Sunday, January 30, 2011

घरेलू मांग देख कर हो कपास निर्यात फैसला


कपास निर्यात की सीमा बढ़ाने पर अभी कृषि, वाणिज्य व कपड़ा मंत्रालय के बीच आम राय नहीं बन पाई है। कपड़ा मंत्रालय नहीं चाहता कि उत्पादन के मौजूदा स्तर और घरेलू मांग को देखते हुए कपास के निर्यात की मात्रा को बढ़ाया जाए। कपास के निर्यात को लेकर सचिव स्तर की समिति को अगले महीने समीक्षा करनी है। वाणिज्य मंत्रालय पहले ही संकेत दे चुका है कि उत्पादन बढ़ने पर कपास निर्यात की मात्रा में इजाफा किया जा सकता है। निर्यात बढ़ाने या उसे यथावत रखने पर सभी मंत्रालयों के अपने-अपने तर्क हैं। कपड़ा मंत्रालय चाहता है कि गैर कपास सीजन में उद्योग की जरूरतों को पूरा करने के लिए दो से ढाई महीने का कैरी फॉरवर्ड स्टॉक सुनिश्चित किया जाए। कपड़ा मंत्रालय की सचिव रीता मेनन ने शुक्रवार को कहा, हम कपास के दो से ढाई महीने का कैरी फॉरवर्ड स्टॉक चाह रहे हैं। यह 50 लाख गांठ के इर्द-गिर्द होगा। इस भंडार के सहारे गैर कपास सीजन में घरेलू कपास उद्योग की मांग को पूरा किया जा सकेगा। कपास के उत्पादन और सामान्य घरेलू मांग को देखने के बाद जो बचेगा, वह कैरी फॉरवर्ड स्टॉक होगा। विदेश व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) ने चालू कपास सीजन (अक्टूबर, 2010 से सितंबर, 2011) में कपास के 170 किलो वजन की 55 लाख गांठों का निर्यात लक्ष्य निर्धारित किया है। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और पंजाब जैसे कपास उत्पादक राज्यों में बेमौसम बारिश और सर्दी बढ़ने की वजह से हाजिर बाजार में समय पर कपास की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाई थी। इसका असर कपास निर्यात पर भी पड़ा। पहले दौर में 30 लाख गांठ का ही निर्यात हो पाया है। शेष 25 लाख गांठों का निर्यात करने के लिए सरकार ने 25 फरवरी अंतिम तिथि मुकर्रर की है। कपास के चालू सीजन में तकरीबन 320 लाख गांठ के उत्पादन होने की उम्मीद लगाई जा रही है। कपड़ा उद्योग में 275 लाख गांठों की खपत होती है। घरेलू उद्योग को हर महीने कपास की लगभग 25 लाख गांठों की जरूरत होती है।


