Wednesday, December 28, 2011

मुश्किलों के साथ थोड़ी उपलब्धियां भी

सन 2011आर्थिक मुश्किलों का वर्ष रहा। साल के शुरू में आर्थिक उपलब्धियों की उजली संभावनाएं अनुमानित की जा रही थीं लेकिन वर्ष खत्म होते- होते वैिक स्तर पर अमेरिका के राजकोषीय संकट और यूरोपीय देशों के ऋण संकट से आगे बढ़ी दोहरी मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में भी चिंता का दौर पैदा कर दिया। इंडियन पॉलिटिकल इकोनॉमी एसोसिएशन और वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों के पैनल द्वारा तैयार सव्रे रिपोर्ट में कहा गया कि दुनिया के विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में छाई अनिश्चितता से भारत भी आर्थिक मंदी की दहलीज पर पहुंच गया। रुपया नीचे गिरता गया। आयात महंगे हो गए। राजकोषीय घाटा बढ़ गया। उद्योग-व्यापार और शेयर बाजार निराशा के दौर में पहुंच गए। विकास दर आठ फीसद के अनुमानित लक्ष्य से घटकर सात फीसद रह गई। स्पष्ट है कि 2011 में वैिक आर्थिक हालात के कारण देश के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले सेवा क्षेत्र की विकास दर घट गई। पिछले दो सालों में पहली बार निजी क्षेत्र की गतिविधियों में गिरावट दर्ज की गई और यह आंकड़ा घटकर उसी स्तर पर पहुंच गया, जो वर्ष 2008 की वैिक मंदी के समय था। निश्चित रूप से देश के उद्योग-व्यापार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ऋण पर बढ़ती ब्याज दरें रही। उद्यमियों को बढ़ती ब्याज दरों के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (यूनिडो) ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा कि 2011 में भारत में औद्योगिक विकास में गिरावट की सबसे बड़ी वजह ब्याज दरों में लगातार हो रही बढ़ोतरी रही। भारत में महंगाई पर काबू के लिए रिजर्व बैंक की ओर से लगातार मौद्रिक दरों में की जा रही बढ़ोतरी से औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर और कारोबारी विास में गिरावट आई। करोड़ों लोगों के लिए आवास ऋण पर ब्याज दर बढ़ने का दौर चिंताजनक रहा। निर्यात ऋणों पर ऊंची ब्याज दरों से निर्यातक परेशान रहे। वैिक मंदी के कारण भारतीय निर्यात के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए, उनमें जेम एंड ज्वैलरी, लेदर, टेक्सटाइल, आईटी, फार्मा और कुछ अन्य सेवा क्षेत्र शामिल हैं। निसंदेह 2011 में सरकार के कर राजस्व की स्थिति संतोषप्रद नहीं रही। चालू वित्त वर्ष 2011-12 में दिसम्बर महीने तक सरकार कर राजस्व संग्रह के आधे लक्ष्य तक ही पहुंच पाई। राजकोषीय घाटा और विनिवेश लक्ष्य चूकने के कारण संभवत: वित्त मंत्रालय बजट लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगा। पिछले चार वित्त वर्षो में यह तीसरी बार होगा, जब सरकार अपना बजट लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगी। चालू वित्त वर्ष के अंत तक प्रत्यक्ष कर संग्रह पांच लाख करोड़ और अप्रत्यक्ष कर संग्रह 3,90,000 करोड़ रुपए तक रहने की उम्मीद है। यह रकम लक्षित कर संग्रह से 40,000 करोड़ रुपए कम है। ऐसे में राजकोषीय घाटे पर दबाव बढ़ सकता है, जो बजटीय अनुमान 4.6 फीसद से ज्यादा हो सकता है। निश्चित रूप से दिसम्बर 2011 में अमेरिका की प्रतिनिधि सभा में प्रस्तावित आउटसोर्सिग बिल ने भारतीय अर्थव्यवस्था की चिंता बढ़ा दी है। इसमें कहा गया है कि जो कॉल सेंटर अमेरिका से बाहर भारत