Monday, April 25, 2011

लंदन से लाया जाए गिरवी रखा सोना


वहत्तर भारत में सोने का भंडार लगातार बढ़ रहा है। यह स्वर्ण आभूषण विक्रेताओं, घरों और रिजर्व बैंक में जमा है। विश्व स्वर्ण परिषद् द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 18 हजार टन सोने का भंडार है। 'इंडिया हार्ट ऑफ गोल्ड 2010' शीर्षक से जारी हुई सोने की उपलब्धता की यह रपट विश्व में सोने की वस्तुस्थिति को लेकर किए गए अध्ययन के बाद सामने आई है। दुनिया का 32 प्रतिशत सोना भारत के पास है। 2010 में देश में सोने की मांग 25 प्रतिशत बढ़कर 963.1 टन हो गई थी। विपुल स्वर्ण भंडार की यह उपलब्धता तब है जबकि चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्वकाल में बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रखा गया सोना आज तक वापस नहीं आया है। यदि यह आ जाता है तो भारत की स्वर्ण शक्ति में और वृद्धि दर्ज हो जाएगी। हमारे देश में इस समय सोने का जो भंडार है, उसका मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार में करीब 800 अरब डॉलर है। यदि इस सोने को देश की कुल आबादी में बराबर टुकड़ों में बांटा जाए तो देश के प्रत्येक नागरिक के हिस्से में करीब आधा औंस सोना आएगा। हालांकि प्रति व्यक्ति सोने की यह उपलब्धता पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत कम है पर इसका कारण हमारी विशालकाय आबादी है। भारतीय महिलाओं में स्वर्ण- आभूषणों के प्रति लगाव के चलते इसमें बढ़ोतरी होते जाने की उम्मीदें हैं। हमारे यहां के लोग धन की बचत करने में दुनिया में अग्रणी हैं। औसत भारतीय अपनी आमदनी का 30 फीसद हिस्सा बचत करते हैं। स्वर्ण परिषद् के आकलन के मुताबिक 2009 में देश में सोने की मांग 19 अरब डॉलर तक पहुंच गई थी। यह मांग दुनिया में सोने की कुल मांग की 15 प्रतिशत आंकी गई। पिछले एक दशक में सोने की घरेलू मांग में 13 फीसद प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि दर्ज की जा रही थी जो 2010 में 25 फीसद तक पहुंच गई। भारतीय रिजर्व बैंक में वित्तीय वर्ष 2009 में सोने का कुल भंडार 357.8 टन था। पिछले छह वित्तीय वर्षों में रिजर्व बैंक में स्वर्ण भंडार की यही उपलब्धता दर्ज बनी चली आ रही है। मनमोहन सिंह सरकार के सात सालों के कार्यकाल में इस भंडार में कोई इजाफा नहीं हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से जो स्वर्ण भंडार उन्हें विरासत में मिला था उसमें राई-रत्ती भी बढ़ोतरी अथवा घटोतरी नहीं हुई। गौरतलब है कि देश की वित्तीय हालत खराब होने पर 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने 65.27 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट में गिरवी रखवा दिया था जो 19 साल बीत जाने पर भी यथास्थिति में है। देश की जनता के लिए यह हैरानी में डालने वाली बात है जबकि इस दौरान देश में कांग्रेस के पी.वी. नरसिंहाराव और बाद में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुए और अब 2004 से मनमोहन सिंह इस पद पर हैं। लेकिन इस सोने की चिंता कभी किसी ने नहीं की। यद्यपि इस गिरवी रखे गए सोने के बदले जो विदेशी पूंजी भारत सरकार ने उधार ली थी, उसका हिसाब भी चुकता हो चुका है। इसके बावजूद इतने बड़े स्वर्ण भंडार को वापस लाने में सरकारों ने क्यों दिलचस्पी नहीं ली, यह आश्र्चय की बात है। हैरानी की बात यह भी है कि भारतीय रिजर्व बैंक इस सोने को विदेशी निवेश मानकर देश के मुद्रा भंडार में दर्ज भी नहीं करता!
बैंकिंग जानकारों का मानना है कि इस सोने के प्रति जो लापरवाही बरती जा रही है, वह रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की खुली अवहेलना है। अधिनियम के अनुच्छेद 33 (5) के अनुसार रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार का 85 प्रतिशत भाग देश में रखना जरूरी है। यह सिक्कों, बिस्किट्स, ईटों अथवा शुद्ध सोने के रूप में रिजर्व बैंक या उसकी एजेंसियों के पास आस्तियों अथवा परिसम्पत्तियों के रूप में रखा होना चाहिए। इस अधिनियम से सुनिश्चित होता है कि ज्यादा से ज्यादा 15 फीसद स्वर्णभंडार ही देश के बाहर रखा जा सकता है। लेकिन इंग्लैंड में जो 65.27 टन सोना रखा है वह रिजर्व बैंक में उपलब्ध कुल सोने का 18.24 प्रतिशत है जो रिजर्व बैंक की कानूनी-शतरें के मुताबिक ही 3.24 फीसद ज्यादा है। इस सोने पर रिजर्व बैंक को एक प्रतिशत से भी कम रिटर्न हासिल होता है। 2008-2009 में जिस तेजी से सोने के अंतरराष्ट्रीय मूल्य में वृद्धि दर्ज हुई है उस हिसाब से रिजर्व बैंक में मौजूद कुल स्वर्णभंडार की कीमत 39,548.22 करोड़ बैठती है। बहरहाल सोने का मूल्य जो भी हो इंग्लैंड के बैंकों में सोने के रूप में देश की जो अमानत पड़ी है, उसे वापस लाकर देश के स्वर्णभंडार में शामिल किया जाना चाहिए। यह सोना देश की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में लगे लोगों के खून-पसीने की खरी कमाई है, इस नाते इस स्वर्ण को सम्मानपूर्वक देश में तत्काल लाने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए। सरकार ऐसा नहीं करती है तो जनता को इसके लिए सरकार को बाध्य करना चाहिए क्योंकि यह स्वर्ण तो असल में जनता का ही है।


