Wednesday, February 29, 2012

दो साल की तलहटी पर विकास दर


अर्थव्यवस्था की रफ्तार दो साल की तलहटी पर पहुंच गई है। चालू वित्त वर्ष 2011-12 की तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर 6.1 प्रतिशत रही है। खनन, मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र के बुरे हाल ने सरकार की दिक्कतें बढ़ा दी हैं। बजट से ठीक पहले आए अर्थव्यवस्था के इस आंकड़े ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर घाटे और विकास के बीच संतुलन बिठाने का दबाव और बढ़ा दिया है। पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 8.3 प्रतिशत रही थी। अर्थव्यवस्था की रफ्तार के बुधवार को आए आंकड़ों से साफ हो गया है कि चालू वित्त वर्ष में विकास की दर 6.9 प्रतिशत के अनुमान से भी कम रहेगी। यही नहीं सरकार को अगले वित्त वर्ष में रफ्तार बढ़ाने के लिए उपाय भी अभी से करने होंगे। ताजा आंकड़ों के बाद वित्त मंत्री पर बजट में अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के प्रावधान करने का दबाव बढ़ जाएगा। साथ ही रिजर्व बैंक भी अप्रैल में अपनी मौद्रिक नीति में ब्याज दरों में कमी का सिलसिला शुरू कर सकता है। तीसरी तिमाही में विकास दर घटने की प्रमुख वजह खनन, मैन्युफैक्चरिंग और कृषि क्षेत्र की धीमी रफ्तार रही। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर मात्र 0.4 प्रतिशत रही, जबकि खनन क्षेत्र का उत्पादन तो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 3.1 प्रतिशत घट गया। कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 2.7 प्रतिशत पर ही सिमट गई है। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के चलते चालू वित्त वर्ष में औद्योगिक उत्पादन की स्थिति शुरू से ही डावांडोल रही। तीसरी तिमाही की शुरुआत ही औद्योगिक उत्पादन में गिरावट से हुई थी। अक्टूबर, 2011 में तो औद्योगिक उत्पादन की विकास दर शून्य से 5.1 प्रतिशत नीचे चली गई थी। उसके बाद से इसकी हालत में कुछ सुधार तो हुआ है, लेकिन अभी भी यह पिछले साल की रफ्तार के मुकाबले काफी धीमा है। इसी महीने केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने चौथी तिमाही में जीडीपी के अनुमानित आंकड़े जारी किए थे। उनके मुताबिक जीडीपी की विकास दर 6.9 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। मंगलवार को जारी आठ बुनियादी उद्योगों के जनवरी के आंकड़े के मुताबिक इस क्षेत्र वृद्धि दर मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई है। इसका मतलब यह हुआ कि चौथी तिमाही में भी उद्योगों के उत्पादन में सुधार की उम्मीद नहीं है। माना जा रहा है कि इसका असर अगली तिमाही की विकास दर पर भी पड़ेगा। चालू वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाही की औसत विकास दर 6.9 प्रतिशत पर रही है। इस अवधि में भी मैन्युफैक्चरिंग और खनन का हाल सबसे ज्यादा खराब है। पिछले वित्त वर्ष में

Monday, February 27, 2012

आउटसोर्सिग रोकने के लिए ओबामा ने चली एक और चाल


राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस चुनावी साल में आउटसोर्सिंग के खिलाफ अभियान को तेज करते हुए विदेशी आय पर एक नया न्यूनतम कर लगाने का प्रस्ताव किया है ताकि अमेरिकी कंपनियों को नौकरियां भारत जैसे देशों में स्थानांतरित करने से हतोत्साहित किया जा सके। आउटसोर्सिग रोकने की ओबामा की यह नई चाल कितना सफल साबित होगी यह तो समय बताएगा लेकिन यह निश्चित है कि अमेरिकी राष्ट्रपति आउटसोर्सिग रोकने के अपने वचन पर अभी कायम हैं। प्रस्तावित कदम से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए विदेशों में नौकरियां स्थानांतरित करना और कठिन हो जाएगा। इसके तहत नौकरियां वापस अमेरिका में लाने वाली कंपनियों को प्रोत्साहन मिलेगा। ओबामा ने राष्ट्रपति पद पर दूसरे कार्यकाल के लिए चुने जाने के प्रयासों की अपनी रणनीति के तहत जो कर योजना तैयार की है, यह उसका हिस्सा है। वैिक आर्थिक मंदी के बाद अमेरिका में बेरोजगारी की दर काफी ऊंची है। अमेरिका के वित्त मंत्रालय का कहना है कि अमेरिकी कारोबार कर पण्राली देश में ही रोजगार व निवेश सृजन के लिए बहुत कम काम करती है जबकि यह ऐसे कई अवसर पैदा करती है कि उत्पादन व लाभ विदेश ले जाने को प्रोत्साहन मिले। ओबामा यह भी प्रस्ताव कर रहे हैं कि कंपनियों को अपने परिचालन को विदेश स्थानांतरित करने पर कर छूट का दावा करने की अनुमति भी नहीं दी जाएगी। इसके साथ ही वह नौकरियां वापस लाने के लिए परिचालन वापस अमेरिका में लाने के खर्च के लिए 20 फीसद आयकर ऋण का प्रस्ताव कर रहे हैं। ओबामा ने एक बयान में कहा है कि मौजूदा कारपोरेट कर पण्राली अनुचित, अक्षम व पुरानी पड़ चुकी है। उन्होंने कहा, ‘यह नौकरियां व लाभ विदेश में ले जाने के लिए कर राहत उपलब्ध कराती हैं और भारत में ही बनी रहने वाली कंपनियों को नुकसान पहुंचाती है। यह अनावश्यक रूप से जटिल है जिससे अमेरिका के छोटे उद्यमों को अनगिनत घंटे व डालर अपने करों के भुगतान पर खर्च करने पड़ते हैं।