जैसे मुल्कों से कामकाज करेंगे, उन्हें पांच साल तक अमेरिका की फेडरल संघीय सरकार से अनुदान या गारंटीशुदा लोन नहीं मिलेगा। इस विधेयक की मंजूरी के बाद जो कॉल सेंटर 60 दिन के भीतर अमेरिकी लेबर डिपार्टमेंट को अपने कॉल सेंटर के ट्रांसफर की जानकारी देने में नाकाम रहेंगे, उन पर रोजाना 10,000 डॉलर का जुर्माना लगाया जाएगा। पहले ही वित्तीय सुस्ती से जूझ रहे 14 अरब डॉलर के भारतीय बीपीओ बाजार पर इसका बुरा असर होगा। भारत का बीपीओ सेक्टर अमेरिकी बाजार में सुस्ती और दूसरे मुल्कों से मिल रहे कड़े मुकाबले के चलते काफी दबाव में है। नासकॉम ने बताया कि यह साफ तौर पर संरक्षणवादी विधेयक है और इसे मंजूरी मिलने पर भारत का पूरा आईटी सेक्टर प्रभावित होगा। लेकिन इन आर्थिक निराशाओं के बीच 2011 ने कुछ उजली यादें भी छोड़ी हैं। 22 दिसम्बर, 2011 को लोकसभा में प्रस्तुत खाद्य सुरक्षा बिल के रूप में 64 फीसद आबादी को खुशियों का उपहार मिला। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में खाद्य महंगाई दर चार साल के निम्नतम स्तर पर पहुंच गई। पाकिस्तान और चीन सहित दुनिया के कई विकासशील और विकसित देशों के साथ व्यापार मित्रता के नए अध्याय लिखे गए। सितम्बर 2011 में पेइचिंग में आयोजित भारत और चीन के बीच पहली रणनीतिक आर्थिक वार्ता (एसईडी) में दोनों देशों ने द्विपक्षीय निवेश बढ़ाने, एक-दूसरे के लिए बाजार खोलने, विकास के अनुभवों को साझा करने और ढांचागत क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई। 10- 11 नवम्बर को मालदीव में दक्षिण एशियाई देशों- भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तानके क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस या सार्क) के सत्रहवें शिखर सम्मेलन में भारत के बढ़ते व्यापारिक महत्व को स्वीकार किया गया। दिल्ली में 15 नवम्बर को भारत और पाकिस्तान के वाणिज्य सचिवों की बैठक में पाकिस्तान द्वारा कुछ वस्तुओं को छोड़कर कई वस्तुओं के लिए भारत से खुले आयात की अनुमति देने की घोषणा हुई। बेहतर मानसून के चलते फसलों का उत्पादन काफी अच्छा रहा, इसके चलते दिसम्बर में खाद्य महंगाई में गिरावट आई। हालांकि दाल, दूध, अंडा, मछली आदि के दामों में कमी न होना चिंता का विषय रहा। खाद्य महंगाई से कुल मुद्रास्फीति पर बहुत कम असर पड़ा पर खाद्य मुद्रास्फीति का दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में 1.81 प्रतिशत के स्तर पर आने से देश के करोड़ों लोगों को राहत मिली। यह चार साल का सबसे निचला स्तर है। आवश्यक खाद्य वस्तुओं मसलन आलू-प्याज जैसी सब्जियों और गेहूं की कीमतों में कमी से खाद्य मुद्रास्फीति नीचे आई है। यह गिरावट जहां आम उपभोक्ताओं को राहत पहुंचाती दिखी, वहीं किसानों की मुश्किलें कुछ बढ़ गई। निश्चित रूप से वर्ष 2011 के अंत में आर्थिक आशाओं और निराशाओं के बीच देश का जो आर्थिक परिदृश्य दिखाई दिया है, उसके आधार पर 2012 में विभिन्न आर्थिक चुनौतियों की कल्पना की जा सकती है। उम्मीद करें कि नए वर्ष में सरकार हरसंभव प्रयास करके उद्योग-व्यवसाय को गति देगी। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अनाज की पर्याप्त आपूर्ति हेतु खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की नई रणनीति पर कार्य होगा। साथ ही करोड़ों लोगों को पीड़ा देने वाली महंगाई को नियंत्रित करने के लिए कारगर कदम उठाये जाएंगे।