साख के गुंबद में सेंध


स्टॉक एक्सचेंज की छत पर लटके यक्ष ने एक युधिष्ठिर टाइप के निवेशक से पूछा, वत्स! दुनिया के वित्तीय बाजार में प्रश्नों से परे क्या है? निवेशक बोला अमेरिका (दीर्घकालीन कर्ज उपकरण) की साख। यक्ष ने कहा कल्याण हो और निवेशक अपनी किस्मत आजमाने बाजार में उतर गया। वित्तीय बाजारों में वर्षो से सब कुछ यक्ष के वरदान के मुताबिक चल रहा था कि अचानक निवेशकों को बुरे सपने आने लगे। सपने अमेरिकी साख को लेकर थे, जिनका मतलब समझने के लिए निवेशक यक्ष को तलाश ही रहे थे कि उनका दुस्वप्न सच हो गया। दुनिया की प्रमुख रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स (एसएंडपी) ने बीते सप्ताह अमेरिकी साख को नकारात्मक दर्जे में डाल दिया। अपने रेटिंग इतिहास के 70 वर्षो में पहली बार एसएंडपी चीखी कि अमेरिका को कर्ज देने या उसके कर्ज उपकरणों में निवेश करने वाले जोखिम उठाने को तैयार रहें। दुनिया आशंकित तो थी, मगर यकायक विश्वास नहीं हुआ। बाजार सदमे से बैठ गए, निवेशक अपना रक्तचाप नापने लगे, डॉलर गिरावट के कोटर में छिप गया। कोई बोला ऐसा कैसे हो सकता है? यह तो वित्तीय बाजार की सबसे मजबूत मान्यता, विश्वास, दर्शन, सिद्धांत, परंपरा और मानक टूटना है! ..मगर ऐसा हो गया है। अमेरिका वित्तीय साख का शिखर, बुर्ज, गुंबद, मस्तूल, प्रकाश स्तंभ सभी कुछ है, लेकिन कर्ज व घाटे ने साख के गुंबद में सेंध मार दी है। अमेरिकी सरकार के कर्ज बांडों व हुंडियों (ट्रेजरी बिल) पर रेटिंग एजेंसियां हमेशा से सर्वश्रेष्ठ और सबसे सुरक्षित की मुहर (ट्रिपल ए रेटिंग) लगाती हैं, जिसे छीने जाने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। वित्तीय दुनिया अनदेखी, अनसुनी और अप्रत्याशित उलझनों की हिम्मत जुटा रही है। घनघोर कर्ज 2009 में कर्ज संकट के वक्त ही अमेरिकी साख पर खतरे की आहट सुन ली गई थी। कुछ हिम्मतियों ने कहा था कि यह तो अमेरिका है, वरना इतने कर्ज पर तो रेटिंग एजेंसियां किसी दूसरे देश की साख का बैंड बजा देतीं। स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने जब बीते सप्ताह अमेरिका की दीर्घकालीन कर्ज रेटिंग पर अपना आउटलुक यानी नजरिया (स्थिर से नकारात्मक) बदला तो साफ हो गया कि पानी सर से ऊपर निकल गया है। अमेरिका में कर्ज और घाटे के ताजा आंकड़े भयावह हैं। अमेरिका की संघीय सरकार का कर्ज 4.6 ट्रिलियन डॉलर और राष्टीय कर्ज (सभी तरह के सरकारी कर्ज) 9.67 ट्रिलियन डॉलर पर पहुंच गया है। यानी कि कुल सार्वजनिक कर्ज करीब 14.27 ट्रिलियन डॉलर के शिखर पर है। कर्ज जीडीपी अनुपात को देखकर निवेशकों का कलेजा मुंह को आ रहा है। करीब 99.5 फीसदी के अनुपात के साथ अमेरिका का कर्ज व आर्थिक उत्पादन बराबर हो गया है। जीडीपी के अनुपात में करीब 11 फीसदी का बजट घाटा अभूतपूर्व है। पिछले दो वर्षो में अमेरिका दुनिया से उलटा चला है। घाटे से परेशान यूरोप ने घाटा कम करने की सख्ती दिखाई तो अमेरिका ने तेज आर्थिक विकास के लिए घाटा बढ़ाने का दांव चला, जिससे साख पर बन आई है। उम्मीद का घाटा कर्ज से निबटने की उम्मीद के मामले में अमेरिका यूरोप से भी गया गुजरा है। यूरोप के देशों ने घाटा घटाने की रणनीति तो बनाई है, अमेरिका में तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेट घाटा कम करने की योजना को लेकर लड़ रहे हैं। अमेरिका में एक बजट डील यानी कि घाटा घटाने की कार्ययोजना पर राजनीतिक असहमति के बाद जो नाउम्मीदी आई है, वह एसएंडपी के फैसले का आधार है। रिपब्लिकन चाहते हैं कि ओबामा प्रशासन यानी डेमोक्रेट्स घाटा कम करने के लिए कर लगाएं और खर्च घटाएं, जबकि टीम ओबामा केवल सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने की कोशिश में है। बहस का सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि सरकार के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई जाए या नहीं। अमेरिका की सीनेट व कांग्रेस में बहुमत का संतुलन पेचीदा है और माना जा रहा है कि 2012 के चुनाव के बाद, जब कोई एक दल बहुमत में होगा, तब घाटा कम होने की रणनीति बन सकेगी। अमेरिका में सार्वजनिक कर्ज की मौजूदा सीमा (14.3 ट्रिलियन डॉलर) अगले माह पार हो जाएगी। अमेरिकी कांग्रेस को हर हाल में कर्ज लेने की सीमा बढ़ानी होगी। घाटे पर नियंत्रण की ठोस उम्मीद के बिना और घटती साख के साथ अगर अमेरिका और ज्यादा कर्ज उठाएगा तो वित्तीय बाजारों में बड़ा कोहराम मचेगा। आशंकाओं का इंडेक्स 1998 में मूडीज ने जापान को लेकर अपना आउटलुक स्थायी से नकारात्मक किया तो येन तलहटी से जा लगा और जापानी सरकार के बांड बाजार की हिकारत का सबब बन गए। अमेरिका पर स्टैंडर्ड एंड पुअर्स की रेटिंग आते ही दुनिया के बाजार भरभरा गए। अमेरिका में कर्ज और उसे चुकाने की सरकारी क्षमता को लेकर उठे सवाल दूर तक असर करेंगे। जब संघीय सरकार की साख ढह रही है तो खरबों डॉलर के राज्य सरकारों के बांड बाजार और म्युनिसिपल बांड बाजार में तो संहार शुरू हो जाएगा। अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ना, रिटर्न घटना तय है, क्योंकि सरकारी प्रतिभूतियां बाजार में ब्याज दरें तय करने का आधार हैं। अमेरिकी डॉलर का कमजोर होना तय है, जिससे अमेरिकी निवेशक पैंतरा बदलेंगे और दुनिया नई रिजर्व करेंसी की बहस में जुट जाएगी। इसकी शुरुआत भारत-चीन-रूस-ब्राजील ने कर दी है। मगर इन सबसे अलग सबसे गहरी आशंका अमेरिकी बांडों की ट्रिपल ए (पूरी तरह सुरक्षित) रेटिंग को लेकर है। आमतौर पर कर्ज की साख पर रेटिंग का नजरिया (आउटलुक) नकारात्मक (नेगेटिव) होने के छह से 24 माह के भीतर बांडों की रेटिंग घटा दी जाती है। अर्थात अगर अमेरिका ने कर्ज नहीं कम किया तो दो साल के भीतर वित्तीय बाजार में वह होगा जो कभी नहीं हुआ। यानी कि संप्रभु कर्ज की साख का शिखर ढह जाएगा? दुनिया इस हादसे लिए कतई तैयार नहीं है। निवेशक बदहवास हैं। दुनिया के सबसे बड़े बांड निवेशक पिमोको ने इस साल फरवरी में एलानिया तौर पर अमेरिकी बांडों की बिकवाली शुरू कर दी। अब तो अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी अमेरिकी वित्तीय कुप्रबंध से पसीने-पसीने हो रहा है। ..न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सेचेंज की छत वाला यक्ष फिर पूछ रहा है कि दुनिया के वित्तीय बाजार में प्रश्नों से परे क्या है, झुंझलाए निवेशक कहते हैं बेचैनी, अस्थिरता और असमंजस। अमेरिका की वित्तीय साख इतिहास के सबसे भयानक भंवर में है और यूरोप में भी कर्ज संकट का दूसरा चरण शुरू हो चुका है। लगता है जैसे वित्तीय संकट से निकलने की बात बनते-बनते बिगड़ गई है। और हां.. याद आया इस बार तो वित्तीय बाजार का वरदानी यक्ष भी बिना कुछ कहे ही उड़ गया है। ..वित्तीय बाजारों को दुआओं के भारी निवेश की जरूरत है। 