खास नहीं होगा आम बजट


प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा बुधवार को पेश की गई आर्थिक समीक्षा में वर्ष 2012-13 में वृद्धि दर 7.5 से 8.00 फीसद तक रहने का अनुमान लगाया गया है। ऐसे समय जब यूनान संकट, ईरान संकट और अन्य वैिक कारकों से वि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित है और चीन जैसे देश में विकास की रफ्तार घटी है, देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार भी सिर्फ 7.1 फीसद ही रहने का अनुमान है। राजकोषीय घाटा 4.6 फीसद तक सीमित रखने का लक्ष्य भी पूरा होता नहीं दिख रहा है। देश की आर्थिक वृद्धि दर 7.5 से 8.00 फीसद के बीच पहुंचाना सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती साबित होगा। इसके बावजूद सरकार आर्थिक वृद्धि दर को रफ्तार देने के लिए प्रतिबद्ध है। इसलिए इस बार के आम बजट में आम आदमी को कुछ खास
मिलना मुश्किल ही नजर आ रहा है। बजट में लोक लुभावन घोषणाओं की उम्मीद इस बार इसलिए भी कम नजर आ रही है क्योंकि बजट पेश होने तक राज्यों के विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके होंगे और आम चुनाव में भी अभी काफी समय है इसलिए सरकार को वोटरों को लुभाने की फिलहाल कोई जरूरत नहीं दिखाई देती। ऐसे में सरकार का ध्यान अर्थव्यवस्था को गति देने पर केंद्रित रहेगा। 16 मार्च को पेश होने वाले आम बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने वाले कारकों जैसे औद्योगिक विकास को बढ़ावा, कृषि उपज में वृद्धि, विनिवेश कार्यक्रम में गति लाना, निर्यात में वृद्धि, कर सुधारों को आगे बढ़ाना और प्रति व्यक्ति आय में इजाफा करने जैसे मुद्दों पर सरकार का ध्यान केंद्रित होगा। मंदी के चलते ब्याज दरें लगातार बढ़ने से देश के उद्योग धंधे बुरी तरह प्रभावित हैं। सरकार ब्याज दरों में कटौती कर सकती है और इस कटौती से बैंकों पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए बैकिंग क्षेत्र को प्रोत्साहन के रूप में 10 हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त मदद भी दे सकती है। बैंकों की हालत सुधरने से उद्योगों को कर्ज मिलने में आसानी होगी जिससे औद्योगिक उत्पादन व निर्यात बढ़ेगा। सरकार कृषि उपज बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित करेगी ताकि महत्वपूर्ण खाद्यान्नों की आयात पर निर्भरता कम हो सके और विदेशी मुद्रा भंडार से इस मद में खर्च होने वाले कोष को सुरक्षित रखा जा सके। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या धन की होगी। इससे निपटने के लिए सरकार विनिवेश कार्यक्रमों में गति ला सकती है। सेवाकर के दायरे में नई वस्तुओं को लाया जा सकता है और जीएसटी लागू करने की प्रक्रिया तेज हो सकती है। डीजल व रसोई गैस पर सब्सिडी में कटौती भी संभव है। हालांकि बजट लोक लुभावन नहीं होगा लेकिन डीटीसी के कुछ प्रावधान लागू करके सरकार वेतनभोगियों को कुछ राहत अवश्य प्रदान कर सकती है।

अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही का समय

आधुनिक अर्थतंत्र की बढ़ती जटिलता के साथ अर्थशास्त्रियों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण और व्यापक होती गई है। ऊंचे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पदों पर आसीन अर्थशास्त्री जो भी निर्णय लेते हैं उनसे करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित होता है। जिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पदों से और संस्थानों से यह अर्थशास्त्री जुड़े होते हैं, उनका इतना दबदबा होता है कि प्राय: उनकी संस्तुतियों व सलाह को सरकारें स्वीकार कर ही लेती हैं। ऊंचे पदों पर आसीन अर्थशास्त्रियों, विशेषकर वित्तीय अर्थशास्त्रियों की शक्ति इस कारण और बढ़ जाती है क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी व्यवस्था बनी हुई है जिसके अन्तर्गत एक ही सोच के अर्थशास्त्रियों के विभिन्न देशों के ऊंचे पदों पर पहुंचने की संभावना बढ़ जाती है। यह सोच मुख्य रूप से निजीकरण, बाजारवाद और भूमंडलीकरण को बढ़ाने वाली सोच है। ऐसी एक ही सोच के अर्थशास्त्रियों की अंतरराष्ट्रीय पदों में अधिक उपस्थिति का एक परिणाम यह सामने आता है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापारिक संस्थानों में पहले कार्य कर चुके अधिकारी विभिन्न देशों के शीर्ष पदों पर आसानी से पहुंच सकते हैं। चूंकि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में प्रतिष्ठा और वेतन-भत्ते काफी आकषर्क होते हैं, अत: विभिन्न देशों के युवा अर्थशास्त्रियों में इन पदों के प्रति होड़ उत्पन्न हो जाती है। वहां जाकर वे एक विशेष विचारधारा में बंधी विशेषज्ञता हासिल करते हैं और फिर देर- सबेर इन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से अपने देश लौटकर किसी ऊंचे पद को इस प्रशिक्षण के अनुसार संभालते हैं। ऐसे अनेक अर्थशास्त्री बड़े कॉरपोरेट के सलाहकार भी बनते हैं। वैसे भी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थानों में काफी दखल है। अपनी इन विविध भूमिकाओं में सामंजस्य बिठाते समय यह संभावना बढ़ जाती है कि इनमें से अनेक अर्थशास्त्री आम लोगों के हितों के अनुरूप कार्य नहीं करते हैं व जनहित को उच्च प्राथमिकता नहीं देते हैं। इसकी एक अभिव्यक्ति यह है कि प्राय: शीर्ष के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों द्वारा सुझाई गई नीतियों की जन-संगठनों द्वारा जम कर आलोचना होती है, खुला विरोध होता है। उदाहरण के लिए अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष व वि बैंक द्वारा बड़े कर्ज देते समय जो शत्रे लगाई जाती हैं, उनकी प्राय: तीखी आलोचना हुई है, इसके बावजूद इन संस्थानों में नियुक्त या यहां से विभिन्न पदों पर भेजे गए विशेषज्ञों का इतना दबदबा होता है कि विभिन्न राष्ट्रीय सरकारें अपने यहां के जनिवरोध को अनदेखा करते हुए भी उनके द्वारा सुझाई नीतियों को स्वीकार ही नहीं करती बल्कि बाकायदा उन्हें लागू भी करती हैं। वैसे तो इन विसंगतियों पर पहले भी ध्यान अकषिर्त किया गया है, पर हाल के समय में अनेक विकसित देशों में गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न होने पर यह मांग अधिक जोरदार ढंग से उठने लगी कि शीर्ष पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों की भूमिका पर खुली बहस हो तथा उनकी जबावदेही सुनिश्चित की जाए। इसके साथ ही यह मांग उठी है कि सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने वाले अर्थशास्त्रियों के यदि उससे जुड़े निजी हित या आय अर्जन के स्रेत हों तो वे उनको घोषित करें। अमेरिका में सीनेट बैंकिंग समिति व सदन की वित्तीय सेवा समिति में 96 प्रस्तुतियों के आधार पर बताया गया है कि इस तरह अपने निजी हितों के बारे में स्वयं जानकारी देने के उदाहरण बहुत कम हैं। वर्ष 2010 में चाल्र्स फगरुसन की डाक्यूमेंट्री इनसाईड जॉबने वित्तीय सेवा उद्योग व अर्थशास्त्रियों के संबंधों पर जनता का ध्यान आकषिर्त किया। इसी समय के आसपास जॉर्ज डीमार्टिनो की पुस्तक द इकोनॉमिस्टस ओथने अर्थशास्त्रिायों में नैतिकता संबंधी मुद्दों की उपेक्षा की आलोचना की। अमेरिका में अर्थशास्त्रियों के प्रमुख संस्थान अमेरिकन इकनॉमिक एसोसिएशनको इस बारे में तीखी आलोचना सहनी पड़ी है कि उसने अपने सदस्यों की नैतिकता का कोई कोड अब तक तैयार नहीं किया। तीन सौ अर्थशास्त्रियों ने इस एसोशिएसन को अर्थशास्त्रियों के लिए एक आचार संहिता बनाने के लिए समिति गठित करने का सुझाव दिया। आलोचना से प्रभावित होकर इस संस्थान ने इस मुद्दे पर एक कार्यदल का गठन किया। हैगनबार्थ और एपस्टीन के एक चर्चित अध्ययन में 19 ऊंची प्रतिष्ठा के अर्थशास्त्रियों के आकलन से पता चला है कि 2005 से 09 के दौरान उनमें से 15 के निजी वित्तीय हित पाए गए। इनमें से अनेक ने सरकारों में व अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में उच्च पद भी प्राप्त किए। इन विभिन्न आलोचनाओं के बीच धनी देशों में यह पूछा जा रहा है कि हाल के आर्थिक संकट के लिए बड़े बहुरराष्ट्रीय बैंकों या सट्टेबाजी की प्रवृत्तियों से जुड़े अर्थशास्त्रियों की संस्तुतियां कहां तक जिम्मेदार थीं। गरीब व विकासशील देशों में भी यह सवाल पूछा जा रहा है कि इन देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों, निजीकरण व बाजारवाद को बढ़ाने वाली नीतियों की संस्तुतियां जिन अर्थशास्त्रियों ने बढ़- चढ़कर कीं, उनके अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थानों से क्या संबंध रहे हैं या उन अकादमिक संस्थानों से कैसे संबंध रहे हैं जहां से इन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में अधिकांश विशेषज्ञ जाते हैं। इस तरह की जांच पड़ताल से यह तथ्य सामने आए हैं कि ऐसे संबंध बहुत उच्च स्तर तक पहुंचते हैं व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों से आने वाले अधिकारी कई बार विकासशील व गरीब देशों में वित्तमंत्री के पद तक व कभी-कभी तो इसके भी ऊपर पहुंचते हैं। इस तरह अंतरराष्ट्रीय वित्त व व्यापार संस्थानों का एजेंडा गरीब व विकासशील देशों पर हावी होने का मैदान तैयार होता है। इन संस्थानों में धनी देशों की व बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गहरी पैठ के बारे में पहले ही बहुत जानकारी उपलब है। इन परिस्थितियों में अर्थशास्त्रियों के कार्य में पारदर्शिता लाने व उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। अर्थशास्त्रियों के लिए आचार संहिता तैयार करने के लिए आरंभ हुए प्रयास और तेज व व्यापक होने चाहिए। इसके साथ ही इस बारे में पुनर्विचार की जरूरत है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्त व व्यापार संस्थानों से जुड़े रहे अर्थशास्त्रियों ने भूमंडलीकरण, निजीकरण व बाजारवाद का जो एजेंडा दुनिया भर में लादने का प्रयास किया है, उसका औचित्य क्या है। इस बारे में तमाम साक्ष्य उपलब्ध हैं कि जो देश मौजूदा विकास की दौड़ में आगे निकले, वहां सरकार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई पर दूसरी ओर इन तथ्यों को नजर अंदाज कर इन अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न देशों में महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सरकार को हटने को कहा है। इसका खास परिणाम यह हुआ कि नए क्षेत्र बड़ी व बहुराष्ट्रीय निजी कंपनियों के लिए खुले छूटते गए व इस क्षेत्र में पहले से उपलब्ध सरकारी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों व उनकी परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्र की कंपनियों ने सस्ते में हथिया लिया। यह अनुचित नीतियां व लूट इस कारण संभव हुई कि इनके लिए एक सैद्धांतिक आधार तैयार किया गया जिससे बेहद अनुचित नीतियों व निर्णयों का औचित्य सिद्ध किया जा सके। इस सैद्धांतिक आधार को तैयार करने में एक संकीर्ण सोच की विचारधारा व उससे जुड़े विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अत: अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के साथ अनेक देशों को आर्थिक व वित्तीय संकट की ओर ले जाने वाली नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। आज के दौर में दुनिया भर में क्योंकि अर्थव्यवस्था की वैकल्पिक राह खोजने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है इसलिए अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही सुनिश्चित करना भी बहुत जरूरी हो गया है। जिन देशों को पूंजीवाद का गढ़ माना जाता रहा है, वहां आर्थिक संकट तेज होने के बाद विकल्प खोजने की यह बेचैनी देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे देश में भी अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही की मांग उठने लगी है। यह एक अनुकूल समय है कि इस मांग को पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से आगे ले जाया जाए। साथ ही इस प्रक्रिया को विकल्पों की तलाश से जोड़ा जाए।