Monday, December 19, 2011

सरकार ने अमीरों पर लुटाए साढ़े चार लाख करोड़ रुपये


महंगाई हो या मंदी, आर्थिक तंगी के नाम पर खर्च कटौती के लिए सरकार की नजर सबसे पहले गरीबों और किसानों को मिलने वाली सब्सिडी पर जाती है। योजना आयोग, रिजर्व बैंक से लेकर तमाम अर्थशास्त्री और उद्योग जगत के लोग इसी सब्सिडी को लेकर हायतौबा मचाते हैं। आपको यह जानकर हैरत होगी कि सब्सिडी की यह रकम सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ रुपये ही है। इसमें भी वह कैंची चलाने की उत्सुकता दिखा रही है। इसके उलट केंद्र सरकार ने टैक्स छूट और रियायतों के रूप में उद्योगपतियों पर साढ़े चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा लुटा डाले। यह राशि लगातार बढ़ती जा रही है। संसद को वित्त मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, बीते साल केंद्र सरकार ने उद्योगपतियों को तमाम तरह की टैक्स छूट, रियायतों और प्रोत्साहनों के तौर पर 4.6 लाख करोड़ रुपये बांटे। केंद्रीय उत्पाद और सीमा शुल्क से छूटों के रूप में ही 3.73 लाख करोड़ रुपये की रकम सरकारी खजाने तक पहुंचने के बजाय उद्योगपतियों की तिजोरी में चली गई। इसमें निर्यात पर दी गई सब्सिडी और रियायतें शामिल नहीं हैं। वहीं, 31 मार्च, 2011 को समाप्त पिछले वित्त वर्ष के दौरान गरीबों और किसानों के नाम पर सरकार ने 1.54 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है। इसमें भी आम आदमी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने पर 60,600 करोड़ रुपये गए हैं। पेट्रोल, डीजल, केरोसीन और रसोई गैस के मद में 38,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी मिली है। किसानों को सस्ती खाद के लिए उर्वरक कंपनियों को 55,000 करोड़ रुपये की सरकारी मदद मुहैया कराई गई है। आम आदमी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी भी बढ़ रही है, लेकिन यह अमीरों को प्रदान की गई इमदाद के सामने कुछ भी नहीं है।

Friday, December 16, 2011

बिगड़ती जा रही इकोनॉमी की सेहत

आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ी वि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत भी अच्छी नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बुधवार का दिन भी अच्छा नहीं रहा। सेंसेक्स में आज 121 अंकों तक की गिरावट दर्ज की गई जबकि विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में डालर के मुकाबले रुपया 48 पैसे और टूटकर 53.73 के निम्नतम स्तर तक पहुंच गया। तेल कंपनियों ने भी पेट्रोल के दामों में 65 पैसे प्रति लीटर तक की बढ़ोतरी के संकेत दिए हैं। राहत की बात सिर्फ यह रही कि आज घोषित मुद्रास्फीति के मासिक आंकड़ों में मुद्रास्फीति की दर 9.73 फीसद से घटकर 9.11 फीसद हो गई है साथ ही सोना भी 29 हजार रुपए प्रति दस ग्राम से नीचे आ गया है। उधर अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने वि समुदाय को आगाह किया है कि वैिक आर्थिक नरमी और गहरा सकती है। अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए कोई नई पहल न करने की घोषणा के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भारी हलचल दिखाई दी और कई देशों के शेयर बाजारों में गिरावट आई। अर्थव्यवस्था के नाजुक हालात पर हालांकि सरकार ने चिंता जरूर जताई है लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि इससे निपटने के संसाधन सीमित हैं।