Saturday, April 23, 2011

२०१५ तक चीन को पछाड़ देंगे हम


चार साल में चीन से आगे होंगे हम


दुनिया भर के अर्थविदों में गंभीरता से इस बात पर चर्चा हो रही है कि आर्थिक विकास दर के मामले में भारत चीन को कब पीछे छोड़ देगा। देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक आइसीआइसीआइ की रिपोर्ट को मानें तो वर्ष 2015 के बाद भारत की विकास दर चीन से बहुत आगे निकल जाएगी। इसके बाद भारत विकास दर के मामले में अगले 15 वर्षो तक चीन से आगे ही रहेगा। भारत व चीन की विकास दर का अनुमान आइसीआइसीआइ बैंक ने दोनों देशों में मांग की स्थिति का आकलन के आधार पर लगाया है। इसके मुताबिक मांग के आधार पर चीन की अर्थव्यवस्था पिछले 30 वर्षो से औसतन 10 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है। इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की औसत विकास दर छह फीसदी रही है। मगर चीन के लिए इस स्थिति को बरकरार रखना अब मुश्किल है। वर्ष 2012 में चीन 10 फीसदी की दर से विकास करेगा जबकि उस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8.6 फीसदी रहेगी। इसके बाद हालात बदलेंगे। वर्ष 2015 में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 9.5 फीसदी होगी जबकि चीन की 9.1 फीसदी। बैंक मानता है कि इसके बाद चीन भारत से पिछड़ता चला जाएगा। वर्ष 2020 में भारत की विकास दर 10.3 फीसदी होगी जबकि चीन की रहेगी महज 7.4 फीसदी। यह फासला आगे भी बढ़ता जाएगा। वर्ष 2030 में भारत की विकास दर 11 फीसदी और चीन की 6.7 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। इस वृद्धि की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2030 तक मौजूदा 1.3 खरब डॉलर का छह गुणा हो जाएगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की इस सुनहरी तस्वीर के लिए आइसीआइसीआइ बैंक ने कई वजहें बताई हैं। भारत की युवा आबादी और साक्षरता की बढ़ती दर एक बड़ी वजह होगी। वर्ष 2020 तक की बात करें तो भारत में अतिरिक्त 13.5 करोड़ युवा श्रमिक अर्थव्यवस्था में योगदान देंगे। जबकि चीन की आबादी में इस दौरान सिर्फ 2.3 करोड़ नए युवा श्रमिक आबादी में शामिल होंगे। चीन में उम्रदराज लोगों की बढ़ती संख्या वहां की विशाल अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती पैदा करेगी। दूसरी तरफ युवा आबादी भारत की एक बड़ी शक्ति बनेगी|

नई विश्व व्यवस्था में डॉलर की जगह


देश में चीनी उत्पादन 24 फीसद बढ़ा


राहत की आस चालू सत्र में 15 फरवरी तक हुआ 2.18 करोड़ टन चीनी का उत्पादन सरकार ने पूरे सत्र के लिए जारी किया है 2.5 करोड़ टन उत्पादन का अनुमान
नई दिल्ली (एजेंसी)। देश का चीनी उत्पादन 2010-11 के चीनी सत्र में 15 फरवरी तक 24 फीसद बढ़कर 2.18 करोड़ टन हो गया। पूरे सत्र के दौरान अनुमान से ज्यादा उत्पादन रहने की उम्मीद है। उद्योग संगठन भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने यह जानकारी दी है। चीनी उत्पादन पिछले सत्र की समान अवधि में एक करोड़ 75.8 लाख टन था। चीनी सत्र अक्टूबर से सितम्बर तक होता है। इस्मा के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने बताया, '15 फरवरी तक चीनी मिलों ने 2.18 करोड़ टन चीनी का उत्पादन किया है जो वर्ष भर पहले की समान अवधि में एक करोड़ 75.8 लाख टन था।'
देश में चीनी के सबसे बड़े उत्पादक राज्य महाराष्ट्र में गन्ने की पेराई का काम अभी जारी है जबकि उत्तर प्रदेश में यह समाप्त होने वाला है। उत्तर प्रदेश देश में चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। निजी मिलों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन इस्मा ने इस वर्ष भारत के चीनी उत्पादन का आंकड़ा 2.5 करोड़ टन रहने का अनुमान लगाया है, जो 2009-10 के चीनी सत्र में 1.9 करोड़ टन था। हालांकि सरकार ने देश में चीनी उत्पादन 2.45 करोड़ टन रहने का अनुमान व्यक्त किया है। देश में चीनी की सालाना मांग 2.2 करोड़ टन की है। चूंकि देश में चीनी का उत्पादन मांग से कहीं अधिक होने की संभावना है इसलिए भारत ने चीनी का निर्यात शुरू कर दिया है। सरकार ने आरंभ में चीनी मिलों को अग्रिम लाइसेंस योजना के तहत करीब 10 लाख टन के निर्यात दायित्व को पूरा करने की अनुमति दी। हाल ही में ओपन जनरल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत करीब पांच लाख टन चीनी के निर्यात की भी अनुमति दी गई। चीनी की घरेलू कीमतें भी राष्ट्रीय राजधानी में घटकर अब 30-32 रुपए प्रति किलोग्राम पर आ गई हैं, जो पिछले साल जनवरी मध्य में 50 रुपए प्रति किलो की ऊंचाई पर पहुंच गई थीं।