बजट में दादा नहीं करेंगे बटुआ ढीला

पांच राज्यों के चुनाव निपट जाने के बाद और अभी आम चुनाव में पर्याप्त समय होने की वजह से केंद्र सरकार आगामी बजट में कल्याणकारी योजनाओं के लिए ज्यादा धन उपलब्ध नहीं कर पाएगी। यूपीए सरकार के महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए टोकन धन का इंतजाम होगा। सरकार का फोकस बुरी स्थिति से गुजर रही अर्थव्यवस्था को सुधारने पर रहेगा। सरकार 10 हजार करोड़ रुपए बैंकों को और अंतिम सांसे गिन रही एयर इंडिया को पांच हजार करोड़ रुपए देगी। वर्ष 2012-13 के बजट में योजनागत बजट के लिए करीब 5.21 लाख करोड़ रुपए होगा, जो पिछले साल के मुकाबले करीब 18.3 फीसद ज्यादा होगा। संसद का बजट सत्र 12 मार्च से शुरू होगा। 2012-13 का बजट 16 मार्च को पेश किया जाएगा। बजट की तैयारियां जोरों पर है। बजट पेश करते वक्त उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके होंगे। लोकसभा चुनाव में अभी दो साल का वक्त है। इसलिए सरकार के पास इस साल खुलकर बैटिंग करने का मौका है। इसका फायदा वित्त मंत्री प्रवण मुखर्जी उठाएंगे। महंगाई और आर्थिक मंदी के कारण बुरे दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती है। आर्थिक विकास 9 प्रतिशत से गिर कर 7.5 फीसद पर आ गई है। महंगाई कम होने का नाम नही ले रही है। ऊंचे व्याज दर के कारण औद्योगिक और निर्माण क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हैं। इस लिहाज से इस बार के बजट में लोकलुभावन योजनाओं की झड़ी नहीं होगी, जो योजनाएं चल रही है उनको बहुत बढ़ाकर धन नहीं दिया जाएगा। खास बात है कि केंद्रीय योजनाओं की संख्या को 147 से घटाकर 50 के आसपास किया जा रहा है। इस कारण भी सरकार का कुछ खर्चा बचेगा। वित्त मंत्रालय सूत्रों के अनुसार इस बार सरकार बैंकों को 10 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त दे सकती है, ताकि बैंक बाजार में धन उड़ेल सके और अर्थव्यवस्था में गति आ सके। एयर इंडिया की बुरी हालत को देखते हुए बजट में इसे उबारने के लिए 5,000 करोड़ दिए जा सकते हैं। फ्लैगशिप योजनाओं को 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी मिल सकती है। जबकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना को ज्यादा हिस्सा मिलेगा, इसका आकलन किया जा रहा है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की बाकी योजनाओं को केवल एक हजार करोड़ ही ज्यादा मिलेगा। ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में हुए घपले को देखते हुए इस मद में ज्यादा वृद्धि नहीं की जाएगी। वित्त वर्ष 2011-12 में राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत के बजटीय लक्ष्य से अधिक होने का अनुमान है। आयोग ने सभी मंत्रालयों से कहा था कि वे दो योजना परिव्यय प्रस्ताव पेश करें, जिनमें एक केवल अगले वित्त वर्ष के लिए जबकि दूसरा 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए हो। यह योजना एक अप्रैल 2012 से शुरू होगी। सरकार ने 2011-12 में आयोजना योजनाओं के लिए सकल बजटीय समर्थन के रूप में 4,41,547 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए थे।

अगले साल भी धीमी रहेगी विकास की रफ्तार


अगले वित्त वर्ष 2012-13 में भी सरकार को आर्थिक विकास दर नौ प्रतिशत रहने की उम्मीद नहीं है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) का मानना है कि अगले वित्त वर्ष में भी सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर में तेज बढ़त की उम्मीद नहीं है। इसके 7.5 प्रतिशत से आठ प्रतिशत के बीच रहने की उम्मीद है। परिषद ने अर्थव्यवस्था की समीक्षा में सरकार को राजकोषीय स्थिति मजबूत बनाने के लिए पेट्रोलियम सब्सिडी पर अंकुश लगाने की सलाह दी है। परिषद ने चालू वित्त वर्ष के लिए सरकार के 6.9 प्रतिशत जीडीपी विकास दर के अनुमान में वृद्धि कर दी है। परिषद के मुताबिक चालू वित्त वर्ष 2011-12 विकास दर 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान है। परिषद ने इससे पहले जुलाई, 2011 में 8.2 प्रतिशत विकास दर का अनुमान लगाया था। बीते वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था की रफ्तार 8.4 प्रतिशत रही थी। जहां तक कृषि क्षेत्र का सवाल है, परिषद ने चालू वित्त वर्ष में तीन प्रतिशत विकास दर का अनुमान लगाया है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के पूर्वानुमानों में कृषि विकास दर 2.5 प्रतिशत रहने की बात कही गई थी। बुधवार को अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार के आंकड़े देते हुए परिषद के चेयरमैन डॉ सी रंगराजन ने कहा कि अगले वित्त वर्ष में महंगाई की दर भी नीचे बनी रह सकती है। परिषद ने इसके पांच से छह प्रतिशत के दायरे में रहने का अनुमान लगाया है। इसके बावजूद पीएमईएसी ने सरकार को खाद्य पदार्थो के दाम पर सख्त निगरानी रखे जाने की सलाह दी है। परिषद ने कहा है कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ खाद्यान्नों, फल, सब्जियों और दुग्ध उत्पादों की आसान आपूर्ति के लिए मजबूत आधारभूत ढांचा खड़ा करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। रंगराजन ने उर्वरक और पेट्रोलियम पदार्थो की बढ़ती सब्सिडी पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा, हमें उर्वरक और पेट्रोलियम सब्सिडी के क्षेत्र में सुधारों पर आगे बढ़ना चाहिए। डीजल मूल्य को चरणबद्ध ढंग से नियंत्रणमुक्त करने और एलपीजी व केरोसीन के मामले में भी विभिन्न रिपोर्टो में जो सुझाव दिए गए हैं, उन पर बातचीत आगे बढ़नी चाहिए। रंगराजन ने यहां परिषद की वर्ष 2011-12 की आर्थिक समीक्षा जारी करते हुए कहा कि चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा 4.6 प्रतिशत के बजट अनुमान से अधिक होगा। सुस्त होती अर्थव्यवस्था की रफ्तार में सुधार के बारे में पूछे जाने पर रंगराजन ने सरकार को कर सुधारों के क्षेत्र में आगे बढ़ने की सलाह दी। कर प्रशासन को बेहतर बनाने के साथ साथ कर दरों को वापस वैश्विक संकट पूर्व की स्थिति में लाने की संभावनाएं हैं। समीक्षा में कहा गया है कि वर्ष के दौरान वैश्विक आर्थिक और वित्तीय स्थिति पर दबाव बना रहेगा। वर्ष 2011-12 में चावल, गेहूं, फल, सब्जियों और पशुपालन क्षेत्र में मजबूत वृद्धि को देखते हुए कृषि क्षेत्र की वृद्धि तीन प्रतिशत रहेगी। कोयला उत्पादन घटने, लौह अयस्क उत्पादन पर प्रतिबंध व प्राकृतिक गैस उत्पादन में कमी और कच्चे तेल का उत्पादन घटने से खान एवं उत्खनन क्षेत्र में वर्ष के दौरान गिरावट का रुख रहने का अनुमान है।