अर्थव्यवस्था की असलियत


आर्थिक मोर्चे की विफलता का कोई विकल्प नहीं होता। अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का ज्ञान भारत के किसी काम नहीं आया। वह डीजीपी का नाम जपते नहीं अघाते थे, लेकिन विकास दर लुढ़कनी शुरू हुई तो फिर लुढ़कती ही चली गई। यह 2010 की पहली तिमाही जनवरी-मार्च में 9.4 थी, दूसरी तिमाही में 9.3 प्रतिशत हुई और साल के आखिर में 8.3 प्रतिशत ही रह गई। चालू बरस 2011 में घटकर लगभग 7.6 फीसदी पर पहुंच गई है। अर्थव्यवस्था की मध्यावधि समीक्षा में आर्थिक विकास दर का लक्ष्य 7.5 प्रतिशत रखे जाने के संकेत हैं। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने 9 प्रतिशत विकास दर हासिल करने में नाकामी के लिए यूरोपीय आर्थिक संकट को दोषी बताया है। भारतीय मुद्रा रुपया पहले से ही कमजोर थी। वह अब 54 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर है। इस वजह से आयात महंगा होगा। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के राज में देश महंगाई डायन के जबड़े में है। रिजर्व बैंक ने 2010 से लेकर कोई 13 दफा ब्याज दरें बढ़ाई हैं, लेकिन महंगाई का कोप खाद्य वस्तुओं का घेरा तोड़कर उपभोक्ता वस्तुओं तक जा पहुंचा है। रसोई गैस सहित पेट्रो पदार्थों की मूल्यवृद्धि से कोहराम है। बावजूद इसके केंद्र अपनी विफलता का ठीकरा विपक्ष और विश्व अर्थव्यवस्था पर फोड़ रहा है। अर्थव्यवस्था अर्थशास्त्र से नहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति से चलती है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार ज्यादा मांग और कम पूर्ति के कारण दाम बढ़ते हैं और ज्यादा पूर्ति तथा कम मांग के कारण घटते हैं। सरकार ने महंगी वस्तुओं के पूर्ति पक्ष की उपेक्षा की। उसने बिचौलियों द्वारा पैदा कृत्रिम अभाव पर ध्यान नहीं दिया। अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा। रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाकर महंगाई रोकने का फैसला किया। बैंक कर्ज की ब्याज दरें महंगी हो गईं। ये मार्च 2010 में 5 प्रतिशत थीं, लेकिन बार-बार की बढ़त से नवंबर 2010 में 6.25 प्रतिशत हो गईं। चालू बरस 2011 की जनवरी के 6.50 प्रतिशत से बढ़ते हुए अक्टूबर में 8.50 प्रतिशत हो गईं। इससे मध्यम वर्ग की कठिनाई बढ़ी। उद्योग वर्ग को निवेश में दिक्कतें आईं। सरकार ने सीधी सी अर्थशास्त्रीय बात की उपेक्षा की, बाजार में धन नहीं होगा तो मांग कहां से आएगी। मांग नहीं होगी तो औद्योगिक उत्पादन क्यों होगा? सो औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आई। बीते साल 2010 के अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि की दर 11.3 प्रतिशत थी। पिछले साल की तुलना में इस वर्ष 2011 के अक्टूबर में यह दर 5.1 प्रतिशत ही रह गई। औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के लिए भी सरकार ने स्वयं को जिम्मेदार नहीं माना। इस गिरावट के लिए भी यूरोपीय अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं के प्रभाव को ही जिम्मेदार बताया जा रहा है। आखिरकार यूरोपीय अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं की सुस्ती के विरुद्ध भारतीय नेताओं की चुस्ती क्या थी? प्रधानमंत्री और संपूर्ण सरकार पर ही अर्थव्यवस्था को कल्याणकारी बनाने की जिम्मेदारी है, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की सरकार का राजकोषीय घाटा भी स्वयं उनके अपने अनुमान से छलांग लगाकर आगे निकल गया। 