आंकड़ों में नहीं आती मिलावट की बू


हकीकत चाहे जो हो, लेकिन सरकार यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि पेट्रोल-डीजल में केरोसिन की मिलावट की समस्या गंभीर है। कम से कम सरकार के अपने आंकड़े तो यही बयान करते हैं। सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करें तो बीते एक साल में सिर्फ 0.08 फीसदी मामलों में ही मिलावट पाई गई है। यही नहीं, जिन पेट्रोल पंपों में मिलावट के प्रमाण मिले हैं उनके खिलाफ कार्रवाई का रिकॉर्ड भी काफी खराब है। महाराष्ट्र के मनमाड में अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने की दिन-दहाड़े हत्या के बाद पेट्रोलियम मंत्रालय में मिलावट एक अहम मुद्दा बन गया है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने मंत्रालय के अधिकारियों को इससे संबंधित सभी आंकड़े एकत्र करने को कहा है। मंत्रालय के पास उपलब्ध अब तक की जानकारी के मुताबिक बीते साल सरकारी तेल कंपनियों के पेट्रोल पंपों से 85,660 नमूने मिलावट की जांच के लिए एकत्रित किए गए। इनमें से सिर्फ 69 मामलों (0.08 फीसदी) में ही मिलावट पाई गई। पेट्रोलियम मंत्रालय तेल कंपनियों के नमूने एकत्रित करने और मिलावट के दोषी पाए गए पेट्रोल पंपों के खिलाफ कार्रवाई के तरीके से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं है। इन पेट्रोल पंपों से नमूना एकत्रित करने का काम अमूमन तब किया जाता है जब पेट्रोल-पंप के भंडार में पेट्रोल या डीजल भरा जा रहा होता है। इसलिए मिलावट के मामलों की सही संख्या सामने नहीं आ पाती। लिहाजा अब तेल कंपनियों से औचक निरीक्षण करके नमूने एकत्रित करने को कहा जा रहा है। नमूना जांच करने का ज्यादा आधुनिक तरीका भी कंपनियों से खोजने को कहा गया है। पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि दोषी पाए जाने वाले पेट्रोल पंपों या डीलरों के खिलाफ तेल कंपनियों की कार्रवाई भी काफी सुस्त है। इसके लिए डीलर लाइसेंस रद करने के मौजूदा नियमों को ही एक बड़ी वजह माना जा रहा है। 2005-06 में डीलरों के लाइसेंस रद करने के प्रावधान काफी कठोर बना दिए गए हैं। उसके बाद से तेल कंपनियों के लिए डीलर लाइसेंस रद करना मुश्किल हो गया है। इन नियमों के मुताबिक तीन बार गड़बड़ी पाए जाने पर ही तेल कंपनियां लाइसेंस रद कर सकती हैं। हालांकि इस नियम का पालन भी कंपनियां विरले ही करती हैं। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने एक बार गड़बड़ी करने वाले डीलरों या पेट्रोल पंपों के लाइसेंस रद करने की नीति बनाने का निर्देश दिया था, लेकिन उसे अभी तक नहीं लागू किया जा सका है।


