Wednesday, July 27, 2011

खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का मतलब



खुदरा व्यापार में भी विदेशी निवेश की मंजूरी देकर भारत सरकार ने एक बार फिर बहस को जन्म दे दिया है। उदारीकरण की शुरुआत के ठीक बीस साल बाद रिटेल सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए खोलने के बाद बहस एक बार फिर वही है कि देशभर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदारों का क्या होगा। इतनी संख्या तो खुद भारत सरकार ही मानती है, लेकिन यह संख्या इससे और ज्यादा ही है। क्योंकि देशभर में रेहड़ी-पटरी वाले व्यापारियों का अभी तक कोई मुकम्मल आंकड़ा तैयार नहीं किया जा सका है, लेकिन अगर भारत सरकार के बिजनेस पोर्टल की ही मान लें तो भारत भर में फैले करीब डेढ़ करोड़ खुदरा दुकानदार तो हैं ही और उनके साथ करीब नौ करोड़ लोगों की जिंदगी भी जुड़ी है। इसके साथ ही अगर रेहड़ी-पटरी वालों को भी जोड़ दें तो यह संख्या अनुमान से भी कहीं ज्यादा हो सकती है। जाहिर है, उनकी रोजी-रोटी का जरिया खुदरा व्यापार ही है। उदारीकरण की शुरुआत के ठीक बीस साल बाद अगर रिटेल सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए खोला जाएगा और इतनी बड़ी आबादी की रोजी-रोटी के सरोकारों को लेकर विचार नहीं किया जाएगा तो सवाल उठेंगे ही। बहरहाल, खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के बाद भारत में आने वाले बदलावों की चर्चा से पहले इससे जुड़े आंकड़ों पर विचार करना जरूरी है। रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश को खोलने की मांग तो बरसों से हो रही है। इसकी वजह है भारत का विशाल मध्यवर्ग और तेजी से बढ़ती उसकी खरीद क्षमता। पिछले साल दुनिया की जानी-मानी रिसर्च कंपनी प्राइसवाटर हाउसकूपर ने भारत के रिटेल सेक्टर को लेकर एक अध्ययन किया था। मजबूत और स्थिर 2011 शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में उसने अनुमान लगाया था कि भारत का खुदरा क्षेत्र 2014 तक बढ़कर 900 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अभी खुदरा कारोबार महज 500 अरब डॉलर का है। प्राइसवाटर हाउसकूपर ने अनुमान लगाया है कि 2010 से 2014 तक भारतीय रिटेल सेक्टर में औसतन चार फीसदी की सालाना वृद्धि होगी। प्राइसवाटर हाउस कूपर की यह रिपोर्ट मुख्यत: एशिया के खुदरा क्षेत्र पर केंद्रित है। इसके मुताबिक भारत का खुदरा क्षेत्र चीन और जापान के बाद तीसरे नंबर पर आता है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक चीन में खुदरा क्षेत्र 2014 तक 4,500 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर जाएगा यानी चीन का खुदरा क्षेत्र भारतीय खुदरा क्षेत्र से पांच गुना ज्यादा होगा। तीन साल पहले भारत सरकार ने भी देश के खुदरा बाजार पर अध्ययन कराया था। भारत सरकार के व्यापार पोर्टल के मुताबिक तब तक उपलब्ध अनुमानों के मुताबिक भारत का खुदरा बाजार 1,330,000 करोड़ रुपये का था, जिसमें खाद्य और किराना बाजार की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा यानी 7,92,000 करोड़ रुपये आंकी गई थी यानी यह हिस्सेदारी भारत के कुल खुदरा बाजार में करीब 59.5 प्रतिशत बैठती है। इसके साथ ही कपड़े, वस्त्र उद्योग और फैशन संबंधी चीजों की खुदरा बाजार में हिस्सेदारी 9.9 प्रतिशत के साथ करीब 1,31,300 करोड़ रुपये बैठती है। जो भारत के खुदरा बाजार में दूसरे स्थान पर है। हालांकि यह पूरा का पूरा ब्लॉक असंगठित है। आज संगठित किए जाने के नाम पर खुदरा बाजार को खोलने की जो हिमायत खुद सरकार कर रही है, उसका ही आंकड़ा बताता है कि भारत के खुदरा क्षेत्र का एक ब्लॉक ऐसा भी है, जो पहले से ही कहीं संगठित रहा है। इसमें टाइम वीयर की 48.9 फीसदी और फुटवीयर की 48.