2011-12 के बजट में 4.6 प्रतिशत के राजकोषीय घाटे का अनुमान था, लेकिन बीते अक्टूबर तक ही यह 3.07 लाख करोड़ रुपये हो गया था। उद्योग क्षेत्र पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। ढेर सारे अर्थशास्त्री हैं। आंकड़ों की चतुराई और बाजीगरी है। ऊंची विकास दर का ऐलान हो रहा है, बावजूद इसके समूची अर्थव्यवस्था का पहिया आगे बढ़ने के बजाय बैक मार रहा है। सकल घरेलू उत्पाद, विकास दर और विदेशी मुद्रा की बढ़त के नाम लेकर ही भारत आर्थिक महाशक्ति का दावा ठोंक रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। विकास दर घट रही है। निर्यात के आंकड़ों में भी त्रुटियां हैं। सरकार ने अपनी गलती स्वीकार की है। अर्थनीति ही राष्ट्र की रिद्धि, सिद्धि और समृद्धि का प्रमुख उपकरण है, लेकिन भारत की मुख्य समस्या राजनीति है। सत्तारूढ़ संप्रग का नेतृत्व सोनिया गांधी करती हैं। अर्थनीति के संचालन से उनका कोई लेना-देना नहीं है। अर्थनीति का नियंत्रण राजनीतिक इच्छाशक्ति से होता है, लेकिन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का राजनीतिक इच्छाशक्ति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी वरिष्ठ राजनेता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े सरकारी फैसलों से उनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। संप्रग-तंत्र में आर्थिक नीतियों को लेकर घोर अराजकता है। कोई महंगाई के लिए राजग को दोषी ठहराता है तो कोई इसे वैश्विक अर्थव्यवस्थओं का दुष्प्रभाव बताता है। अर्थशास्त्र के ज्ञानी प्रधानमंत्री महंगाई को तेज रफ्तार को विकास का परिणाम बता चुके हैं। वित्तमंत्री प्रणब के मुताबिक महंगाई घट गई है। यही स्थिति विकास दर को लेकर भी है। प्रधानमंत्री विकास दर को लेकर खुश थे। वित्तमंत्री ने फरवरी 2011 के बजट भाषण में विकास दर के 9 प्रतिशत रहने का ऐलान किया था, लेकिन अब कहा है कि विकास दर 7.5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी। विकास दर के दावे थोथे साबित हुए हैं। मनमोहन अर्थव्यवस्था की तस्वीर घोर निराशाजनक है। उनके अपने आकलन और मूल्यांकन ही ध्वस्त हो गए हैं। जमीनी हालत बद से बदतर हैं। वह कहते हैं कि महंगाई घटी है, लेकिन चीनी महंगी है, दूध महंगा है, दवाइयां महंगी हैं, शिक्षा और चिकित्सा की महंगाई आसमान पर है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस महंगे हैं। औद्योगिक उत्पाद महंगे हो रहे हैं। रोटी, कपड़ा की महंगाई के साथ मकान भी महंगे हैं। प्रधानमंत्री की मानें तो महंगाई भारी समृद्धि का नतीजा है। कृष्णपक्ष दूसरे भी हैं। भवन निर्माण क्षेत्र सहित अधिकांश औद्योगिक उत्पादनों में गिरावट है। औद्योगिक क्षेत्र केंद्र पर अनिर्णयग्रस्त होने का आरोप लगा चुका है। औद्योगिक क्षेत्र से प्रोत्साहन पैकेज की मांग उठी है। केंद्र 2008 में उन्हें तमाम सहूलियतें दे चुका है। कुछेक विमान कंपनियां भी राहत चाहती हैं, लेकिन इसके ठीक उलट खाद सब्सिडी, गरीबों के इस्तेमाल वाले केरोसिन व बीपीएल के खाद्यान्न पर होने वाले सरकारी खर्च पर अर्थशास्ति्रयों की नजर टेढ़ी है। पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है। गहन अर्थचिंतन जरूरी है। प्रधानमंत्री का अर्थशास्त्र समझ के परे है। वह मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं, विदेशी पूंजी के संरक्षक हैं, स्वदेशी पूंजी के विरोधी हैं। राष्ट्रीय समृद्धि से निरपेक्ष हैं। आश्चर्य है कि विकास दर घटी है, औद्योगिक उत्पादन की दर घटी है, मुद्रास्फीति बढ़ी है। महंगाई बढ़ी है, आमजन की क्रय शक्ति घटी है, भ्रष्टाचार बढ़ा है, ब्याज दरें बढ़ी हैं, नौकरियां घटने की संभावनाएं हैं, अनाज सड़ रहा है, लेकिन भुखमरी से मौतें बढ़ी हैं। अर्थव्यवस्था घोर निराशाजनक है। बावजूद इसके संप्रग मनमोहन अर्थशास्त्र की गाड़ी पर सवार हैं। आगे मंदी की खाई है, गाड़ी दुर्घटना बहुल क्षेत्र में फंस चुकी है। (लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