महंगाई पर अंकुश के अधूरे उपाय


मौद्रिक नीति के अर्थव्यवस्था और आम लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा कर रहे हैं...
25 जनवरी, 2011 को घोषित मौद्रिक नीति में रिजर्व बैंक ने महंगाई पर अंकुश लगाने और विकास दर बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। अनुमान के मुताबिक मौद्रिक नीति में रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में 25 बेसिस अंको की वृद्धि की गई है। अब ये दरें बढ़कर क्रमश: 6.50 प्रतिशत और 7 प्रतिशत पर पहुंच गई हैं। इन दरों में वृद्धि का स्पष्ट संदेश बैंकों के लिए है कि वे कर्ज देने की गति में कमी लाएं। इसके माध्यम से रिजर्व बैंक ने अर्थव्यवस्था को ओवर हीटिंग से बचाने का प्रयास किया है। मौद्रिक नीति में नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) में 6 प्रतिशत की दर बरकरार रखी गई है। इसी क्रम में सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) में 28 जनवरी, 2011 तक दी जाने वाली एक प्रतिशत की छूट को 8 अप्रैल, 2011 तक बढ़ा दिया गया है। इसका स्पष्ट संदेश यही है कि बैंकों को अपना जमा संग्रहण बढ़ाकर ऋण बढ़ाना है। जहां तक विकास दर का प्रश्न है, रिजर्व बैंक पूरी तरह आशावान है। रिजर्व बैंक ने मार्च 2011 में विकास दर 8.5 प्रतिशत पर रहने का अनुमान लगाया है। जबकि अगले वर्ष मार्च 2012 में इसके 8 प्रतिशत पर आ जाने की संभावना व्यक्त की गई है। आजकल रिजर्व बैंक तरलता बनाए रखने के लिए बैंकों को करीब एक लाख करोड़ रुपये प्रतिदिन उधार दे रहा है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार इस समय बैंकों में जमा राशि पचास हजार लाख करोड़ रुपये से कम है, जो सुविधाजनक स्थिति नहीं कही जा सकती। ऋणों के विस्तार में 2009-10 की तीसरी तिमाही में देखी गई वृद्धि वर्ष 2010-11 की अवधि में गायब हो गई। आज रिजर्व बैंक के सामने सबसे बड़ी चुनौती मुद्रास्फीति को काबू में रखना है। परंतु रिजर्व बैंक ने मार्च 2011 के लिए मुद्रास्फीति के निर्धारित लक्ष्य 5.5 प्रतिशत को बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि महंगाई के सामने रिजर्व बैंक ने भी घुटने टेक दिए हैं। रिजर्व बैंक ने यह संकेत भी दिया है कि यदि मुद्रास्फीति वृद्धि जारी रहती है तो ब्याज दरों में भविष्य में वृद्धि की जा सकती है। 17 मार्च, 2011 को मौद्रिक नीति की पुन: समीक्षा की जाएगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पास मुद्रास्फीति कम करने के उपाय सीमित हैं। आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2010 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति 8.43 प्रतिशत थी जबकि इससे पहले अक्टूबर माह में यह 9.12 फीसदी थी। बढ़ती मुद्रास्फीति को देखते हुए कर्ज को महंगा करने के अलावा रिजर्व बैंक के पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। इस कदम से अगले तीन-चार सप्ताह तक बैंकों द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि करने की संभावना कम ही नजर आती है, परंतु आगे चलकर ब्याज दरों में वृद्धि की पूरी संभावना है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्याज दरों में वृद्धि से विकास दर पर प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है। मौद्रिक नीति में विकास दर के 8.5 प्रतिशत तक रहने की उम्मीद जताई गई है। खाद्य वस्तुओं में बढ़ती मुद्रास्फीति एक गंभीर चुनौती बन गई है। वर्ष 2005-06 से 2009-10 के बीच खाद्य वस्तुओं का औसत मूल्य सूचकांक 40.76 प्रतिशत पर पहुंच गया, जबकि इसी अवधि में सभी वस्तुओं का औसत सूचकंाक 24.14 प्रतिशत ही रहा। खाद्यान्न, तिलहन, कपास, गन्ना, आलू, प्याज और दूध का उत्पादन 2004-05 से 2009-10 के बीच बढ़ा है। अब प्रश्न यह उठता है कि उत्पादन बढ़ने के बावजूद खाद्यान्न एवं सब्जियों की कीमतों में इतनी वृद्धि क्यों हुई है? इसका उत्तर बढ़ती विकास दर, ग्रामीण इलाकों में बढ़ती आमदनी और उसके फलस्वरूप बढ़ती क्रयशक्ति है। चूंकि क्रयशक्ति बढ़ी है तो मांग भी बढ़ी है, इसलिए मूल्यों में उतार-चढ़ाव अधिक हो रहा है। 2004-05 में प्याज का उत्पादन 59 लाख टन था जो 2009-10 में बढ़कर एक करोड़ टन से अधिक हो गया है। वर्ष 2010-11 में मौसम प्रतिकूल होने के कारण प्याज उत्पादन में कमी आई है। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि उत्पादन में 10 प्रतिशत की कमी होती है तो महंगाई दोगुना बढ़ जाती है। प्याज की कीमतें इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। जहां बढ़ती जनसंख्या के लिए उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता है, वहीं बढ़ती आमदनी यानी बढ़ती क्रयशक्ति के लिए भी उत्पादन और उत्पादकता का बढ़ना आवश्यक है। इसलिए भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों को मिल कर कृषकों को प्रोत्साहित करना होगा, जिससे वे उत्पादन में लगातार वृद्धि करते रहें। आज 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, जिसे रोकना केंद्र व राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। समय आ गया है जब मौद्रिक नीति के साथ-साथ भारतीय रिजर्व बैंक को केंद्र सरकार से कृषि एवं निर्माण क्षेत्रों में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की नीति भी प्रस्तुत करने के लिए कहा जाना चाहिए। इसमें सभी राज्य सरकारों की समीक्षा अ‌र्द्धवार्षिक स्तर पर की जानी चाहिए। (लेखक बैंक के पूर्व अधिकारी हैं)