आईएसआई का करेंसी षड्यंत्र


पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध 'मनी बम' की थ्योरी ईजाद की है। करांची की सरकारी टकसाल में भारतीय जाली करेंसी छापी जाती है जिसमें 124 कर्मचारी और अधिकारी काम करते हैं। इस जाली करेंसी के बल पर ही पाकिस्तान और आईएसआई की आतंकवादी नीति और भारत विरोधी मानसिकता की सक्रियता खतरनाक रूप से आगे बढ़ रही है। 'मनी बम' की यह थ्योरी काफी पुरानी है और पाकिस्तान पिछले तीन दशकों से भारत में इसके मार्फत खतरनाक खेल-खेल रहा है। हाल में भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने जो आंकड़े और तथ्य जुटाये हैं उसके विशलेषण से यह बात प्रमाणित हो रही है कि हमारी अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से आ रहे 'जाली नोटों' से खतरे में हैं। पाकिस्तान सरकार और आईएसआई के नियंतण्रऔर संरक्षण में भारतीय जाली नोट छापे जा रहे हैं। कराची स्थित जिस टकसाल में पाकिस्तान की करेंसी छापी जाती है उसी में भारतीय जाली नोट भी छापे जाते हैं। भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के पास इसके पूरे प्रमाण मौजूद हैं। करांची स्थित करेंसी छापने वाले छापाखाने के 124 कर्मचारियों और अधिकारियों के नाम भी भारतीय गुप्तचर एंजेसिंयों के पास मौजूद हैं। फिर भी भारतीय सरकार कोई कूटनीतिक पहल नहीं कर रही है। हाल में क्रिकेट कूटनीति के तहत पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ गिलानी भारत आये थे। गिलानी के साथ भारतीय प्रधानमंत्री की आतंकवाद के साथ अन्य दो तरफे मुद्दों पर जरूर वार्ता हुई पर जाली करेंसी और भारतीय अर्थव्यवस्था की विध्वंसक नीति पर कोई वार्ता क्यों नही हुई? जबकि जाली करेंसी से न केवल पाकिस्तान अपनी आतंकवादवादी नीति को अंजाम दे रहा है बल्कि भारत विध्वंस के अपने जाल को भी मजबूत कर रहा है। भारतीय जनमत की एक बड़ी आबादी को भी वह भारत विरोधी बनाने में लगा है। 2010 में देश के अंदर दस करोड़ जाली करेंसी पकड़ी गयी थी जो अधिकतर पाकिस्तान से छपकर भारत आयी थी। पड़ोसी मुल्कों में सिर्फ पाकिस्तान ही जाली भारतीय करेंसी छापकर हमारी अर्थव्यवस्था और संप्रभुता को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। नेपाल भी इस प्रसंग में ईमानदार नहीं है। वहां अस्सी के दशक में बड़े पैमाने पर भारतीय जाली नोट छापे जाते थे जो न सिर्फ नेपाल में बल्कि सीमावर्ती भारतीय क्षेत्रों में भी चलाये जाते थे। नेपाल में भारतीय मुद्रा भी कानूनी रूप से चलन में है और भारतीय मुद्रा की कीमत भी नेपाली मुद्रा से लगभग डेढ़ गुनी है। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी कोईराला ने एक साक्षात्कार में स्वीकारा था कि उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र बहाली आंदोलन के दौरान जाली भारतीय करेंसी छापी थी। उनका तर्क था कि उस दौरान आंदोलन के लिए धन चाहिए था और यह जरूरत किसी और माध्यम से पूरी नहीं हो सकती थी। इसलिए भारतीय जाली करेंसी छापने की नीति अपनायी गयी। दो कारणों से नेपाल में जाली भारतीय करेंसी पकड़ मे नहीं आयी थी। एक कि नेपाली अधिकारियों ने जान- बूझकर इस अपराध पर पर्दा डाला था और दूसरा नेपाली बैंकों के पास उस समय ऐसी तकनीकी दक्षता नहीं थी जिससे जाली भारतीय करेंसी पकड़ी जाये। नेपाल में माओवादियों पर भी जाली भारतीय करेंसी छापने के आरोप हैं। जाली भारतीय करेंसी के खतरनाक खेल में आईएसआई की भूमिका गुनाहगार की है। इस संदर्भ में आईएसआई की नीति जानना कठिन नहीं है। वह घोषित तौर पर भारत विरोधी है। भारत के विध्वंस के लिए उसने भारत विरोधी आतंकवादं की नींव डाली। कश्मीर को आतंकवाद के बल पर हड़पने के साथ- साथ भारत में इस्लामिक गणराज्य की स्थापना की मानसिकता उसने मन में पाली थी। आईएसआई ने आतंकवाद के साथ-साथ अन्य खतरनाक प्रक्रियाओं के माध्यम से भारतीय संप्रभुता के खिलाफ जाल बुने हैं। जिसमें जाली भारतीय करेंसी का खतरनाक खेल भी शामिल है। आतंकवादियों को जाली नोट देकर भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए घुसाया जाता है। जाली नोटों की बदौलत एक खास आबादी के गुमराह युवक जाली नोटों के लालच में आईएसआई की भारत विरोधी मानसिकता का वाहक बन जाते हैं। सच पूछा जाए तो इस मामले में हम स्वयं कठघरे में खड़े हैं? इसलिए कि हमारी सत्ता- कूटनीति जाली करेंसी पर उदासीनता की स्थिति से बाहर ही नहीं निकलती दिखती है। आईएसआई और पाकिस्तान के हुकुमरान भारतीय करेंसी की नकल कर जाली भारतीय करेंसी छापने में दक्षता हासिल कैसे की है? भारतीय गुप्तचर एजेंसियों का साफ कहना है कि भारतीय करेंसी की नकल ऐसी उतारी गयी है कि नकली और असली में फर्क करने के अवसर बहुत ही कम बचते हैं। आमजन भारतीय बाजारों में चलायी जा रही इस जाली करेंसी की पहचान कर ही नहीं सकते हैं। खासकर सौ, पांच सौ और एक हजार के नोटों की। कूटनीतिक जानकारियों के अनुसार पाकिस्तान इस मामले में भारतीय कूटनीतिक सवंर्ग और भारतीय सत्ता नीति की कमजोरी का लाभ वह उठा रहा है। भारतीय करेंसी छापने के लिए स्विट्जरलैंड की जिस कंपनी से उसका करार है उसी कंपनी से पाकिस्तान ने भी अपनी मुद्रा छापने का करार किया है। भारतीय करेंसी छापने के लिए जिस स्याही और कागज की जरूरत होती है उस तक पाकिस्तान की पहुंच भी है। यानी अगर वह स्याही और कागज पाकिस्तान की पहुंच में न हो तो वह हूबहू करेंसी की नकल उतार कर भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचा सकता था। ऐसी स्थिति में स्विटजरलैंड कंपनी से फौरन करार तोड़ लिया जाना चाहिए था। पर अभी तक भारत सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकी है। समझ नहीं आता कि यह कैसी सत्ता नीति है? बहरहाल, देश की संप्रभुता पर भीषण खतरा है। हमारी संप्रभुता के खिलाफ कई परजीवी आवाजें उठ रही हैं जो दुश्मन देशों द्वारा संरक्षित और गतिशील हैं। सिर्फ कश्मीर की ही बात नहीं है। पूर्वोत्तर में कई आतंकवादी संगठन भारतीय संप्रभुता के खिलाफ पड़ोसी देशों की शह पर खूनी खेल खेल रहे हैं। चीन-पाकिस्तान इस भारत विरोधी मानसिकता का न केवल पोषण करते हैं बल्कि उन्हें धन भी देते हैं। धन के रूप में आतंकवादी-उग्रवादी संगठनों को यह जाली करेंसी ही दी जाती है। चूंकि खतरनाक और खूनी संघर्षवाले भारतीय भूभाग में प्रशासन-सत्ता की जमीनी स्तर पर उपस्थिति कम होती है। इसलिए आतंकवादी संगठन जाली करेंसी चलाने में कामयाब हो जाते हैं। दूरदराज स्थित बैंको के पास भी असली और नकली नोटों की पहचान करने वाली तकनीक का अभाव होता है। बहरहाल, जाली करेंसी संबंधी आंकड़े काफी चिंता जताने वाले है। भारतीय बाजार में पाकिस्तान द्वारा भेजे गये जाली नोटों की राशि हजारों करोड़ में है।