Wednesday, December 14, 2011

आर्थिक सुस्ती के आगे लाचार सरकार


सरकार को आर्थिक सुस्ती से निपटने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। कोरे वादों और उम्मीदों के सिवाय उसके पास मंदी की तरफ जाती अर्थव्यवस्था को बचाने का कोई ठोस उपाय नहीं है। अंधेरे में हाथ-पैर मार रही सरकार आम आदमी और निवेशकों को भरोसा देने में नाकाम है। यही वजह है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सुधारों की रफ्तार बढ़ाने के लिए संसद को सुचारु रूप से चलाने की पुरजोर पैरवी तो की, लेकिन खस्ताहाल अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए कोई नुस्खा नहीं पेश कर पाए। इस बीच रुपये में ऐतिहासिक गिरावट से सरकार की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। अर्थव्यवस्था के हर मोर्चे की धीमी रफ्तार के साथ रुपये की कीमत भी सरकार के लिए सिरदर्द बनती जा रही है। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत अब तक के सबसे निचले स्तर 53.24 रुपये पर पहुंच गई है। महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के चलते उद्योगों में उत्पादन की रफ्तार थम गई है। निर्यात की हालत बुरी है। आर्थिक सुधारों का पहिया भी रूका हुआ है। ऐसे में राज्यसभा में विनियोग विधेयक पर जवाब देने के समय वित्त मंत्री से उम्मीद थी कि वो सरकार के भावी उपायों के बारे में बताएंगे। उन्होंने माना कि अर्थव्यवस्था मंदी में है। हालांकि उन्होंने यह भी भरोसा दिलाया कि इस मंदी से पार पाने की क्षमता भारतीय अर्थव्यवस्था में है। मगर वित्त मंत्री का यह आशावाद मुद्रा बाजार में रुपये के अवमूल्यन को नहीं रोक पाया। डॉलर के मुकाबले रुपया 53.52 के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था। हालांकि बाद में कुछ सुधर कर यह 39 पैसे की गिरावट के साथ 53.24 रुपये पर बंद हुआ। पिछले दो दिनों में डॉलर 1.19 रुपये मजबूत हुआ है। रुपये की कीमत में उतार-चढ़ाव अभी बने रहने की उम्मीद है। डॉलर के लगातार मजबूत होते जाने से कमजोर हुआ रुपया सरकार के खजाने में और सेंध लगाएगा। सरकार का कहना है कि आरबीआइ के पास विदेशी मुद्रा का भंडार इतना नहीं है कि वह हस्तक्षेप कर रुपये को स्थिर करे। उधर अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत देख प्रमुख अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी व वित्तीय सलाहकार संस्था फिच ने चालू वित्त वर्ष के लिए आर्थिक विकास दर के अनुमान को 7.5 फीसदी से घटा कर 7 फीसदी कर दिया है। फिच ने इसके लिए घरेलू स्तर पर ब्याज की दर व महंगाई की स्थिति को प्रमुख कारक बताया है। देश के सभी प्रमुख चैंबरों ने सरकार को त्राहिमाम संदेश भेजते हुए कहा है कि अगर हालात से निबटने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो अब नौकरियों में छंटनी का सिलसिला शुरू हो सकता है। एचडीएफसी बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री अभीक बरुआ के मुताबिक अक्टूबर में त्योहारी सीजन होने के बावजूद उपभोक्ता सामान उद्योग में 0.3 फीसदी की गिरावट से साफ है कि स्थिति कितनी गंभीर है।