किसानों को मिलेगा ज्यादा कर्ज


आने वाले दिनों में देश के सभी बैंकों की तरफ से वितरित कुल कर्ज का नौ फीसदी हिस्सा छोटे व सीमांत किसानों को देने की व्यवस्था लागू की जा सकती है। इसके साथ ही सात फीसदी बैंकिंग कर्ज बेहद छोटी औद्योगिक इकाइयों को दिया जाएगा। प्राथमिक क्षेत्र को कर्ज देने संबंधी मौजूदा नियम में बदलाव करने के समय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) इन प्रावधानों को लागू कर सकता है। रिजर्व बैंक ने पिछले वर्ष बैंकों की तरफ से वितरित होने वाले प्राथमिक क्षेत्र को कर्ज देने के मौजूदा नियम में बदलाव के लिए नायर समिति गठित की थी। समिति ने मंगलवार को अपने आरंभिक सुझाव केंद्रीय बैंक को दे दिए हैं। माना जा रहा है कि अगले वित्त वर्ष 2012-13 से नए नियम लागू कर दिए जाएंगे। समिति ने 25 लाख रुपये तक के होम लोन, ग्रामीण इलाकों में आवास मरम्मत के लिए दो लाख रुपये तक के कर्जे व शहरी इलाकों में इस उद्देश्य से पांच लाख रुपये तक के ऋण कर्ज को भी प्राथमिक क्षेत्र में रखने का सुझाव दिया है। समिति ने कहा है कि देश की बहुत बड़ी आबादी तक बैंक नहीं पहुंच पाए हैं। इन तक बैंकिंग सेवा के पहुंचे बगैर आर्थिक विकास नहीं हो सकता है। समिति का कहना है कि कुल वितरित कर्ज का 18 फीसदी कृषि क्षेत्र को मिलना चाहिए। इसमें छोटे व सीमांत किसानों को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए। यही वजह है कि नौ फीसदी बैंकिंग कर्ज इन किसानों को देने की सिफारिश की गई है। इस व्यवस्था को वर्ष 2015-16 तक लागू करने की बात कही गई है। इसी तरह से वर्ष 2013-14 तक सात फीसदी बैंकिंग कर्ज बेहद छोटे औद्योगिक इकाइयों को देने का सुझाव दिया गया है। विदेश में शिक्षा के लिए 25 लाख रुपये के कर्ज को प्राथमिक क्षेत्र में मानने की सिफारिश की गई है। अभी यह सीमा 20 लाख रुपये की है। घरेलू शिक्षा के लिए 15 लाख रुपये की सीमा तय की गई है।

ज्यादा डरावनी है महंगाई की असली सूरत


सरकार ने मंगलवार को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर खुदरा कीमत आधारित महंगाई की तस्वीर पेश की है। इसके मुताबिक खुदरा कीमतों के आधार पर जनवरी, 2012 में महंगाई की दर 7.65 फीसदी रही है। इससे साफ है कि महंगाई की यह असली व सटीक तस्वीर ज्यादा डरावनी है। जनवरी, 2012 में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर 6.55 फीसदी थी। जानकारों का कहना है कि नए सूचकांक को देखते हुए केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में कटौती करने को लेकर सतर्कता बरत सकता है। सांख्यिकी व कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की तरफ से जारी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) धीरे-धीरे मौजूदा थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) का स्थान ले लेगी। सरकार ने देश के लगभग 600 जिलों के 310 शहरी केंद्रों और 1181 गांवों से विभिन्न उत्पादों की खुदरा कीमतों को जुटाया है। यह प्रक्रिया पिछले एक साल से जारी थी। शहरों के 1114 बाजारों से कीमतें जुटाई गई हैं। इसके आधार पर यह सूचकांक तैयार किया गया है। देश की प्रमुख रेटिंग एजेंसी इकरा की अर्थशास्त्री अदिति नायर मानती हैं कि महंगाई में बहुत सुधार नहीं हुआ है। ऐसे में रिजर्व बैंक उम्मीदों को धता बताते हुए रेपो दर कौ मौजूदा स्तर पर ही बनाए रखेगा। इस दर के आधार पर बैंक आरबीआइ से छोटी अवधि के कर्ज हासिल करते हैं। इसकी वजह से रेपो के हिसाब से वे अपनी ब्याज दरें भी तय करते हैं। अन्य जानकारों ने भी कुछ ऐसी ही राय जताई है। थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के सात फीसदी से नीचे आने के बाद केंद्रीय बैंक ने रेपो दर घटाने के संकेत दिए थे। मगर खुदरा बाजार के ये आंकड़े बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में मांग अभी भी तेज बनी हुई है। साथ ही आने वाले दिनों में महंगे क्रूड का असर भी देश की महंगाई पर नजर आएगा। गांव में अनाज व दूध शहर से महंगे! खुदरा महंगाई के इन आंकड़ों से कई दिलचस्प निष्कर्ष भी सामने आए हैं। इनके मुताबिक, ग्रामीण जनता मोटे अनाजों के लिए शहरों की तुलना में चार गुना ज्यादा कीमत अदा कर रही है। इस साल जनवरी में ग्रामीण इलाकों में अनाजों की खुदरा कीमतों में 3.44 फीसदी की वृद्धि हुई है। शहरों में यह वृद्धि महज 0.79 फीसदी की रही है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र में दाल, अंडा, दूध, चीनी, ईंधन वगैरह में महंगाई गांवों में ज्यादा रही है। वैसे, तेल, कपड़े, जूते, सब्जियों में शहरों में ज्यादा महंगाई रही है। समग्र तौर पर जनवरी, 2012 में महंगाई की दर 7.65 रही है। शहरों में सीपीआइ आधारित महंगाई की दर 8.25 और ग्रामीण इलाकों में 7.38 फीसदी रही है। मेघालय सबसे महंगा राज्य इन आंकड़ों से पहली बार यह पता चला कि राज्यों में महंगाई की स्थिति क्या है। जनवरी की बात करें तो सबसे ज्यादा महंगाई मेघालय में देखी गई है। दूसरे स्थान पर कर्नाटक और तीसरे स्थान पर केरल रहा है। इसके बाद गुजरात और तमिलनाडु संयुक्त तौर पर पांचवे स्थान पर हैं। महंगाई के मामले में जम्मू-कश्मीर का स्थान इसके बाद आया है। डब्ल्यूपीआइ से कितनी जुदा दुनिया के अधिकतर देशों में खुदरा मूल्य सूचकांक को ही आधार माना जाता है। देश में लागू मौजूदा थोक मूल्य सूचकांक में खाद्य उत्पादों का हिस्सा महज 14.3 फीसदी है। वहीं, सीपीआइ में इनकी हिस्सेदारी 45 फीसदी से ज्यादा है। साथ ही डब्ल्यूपीआइ में स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे कई सेवा क्षेत्र शामिल नहीं हैं, जबकि इन पर आम जनता काफी खर्च करती है। नए सूचकांक में सेवाओं को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