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है। देश को उदारीकरण की तरफ ले जाने वाले प्रधानमंत्री और कांग्रेस के साथ ही भारतीय बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि खुदरा क्षेत्र को खोलने के बाद भारत के किसानों की हालत सुधरने वाली है। गुरुचरण दास जैसे आर्थिक मामलों के जानकार लोगों का कहना है कि जिन देशों का खुदरा क्षेत्र संगठित क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है, वहां के सुपर मार्केट आमतौर पर किसानों से सीधे अनाज और सब्जियां खरीदते हैं। फिर फ्रिज्ड करके उसे अपने सुपर मार्केटों तक पहुंचाते हैं और अपने रिटेल स्टोर के जरिए उपभोक्ताओं को बेचते हैं यानी बिचौलिए की वहां भूमिका खत्म हो जाती है। चूंकि किसानों से खुदरा चेन वाली कंपनियां सीधे जींस खरीदेंगी और उन्हें बेचेंगी तो किसानों को उनकी फसल की कहीं ज्यादा कीमत मिलेगी और उनके जरिए भारतीय उपभोक्ताओं को दस-बीस फीसदी कम कीमत पर बेचा जाएगा। यानी खुदरा क्षेत्र के संगठित होने से फायदा किसानों और उपभोक्ताओं-दोनों को होने की उम्मीद है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को खोलने का एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि भारत में अनाज और सब्जियों के रख-रखाव का उचित इंतजाम नहीं होने के चलते करीब 20 से 30 फीसदी तक अनाज और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के बाद आने वाली कंपनियां भंडारण का उचित इंतजाम करेंगी और इससे बर्बादी रुकेगी। वैसे एक फायदा तो यह भी गिनाया जा रहा है कि खाद्यान्न की महंगाई दर में बढ़ोतरी के लिए वायदा कारोबार और उससे जुड़ी जमाखोरी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के बाद वायदा कारोबारियों पर लगाम लगेगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वायदा कारोबारियों को मौका अधिकारियों की ढिलाई के बाद ही मिलता है। इसकी तरफ सरकारों ने अब तक मुकम्मल ध्यान नहीं दिया है। विदेश में बड़े सुपर मार्केट आमतौर पर किसानों से सीधे खाद्यान्न खरीदते हैं, कोल्ड स्टोर में उनका भंडारण करते हैं, एयरकंडीशंड गाडि़यों में उनका परिचालन करते हैं और एयरकंडीशंड स्टोरों में उन्हें सीधे उपभोक्ताओं को बेचते हैं। यह कोल्ड चेन खुले स्थान में पड़े खाद्यान्न की बर्बादी को रोकती है। भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन का 20 से 30 प्रतिशत बर्बाद हो जाता है। आधुनिक रिटेल स्टोर के आने के बाद खाद्यान्न के दामों में 15-20 फीसदी कमी आने और किसानों की आय में 10 से 20 प्रतिशत की वृद्धि होने का अनुमान है, लेकिन हमें करीब डेढ़ दशक पहले की पंजाब की उस घटना को नहीं भूलना चाहिए। पंजाब सरकार ने एक विदेशी कंपनी से समझौते के बाद राज्य के किसानों को टमाटर बोने के लिए प्रोत्साहित किया था। तब कंपनी ने वादा किया था कि वह किसानों से उचित मूल्य पर टमाटर खऱीदेगी और अपनी प्रोसेसिंग यूनिट में उससे केचप और दूसरी चीजें तैयार करेगी, लेकिन जब टमाटर का बंपर उत्पादन होने लगा तो कंपनी तीस पैसे प्रति किलो की दर से टमाटर मांगने लगी। तब किसानों ने कंपनी को टमाटर बेचने की बजाय सड़कों पर ही फैला दिए थे यानी किसानों को वाजिब हक कहां मिल पाया था। किसानों और उपभोक्ताओं को फायदा होने का तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि देश में जिन करोड़ों लोगों की जीविका गली-मुहल्ले में रेहड़ी-पटरी लगाकर सब्जी-भाजी बेचकर चलती है या गली के मुहाने की दुकान के सहारे रोजी-रोटी चल रही है, रिटेल चेन बढ़ने के बाद उनका क्या होगा। वैसे ही इस देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसके लिए नौकरियां पाना आसान नहीं है। रोजगार की हालत वैसे ही अभी तक खराब है। इस देश में बेरोजगारी जमकर है। भारत सरकार के ही आंकड़ों का हवाला दें तो भारत में इस समय बेरोजगारी दर 10.70 फीसदी है। जाहिर है कि जब खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश होगा तो इसमें बढ़ोतरी हो सकती है, क्योंकि जब घर के पास एयरकंडिशंड दुकानों में सस्ते सामान मिलेंगे तो रेहड़ी वालों को कौन पूछेगा, बगल के किराना स्टोर पर कौन जाएगा। यह सच है कि बिना विदेशी निवेश के ही रहेजा, टाटा, फ्यूचर, पीरामल, रिलायंस और भारती जैसे ग्रुपों ने रिटेल स्टोरों की श्रृंखला शुरू कर दी है। जाहिर है कि विदेशी निवेश के बाद इन पर भी दबाव बढ़ेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Monday, July 25, 2011