फुल स्पीड से मंदी की ओर

बात अब तक सरकारी हलकों में दबे-छिपे स्वर में कही जा रही थी, वरिष्ठ मंत्री, वरिष्ठ अफसर जिसे दबे-छिपे स्वीकारते थे- अब ऑफिशयिल हो गयी है। अर्थव्यवस्था तेजी से मंदी की ओर जा रही है। जिस अर्थव्यवस्था को ग्रोथ स्टोरी बताया जा रहा था, तमाम स्टॉक बाजारों के चैनल/एंकर यह बताते नहीं थकते थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था शेर हो गयी है, दहाड़ रही है, शेयर बाजार छलांग लगाकर बहुत ऊपर जाने वाला है, उन्हीं तमाम स्टॉक बाजारों के चैनल/एंकर अब यह बताने में समय लगा रहे हैं कि मंदी चाहे जितनी हो, ज्यादा दिनों तक नहीं रुकेगी। पर मंदी चैनल/एंकरों के हिसाब से नहीं चलती। वह अपने हिसाब से चलती है। हाल में आये आंकड़ों के मुताबिक देश की औद्योगिक अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। अक्टूबर 2011 में अक्टूबर 2010 के मुकाबले औद्योगिक क्षेत्र में 5.1 प्रतिशत की गिरावट हुई है। कैपिटल गुड्स सेक्टर की हालत बहुत ज्यादा खराब है। कैपिटल गुड्स सेक्टर का मतलब वह सेक्टर है, जो बड़ी मशीनें बनाता है। अर्थव्यवस्था की फैक्टरियां जिन मशीनों के दम पर चलती हैं, उन्हें यही सेक्टर बनाता है और इसमें अक्टूबर 2011 में अक्टबूर 2010 के मुकाबले करीब पचीस प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। कैपिटल गुड्स सेक्टर की एक बड़ी कंपनी एलएंडटी के मुखिया आईएम नायक का कहना है कि हो सकता है इस साल अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत की दर से भी विकास न करे। हालांकि पहले कह रहे थे कि सात प्रतिशत के हिसाब से विकास होगा। जबकि तमाम सरकारी आकलन आठ से नौ प्रतिशत विकास दर की बात कर रहे हैं। कुछ महीनों पहले तक बात हो रही थी कि विकास दर दस प्रतिशत से ऊपर जायेगी। पर अब अनुमान बदल गये हैं। अर्थव्यवस्था लगभग हर जगह से कमजोर दिखायी दे रही है। मुंबई स्टाक बाजार का सूचकांक सेंसेक्स इन आंकड़ों से डरकर 343 अंक तक गिर गया। 16 दिसम्बर को रिजर्व बैंक की एक महत्वपूर्ण बैठक होने जा रही है। उम्मीद की जा रही है कि इस बैठक में कुछ ऐसे फैसले नहीं लिये जाएंगे, जिनसे ब्याज दरें महंगी हो जायें। रिजर्व बैक ने हाल में ऐसे अनेक कदम उठाये हैं जिनसे ब्याज दरें महंगी हुई हैं और इस कारण कार खरीदना, मकान खरीदना आदि महंगा हुआ है। मार्च, 2010 से अब तक रिजर्व बैंक करीब चार प्रतिशत के आसपास ब्याज दरें बढ़ा चुका है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मकान के कर्जों की ईएमआई बढ़ गयी। कार के कर्जों की ईएमआई बढ़ गयी। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि जो कार कंपनियां पहले ग्राहकों को कह रही थीं कि कारों के लिए इंतजार करो, उनकी ग्राहक लिस्ट एकदम सिकुड़ गयी। तमाम कार कंपनियों ने बताया कि उनकी बिक्री लगातार कम हो रही है। कार खरीदने वालों को किश्तें इतनी ज्यादा लग रही हैं कि उन्होंने कार खरीदने का इरादा या तो स्थगित कर दिया है या त्याग ही दिया है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था का यह सीन बदला कैसे? जो अर्थव्यवस्था कुछ महीनों पहले तक गुलाबी-गुलाबी दिखायी दे रही थी, अब उसमें कांटे ही कांटे क्यों दिखायी पड़ रहे हैं? इसकी कुछ खास वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का एक खास सेक्टर सॉफ्टवेयर पूरे तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था से