Wednesday, April 13, 2011

देश में गेहूं-चावल का विशाल भंडार


भारतीय खाद्य निगम के आंकड़ों के अनुसार केंद्रीय पूल में चावल और गेहूं का कुल भंडार 4.41 करोड़ टन इसमें 2.88 करोड़ टन चावल और 1.53 करोड़ टन गेहूं का स्टाक नियमों के अनुसार केंद्रीय पूल में 2.12 करोड़ टन अनाज होना जरूरी
नई दिल्ली (एजेंसी)। सरकार के पास गेहूं, चावल का कुल 4.41 करोड़ टन का भंडार है, जो कि जरूरी बफर स्टॉक की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक एक अप्रैल को केंद्रीय पूल में चावल और गेहूं का कुल भंडार 4.41 करोड़ टन पर था, जबकि नियम के मुताबिक इस तिथि को केन्द्रीय पूल में 2.12 करोड़ टन अनाज होना जरूरी है। एक अप्रैल 2011 को 1.42 करोड़ टन के बफर स्टॉक नियमों के ऊपर भारतीय खाद्य निगम और राज्य सरकार की एजेंसियों के गोदामों में कुल मिलाकर 2.88 करोड़ टन चावल का भंडार उपलब्ध था।इसी प्रकार 70 लाख टन गेहूं के बफर स्टॉक नियम के समक्ष केन्द्र सरकार के गोदामों में 1.53 करोड़ टन गेहूं का भंडार उपलब्ध था। सरकारी गोदामों में उपलब्ध गेहूं चावल के जरूरत से अधिक भंडार से खुले बाजार में इन दोनों खाद्यान्नों के दाम नियंत्रित रखने में मदद मिलेगी। हाल ही में कृषि लागत और मूल्य आयोग ने कृषि मंत्रालय से गेहूं और चावल के निर्यात की अनुमति देने की सिफारिश की है। सरकार ने गेहूं के निर्यात पर 2007 में और गैर-बासमती चावल के निर्यात पर अप्रैल 2008 में पाबंदी लगा दी थी। हालांकि, सरकार ने बेहतर गुणवत्ता वाले बासमती चावल के निर्यात की अनुमति दे दी है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के तीसरे अनुमान के मुताबिक चालू फसल वर्ष (जुलाई-जून) में 8.42 करोड़ टन गेहूं और 9.41 करोड़ टन चावल उत्पादन का अनुमान है। इससे पिछले फसल वर्ष में 8 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ था।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत का विकास अनुमान घटाया


 बदलती परिस्थितियों में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आइएमएफ) ने भारत के लिए अपने विकास अनुमान को फिर घटा दिया है। इस विश्व संस्था ने वर्ष 2011 के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के अनुमान को अब 8.2 प्रतिशत कर दिया है। अगले साल यह दर और घटकर 7.8 फीसदी पर आ जाएगी। मुद्राकोष ने इससे पहले इस साल भारत की वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था। हाल ही में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने भी भारत के संबंध में अपना अनुमान घटाकर 8.2 फीसदी कर दिया था। आइएमएफ ने आगाह किया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में इस समय दिख रही तेजी की स्थिति ओवर हीटिंग का रूप ले सकती है। यह ऐसी स्थिति है, जहां मौजूदा संसाधनों के जरिये अर्थव्यवस्था की कुल मांग को पूरा करना मुश्किल होने लगता है। इसी के मद्देनजर मुद्राकोष ने अपनी ताजा व‌र्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक रिपोर्ट में कहा है कि उभरते व विकासशील देशों के सामने अर्थव्यवस्था को असामान्य तेजी से बचाने की चुनौती है। इसमें भारत में फरवरी की महंगाई दर को ऊंचा बताया गया है, तब यह दर 8.31 प्रतिशत थी। मुद्राकोष की मानें तो कई अर्थव्यवस्थाओं में असामान्य तेजी के संकेत मिल रहे हैं। खाद्य पदार्थो के दाम बढ़ने से हाल के महीनों में थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई दर में तेजी आई है। जिंसों के दामों में तेजी और कच्चे तेल की आपूर्ति में बाधा से अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति सुधरने की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। जिंसों की कीमतों में उम्मीद से ज्यादा तेजी है। यह तेजी मजबूत मांग और आपूर्ति के बीच बनी खाई की ओर साफ इशारा कर रही है। विश्व में बढ़ेगी गरीबी मुद्राकोष ने आगाह किया है कि कच्चे तेल की कीमतों में उछाल से वैश्विक स्तर पर गरीबी बढ़ सकती है। नीति निर्माता तेल की बढ़ती किल्लत को देखते हुए आपूर्ति के संभावित जोखिमों को कम करने के एसे उपाय ढूंढें ताकि आपूर्ति में बाधा खड़ी न हो। तेल की ऊंची कीमत से आय के वितरण का स्वरूप बदल सकता है। दुनिया में सबसे अधिक व्यापार कच्च्चे तेल में होता है। 2007-09 के दौरान इसका औसत वैश्विक निर्यात सालाना 1,800 अरब डॉलर रहा जो कुल वैश्विक निर्यात के करीब दसवें हिस्से के बराबर है|