खाद्य उत्पादों से आगे पहुंची महंगाई की आग


महंगाई की आग के सामने जो भी आ रहा है, सब झुलसता जा रहा है। प्याज, टमाटर जैसी सब्जियों के बाद दाल और तेल भी इसकी चपेट में आ गए हैं। बने बनाए उत्पादों में बिस्कुट वगैरह भी महंगे होने लगे हैं। खाद्य उत्पादों के बाहर वाहनों व ईधन के दाम तो बढ़ ही चुके हैं। रोजमर्रा के साबुन, केश तेल, शैंपू जैसे उत्पाद भी इसकी लपटों में घिर गए हैं। टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर (एसी) जैसे टिकाऊ उपभोक्ता सामान भी महंगाई की जद में हैं। कर्ज महंगे होने से आम लोगों पर किस्त का बोझ भी बढ़ता जा रहा है।
दाल व तेल के दाम
शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का बड़ा स्त्रोत अरहर दाल पर महंगाई का रंग चढ़ने लगा है। पाले के कारण फसलों को नुकसान के चलते पिछले कुछ हफ्तों में अरहर दाल के भाव में तेज बढ़ोतरी हुई है। थोक और खुदरा दोनों तरह के बाजारों में यह इजाफा देखने को मिला है। खुदरा बाजार में इसके दाम 65 रुपये से बढ़कर 80 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गए हैं। यही हाल खाद्य तेलों का भी हो रहा है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि इस समय खुदरा बाजार में मूंगफली का तेल 135 रुपये, सूरजमुखी तेल 110 रुपये, सोयातेल 83 रुपये और सरसों तेल 78 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गया है। एक महीने के भीतर इनके दामों में 10 से 20 रुपये की बढ़ोतरी हुई है। प्रमुख ग्लोबल क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिच की मानें तो इस साल तेल के दाम और ऊपर जाएंगे।
रोजमर्रा के सामान
देश की दिग्गज एफएमसीजी उत्पाद निर्माता हिंदुस्तान यूनीलीवर (एचयूएल) भी अपने तेल, साबुन, शैंपू और खाद्य उत्पादों के दामों में बढ़ोतरी करने जा रही है। कीमतों में यह वृद्धि पांच फीसदी के आसपास रहेगी। वहीं उपभोक्ता सामान बनाने वाली गोदरेज कंज्यूमर एक बार फिर अपने साबुन के दाम बढ़ाएगी। कंपनी ने कच्चे माल की महंगाई का बोझ ग्राहकों पर डालने का फैसला किया है। कंपनी नए साल की शुरुआत में ही साबुन के दामों में 5 फीसदी तक इजाफा किया था। ब्रिटानिया जैसी कई कंपनियां पहले ही बिस्कुटों के दामों में इजाफा करने का एलान कर चुकी हैं। केश तेल बनाने वाली मैरिको अपने उत्पादों के दाम नौ प्रतिशत तक बढ़ाएगी। कंपनी पैराशूट और निहार ब्रांड से नारियल तेल की बिक्री करती है। नारियल तेल के लिए प्रमुख कच्चा माल नारियल की कीमतें अक्टूबर-दिसंबर, 2010 की तिमाही में 62 प्रतिशत तक बढ़ गई। पिछली बार कंपनी ने दिसंबर में इन ब्रांडों के दाम बढ़ाए थे। चालू वित्त वर्ष में कंपनी अभी तक इनकी कीमतें करीब 24 फीसदी तक बढ़ा चुकी है।
टिकाऊ उपभोक्ता उत्पाद
जापानी इलेक्टॉनिक्स कंपनी हिताची ने अपने एसी, टीवी जैसे होम अप्लायंसेज के दामों में 4 फीसदी तक की बढ़ोतरी कर दी है। इस क्षेत्र की अन्य कंपनियां भी गरमी के पहले एसी, फ्रिज वगैरह के दाम बढ़ाने जा रही हैं।
महंगे हो जाएंगे मकान
बनाने की बढ़ती लागत और मांग व आपूर्ति के बीच भारी खाई को देखते हुए इस साल देश में लोगों को एक मकान खरीदने के लिए अधिक रकम खर्च करनी होगी। रीयल एस्टेट बाजार पर नजर रखने वाली फर्म ट्रैक2रीयल्टी की सर्वे रिपोर्ट का तो यही कहना है। इसके मुताबिक मकान तलाश रहे करीब 70 प्रतिशत लोग यह मानते हैं। फर्म ने यह सर्वे दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, कोलकाता, व इलाहाबाद समेत 10 प्रमुख भारतीय शहरों में कराया था। इस सर्वे में ज्यादातर ब्रोकरों व प्रॉपर्टी एजेंटों ने कहा कि मांग व आपूर्ति के बीच भारी अंतर और लागत बढ़ने से इस साल कीमतें ऊंची बनी रहेंगी।