सूझ कोषीय घाटा


बधाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का पुराना स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता है कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं, जहां से करीब बीस साल पहले चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नॉस्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था, तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए। इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ों से कटी व नतीजों में फेल सरकारी स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई। दरअसल, हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिए और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है। बजट स्कीम फैक्ट्री बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है कि इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिए, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढि़यां बदल गर्इं हैं, मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीबी उन्मू्लन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास बन गई हैं। सरकार ने गरीबी हटाने के लिए स्वरोजगार, वेतन सहित रोजगार और रोजगार के बदले अनाज के तीन मॉडलों को फिर-फिर आजमाया, मगर नतीजे सिफर रहे। एकीकृत ग्रामीण विकास योजना (1970) से शुरू हुआ सफर नाम बदलते हुए नेशनल रूरल इंप्लॉयमेंट प्रोग्राम, लैंडलेस इंप्लॉयमेंट गारंटी प्रोग्राम और बाद में जवाहर रोजगार योजना (1989), रोजगार आश्वासन योजना (1993), स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (1999), जवाहर ग्राम समृद्धि योजना (1999) और संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (2001) से होता हुआ रोजगार गारंटी योजना (2006) पर आ टिका है। मगर पहले तीन वर्षो में साबित हो गया कि मनरेगा से भ्रष्टाचारियों को नया रोजगार मिल गया है और इसने ग्रामीण क्षेत्र में श्रमिकों का बाजार बिगाड़ दिया। ठीक ऐसी ही कहानियां ग्रामीण आवास, पेयजल और ग्रामीण स्वास्थ्य की हैं। लोगों को सेहत देने का मिशन घोटाला मिशन बन गया है। राशन प्रणाली अनाज व सब्सिडी की बर्बादी का ऐतिहासिक सबूत है। केंद्र सरकार की अपनी रिपोर्टे इन स्कीमों को असफल या आंशिक सफल बताती हैं, मगर सरकार में एक हाथ रिपोर्ट लिखता है और दूसरा हाथ क्रियान्वयन से बेफिक्र होकर स्कीमें गढ़ता रहता है। बजट की दशकों पुरानी स्कीम फैक्ट्री अब जनकल्याण की नहीं, भ्रष्टाचार की गारंटी है। जनकल्याण के कार्यक्रमों में नयापन नदारद है, बस हर बजट नई लूट का रास्ता खोल देता है। इतने दशकों के बाद भी हम भरोसे से यह नहीं कह सकते कि इन स्कीमों से गरीबी दूर करने में ठोस मदद मिली है, क्योंकि सरकार के पास कोई ईमानदार अध्ययन तक उपलब्ध नहीं है। वित्त मंत्री सब्सिडी को लेकर अगर सच में बेचैन हैं तो उन्हें इस बजट से स्कीमों के असर की पड़ताल शुरू करनी चाहिए, ताकि एक नई बहस को जमीन मिल सके। वित्त मंत्री जी हिम्मत दिखाइए, आपको करदाताओं के पैसे की सौगंध है। सब्सिडी वितरण केंद्र सब्सिडी की सफलता को किस तरह नाप सकते हैं। बस यह देखिए कि जिन क्षेत्रों को सब्सिडी दी जा रही है, वहां उत्पादन, सुविधाओं या जीवन स्तर में कितना सुधार आया है। भारत में यह सुधार जरा भी नहीं दिखता। बजट राजस्व के सबसे अच्छे पिछले आठ वर्षो में सब्सिडी का बिल 4,300 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,60,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गया। इसमें अधिकांश बढ़ोतरी खाद, अनाज और पेट्रो उत्पादों पर हुई। इतने खर्च से तीनों उत्पादों या सेवाओं की आपूर्ति सुधरनी चाहिए थी? मगर कृषि मंत्रालय मानता है कि खाद की किल्लत बढ़ी है। खेती के ताजा हाल से इस सब्सिडी को जायज ठहराना मुश्किल है। पेट्रो सब्सिडी की असफलता तो और बेजोड़ है। सब्सिडी जिस केरोसीन पर दी जा रही है, उसे कौन इस्तेमाल कर रहा है। सस्ता डीजल लेकर कितनी कारें दौड़ रही हैं और सस्ते गैस सिलेंडर किन होटलों और एलपीजी से चलने वाली कारों में खप रहे हैं, इन सवालों का जवाब सरकार के पास नहीं है। हमारे ही टैक्स से सब्सिडी बांट कर सरकार हमें सब्सिडीखोर होने की तोहमत से लज्जित कर रही है और दूसरी तरफ पेट्रो उत्पाद महंगे भी हो रहे हैं। खाद्य सब्सिडी का खेल तो अनोखा है। राशन प्रणाली में हर पांच साल में बदलाव के बावजूद 60 फीसदी अनाज कालाबाजारिए खाते हैं, मगर इस मरियल व लूटग्रस्त राशन प्रणाली के सर सरकार खाद्य सुरक्षा गारंटी रखने जा रही है यानी करीब 1.2 खरब रुपये की ताजा सब्सिडी का बिल तैयार है। सब्सिडी अब हमारी जरूरत नहीं, बल्कि मुसीबत बन गई है। यह एक ऐसी अपसंस्कृति तैयार कर चुकी है, जहां बांटने का श्रेय लेने को हर कोई तैयार है, मगर बर्बादी रोकने का जिम्मेदार कोई नहीं है। गरीबी कम करने या सेवाओं की आपूर्ति ठीक करने में सरकारी स्कीमों की सफलता बेहद संदिग्ध है। गरीबी आर्थिक विकास से कम हुई, उदार बाजार से शिक्षा व सेहत की सुविधाएं बढ़ी हैं और गावों के लिए रोजगार शहरों ने तैयार किए हैं। लेकिन सरकार के सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों का पहाड़ा वर्षो से नहीं बदला। एक बड़ी आबादी वाले मुल्क में हर चीज का बाजार होता है। इसलिए सयानी सरकारें बाजार को कायदे से विनियमित करती हैं, सही कीमत पर सुविधाओं व फायदों का बंटवारा तय करती हैं और लोगों की आय बढ़ाने में मदद करती हैं। सरकारों के हस्तक्षेप सिर्फ वहीं जरूरी होते हैं, जहां या तो बाजार असफल हो जाता है या फिर उसके लिए संभावनाएं नहीं होतीं। ऐसे किसी ऐतिहासिक रूप से पिछड़े बुंदेलखंड , कालाहांडी या मेवात को चमकाने के लिए सरकार को कुछ वर्ष चाहिए, कई दशक नहीं। योजना आयेाग और वित्त मंत्रालय अपने प्रागैतिहासिक फार्मूलों के मोह में फंसे हैं। एक विशाल, असंगत और बहुआयामी देश में जन कल्याण के कार्यक्रमों और सब्सिडी की पूरी सोच ही बदलने की जरूरत है, क्योंकि इतने बड़े देश को एक मनरेगा, राशन प्रणाली या स्वास्थ्य मिशन में फिट नहीं किया जा सकता। हमें गरीबी, अशिक्षा, भूख दूर करने के कार्यक्रमों का नया आविष्कार चाहिए। देश को एक नए बजट की जरूरत है। नई सूझ के बजट की! क्या वित्त मंत्री ऐसा बजट देने जा रहे हैं? उम्मीद रखने में क्या हर्ज है!! ड्डठ्ठह्यद्धह्वद्वड्डठ्ठह्लद्ब2ड्डह्मद्ब@स्त्रद्गद्य.द्भड्डद्दह्मड्डठ्ठ.ष्श्रद्व