अर्थ व्यवस्था


सुस्ती ने बढ़ाई पीएमजीएसवाई की लागतठ्ठसुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली केंद्र बात-बात में भले ही राज्यों पर तोहमत लगाता रहा हो कि केंद्रीय योजनाओं में उनका सहयोग नहीं मिलता है, लेकिन प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) में इसके उलट हुआ है। केंद्र की ओर से धन आवंटन में देरी, सड़क बनाने के सख्त मानक और नियमों में संशोधन के कारण इस योजना की रफ्तार धीमी हो गई है। नतीजा यह हुआ कि इस देरी के चलते काम की लागत बढ़ गई और काम भी पूरा नहीं हुआ। सभी गांवों को सड़क से जोड़ने में कुछ साल अभी और लगेंगे। साथ ही लागत भी डेढ़ लाख करोड़ रुपये पहुंच गई है। साल 2000 में जब प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना लागू की गई, तब इसमें 1000 की आबादी वाले गांवों को सड़क से जोड़ने की योजना थी। उस वक्त ऐसे सभी गांवों को वर्ष 2007 तक सड़क से जोड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। वर्ष 2003 के दौरान इस योजना में संशोधन करके आबादी की सीमा घटाकर 500 कर दी गई। साथ ही सड़क बनाने वाली एजेंसी पर ही सड़क के रखरखाव का जिम्मा भी डाल दिया गया। नियमों में हुए इन बदलावों का नतीजा यह हुआ कि एक तो गांवों की संख्या बढ़ गई। दूसरे, रखरखाव की जिम्मेदारी आते ही सड़क बनाने वाली एजेंसियों ने इस योजना से किनारा करना शुरू कर दिया। इससे योजना लक्ष्य से पीछे रह गई। अब तक सिर्फ 69 प्रतिशत गांवों को ही सड़क से जोड़ा जा सका है। योजना लागू करते वक्त ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर 60 हजार करोड़ रुपये की लागत का अनुमान लगाया गया था, लेकिन अब तक इन सड़कों के निर्माण पर कुल 90 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। अब एक बार फिर पीएमजीएसवाई में कुछ संशोधन कर छोटे गांवों (बसावटों) को भी सड़क से जोड़ने का कार्य योजना में शामिल कर दिया गया है। संशोधित योजना में नक्सल प्रभावित सात राज्यों के 60 जिलों के 250 आबादी वाले छोटे गांवों को भी जोड़ दिया गया है। पहले यह योजना सिर्फ पहाड़ी राज्यों में लागू थी। अनुमान है कि इस योजना के लिए अभी अगले पांच साल में डेढ़ लाख करोड़ रुपये की और दरकार होगी। यानी तीस हजार करोड़ रुपये सालाना। योजना में संशोधन कर सरकार उसका दायरा बढ़ा रही है, जिसके चलते इसकी लागत भी बढ़ी है। बावजूद इसके योजना के लिए धन आवंटन में सरकार का रवैया सुस्ती भरा है। चालू वित्त वर्ष में योजना के लिए 20 हजार करोड़ रुपये का आंवटन किया गया है।ं

खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ पर कांग्रेस भाजपा आमने-सामने


खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) को मंजूरी पर कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने आ गए हैं। भाजपा ने सरकार के कदम का विरोध करते हुए कहा है कि इससे देश की आधी आबादी तबाह हो जाएगी। दूसरी तरफ कांग्रेस ने इस कदम का स्वागत किया और कहा कि भाजपा इस मुद्दे पर घटिया राजनीति कर रही है। शुक्रवार को ही सचिवों की एक समिति ने मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में 51 फीसदी एफडीआइ को मंजूरी दी है। भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने आरोप लगाया कि इस मामले में केंद्र सरकार अमेरिकी दबाव में है और वह जो करने जा रही है वह बेहद खतरनाक होगा। उन्होंने कहा कि यह नीतिगत मुद्दा है और सरकार को इस पर आम सहमति बनानी चाहिए। हुसैन ने कहा है कि बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी के बीच खुदरा क्षेत्र को भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिए जाने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। जब संसद की स्थायी समिति इस क्षेत्र को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोले जाने की विरोध कर चुकी है तब सरकार को आम सहमति बनाने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए था। देश में लगभग 50 फीसदी छोटे व्यापारी, खोमचे-रेहड़ी वाले व स्वरोजगार के जरिए अपना पेट पालने वाले लोग हैं। सरकार के इस फैसले से वे सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। शाहनवाज ने कहा कि भाजपा सड़क पर तो इसका विरोध करेगी ही, संसद में भी इस मामले को उठाएगी। दूसरी तरफ कांग्रेस ने सरकार के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि सरकार ने यह कदम सोच समझकर उठाया है। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि भाजपा इस पर घटिया राजनीति कर रही है। सरकार ने अब तक इस बारे में कोई अंतिम फैसला नहीं किया है। सरकार ने कुछ शर्तो के साथ अनुमति देने का फैसला किया है, जो पूरी तरह से वाजिब है।



