से रेलवे ने माल भाड़ा छह फीसदी बढ़ा दिया है। इससे उपभोक्ताओं को इन वस्तुओं की ज्यादा कीमत चुकानी होगी। सभी तरह के माल के लिए की गई यह बढ़ोतरी शनिवार से लागू हो जाएगी और जून, 2012 तक प्रभावी रहेगी। इस संबंध में रेलवे ने एक सर्कुलर जारी किया है। सर्कुलर के मुताबिक, अधिकतर वस्तुओं के लिए व्यस्त सीजन चार्ज मौजूदा 7 से बढ़ाकर 10 फीसदी कर दिया गया है। वहीं, सभी सामानों के लिए विकास शुल्क 2 से बढ़ाकर 5 फीसदी किया गया है। इस तरह दोनों में तीन-तीन फीसदी की बढ़ोतरी से ग्राहकों पर कुल छह फीसदी का भार पड़ेगा। रेलवे का गैर-व्यस्त मौसम 1 जुलाई से 30 सितंबर तक रहता है। उद्योग जगत ने आशंका जताई है कि माल भाड़े में इस बढ़ोतरी से महंगाई और भड़केगी, जबकि रेलवे ने अपने इस कदम को उचित ठहराया है। रेल मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि तीन सालों में स्टील, ईधन और ऊर्जा के दाम कई गुना बढ़े हैं। इसकी वजह से बढ़े खर्च की भरपाई के लिए ही रेलवे ने यह कदम उठाया है। वित्तीय संकट का सामना कर रहे रेलवे ने वित्त मंत्रालय से 2,100 करोड़ रुपये का कर्ज भी मांगा है। उसके पास फिलहाल महज 75 लाख रुपये का नकद रिजर्व रह गया है।

Friday, October 14, 2011

गरीबी ही नहीं गैर-बराबरी भी है मुद्दा

योजना आयोग की शहरों में 32 और गांवों में 26 रुपये प्रतिदिन की गरीबी रेखा ने राष्ट्रीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है। इसके खिलाफ पूरे देश में हैरानी, गुस्से और प्रतिवाद के तीखे सुर सामने आए हैं। यह स्वाभाविक भी है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या इतनी धनराशि में दो जून का भरपेट भोजन संभव है? खासकर हाल के वर्षो में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं और जिंसों के अलावा बुनियादी जरूरत की सभी चीजों और सेवाओं की महंगाई आसमान छू रही है, उसके कारण आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। यही कारण है कि कई विश्लेषक इसे गरीबी नहीं, भुखमरी रेखा कह रहे हैं। इस हवाई गरीबी रेखा ने पूरे देश को इसलिए भी चौंकाया है क्योंकि गरीबी निरंतर असह्य होती जा रही है। इसकी वजह यह है कि देश के तेजी से बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में दिनोंदिन गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है। पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है। यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, वहीं दूसरी ओर, गरीबों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। असल में, पिछले कुछ दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद के दो दशकों में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर-बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है। सत्तर और कुछ हद तक अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षो तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नया दौलतिया वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वगरे में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है। वह दो से तीन फीसद के हिंदू वृद्धि दर के दौर से बाहर निकलकर सात से नौ फीसद रफ्तार वाले हाई-वे पर पहुंच गई है। इसके साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है। लेकिन यह भी एक कड़वी सचाई है कि यह समृद्धि कु छ हाथों में ही सिमटकर रह गई है। इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है। नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहां अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीं गरीबों तथा हाशिये पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है। सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुंच गई है। इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग मॉल्स में चले जाइए, वहां देश-दुनिया के बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आंखें चौंधियाने के लिए काफी है। आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार भी कर रहे हैं। उनके कारण आज लंदन-पेरिस-न्यूयार्क और दिल्ली-मुंबई-बेंगलूरू में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। दरअसल, भारत