Saturday, February 18, 2012

आंध्र के बजट में 16 फीसदी वृद्धि


आंध्र प्रदेश सरकार ने अगामी वित्त वर्ष 2012-13 के लिए 1.45 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया है। बजट में 4,444 करोड़ रुपये के राजस्व आधिक्य और 20,008 करोड़ रुपये के राजकोषीय घाटे का अनुमान जताया गया है। वर्ष 2011-12 के लिए 1.28 लाख करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया था, जो संशोधित अनुमान में 1.22 लाख करोड़ रुपये का रह गया। प्रदेश के वित्त मंत्री अनाम रामनारायण रेड्डी ने बजट में सभी क्षेत्रों के लिए राशि के प्रावधान में काफी वृद्धि की है। हालांकि चालू वित्त वर्ष 2011-12 के लिए जितने भी लक्ष्य तय किए गए थे उन्हें हासिल नहीं किया जा सका। बजट में किसी नई योजना की घोषणा नहीं की गई है। हालांकि मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी द्वारा वर्ष के दौरान किसानों और महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए शून्य ब्याज पर कर्ज और एक रुपये किलो चावल दिए जाने जैसी घोषणाओं का बजट भाषण में जिक्र किया गया। रामनारायण ने कहा कि बजट में अनुमानित कुल खर्च में 91,824 करोड़ रुपये गैर-योजना खर्च के लिए और 54,030 करोड़ रुपये योजना व्यय के तहत रखे गए हैं। राज्य सरकार ने चालू वित्त वर्ष के बजट में हालांकि 3,826 करोड़ रुपये का राजस्व अधिशेष अनुमानित किया था लेकिन संशोधित अनुमानों में यह कम होकर 780 करोड़ रुपये रह गया और राजकोषीय घाटा 17,784 करोड़ रुपये रहा। चालू वित्त वर्ष में राज्य की राजस्व वसूली के संशोधित अनुमानों में नकारात्मक रुझान देखा गया। जबकि वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष के लिए इसमें 24,000 करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान लगाया है। इस बजट में वर्ष 2005 के बाद से ही बड़ी राशि हासिल कर रहे प्रदेश के सिंचाई विभाग के आवंटन में कोई वृद्धि नहीं की गई है। इस साल विभाग के लिए पिछले साल के बराबर 15,010 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की गई।


एयर इंडिया की कर्ज पुनर्गठन योजना मंजूर


नकदी संकट से जूझ रही एयर इंडिया को कर्ज देने वाले बैंकों ने कंपनी पर बकाया 18,000 करोड़ रुपये का कर्ज पुनर्गठित करने की योजना मंजूर कर ली है। साथ ही ये बैंक एयरलाइंस को 2,200 करोड़ रुपये का नया कर्ज देने को भी तैयार हो गए हैं। सूत्रों के मुताबिक पुनर्गठन योजना के तहत एयर इंडिया इन बैंकों को 7,400 करोड़ रुपये के गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर जारी करेगी। समय पूरा होने पर एयरलाइंस की ओर से इन डिबेंचरों का धन वापस किए जाने की जिम्मेदारी सरकार लेगी। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) के नेतृत्व वाले 13 बैंकों के समूह ने एयर इंडिया को रोजमर्रा का काम चलाने के लिए 2,200 करोड़ रुपये का कर्ज देने पर भी सहमति जताई है। दस दिन पहले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रिसमूह ने एयर इंडिया को 7,400 करोड़ रुपये जुटाने की अनुमति दी थी। मंत्रिसमूह ने सरकारी गारंटी वाले गैर परिवर्तनीय डिबेंचर के जरिए ये रकम जुटाने की मंजूरी दी है। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक डिबेंचर की कूपन दर 8.5 से 9 फीसदी होगी। वित्तीय संस्थान ही ये बांड खरीद सकते हैं। एयरइंडिया पर 67,520 करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है। जिसमें से 21,200 करोड़ रुपये का कर्ज रोजमर्रा के कामकाज के लिए लिया गया था जो अल्प और मध्यम अवधि के लिए है। जबकि 22,000 करोड़ रुपये का दीर्घकालिक कर्ज विमान खरीद सौदे के लिए लिया गया। कंपनी पर 4,600 करोड़ रुपये आपूर्तिकर्ताओं के भी बकाया हैं। कंपनी का संचई नुकसान 20,320 करोड़ रुपये का है। बैंक और वित्तीय संस्थानों ने एयर इंडिया का नेट वर्थ सुधारने के लिए कई उपाए सुझाए हैं जिन्हें मंत्रिसमूह ने स्वीकार किया है।