Monday, July 18, 2011

पंचायतों को मिलेगा खनिजों से राजस्व

छत्तीसगढ़ में पंचायतों और नगरीय निकायों को को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए राज्य की भाजपा सरकार ने उन्हें खनिजों से मिलने वाले राजस्व का एक हिस्सा देने का फैसला किया है। इससे प्राप्त होने वाले राजस्व को पंचायतें व नगरीय निकाय अपने यहां विकास कार्याें में खर्च कर सकेंगे। इसके साथ ही सरकार ने राज्य की सभी पंचायतों की वेबसाइट बनाने का फैसला किया है। इसका मकसद राज्य की पंचायती राज संस्थाओं की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाना और उनकी उपलब्धियां जनता के सामने लाना है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि सरकार ने गिट्टी, रेत, मिट्टी, मुरूम और निम्न श्रेणी के चूना पत्थर जैसे गौण खनिजों के उत्खनन से मिलने वाले राजस्व में छत्तीसगढ़ की पंचायत राज संस्थाओं और नगरीय निकायों को भी भागीदार बनाया है। इस रॉयल्टी का एक निश्चित प्रतिशत हिस्सा उन्हें विकास कार्यो के लिए मिलेगा। इसके साथ ही राज्य के खनिज साधन विभाग ने गौण खनिजों की रॉयल्टी के वितरण के लिए प्रक्रिया तय कर दी है। इसके अनुसार पूर्व वित्तीय वर्ष में गौण खनिजों से प्राप्त सभी राजस्व का 33 प्रतिशत पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग को दिया जाएगा, जबकि 67 प्रतिशत राशि का वितरण पंचायतों और स्थानीय निकायों को किया जाएगा। उन्होंने बताया कि परिपत्र के अनुसार ग्राम पंचायतों और जनपद पंचायतों को दी गई राशि तथा उस पर अर्जित ब्याज का उपयोग संबंधित ग्राम पंचायतों और जनपद पंचायतों द्वारा केवल विकास कार्यों के लिए किया जाएगा। इस राशि का उपयोग किसी भी प्रकार के आकस्मिक व्यय, स्थापना व्यय, वाहन खरीद या अन्य किसी प्रकार के व्यय के लिए नहीं किया जाएगा। इसके अलावा राज्य की डॉ. रमन सिहं सरकार ने राज्य के सभी स्थानीय निकायों की वेबसाइट बनाने का फैसला किया है जिसके माध्यम से लोगों तक सही जानकारी पहुंचाई जाएगी। इसका मकसद राज्य की पंचायती राज संस्थाओं की जानकारी एक ही जगह उपलब्ध कराने और पंचायतों की उपलब्धियां जनता के सामने लाना है। इसके लिए छत्तीसगढ़ की सभी 18 जिला पंचायतों, 146 जनपद पंचायतों और नौ हजार 734 ग्राम पंचायतों द्वारा अपनी-अपनी वेबसाइट बनाई जाएगी। पहले चरण में राज्य की सभी जिला पंचायतों, जनपद पंचायतों और प्रत्येक जिले की 10 ग्राम पंचायतों की वेबसाइट राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल में प्रदर्शित की जाएगी। अधिकारियों ने बताया कि पूरे देश की सभी पंचायतों की वेबसाइटें एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल तैयार किया गया है। राज्य की सभी पंचायतों की अपनी-अपनी वेबसाइटों को इसी पोर्टल में विकसित करने की व्यवस्था की गई है। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल के कार्य के लिए जिला स्तर पर पंचायत और समाज कल्याण के संयुक्त संचालक या उप संचालक को तथा जनपद पंचायत स्तर पर मुख्य कार्यपालन अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाया जाएगा। उन्हें राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल पर संबंधित पंचायतों की जानकारी प्रदर्शित करवाने की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल के संबंध में प्रत्येक जिले में जिला सूचना विज्ञान अधिकारी द्वारा जुलाई माह में प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। इस प्रशिक्षण में नोडल अधिकारी और संबंधित कंप्यूटर आपरेटर सम्मिलित होंगे। अधिकारियों ने बताया कि राष्ट्रीय पंचायत पोर्टल में विभिन्न विषयों मसलन, भौगोलिक क्षेत्र, जनसंख्या, निर्वाचन, निर्वाचित पदाधिकारियों का बायोडाटा, पंचायत राज संस्था का बजट, योजना, जनकल्याणकारी योजनाओं, वित्तीय प्रगति, शिकायतें, आवेदन पत्र, सफलता की कहानियां फोल्डर बने हुए हंै। इन विषयों के अनुरूप लोगों को जानकारी दी जाएगी।