Saturday, January 29, 2011

क्या धीमी होगी महंगाई की चाल


सरकार ने जिस तरह महंगाई से लड़ने की जिम्मेदारी अकेले रिजर्व बैंक और उसकी मौद्रिक नीति के मत्थे मढ़ दी है, उसमें रिजर्व बैंक के पास खास विकल्प नहीं रह गया है। सबको पता है कि महंगाई में बढ़ोत्तरी मांग में वृद्धि से अधिक नीतिगत और संरचनागत कारणों से हो रही है। इस तरह की महंगाई से निपटने में मौद्रिक नीति की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं। नतीजा, रिजर्व बैंक एक तरह दिखावे के लिए मांग पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरों में मामूली वृद्धि कर रहा है
महंगाई ने आम आदमी की तरह रिजर्व बैंक का जीना भी दूभर कर रखा है। इसका सबूत है, ताजा तिमाही मौद्रिक समीक्षा जिसमें रिजर्व बैंक ने बेकाबू मुद्रास्फीति दर को अर्थव्यवस्था और विकास दर के लिए सबसे बड़ा खतरा माना है। जाहिर है तात्कालिक तौर पर रिजर्व बैंक के लिए सबसे बड़ी चिंता और चुनौती बढ़ती हुई मुद्रास्फीति को काबू में करना है। इसलिए जैसी उम्मीद थी, रिजर्व बैंक ने एक बार फिर बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू करने के इरादे से ब्याज दरों में चौथाई फीसद की वृद्धि कर दी है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले एक साल से भी कम समय में रिजर्व बैंक ने सातवीं बार रेपो और रिवर्स रेपो दर में वृद्धि की है। इसके साथ ही रेपो दर अब 6.5 प्रतिशत और रिवर्स रेपो दर 5.5 प्रतिशत तक पहुंच गई है। रेपो दर वह ब्याज दर है जिस पर रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है जबकि रिवर्स रेपो वह ब्याज दर है जो व्यावसायिक बैंकों को रिजर्व बैंक में उनकी जमा राशि पर मिलती है। हालांकि रिजर्व बैंक ने मुद्रा बाजार में तरलता की समस्या को देखते हुए कैश रिजर्व रेशियो (सीआरआर) में कोई बदलाव नहीं किया है और ही एसएलआर के साथ कोई छेड़छाड़ की है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या रिजर्व बैंक के ताजा फैसले से बेकाबू मुद्रास्फीति दर पर कोई असर होगा? पिछले अनुभवों से तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं बनती है। खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर इस तथ्य से बखूबी वाकिफ हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि महंगाई से लड़ने के लिए ब्याज दरों में सीमित और क्रमिक वृद्धि की रिजर्व बैंक की नीति का मुद्रास्फीति की लगातार ऊंची दर पर कोई खास असर नहीं पड़ रहा है। अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि मौद्रिक नीति के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की नीति काफी हद तक विफल साबित हुई है। एक तरह से खुद रिजर्व बैंक ने भी महंगाई को काबू करने में अपनी विफलता स्वीकार कर ली है। ताजा मौद्रिक समीक्षा में रिजर्व बैंक ने मार्च तक मुद्रास्फीति की दर के अपने पिछले अनुमान में कोई डेढ़ फीसद की वृद्धि करते हुए मान लिया है कि मुद्रास्फीति दर लगभग सात प्रतिशत के आसपास रहेगी। इसके पहले रिजर्व बैंक लगातार दावा कर रहा था कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर घटकर 5.50 फीसद रह जाएगी। असल में, यह महंगाई से निपटने में रिजर्व बैंक से अधिक यूपीए सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों की हार है। सरकार ने जिस तरह से महंगाई के आगे घुटने टेकते हुए उससे लड़ने की जिम्मेदारी अकेले रिजर्व बैंक और उसकी मौद्रिक नीति के मत्थे मढ़ दी है, उसमें रिजर्व बैंक के पास कोई खास विकल्प भी नहीं रह गया है। हालांकि यह सबको पता है कि महंगाई में लगातार बढ़ोत्तरी मांग में वृद्धि से अधिक नीतिगत और