जुड़ा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी का मतलब है कि भारतीय सॉफ्टवेयर सेक्टर की कमाई भी ढीली होगी और वही हुआ। इस बीच तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियां अमेरिकी मंदी से जूझ रही थीं और उस कारण यूरोप के देशों में नया बाजार तलाशने की कोशिश में थीं पर यूरोप और भी विकट मंदी का शिकार हो गया। आज यूरोप में कई अर्थव्यवस्थाएं गिरने के कगार पर हैं। पूरे वि में कोई ऐसी मजबूत अर्थव्यवस्था नहीं है, जो दुनिया को सहारा दे सके। अमेरिकन मंदी ग्लोबल मंदी में तब्दील हो चुकी है। भारत में स्थितियां थोड़ी अलग रही हैं। भारत में तमाम वजहों से खाने-पीने की चीजों की कीमतें लगातार बढ़ती रही हैं। रिटेल के हिसाब से देखें तो खाने-पीने की चीजों में 2010-11 में पिछले साल के मुकाबले करीब पचास प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इस महंगाई की कई वजहें रही हैं। खाने-पीने की चीजों की मांग में बढ़ोत्तरी एक वजह है। तमाम रोजगार योजनाओं की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में आय बढ़ी है। इस वजह से तमाम चीजों की मांग में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके अलावा एक मसला यह है कि सस्ते खाद्यान्न को पब्लिक तक पहुंचाने वाला पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी राशन की दुकान जैसी की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। कोई भी सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं रही। इस वजह से दिक्कतें ज्यादा हैं। इसलिए खाने-पीने की चीजों के भाव बढ़े तो महंगाई भी बढ़ी। इससे रिजर्व बैंक की चिंताएं बढ़ीं। रिजर्व बैंक की एक जिम्मेदारी यह भी है कि वह महंगाई को नियंत्रित करे। किताबों में, थ्योरी में एक सबक समझाया जाता है कि अगर चीजों की महंगा कर दिया जाये तो उनकी मांग कम हो जाएगी और मांग कम हो जायेगी तो उनकी कीमतें स्वत: कम हो जाएंगी। इस तरह से महंगाई थम जायेगी। इसी आधार पर रिजर्व बैंक ने लगातार ब्याज दरें महंगी कीं पर यह किताबी थ्योरी वास्तव में परिणाम दिखाती नहीं दिखती। इसका नतीजा यह है कि कार, मकान कर्ज सब कुछ महंगा हो गया। मकान कर्ज महंगा हुआ तो मकान खरीदने वालों ने मकान खरीदने कम कर दिये। यानी कंस्ट्रक्शन सेक्टर में त्राहि-त्राहि मची। वहां मंदी की आहटें सुनायी दीं। उधर कार कंपिनयों ने शिकायतें शुरू कीं कि कार कर्ज महंगा हो गया है और लोगों ने कार खरीदना कम कर दिया। मंहगाई आलू-प्याज चावल-आटे को कष्ट दे रही थी। पर नतीजा यह हुआ कि रिजर्व बैंक ने मकान और कार खरीदना भी महंगा कर दिया। उनकी मांग कम हो गयी। मतलब स्थिति यह हुई कि ब्लड प्रेशर का इलाज किया, तो शुगर की प्राब्लम हो गयी। मसले उलझे हुए हैं। अब कई स्तर पर काम करना होगा, तब हालात में सुधार होगा। उद्योग जगत शिकायत कर रहा है कि ब्याज दरें इतनी ज्यादा बढ़ गयी हैं कि लोग सामान खरीदने में हिचक रहे हैं। रोजगार की बढ़ोत्तरी सिमट रही है। सरकार को कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। रिजर्व बैंक को सुनिश्चित करना होगा कि आगे ब्याज दरें ना बढ़ें। यह काम आसान नहीं है पर पटरी से उतरी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना भी आसान नहीं है। कुल मिलाकर मसला यह है कि शेयर बाजार के निवेशकों को भी तैयार हो जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार की मंदी लंबी चलेगी।