नई पेंशन योजना की अकाल मौत

देश के जिस नए पेंशन स्कीम (एनपीएस) को बचत क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए था वह मृतप्राय बना हुआ है। कम से कम अभी तो यही स्थिति है। यह मैं नहीं बल्कि सरकार द्वारा गठित वह समिति कह रही है जिसे एनपीएस की मौजूदा स्थिति के मूल्यांकन के लिए गठित किया गया है। औपचारिक क्षेत्र पेंशन क्रियान्वयन समीक्षा समिति (एनपीएस सुधारों पर वाजपेयी समिति) की सिफारिशें पेंशन नियामक पीएफआरडीए की वेबसाइट पर जारी की गई हैं। एनपीएस में सुधार के लिए दिए सुझावों की इस रिपोर्ट में जिस बात ने लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया है वह है एनपीएस बेचने वालों को 0.5 प्रतिशत कमीशन देने की अनुशंसा। यह एनपीएस की मूल संरचना में एक बड़ा भारी बदलाव करने वाली अनुशंसा है लेकिन यह रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि एनपीएस की मौजूदा संरचना में सभी चीजें त्रुटिपूर्ण हैं। इसकी खामियों के चलते ही कोई इसे खरीदना नहीं चाहता और न ही कोई इसे बेचने की कोशिश करता है। एनपीएस में फिलहाल जो भी पैसा आ रहा है वह इस योजना में शामिल हुए सरकारी कर्मचारियों का है। हाल ही में पता चला है कि अपनी पसंद से एनपीएस का विकल्प चुनने वाले लोगों ने अब तक केवल 100 करोड़ रुपये ही निवेश किए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह राशि भी दो कॉरपोरेट समूहों द्वारा इस योजना को अपनाए जाने के कारण जमा हुआ है। अंतिम उपभोक्ता की इस योजना में हिस्सेदारी शून्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो नई पेंशन योजना पूरी तरह से असफल है। एनपीएस की मौजूदा स्थिति का एक पक्ष यह है कि इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं हुई। सरकारी कर्मचारियों को इस योजना में हिस्सेदारी निभाने के लिए जोड़ने में केद्र और राज्य सरकारों की असफलता का यह परिणाम है। इसमें प्रस्ताव किया गया था कि एनपीएस योजना में शामिल प्रत्येक सरकारी कर्मचारी का अपना एक अकाउंट होगा। वह इसे बढ़ते हुए देख सकेंगे और इसकी निगरानी कर सकेंगे। वर्ष 2004 में शुरू हुए इस निवेश विकल्प (हिस्सेदारी आवंटन के साथ) को निर्धारित आय विकल्पों की तुलना में कहीं ज्यादा रिटर्न देना था। सबसे खास बात यह कि अपने भविष्य के लिए एनपीएस में पैसा लगाने वाले 12 लाख सरकारी कर्मचारी इसके लिए उदाहरण बनने वाले थे जो अपने पैसे में वृद्धि के निजी अनुभव दूसरों को बता सकें। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एनपीएस का मूल क्रियान्वयन पूरी तरह से असफल रहा। वर्ष 2004 के बाद से इसमें पैसे का निवेश ही नहीं हुआ। सरकारी कर्मचारियों के पास एनपीएस के तहत सीआरए (सेंट्रल रिकॉर्ड कीपिंग एजेंसी) का खाता नहीं है। उन्हें इस बात की सीधी सूचना भी नहीं मिलती है कि उनके नाम पर किस तरह से निवेश किया गया और इसका रखरखाव किस तरह से किया जा रहा है। उन्हें नहीं पता कि उन्होंने कितना पैसा जुटाया और कौन सा फंड मैनेजर अच्छा काम कर रहा है और कौन खराब। गड़बड़ी का सिलसिला यहीं नहीं थमा। वाजपेयी समिति ने खुलासा किया है कि वह इस बात का पता लगाने में भी अक्षम रही है कि कुल कितने कर्मचारी एनपीएस में शामिल हुए हैं। साथ ही उसे यह भी पता नहीं चल पाया कि वर्ष 2004 में सरकारी नौकरी हासिल करने वाले सभी लोग एनपीएस योजना का हिस्सा हैं या नहीं। या फिर उनकी पेंशन राशि किस अन्य विकल्प में निवेश की जा रही है। रिपोर्ट में लिखा गया यह बयान अचंभित करने वाला है। इसमें कहा गया है कि इस बात के कोई ठोस दस्तावेज मौजूद नहीं हैं (पीआरएएन रजिस्टर के आधार पर) कि एक जनवरी, 2004 के बाद सरकारी नौकरी शुरू करने वाले सभी लोग एनपीएस योजना में शामिल हैं या नहीं। हालांकि कुल निवेशकों की संख्या और नौकरी पर रखे गए लोगों की कुल संख्या के बीच का अंतर इसमें जरूर मौजूद है। जिन निवेशकों की हिस्सेदारी अब तक एनपीएस में रही है उनकी मामूली संख्या को लेकर भी संतुष्टि का भाव है। यह स्पष्ट है कि एनपीएस की मौजूदा संरचना को लेकर कुछ ज्वलंत मुद्दे हैं जिसे समिति की अनुशंसाओं में उठाया गया है। इस बात को स्पष्ट तरीके से स्वीकार किया गया है कि वित्तीय उत्पादों को सक्रिय तरीके से ही बेचा जा सकता है और बैंक वही चीजें बेचते हैं जिससे उन्हें लाभ हो। समिति की इस निर्णय की उपेक्षा करना कठिन है कि महत्वपूर्ण बचत विकल्प के रूप में एनपीएस पूरी तरह से असफल हो गया जिसे जल्द से जल्द सुधारा जाना चाहिए।