संरचनागत कारणों से हो रही है। इस तरह की महंगाई से निपटने में मौद्रिक नीति की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं। नतीजा, रिजर्व बैंक भी एक तरह से दिखावे के लिए मांग पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरों में मामूली वृद्धि कर रहा है। यह एक तरह से अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। अगर रिजर्व बैंक को सचमुच ऐसा लगता है कि बढ़ती महंगाई सिर्फ आम आदमी को परेशान कर रही है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी अस्त- व्यस्त कर सकती है और यह मांग में अत्यधिक बढ़ोत्तरी के कारण है तो उसे ब्याज दर में सिर्फ चौथाई फीसद के बजाए कम से कम आधे से लेकर पौन फीसद की वृद्धि करनी चाहिए थी। तथ्य यह है कि बैंक और मुद्रा बाजार में ब्याज दरों में आधे फीसद की अपेक्षा की भी जा रही थी लेकिन रिजर्व बैंक ने एक बार फिर फूंक-फूंककर, धीमे और संभलकर चलने की अपनी नीति जारी रखी। दरअसल, इस नीति के पीछे रिजर्व बैंक की एक बड़ी दुविधा भी है। उसे महंगाई से निपटते हुए आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखने की चिंता भी करनी है। आर्थिक वृद्धि दर को प्रोत्साहित करने के लिए निवेश को बढ़ाना जरूरी है जिसके लिए जरूरी है कि ब्याज दरें कम रहें। आश्चर्य नहीं कि ब्याज दरों में ताजा मामूली वृद्धि की भी उद्योग जगत ने आलोचना की है। हालांकि रिजर्व बैंक के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि की दर संतोषजनक है और उसका अनुमान है कि इस साल जीडीपी की विकास दर 8.5 प्रतिशत रहेगी लेकिन औद्योगिक उत्पादन दर में जिस तरह से नवम्बर माह में तेज गिरावट दर्ज की गई है और वह सिर्फ 2.7 प्रतिशत रह गई है, उससे रिजर्व बैंक का चिंतित होना स्वाभाविक है। निश्चय ही, रिजर्व बैंक की यह एक बड़ी चिंता है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर को नुकसान पहुंचाए बिना महंगाई को कैसे काबू में किया जाए। गवर्नर सुब्बाराव की मुश्किल यह है कि उनके पास बहुत सीमित विकल्प हैं। यही नहीं, सच यह भी है कि उनके तरकश में जितने सीमित तीर उपलब्ध थे, उन्होंने उन सभी का इस्तेमाल पिछले एक साल में कर लिया है। आश्चर्य नहीं कि रिजर्व बैंक ने ताजा मौद्रिक नीति में महंगाई से लड़ने के मुद्दे को यह कहकर केन्द्र सरकार खासकर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के पाले में सरका दिया है कि मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए केन्द्र सरकार को वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि रिजर्व बैंक चाहता है कि जब अगले महीने वित्त मंत्री सालाना बजट पेश करें तो उसमें वित्तीय घाटे को काबू करने यानी सरकार की आय में बढ़ोत्तरी और खचरे में कटौती पर सबसे अधिक जोर दें। मतलब बिल्कुल साफ है। रिजर्व बैंक महंगाई से लड़ने के लिए एक सख्त बजट चाहता है। लेकिन असली सवाल यह है कि एक ऐसे दौर में जब महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है और आम आदमी का जीवन दूभर हुआ जा रहा है, उस समय एक सख्त बजट क्या आम आदमी पर दोहरी मार की तरह नहीं होगा? सवाल यह भी है कि मांग को नियंत्रित करने के जरिये मुद्रास्फीति को काबू में करने की रणनीति की असली कीमत कौन चुका रहा है। याद रहे, मुद्रास्फीति भी एक तरह से बाजार का अपना तरीका है जिसके जरिये वह मांग को नियंत्रित करती है यानी जब दाल की कीमत बढ़कर सौ रुपये प्रति किलो हो जाती है तो इसके जरिये वह आबादी के एक बड़े तबके की पहुंच से दूर हो जाती है। ऐसे में, इस सवाल पर जरूर विचार होना चाहिए कि मांग प्रबंधन के नाम पर बाजार से किस तबके को बाहर किया जा रहा है।