के अमीरों तथा उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में खास फर्क नहीं रह गया है। आज देश में बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों- करोड़ों की घड़ियां, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान, यहां तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं। जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी हैं। सबसे बड़ी बात कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है। इस वास्तविकता के उल्लेख का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस देश में कोई 78 फीसद से अधिक लोग 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त हों, वहां अमीरी की यह तड़क-भड़क और उसका खुला प्रदर्शन सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता नहीं तो और क्या है? देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी और विषमता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर दस फीसद लोग देश के कुल उपभोग व्यय का 31 फीसद गड़प कर जाते हैं। सबसे अमीर और उच्च मध्यवर्ग के 20 फीसद लोग कु ल उपभोग व्यय का 45 फीसद चट कर जाते हैं। जबकि सबसे गरीब दस फीसद लोगों के हिस्से कुल उपभोग का मात्र 3.6 फीसद हिस्सा आता है। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री को कुछ साल पहले उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहना पड़ा था कि इस तरह के दिखावे का उपभोगसमाज के लिए अच्छा नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए। यह और बात है कि सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण ही यह सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता सफलता का पैमाना बनती जा रही है। यही नहीं, इस दौर में आजादी के आंदोलन के दौर में बने सादगी, संतोष और मितव्ययता जैसे सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार बेमानी होते चले गए हैं। नए मूल्य यह हैं- ग्रीड इज गुडयानी लालच अच्छी बला है, मोक्ष का रास्ता अधिकाधिक उपभोग और कर्ज लेकर घी पीएं। आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में समावेशी विकास के नारों के बीच देश में गैर-बराबरी बेतहाशा बढ़ी है। तथ्य यह है कि अगर आज इस देश में नरेगा के तहत मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी सौ रुपये प्रतिदिन (मासिक तीन हजार रुपये) और कॉरपोरेट क्षेत्र के अधिकांश सीईओ की दस लाख से एक करोड़ रुपये मासिक की तनख्वाह को आधार मानें तो देश में आय के स्तर पर गैर-बराबरी बढ़ते-बढ़ते असह्य स्तर से भी ऊपर पहुंच गई है। भारत सरकार के सबसे आला अधिकारियों यानी सचिवों की मासिक तनख्वाह और नरेगा की मासिक मजदूरी के बीच 500:1 का अनुपात बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी का बड़ा उदाहरण है। देश में योजना की शुरु आत में 10:1 के आर्थिक गैर बराबरी अनुपात को कु छ हद तक बर्दाश्त लायक माना गया था, लेकिन आय और उपभोग के स्तर पर मौजूदा गैर-बराबरी को देख लगता है कि यह किसी सतयुग की बात है। गौरतलब यह भी है कि इस दौर में तेज आर्थिक विकास के बावजूद रोजगार के अवसर तो बढ़े नहीं, अलबत्ता उसकी गुणवत्ता में गिरावट ही आई है। देश में अब भी कुल श्रम शक्ति का 92 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने के लिए बाध्य है। यही नहीं, इस दौर में सीईओ से लेकर सरकारी नौकरशाहों की तनख्वाहों में भारी इजाफा हुआ है लेकिन न्यूनतम मजदूरी गरीबी रेखा की तरह अतीत में अटकी हुई है। निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन उसमें रोजगार के संविदाकरण और अस्थाईकरण के अलावा श्रम कानूनों का उल्लंघन बढ़ा है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्र पर आबादी के 60 प्रतिशत की निर्भरता के बावजूद कु ल जीडीपी में उसका हिस्सा मात्र 14 फीसद रह गया है। मतलब 60 फीसद आबादी को देश की कुल आय में सिर्फ 14 फीसद हिस्सा मिल रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि इस सबके कारण गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है। योजना आयोग की गरीबी (गल्प) रेखा इसीलिए और बेमानी लगने लगी है।