कर संग्रह का बढ़ेगा लक्ष्य

घटती आमदनी से चिंतित केंद्र सरकार अब राजस्व संग्रह बढ़ाने पर जोर दे रही है। इसके लिए चालू वित्त वर्ष में अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष कर संग्रह के लक्ष्य को 10 फीसदी तक बढ़ाने की सरकार की योजना है। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने शनिवार को केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) और केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड (सीबीईसी) से कर संग्रह लक्ष्य बढ़ाने को कहा है। सीबीडीटी और सीबीईसी के अधिकारियों से मुलाकात के बाद मुखर्जी ने कहा कि कर संग्रह लक्ष्य 10 प्रतिशत बढ़ाए जाने की जरूरत है। सरकारी खजाने पर बढ़ते दबाव और सब्सिडी मांग को पूरा करने के लिए कर लक्ष्य बढ़ाए जा रहे हैं। दरअसल, सरकार ने चालू वित्त वर्ष में सार्वजनिक कंपनियों के विनिवेश से 40 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था। मगर शेयर बाजार की उठा पटक के चलते कंपनियां पूंजी बाजार में उतरने से हिचक रही है। साथ ही पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी के मद में सरकार को बजटीय प्रावधान की तुलना में कहीं ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है। इसे देखते हुए ही यह कदम उठाया जा रहा है। ब्याज दरों में लगातार वृद्धि से आर्थिक वृद्धि की रफ्तार धीमी पड़ने की आशंकाओं के बीच वित्त मंत्री का यह बयान काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। एक ओर विश्व बाजार में कच्चे तेल और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम उच्च स्तर पर बने हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ घरेलू बाजार में भी सुस्ती की आशंका बढ़ रही है। सरकारी खजाने पर सब्सिडी बोझ बढ़ने और राजस्व उगाही कम रहने से राजकोषीय घाटा बढ़ने का दबाव है। चालू वित्त वर्ष में अप्रत्यक्ष करों से 3.97 लाख करोड़ रुपये और अप्रत्यक्ष कर संग्रह से 5.30 लाख करोड़ रुपये जुटाने का बजट लक्ष्य रखा गया है। इस राशि में 10 प्रतिशत वृद्धि से राजकोषीय घाटे को 4.6 प्रतिशत के बजटीय अनुमान के स्तर पर रखा जा सकेगा। वित्त मंत्री के साथ हुई इस बैठक में बैठक में सीबीडीटी और सीबीईसी अध्यक्ष के अलावा राजस्व सचिव और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर विभाग के वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। आम जनता पर पेट्रोलियम पदार्थो की मूल्यवृद्धि का असर कम करने के लिए वित्त मंत्रालय ने पिछले महीने कच्चे तेल के आयात पर लागू पांच प्रतिशत सीमा शुल्क पूरी तरह समाप्त कर दिया। पेट्रोल-डीजल पर भी इसे 7.5 से घटाकर 2.5 प्रतिशत कर दिया था। इसके अलावा डीजल पर उत्पाद शुल्क में भी कटौती की गई। इससे सरकारी खजाने को करीब 36,000 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होने का अनुमान है।