चांद की ओर चांदी की कीमतें


पिछले दो महीने से देशी और विदेशी बाजारों में चांदी के भाव रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में जहां चांदी 38.80 डॉलर प्रति औंस के स्तर पर पहुंच गई है, वहीं घरेलू बाजार में यह 62 हजार के आंकड़े को छूने को है। बेहतर प्रतिफल की आस में चांदी की मांग बढ़ती जा रही है और फिलहाल निवेशक चांदी को भविष्य को भविष्य का सोना मानकर चल रहे हैं। निवेशकों के चांदी पर इस विश्वास का पुख्ता आधार भी है। अगर आज से पांच साल पहले किसी ने चांदी में निवेश किया था तो वह 240 फीसद से ज्यादा प्रतिफल ले सकता है। महज पिछले एक साल के भीतर ही चांदी 92 फीसद से ज्यादा का प्रतिफल देकर सोने का विकल्प बनती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तो चांदी ने निवेशकों को दोगुने से ज्यादा का प्रतिफल दिया है क्योंकि इसकी कीमतें मार्च 2010 के 16.50 डॉलर प्रति औंस से बढ़कर 23 फरवरी 2011 को 33.54 डॉलर प्रति औंस के स्तर पर पहुंच गई थी। चांदी की कीमतों के चांद पर पहुंचने के पीछे कई वजहें हैं। मिस्र से शुरू हुई लोकतंत्र की बयार का असर उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के अधिकतर देशों में हुआ है। राजनीतिक संकट के बीच लीबिया और मिस्र समेत कई देशों ने तेल उत्पादन में कटौती की है जिसका असर दुनियाभर के शेयर बाजारों पर हुआ है। गिरावट के इस दौर से निवेशकों में घबराहट का माहौल है और सुरिक्षत निवेश की चाह में वह कीमती धातुओं का रुख कर रहे हैं। चूंकि सोने के दाम पहले से ही आसमान छू रहे हैं, लिहाजा निवेशकों ने चांदी को तरजीह दी और इसके दाम चढ़ना शुरू हो गए। चांदी की कीमतें बढ़ने का एक कारण इसकी मांग व आपूर्ति के बीच असंतुलन भी है। चांदी का उत्पादन कम है लेकिन चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की औद्योगिक इकाइयों में चांदी की मांग बढ़ती जा रही है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन के प्रति आई जागरूकता के कारण सौर उपकरणों की मांग में खासी बढ़ोतरी हुई है और सौर उपकरणों में चांदी का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होता है। घरेलू स्तर पर भी चांदी के सिक्कों की बढ़ती मांग के साथ ही चांदी से बने आभूषणों की मांग में भी बढ़ोतरी हुई है। दूसरी तरफ मंदी के बाद विकसित अर्थव्यवस्थाओं में छाये अनिश्चितता के बादलों ने भी चांदी की चमक बढ़ाने में सहयोग दिया है। शेयर बाजार के स्वभाव के अनुरूप ही बेहतर प्रतिफल के लालच में निवेशक चांदी के पीछे दौड़ने लगे और नतीजतन कीमतें ऊपर चढ़ती गई। सवाल उठता है कि क्या चांदी की यह उड़ान स्थायी है और आम निवेशक को ऐसे माहौल में खरीददारी करनी चाहिए? भले ही वैश्विक बाजारों का अनुसरण करते हुए घरेलू बाजार में भी चांदी की कीमतें ऊपर चढ़ रही हों लेकिन व्यापारियों समेत बाजार के जानकार इस बात पर एकमत हैं कि इस बार चांदी की घरेलू मांग कम है। सटोरियों के खेल से आगे बढ़ रही चांदी की कीमतें अपना अधिकतम स्तर पार कर चुकी हैं और इस स्तर पर ज्यादा दिन नहीं टिकने वाली हैं। वैश्विक राजनीतिक अस्थिरता के चलते भविष्य में आपूर्ति प्रभावित होने के डर से बड़े औद्योगिक घराने हेजिंग का सहारा ले रहे हैं और इसी जगह से चांदी की कृत्रिम मांग पैदा हो रही है। इस नकली मांग की आग में घी डालने का काम विदेशी संस्थागत निवेशक कर रहे हैं जो शेयर बाजार की बनिस्वत चांदी को प्राथमिकता दे रहे हैं। एफआईआई के द्वारा चांदी में झोंकी जा रही रकम के बीच सटोरियों की मेहरबानी से वायदा सौदों में उछाल आ रहा है और उसी के नक्शे-कदम पर चलते हुए हाजिर बाजार में तेजी देखने को मिल रही है। जाहिर है कि थोड़े समय बाद चांदी में बिकवाली का दौर शुरू हो जाएगा और कीमतें धड़ाम से नीचे आएंगी। हालिया रुझानों को देखते हुए कहा जा सकता है कि चांदी वैश्विक बाजार में 40 डॉलर प्रति औंस का स्तर छू सकती है लेकिन यह बेहद खतरनाक ऊंचाई है। नवरात्रों के चलते घरेलू बाजार में भी चांदी की कीमतें और ऊपर चढ़ सकती हैं मगर यह दौर स्थायी नहीं होगा। 1981 में भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में चांदी की कीमत 54 डॉलर प्रति औंस की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई थी और महज दो महीने के भीतर यह 11 डॉलर प्रति औंस तक नीचे गई थी। एक दिन में कीमत आधी रह जाने का रिकॉर्ड भी इस धातु ने उन्हीं दिनों बनाया था। 31 सालों के अंतराल के बाद चांदी की कीमतें फिर से उसी उंचाई पर पहुंच गई हैं लेकिन इस बुलबुले से घरेलू व्यापारी सहमें हुए हैं। कुछ निवेशकों का कहना है कि चांदी की औद्योगिक मांग में बढ़ोतरी होगी लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि कीमतों में अत्यधिक बढ़ोतरी के बाद उद्योग चांदी के सस्ते विकल्पों की ओर रुख करेंगे।