Wednesday, February 15, 2012

महंगाई 26 महीने के निचले स्तर पर


खाने-पीने की चीजों के थोक दाम नीचे आने से सरकार राहत में तो है, लेकिन अभी इससे संतुष्ट नहीं है। जनवरी में थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई की दर सात प्रतिशत से भी नीचे उतर आई है। मंगलवार को जारी ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, यह दर पिछले 26 महीने के निचले स्तर 6.55 फीसदी पर आ गई है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अगले कुछ महीनों में इसके और नीचे आने की उम्मीद जताई है। जनवरी में खाद्य उत्पादों के दाम नीचे आने से महंगाई की सामान्य दर में आई इस गिरावट से माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी का सिलसिला शुरू कर सकता है। वित्त मंत्री ने उम्मीद जताई है कि महंगाई की दर घटते हुए मार्च की समाप्ति तक छह प्रतिशत रह जाएगी। अभी भी स्वीकार्य स्तर पर नहीं है। इससे पहले मार्च अंत तक महंगाई की दर सात प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर दिसंबर, 2011 में 7.47 प्रतिशत पर थी। पिछले साल जनवरी के महीने में यह 9.47 प्रतिशत दर्ज की गई। महंगाई के ताजा आंकड़े नवंबर, 2009 के बाद सबसे कम हैं। जनवरी में महंगाई की दर को नीचे लाने में सब्जियों के साथ-साथ आलू और प्याज की मुख्य भूमिका रही। इस अवधि में खाद्य उत्पादों की महंगाई की दर शून्य से 0.52 प्रतिशत नीचे रही। बहरहाल, मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों को लेकर अभी भी चिंता बनी हुई है। थोक मूल्य सूचकांक में ऐसी वस्तुओं का 65 प्रतिशत तक भारांश है। साल दर साल आधार पर मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की मुद्रास्फीति जनवरी में 6.49 प्रतिशत रही है, पिछले महीने यह 7.41 प्रतिशत रही थी। जनवरी में पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले सब्जियों की कीमतों में 43.13 प्रतिशत की गिरावट आई है। थोक में आलू 23.15 और प्याज 75.57 प्रतिशत सस्ते हुए हैं। गेहूं के दामों में भी पिछले साल के मुकाबले 3.48 प्रतिशत की कमी आई है। वैसे, खाद्य तेल और दूध के ऊंचे दामों को लेकर सरकार की चिंता अभी दूर नहीं हुई है। वित्त मंत्री ने कहा, आने वाले समय में खाद्य तेल और दूध के दामों में तेजी खाद्य महंगाई के सामने सबसे बड़ा खतरा बनी रहेगी। मीट, अंडा तथा अन्य प्रोटीन उत्पादों से भी खाद्य महंगाई की दर के समक्ष जोखिम बरकरार है।

Tuesday, February 14, 2012

कारखाने बने सुस्ती के शिकार


औद्योगिक उत्पादन की घटती रफ्तार से सरकार की परेशानी बढ़ती जा रही है। बीते साल दिसंबर में औद्योगिक उत्पादन सिर्फ 1.8 प्रतिशत की दर से ही बढ़ सका। दिसंबर, 2010 में इसकी रफ्तार 8.1 प्रतिशत थी। उत्पादन वृद्धि दर नीचे आने की मुख्य वजह खनन और पूंजीगत सामान (कैपिटल गुड्स) क्षेत्र में उत्पादन घटना रहा। इससे पहले इसी हफ्ते केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने अनुमान लगाया था कि देश की आर्थिक विकास दर चालू वित्त वर्ष 2011-12 में 6.9 प्रतिशत रहेगी। बीते वित्त वर्ष में यह दर 8.4 प्रतिशत थी। सरकार ने दिसंबर, 2011 के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) के आंकड़े शुक्रवार को जारी किए। इनके मुताबिक, समीक्षाधीन माह के दौरान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के उत्पादन में भी 1.8 प्रतिशत की बढ़त हुई। इसके मुकाबले दिसंबर, 2010 में इस क्षेत्र की वृद्धि दर 8.7 प्रतिशत थी। आइआइपी में इस क्षेत्र का योगदान 75 प्रतिशत है। पिछले कुछ महीनों की तरह खनन क्षेत्र का उत्पादन दिसंबर में भी धीमा ही रहा। बीते वित्त वर्ष की समान अवधि के मुकाबले इसमें 3.7 प्रतिशत की गिरावट आई। साल भर पहले इसी दौरान इस क्षेत्र में 5.9 फीसदी वृद्धि दर्ज हुई थी। दूसरी तरफ बिजली उत्पादन में 9.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इससे पिछले साल की समान अवधि में इसकी वृद्धि दर 5.9 प्रतिशत थी। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में मशीन उपकरण बनाने वाले पूंजीगत उद्योग क्षेत्र के उत्पादन में 16.5 प्रतिशत की बड़ी गिरावट दर्ज की गई। इन उत्पादों का आयात बढ़ना भी इसकी एक वजह हो सकता है। वैसे, इस अवधि में 22 प्रकार के उद्योग समूहों में से 15 में वृद्धि दर्ज हुई। चालू वित्त वर्ष 2011-12 में अप्रैल से दिसंबर की तीन तिमाहियों में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर 3.6 प्रतिशत रही। बीते वित्त वर्ष की समान अवधि में यह 8.3 प्रतिशत थी। सरकार ने नवंबर, 2011 के आइआइपी में संशोधन किया है। इससे उस महीने की औद्योगिक वृद्धि दर 5.94 प्रतिशत हो गई। प्रारंभिक आंकड़ों में इसे 5.9 प्रतिशत बताया गया था। दिसंबर, 2011 के दौरान कुल मिलाकर उपभोक्ता वस्तुओं (कंज्यूमर गुड्स) के उत्पादन में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। उपभोक्ता वस्तुओं में टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों (कंज्यूमर ड्यूरेबल) का उत्पादन 5.3 प्रतिशत बढ़ा। इसी तरह गैर टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों (एफएमसीजी) का उत्पादन 13.4 प्रतिशत की दर से बढ़ा।