निर्यात की तेज रफ्तार पर शंका

पांच महीनों से भले ही निर्यात की रफ्तार काफी तेज हो मगर आगे भी इसके जारी रहने की संभावना कम ही। वाणिज्य सचिव राहुल खुल्लर ने चेतावनी दी है कि निर्यात में 40-45 प्रतिशत की ऊंची वृद्धि दर आने वाले महीनों में जारी नही रह सकेगी। पिछले पांच महीनों में निर्यात वृद्धि की औसत दर 40 प्रतिशत से ज्यादा रही है। मई में तो इसमें 57 प्रतिशत की जोरदार वृद्धि हुई। खुल्लर ने कहा कि हमें तीन चार महीने इंतजार करना होगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था में फिलहाल सभी चीजें ठीक नहीं हैं। 40 प्रतिशत की वृद्धि कुछ समय का भ्रम है। यह पूरे साल जारी नहीं रहेगी। हालांकि उन्होंने कहा कि निर्यात में 20 प्रतिशत की दर से वृद्धि होती रहेगी और यह इससे कम नहीं होगी। 20 प्रतिशत से कम वृद्धि नहीं होने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि भारत के कुछ उद्योग क्षेत्र बेहद प्रतिस्पर्धी हो गए हैं। बाजार में इनके बिना काम नहीं चल सकता। उन्होंने कहा कि चमड़ा, कपड़ा, कारपेट, इंजीनियरिंग और दवा क्षेत्र में निर्यात वृद्धि जारी रहेगी। इस साल अप्रैल-जून तिमाही में निर्यात 45.7 प्रतिशत बढ़कर 79 अरब डॉलर हो गया। निर्यात संव‌र्द्ध योजना ड्यूटी एंटाइटलमेंट पास बुक (डीईपीबी) के बारे में उन्होंने कहा कि 30 सितंबर को यह योजना समाप्त हो जाएगी और ड्यूटी ड्रॉबैक योजना लागू हो जाएगी। इस योजना का सबसे ज्यादा लाभ छोटे और मझोले उद्योगों को मिला है। क्षेत्रवार रूप में देखें तो इंजीनियरिंग और रसायन क्षेत्र को सबसे ज्यादा लाभ मिला है। मुद्रास्फीति के संबंध में खुल्लर ने कहा कि महंगाई में जल्द ही कमी आएगी। जब तक आपूर्ति में वृद्धि नहीं होती तब तक महंगाई पर नियंत्रण करना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र में बेहतर पैदावार होने पर महंगाई में कमी आएगी क्योंकि दूध, दूध से बने उत्पाद, अंडा और मछली जैसे उत्पादों की कीमतें बढ़ने से महंगाई का दबाव बढ़ा है। जून में महंगाई दर 9.44 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है।

गेहूं निर्यात पर लगी रोक हटी

नई दिल्ली गेहूं के निर्यात पर पिछले चार साल से लगी रोक हटा ली गई है। कृषि मंत्री शरद पवार ने शनिवार को यह जानकारी दी। हालांकि अभी निर्यात की मात्रा पर फैसला नहीं किया गया है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम कीमत के कारण फिलहाल गेहूं निर्यात शायद ही फायदेमंद साबित हो। वहीं भरे गोदामों के बीच अगले साल आने वाले गेहूं के रखरखाव को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। पवार ने बताया कि फिलहाल गोदामों में 370 लाख टन गेहूं है। उधर, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कृषि वैज्ञानिकों को सतर्क करते हुए कहा है कि अगले 10 वर्ष में देश को 28 करोड़ टन से ज्यादा अनाज की जरूरत होगी। फिर से एक हरित क्रांति की जरूरत बताते हुए उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों को सुनिश्चित करना होगा कि हर साल उत्पादन की दर में कम से कम दो फीसदी की बढ़ोतरी हो। उन्होंने कृषि उत्पादन के लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित पांच राज्यों को पुरस्कृत किया। शनिवार को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) के एक समारोह में प्रधानमंत्री ने जहां किसानों की पीठ थपथपाई वहीं भविष्य को लेकर अपनी चिंता से भी अवगत करा दिया। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में हमें पक्की तैयारी करनी होगी। उन्होंने कहा कि वर्ष 1997-98 से लेकर वर्ष 2006-07 के दशक में कृषि उत्पादन की दर काफी कम रही है। हालांकि बाद में इसे ठीक किया गया है। सिंचाई, वैज्ञानिक मदद और कीटाणुओं से अनाज का बचाव बड़ी चिंता है। वैज्ञानिक शोध पर फिलहाल कृषि जीडीपी का 0.6 फीसदी खर्च किया जाता है। इसे दो-तीन गुना बढ़ाना होगा। वहीं सिंचाई को 30 फीसदी से बढ़ाकर कम से कम पचास फीसदी लाना होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि नए-नए रोगों से अनाज का बचाव हो सके और किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी हो। वर्ष 2010-11 में 24.1 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हुआ है जो पिछले साल के मुकाबले 23 फीसदी ज्यादा है। इसी को देखते हुए पहले चावल और अब गेहूं के निर्यात पर से प्रतिबंध को हटाया गया है। सरकार ने वर्ष 2007 में घरेलू जरूरतों को पूरा करने और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था। इसके एक साल बाद चावल निर्यात पर रोक लगा दी गई थी।