ब्रिक्स की होगी अपनी मुद्रा


दुनिया की सबसे तेजी से उभरती पांच अर्थव्यवस्थाओं की अब अपनी मुद्रा होगी। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देश इस संबंध में एक समझौते पर गुरुवार को हस्ताक्षर करेंगे। हालांकि इन देशों की कंपनियां अभी इस मुद्रा में कारोबार नहीं करेंगी लेकिन ये देश इस मुद्रा में एक दूसरे को कर्ज और सहायता दे सकेंगी। यानी यूरो और युआन के बाद अमेरिकी डॉलर को एक और मुद्रा से चुनौती मिल सकती है। चीन की यात्रा पर पहुंचे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ब्रिक्स के सदस्यों से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में सुधारों पर चर्चा करेंगे। चीन पहुंचने से पहले प्रधानमंत्री के विशेष विमान में पत्रकारों से बातचीत में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने कहा कि हम नई शुरुआत करने जा रहे हैं। संगठन बनने के बाद आर्थिक क्षेत्र में इस तरह का यह पहला ठोस कदम है। व्यापार के लिए डॉलर के मुकाबले युआन को प्रोत्साहित करने के चीन की कोशिशों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि ब्रिक्स के सामने इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं आया है और न ही युआन को रिजर्व करेंसी के रूप में मान्यता देने की बात उठी है। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय मॉनेटरी सिस्टम में सुधार एक बड़ा मुद्दा है। सिर्फ पांच देश मिलकर इसका फैसला नहीं कर सकते। अगले दशक तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स देशों का योगदान 48 फीसदी होने की संभावना है। ऐसे में इनका यह कदम काफी अहम हो सकता है। अपने बढ़ते कद को देखते हुए ब्रिक्स देशों ने इससे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे आर्थिक संगठनों में ज्यादा प्रतिनिधित्व देने की मांग कर चुके हैं। इस सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका को पहली बार औपचारिक रूप से संगठन की सदस्यता दी जाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ के बीच बैठक से पहले भारत ने चीन के साथ अपने बढ़ते व्यापार घाटे पर चिंता जताई है। भारत चाहता है कि चीन अपने बाजार में भारतीय वस्तुओं की बिक्री के लिए और अधिक सहूलियत दे। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने कहा कि चीन के साथ व्यापार असंतुलन चिंता का विषय है। 2010 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 20 अरब डॉलर था। वर्ष 2009 में व्यापार घाटा लगभग 16 अरब डॉलर का था। इस बारे में दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच चर्चा होगी। शर्मा ने कहा कि व्यापार घाटे को प्रधानमंत्री पहले ही न संभालने लायक करार दे चुके हैं। चीन ने भारत को आश्वस्त किया है कि कुछ क्षेत्रों में सरकारी अनुबंधों के जरिए उसे और अधिक बाजार मुहैया कराया जाएगा। अंतर को पाटने के लिए हम हरसंभव कोशिश कर रहे हैं|

Friday, April 8, 2011

महंगाई में गिरावट जारी


सोया तेल में तेजी वाले पुनः सक्रिय?


अब मोहजाती न हो रिकार्ड


सरकार बहुत खुश है यह घोषणा करते हुए कि वर्ष 2010-11 के बीच खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन होगा। अगर यह अनुमान तथ्यगत आधारों पर है तो इसका सकारात्मक असर देश की अर्थव्यवस्था पर आने वाले हफ्ते-महीनों में दिखना शुरू हो जाएगा। एक तरफ जहां खाद्य मुद्रास्फीति की दर गिरने की संभावना जताई जा रही है, वहीं खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अटके मामलों पर सरकारी कदम तेजी से बढ़ेंगे, यह उम्मीद भी की जा रही है। पर ये सारी स्थितियां अनुमानित हैं, अभी इन्हें यथार्थ होना है। जहां तक अनाज उत्पादन में स्वावलंबी होने की बात है तो यह स्थिति देश के लिए नई नहीं है। हरित क्रांति के बाद मौसम की जब-तब की बेरुखी छोड़ दें तो किसानों की मेहनत और पुरुषार्थ हमेशा रंग लाया है। हां, यह जरूर है कि अब हमारा स्वावलंबन रिकार्ड उपलब्धि का आंकड़ा दर्ज करा रहा है। 2010-11 के जुलाई से जून के बीच 23.58 करोड़ टन का अनुमानित खाद्यान्न उत्पादन, ऐसा ही एक रिकार्ड है। इससे पहले देश में 2008-09 में सबसे ज्यादा 23.44 लाख टन खाद्यान उत्पादन हुआ था। बीच के दो सालों में मौसम की मार से अनाज उत्पादन गिरा। सरकारी तर्क यही है और सरकार के बाहर भी इस तर्क पर तकरीबन सहमति है। बीते दो सालों में खाने-पीने की चीजों की महंगाई का रोना कमोबेश आम जनता रोती रही है। बीते 19 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में भी जो खाद्य मुद्रास्फीति की दर रिकार्ड की गई है, वह 9.5 फीसद है। जाहिर है महंगाई का बोझ कुछ कम हुआ है पर अब भी यह सामान्य दर से ज्यादा है। ऐसे में अगर खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं तो सरकार खाद्यान की कमी या उसके वितरण में गड़बड़ी का बहाना आसानी से नहीं बना पाएगी। साफ है कि आने वाले दिनों में यह बहुत कुछ सरकारी प्रयासों पर ही निर्भर करेगा कि वह रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन को आम उपलब्धता के रूप में किस तरह तब्दील कर पाएगी। रही बात खाद्य सुरक्षा बिल की तो यह मुद्दा सरकार के एजेंडे में तो जरूर लगातार टंगा हुआ है पर अब भी इसका असरकारी कदम के रूप में क्रियान्वयन बाकी है। अनाज उत्पादन में स्वावलंबी होना और रिकार्ड उपलब्धि की तरफ बढ़ना सरकार को इस दिशा में भी फौरी कार्रवाई के लिए अगर प्रेरित करता है तो यह आदर्श स्थिति होगी। पर दुर्भाग्य से खाद्य सुरक्षा बिल के लटकने के पीछे मूल कारण अनाज की उपल्बधता की बजाय वह सरकारी तंत्र है, जो आज तक यह तय ही नहीं कर पाया कि गरीबी का स्तर तय करने का मान्य पैमाना क्या हो और इसके तहत लाभान्वितों की अंतिम संख्या कितनी मानी जाए। दरअसल आंकड़ों में 'अनर्थ' को 'अर्थपूर्ण' दिखाने की जुगत अभी इस बात के लिए तैयार ही नहीं है कि सारी आर्थिक सफलता और उन्नति के बीच समाज का एक बड़ा तबका आज भी अनाज, अक्षर और आवास के लिए मोहताज है। रिकार्ड अनाज उत्पादन का सार्थक मतलब तभी है जब ये मोहताजी हमारा मुंह न चिढ़ाए।