किस महंगाई के घटने की बात कर रहे सुब्बा


एक तरफ महंगाई आम जनता को मुंह चिढ़ा रही है, तो दूसरी तरफ सरकारी अमला इसे लेकर जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रहा। कमरतोड़ महंगाई के इस दौर में पिछले महीने ही योजना आयोग को 32 रुपये खर्च की गरीबी रेखा के मामले में खरी-खोटी सुननी पड़ी थी। अब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के मुखिया डी सुब्बाराव ने महंगाई घटने के बारे में जो बयान दिया है, वह आग में घी डालने जैसा ही है। रिजर्व बैंक के निदेशक मंडल की जयपुर में हुई बैठक के बाद सुब्बा ने कहा है कि बढ़ती कीमतों पर कुछ हद तक अंकुश लगा है। मुद्रास्फीति को रोकने के लिए उठाए गए कदम से ही महंगाई और नहीं बढ़ी। जबकि हकीकत यह है कि सामान्य और खाद्य महंगाई अभी भी दस फीसदी के करीब बनी हुई हैं। अगस्त में मासिक महंगाई 9.78 फीसदी रही है और सितंबर के आंकड़े आने वाले हैं। इसी तरह एक अक्टूबर को समाप्त सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति मामूली रूप से घटकर 9.32 फीसदी रही है। इससे पिछले सप्ताह यह 9.41 फीसदी थी। अप्रैल, 2010 से अब तक महंगाई को काबू में करने के लिए आरबीआइ 12 बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर चुका है। अब केंद्रीय बैंक की 25 अक्टूबर को फिर छमाही मौद्रिक नीति समीक्षा में दरें बढ़ाने की तैयारी है। ब्याज दरें बढ़ाने की रणनीति से महंगाई की तपिश तो कम हुई नहीं, उलटे कर्ज जरूर महंगा हो गया। नतीजतन, न सिर्फ होम व ऑटो लोन लेने वाले उभोक्ताओं की जेब पर ज्यादा ईएमआइ का बोझ बढ़ा है, बल्कि लागत वृद्धि के नाम पर तमाम कंपनियों ने अपने-अपने उत्पाद महंगे कर दिए हैं। केंद्रीय बैंक के मुखिया कीमत वृद्धि पर जिस अंकुश की बात कर रहे हैं वह सिर्फ सरकारी आंकड़ों में नजर आती है। जबकि आम उपभोक्ताओं को नमक, तेल, दाल, सब्जी जैसे रोजमर्रा के सामान से लेकर कपड़े, घर और गाडि़यों तक के लिए ज्यादा जेब ढीली करनी पड़ रही है। यानी थोक मूल्य के आंकड़ों में भले ही कभी महंगाई घटे, मगर उपभोक्ताओं को इसका लाभ मिलता नजर नहीं आ रहा है। एक अक्टूबर को समाप्त सप्ताह के खाद्य महंगाई के जो सरकारी आंकड़े गुरुवार को जारी हुए हैं, उसमें भी इसकी बानगी साफ झलक रही है। खाद्य महंगाई के थोक मूल्य सूचकांक में तो मामूली कमी आई है, लेकिन सालाना आधार पर दूध 13.01 फीसदी मंहगा हुआ है। फल और सब्जियों के दाम क्रमश: 12.19 और 10.35 फीसदी बढ़े हैं। इसी तरह अंडा, मीट और मछली जैसे प्रोटीन आधारित उत्पाद भी सालाना स्तर पर 9.92 फीसदी मंहगे हुए हैं। अनाज 5.41, चावल 5.86 और दाल की कीमतों में 6.87 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि, गेहूं और प्याज की कीमतों में थोड़ी गिरावट जरूर आई, लेकिन थोक मूल्य सूचकांक में यह कमी सिर्फ पिछले वर्ष के तुलनात्मक ऊंचे आधार की वजह से हुई है। पिछले साल की समान अवधि में खाद्य महंगाई 17 फीसदी से अधिक थी। प्याज सालाना आधार पर 10.15 और गेहूं 0.24 फीसदी सस्ता हुआ है। ईधन और बिजली की मुद्रास्फीति भी पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण बढ़कर 15.10 फीसदी हो गई है। प्राथमिक उत्पादों की मुद्रास्फीति दर 10.60 और गैर-खाद्य उत्पादों की 9.50 फीसदी रही है। इन आंकड़ों के बावजूद सुब्बाराव किस कीमत वृद्धि पर अंकुश लगने की बात कर रहे हैं, वही जानें। हालांकि, उन्होंने इतना जरूर कहा है कि नवंबर में आरबीआइ की निगरानी कमेटी की बैठक में मंहगाई और मंहगाई को रोकने के लिए उठाए गए कदमों के असर की समीक्षा की जाएगी।

Monday, October 10, 2011

रुपये में गिरावट से कंपनियों के नतीजों में लगेगी सेंध


: रुपये की कीमत में गिरावट, बढ़ती ब्याज दरें, ऊंची महंगाई दर और वैश्विक आर्थिक मंदी की आहट के कारण चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में घरेलू आइटी कंपनियों को छोड़कर ज्यादातर कंपनियों के मुनाफे में सेंध लग सकती है। बुधवार को देश की दूसरी सबसे बड़ी आइटी कंपनी इंफोसिस के नतीजों से दूसरी तिमाही के वित्तीय परिणाम घोषित करने की शुरुआत होगी। जानकारों का कहना है कि केवल रुपये में आई तेज गिरावट से ही कंपनियों के मुनाफे में तीन से पांच फीसदी की कमी हो सकती है। विदेश से लिए कर्ज पर उन्हें ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा। इसके अलावा वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्था की दिनों-दिन खस्ता हो रही हालत का असर भी कंपनियों के नतीजों पर पड़ सकता है। बैकिंग और इक्विटी अनुसंधान क्षेत्र की प्रमुख कंपनी सीएलएसए ने दूसरी तिमाही के नतीजों के पूर्वानुमान संबंधी अपनी रपट में कहा कि जिन कंपनियों ने विदेशी मुद्रा संबंधी देनदारियों के मामले में सुरक्षा का इंतजाम नहीं किया है, उनके मुनाफे पर रुपये की कमजोरी का असर पड़ना तय है। ब्रोकरेज कंपनी रेलिगेयर कैपिटल के मुताबिक दूसरी तिमाही के नतीजों में आर्थिक मंदी के संकेत दिखेंगे। सेंसेक्स में शामिल ब्लूचिप कंपनियों के मुनाफे में नौ फीसदी से कम वृद्धि दर्ज हो सकती है। इंफोसिस के बाद देश की दिग्गज कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज 15 अक्टूबर को अपने नतीजे घोषित करेगी। इस तिमाही के नतीजे शेयर बाजार के लिए अगला संकेतक साबित होंगे। रेलिगेयर कैपिटल को दूसरी तिमाही में आइटी, बैंकिंग, एफएमसीजी, सीमेंट और फार्मा क्षेत्र के नतीजे अच्छे रहने की उम्मीद है। जबकि रियल एस्टेट, दूरसंचार, बिजली और धातु क्षेत्र के नतीजे निराशाजनक हो सकते हैं। सीएलएसए के मुताबिक बढ़ती ब्याज दर का असर लगभग सभी कंपनियों पर होगा क्योंकि इससे कंपनियों की कर्ज लागत बढ़ रही है।