निर्यात सब्सिडी पर सरकार में घमासान के आसार

बंपर पैदावार व भारी स्टॉक के बावजूद गेहूं-चावल निर्यात के मुद्दे पर केंद्र सरकार के भीतर की तनातनी खजाने पर भारी पड़ सकती है। कृषि व वाणिज्य मंत्रालय गेहूं निर्यात के लिए सब्सिडी देने के विकल्प को खंगालने में जुटे हैं, वहीं खाद्य व वित्त मंत्रालय को यह उपाय नहीं सुहा रहा है। सरकार का एक बड़ा तबका इसकी जगह गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने का पक्षधर है। मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह (ईजीओएम) की अगली बैठक में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा होने की संभावना है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं 240 से 250 डॉलर प्रति टन के भाव पर उपलब्ध है, जबकि भारतीय गेहूं का मूल्य 300 डॉलर प्रति टन पड़ेगा। ऐसे में सरकार को प्रति टन 50 से 60 डॉलर सब्सिडी देनी होगी। गेहूं का लागत मूल्य भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के दस्तावेजों में 1500 रुपये से अधिक दर्ज किया है। सरकार के भीतर समन्वय न होने की वजह से गेहूं व चावल निर्यात के फैसले में बहुत देरी हुई है। चावल निर्यात पर तो अंतिम फैसला ले भी लिया गया है, लेकिन गेहूं का मामला अभी भी अधर में है। गेहूं निर्यात की घोषणा के साथ कृषि मंत्री शरद पवार ने यह भी जोड़ा था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार फिलहाल अनुकूल नहीं है। सूत्रों के अनुसार, कृषि मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय ने गेहूं निर्यात के लिए सब्सिडी का प्रस्ताव तैयार किया है। इस मुद्दे पर ईजीओएम की अगली बैठक में इस प्रस्ताव पर विचार किए जाने की संभावना है।वित्त मंत्रालय और खाद्य मंत्रालय को निर्यात सब्सिडी देने का विकल्प पच नहीं रहा है। वित्त मंत्रालय का मानना है कि इससे खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सरकार वैसे ही सब्सिडी का भार घटाने में जुटी है।

Saturday, July 16, 2011

कोयला मंत्रालय के तेवर से झारखंड को बिजली का झटका


खनिज विकास निगम के पिंडरा-देवीपुर खोवाटांड कोल ब्लॉक और तेनुघाट विद्युत निगम के राजबर कोल ब्लॉक का आवंटन रद करने की चेतावनी देकर कोयला मंत्रालय ने झारखंड सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इससे पहले भी कोयला मंत्रालय झारखंड बिजली बोर्ड, दामोदर घाटी निगम और एनटीपीसी के कई कोल ब्लॉकों का आवंटन रद कर चुका है। इससे झारखंड में बिजली संकट और गहराने के आसार हैं। कोयला मंत्रालय ने शुक्रवार को झारखंड खनिज निगम के प्रबंध निदेशक को चेतावनी दी कि बार-बार निर्देश देने के बाद भी पिंडरा-देबीपुर खोवाटांड कोल ब्लॉक का विकास नहीं हो पाया है। 22 जून, 2009 को समीक्षा बैठक में मुख्य सचिव को निर्देश दिया गया था कि वह निगम को आवंटित कोल ब्लॉकों का विकास करवा कर उत्पादन शुरू कराएं, नहीं तो आवंटन रद कर दिए जाएंगे। निगम को यह ब्लॉक 2006 में आवंटित किया गया था। इसी तरह तेनुघाट विद्युत निगम लिमिटेड को 2007 में आवंटित राजबर ईएंडडी कोल ब्लॉक के आवंटन को भी रद करने की चेतावनी दी गई है। कोयला मंत्रालय ने 12 जुलाई को तेनुघाट विद्युत निगम के बादाम कोल ब्लॉक और 8 जुलाई को डीवीसी के खगरा जायदेव और झारखंड खनिज विकास निगम के लातेहार कोल ब्लॉक के लिए चेतावनी दी है। राज्य में बिजली उत्पादन करने वाले बोर्ड और निगमों को आवंटित कोल ब्लॉकों के आवंटन रद होने के बाद मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा 7 जुलाई को केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से मिले थे। कोयला मंत्री से उन्होंने रद कोल ब्लॉकों के मामले में पुनर्विचार का आग्रह किया था। इसके बाद भी केंद्र सरकार के तेवर में कोई नरमी नहीं दिखाई दे रही है। मंत्रालय ने झारखंड में एनटीपीसी के तीन कोल ब्लॉक छाटी बारियातू, दक्षिणी छाटी बारियातू और केरनदारी कोल ब्लाकों का आवंटन पहले ही रद कर दिया है। छाटी बारियातू और केरनदारी कोल ब्लॉक उत्तर कर्णपुरा कोलफील्ड में स्थित है। 2006 में इसे एनटीपीसी को आवंटित किया गया था। मंत्रालय ने झारखंड राज्य बिजली बोर्ड को 2006 में आवंटित बंहरडीह और डीवीसी को 2007 में आवंटित सहरपुर जमरपानी कोल ब्लॉक का आवंटन रद कर दिया है। अब जिन कोल ब्लाकों के बारे में चेतावनी दी जा रही है अगर वे भी रद हुए तो झारखंड में बिजली संकट और गहराएगा।