Thursday, April 7, 2011

आर्थिक सुधारों के दो दशक


आर्थिक सुधारों की सफलता में शासन के बजाय निजी उद्यमिता का हाथ बता रहे हैं लेखक
इस साल हम भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की 20वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। आर्थिक सुधारों से हमने क्या हासिल किया है? आज हम किस स्थिति में हैं? क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत आत्मविश्वास का परिणाम है। यह वही आत्मविश्वास है, जो हमारे उद्यमियों को आगे बढ़ा रहा है और जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया है। आत्मविश्वास की यह राष्ट्रीय भावना 1991 से उभरनी शुरू हुई थी। 1991 का साल भारत के इतिहास में मील का पत्थर है। इस साल हमें अपनी आर्थिक स्वतंत्रता मिली थी। 1947 में हमने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की थी। हमें भूलना नहीं चाहिए कि राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता पर निर्भर करती है। ब्रिटिश राज से मुक्त होने के तुरंत बाद भारत ने आर्थिक विकास का गलत रास्ता अपनाया और हम समाजवादी राज के शिकार बन गए। इसने हमें चालीस साल तक बंधक बनाए रखा और हमारी राजनीतिक नैतिकता को क्षति पहुंचाई। अपने जवानी के दिनों में हम आधुनिक भारत के नेहरू के स्वप्न में खो गए थे। किंतु जैसे-जैसे समय बीता, यह साफ होता चला गया कि नेहरू का आर्थिक पथ अंधी गली में पहुंच गया है, जहां से आगे रास्ता बंद है। हमारे सपने टूट गए। भारत में समाजवाद की स्थापना तो नहीं हो पाई, लाइसेंस राज जरूर कायम हो गया। मोहभंग की रही-सही कसर इंदिरा गांधी के अधिसत्तात्मक शासन ने पूरी कर दी। आठवें दशक में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आशा की एक किरण नजर आई। 1991 में जब नरसिम्हा राव सरकार ने उदारीकरण की घोषणा की तो हमारे मन से हताशा-निराशा खत्म हो गई। हमें दूसरी आजादी मिल गई थी। धीरे-धीरे हमें दबंग और निरंकुश सत्ता से मुक्ति मिल गई। यद्यपि 1991 के बाद सुधारों की गति धीमी ही रही, फिर भी उन्होंने भारतीय समाज में आमूलचूल परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू कर दी। यह इसी प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन था जैसा चीन में देंग के नेतृत्व में 1978 में हुआ था। उल्लेखनीय पहलू यह नहीं है कि 1991 में क्या हुआ, बल्कि यह है कि इसके बाद तमाम सरकारें धीमी गति से ही सही, सुधारों को आगे बढ़ाती रहीं। नौवें दशक में देश भर की यात्राओं के दौरान मुझे आभास हो गया था कि भारत आर्थिक रूप से उभरने वाला है। किंतु फिर भी मैं इस अनुमान तक नहीं पहुंच पाया था कि यह 8-9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की संवृद्धि दर पकड़ सकता है। ईमानदारी से कहूं तो मैंने 7 प्रतिशत का अनुमान लगाया था। किंतु जब मैं भविष्य में झांक रहा था, तब भारत की संवृद्धि दर मात्र 3.5 फीसदी ही थी और हम समाजवादी अर्थव्यवस्था में रेंग रहे थे। यही नहीं, उस वक्त पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की विकास दर मात्र तीन प्रतिशत ही थी। ऐसे में नौवें दशक में सात प्रतिशत खासा क्रांतिकारी आंकड़ा नजर आता था। पिछले दशक के दौरान जब हमारी संवृद्धि दर छह साल तक नौ प्रतिशत रही तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। प्रत्येक अतिरिक्त प्रतिशत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे एक करोड़ नए रोजगार सृजित होते हैं। 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद भारत एक ऊर्जावान, मुक्त बाजार लोकतंत्र के रूप में उभरा है। आज भारत वैश्विक सूचना अर्थव्यवस्था में एक शक्ति बन चुका है। पुराना केंद्रीयकृत, लालफीताशाही की बेडि़यों में जकड़ा राष्ट्र, जिसने हमारी औद्योगिक क्रांति की भ्रूण हत्या कर दी थी, का धीमे-धीमे पतन हो रहा था। किंतु चौंकाने वाली बात यह है कि शासन की सहायता से उभरने के बजाय अनेक रूपों में भारत शासन के सहयोग के बिना ही आगे बढ़ा है। भारत की सफलता की गाथा के केंद्र में स्पष्ट तौर पर निजी उद्यमिता है। आज भारत बेहद प्रतिस्पर्धी कंपनियों, छलांग मारते शेयर बाजार और आधुनिक व अनुशासित वित्तीय बाजार पर इतरा सकता है। आर्थिक सुधार के क्षेत्र में 1991 के बाद भारतीय सत्ता भी धीरे-धीरे रास्ते पर आ रही है। भारत में व्यापार बाधाएं और करों की दरें कम कर दी गई हैं, लालफीताशाही की जड़ता टूटी है, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिला है और शेष विश्व के लिए इसने अपने दरवाजे खोले हैं। हमारे सुधारों के संबंध में एक पहेली यह है कि 64 देशों में इसी प्रकार के आर्थिक सुधार शुरू हुए किंतु भारत ही विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था क्यों बना? मैं निश्चित तौर पर नहीं बता सकता कि किसी के भी पास इस सवाल का जवाब है। मैं केवल अनुमान लगा सकता हूं-अगर आप ऐसे समाज में सुधार चला रहे हैं, जहां विभिन्न समूह और समुदाय पूंजी कमाना और उसे संभालना जानते हैं, तो सुधारों की धूम मचनी ही है। हम भाग्यशाली हैं कि भारत में वैश्य समुदाय मौजूद है। हमारी विकृत जाति व्यवस्था से ही हमें प्रतिस्पर्धी लाभ मिला है। इसीलिए मुझे यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि फो‌र्ब्स की अरबपतियों की सूची में पचास प्रतिशत से अधिक भारतीयों के उपनाम वैश्य थे। दुर्भाग्य से, पिछले 20 सालों से हम निजी सफलता और सार्वजनिक विफलता के साक्षी रहे हैं। निजी क्षेत्र ने उदारीकरण का प्रत्युत्तर दिया है। जैसे ही बंदिशें हटाई गईं इसने विश्व स्तर के दर्जनों उद्यमी पेश कर दिए। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा। जैसे ही सरकार व्यवसाय चलाने की जिम्मेदारी से मुक्त हुई, यह अपेक्षा की जाने लगी कि अब यह सुशासन और ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान केंद्रित करेगी। किंतु यह अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। अगर सरकार गरीबों को उच्च श्रेणी की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराती, तो हमारी संवृद्धि स्वत: ही समावेशी हो जाती। अगर देश में सुशासन होता तो हमें भ्रष्टाचार के नित नए खुलासे देखने को नहीं मिलते। शासन में हर स्तर पर खामियां हैं और इसका सबसे अधिक नुकसान गरीबों को उठाना पड़ा है। यही नहीं, शासन की विफलता के कारण ही सुधार भी पूर्णता हासिल नहीं कर पाए हैं। अगर हम कृषि, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में सुधार लागू कर पाते तो इतना भ्रष्टाचार न होता। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि हमारी अर्थव्यवस्था रात को बढ़ती है, जब सरकार सोई रहती है। भारत के विपरीत चीन के उदय में शासन का पूरा सहयोग रहा है। एक चीनी उद्योगपति ने मुझसे कहा कि भारत का उदय एक हाथ बंधा होने के बावजूद हुआ है। जबकि चीन में सरकार ने भी विकास में पूरा योगदान दिया है। इसलिए हमारे सामने असली काम है कि सरकार को किस प्रकार जिम्मेदार बनाया जाए। अब हमें आर्थिक विकास से भी अधिक प्रशासन, न्यायपालिका और राजनीति जैसे संस्थानों में सुधार की आवश्यकता है। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं|