Wednesday, May 25, 2011

तेल की कीमतों का अर्थशास्त्र


हाल के कुछ महीनों में तेल की कीमतों, खासकर पेट्रोल के दामों में क्रमिक रूप से बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली है। आम जनता जहां बढ़ती महंगाई और अपनी कम होती आय व खर्चो से परेशान है वहीं सरकार सरकारी कोष पर तेल सब्सिडी का ज्यादा बोझ होने का तर्क देकर औसतन हर एक-दो महीनों में तेल के दामों में बढ़ोतरी कर देती है। कुछ दिन हंगामा मचता है, सरकार की तरफ से सफाई आती है, प्रधानमंत्री आर्थिक विकास तेज करने और महंगाई कम करने का आश्वासन देते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है। सवाल है कि क्या वाकई में सरकार तेल सब्सिडी के बोझ से दबी हुई है और उसके पास दामों में बढ़ोतरी के अलावा और दूसरा कोई विकल्प नहीं है? इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या महंगाई का विकास से कोई नाता है और यदि है तो किस तरह का है। पिछले एक-दो दशकों में विकासशील देशों में तेल की खपत व मांग तेजी से बढ़ रही है। इसके उलट तेल के उत्पादन में गिरावट आई है, जिससे वैश्विक बाजार में मांग-आपूर्ति का संतुलन बिगड़ा है। इसमें ओपेक देशों की मुनाफाप्रेरित राजनीति और खींचतान की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इन तमाम कारणों से अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें भी बढ़ रही हैं। भारत अपनी कुल तेल जरूरतों का दो-तिहाई हिस्सा कच्चे तेल के रूप में आयात करता है। जाहिर है सरकार को राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च करना पड़ता है, लेकिन यह इस समस्या का एक पहलू है, जिसकी चर्चा करके और हवाला देकर सरकार खुद के सही होने का तर्क रखती है। भारत में तेल की कीमतें अधिक होने की एक बड़ी वजह तेल पर सरकार की ओर से लगाए जाने वाले कई तरह के कर और उपकर हैं। तेल के आयात से लेकर बिक्री तक के विभिन्न स्तरों पर आम उपभोक्ताओं को सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क, बिक्री कर और विभिन्न राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले करों का भुगतान करना होता है। इसके अलावा डिस्ट्रीब्यूटर से लेकर रिटेलर तक के स्तर पर लूटखसोट और मुनाफाखोरी होती है। भारत में पेट्रोल के उत्पादन पर सरकार की ओर से वसूला जाने वाला टैक्स भी दुनिया के किसी भी अन्य देश से ज्यादा है। यह भार अंतत: पेट्रोल की बढ़ती कीमत के रूप में सामने आता है, जिसका भार उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है। इसमें एक बड़ा अंतर्विरोध यह है कि करों की उगाही से मिलने वाला पैसा यानी कर प्राप्ति का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक तेल कंपनियों के घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है। यहां खेल यह होता है कि पहले निजी कंपनियां सरकार पर दबाव बनाकर अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए तेल के दाम बढ़वाती हैं, फिर सरकार सार्वजनिक कंपनियों को निजी कंपनियों के बराबर लाने के नाम पर उन्हें भारी सब्सिडी देती है अथवा ऑयल बांड जारी करती है। साफ है कि पेट्रोल की कीमतें इसलिए नहीं बढ़ाई जातीं, क्योंकि तेल के दाम बढ़ गए होते हैं, बल्कि यह इसलिए होता है ताकि निजी कंपनियों की कमाई का मार्जिन घटने न पाए और उनका मुनाफा दिनोंदिन बढ़ता रहे व सरकार के पास टैक्स के रूप में जनता का अधिक से अधिक पैसा आए। यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया के अन्य देशों में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिरती हैं तो वहां पेट्रोल के दाम घटा दिए जाते हैं, लेकिन भारत में ऐसा कभी नहीं होता। सरकार बजट में हर वर्ष तेल घाटे का भारी-भरकम आंकड़ा प्रस्तुत करती है, लेकिन वह टैक्स प्रणाली के इस अंतर्विरोध को खत्म करने अथवा निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की नीति पर कुछ नहीं कहती, शायद इसलिए कि इन कंपनियों से सरकार को भारी-भरकम चुनावी चंदा जो मिलता है। इस तरह सार्वजनिक व निजी कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने व सरकार को ज्यादा टैक्स देने का बोझ आम उपभोक्ताओं को ही उठाना होता है। इसके अलावा पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों की सबसे ज्यादा मार महंगाई के रूप में पड़ती है। इसका प्रभाव यह होता है कि खर्च बढ़ने से आम व्यक्ति की बचत कम होती जाती है और उसकी क्रय क्षमता कम होती है। इसका दीर्घकालिक प्रभाव समाज के एक बड़े वर्ग या कहें वंचित वर्ग की तरफ से औद्योगिक व अन्य सामानों की मांग में कमी के रूप में सामने आता है। इस तरह देश में गरीबी-अमीरी की असमानता का ग्राफ बढ़ता है और देश में विकास के अवसर महज चंद लोगों तक सिमटने से समग्र देश का संतुलित विकास प्रभावित होता है। अब डीजल, एलपीजी और केरोसिन में दी जा रही सब्सिडी को भी खत्म करने की बात की जा रही है। आखिर जब सेज के लिए 90 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के विरोध के बावजूद दी जा सकती है तो गरीबों को सब्सिडी से मिलने वाला लाभ क्यों खत्म किया जा रहा है? यह ठीक है कि इससे कालाबाजारी खत्म होगी, लेकिन हम इतना तो कर ही सकते हैं कि यह सब करते समय अन्य तमाम पहलुओं पर भी विचार करें और अधिक व्यावहारिक व जनकल्याणकारी नीति को अपनाएं। (लेखक जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)


भुखमरी का संकट


2050 में नौ अरब लोगों का पेट भरने की चुनौती दुनिया के कृषि विशेषज्ञों के माथे पर बल डाल रही है। हर रोज 2,29,000 लोगों की नई फौज खाने वालों की कतार में शामिल हो रही है। इसी को देखते हुए एग्रोबिजनेस कंपनियां भुखमरी का हौवा खड़ा कर मुनाफा कमाने के अभियान में जुट गई हैं। ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों पर दबाव बना रही हैं कि वे कृषि क्षेत्र में सुधारों को लागू करें। यह ठीक है कि बढ़ती आबादी के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन न होने और सीमित क्रय क्षमता के कारण भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक आज दुनिया का हर छठा व्यक्ति भुखमरी की कगार पर है। लेकिन एफएओ ने हाल ही में एक चौकाने वाली रिपोर्ट भी जारी की है। इसके अनुसार विकसित व विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर भोजन की बर्बादी जारी है। औद्योगिक देश जहां हर साल 67 करोड़ टन भोजन बर्बाद करते हैं वहीं विकासशील देश 63 करोड़ टन। सर्वाधिक बर्बादी फलों, सब्जियों और जड़ वाले आहारों की होती है। खाद्यान्न की कुल बर्बादी विश्व के कुल अनाज उत्पादन (230 करोड़ टन) का आधा होगी। अर्थात हर साल 130 करोड़ टन भोजन बर्बाद होता है। भोजन की बर्बादी औद्योगिक देशों की प्रमुख समस्या है। यूरोप व अमेरिका में प्रति व्यक्ति 95 से 115 किलो भोजन बर्बाद होता है जबकि उप सहारा अफ्रीका और एशियाई देशों में यह बर्बादी मात्र 6 से 11 किलो ही है। जहां विकसित देशों में 40 फीसदी बर्बादी भोजन की थाली में होती है, वहीं विकासशील देशों में सर्वाधिक हानि भंडारण, प्रसंस्करण स्तर पर। बर्बादी रोकने के साथ-साथ खान-पान की आदतों में बदलाव से भी करोड़ों लोगों की भूख शांत की जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी पर्यावरण खाद्य संकट नामक रिपोर्ट के मुताबिक यदि पशुओं को अनाज की जगह पशु चारा खिलाया जाए तो 300 करोड़ अतिरिक्त लोगों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो सकेगा। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी में करीब इतनी ही वृद्धि होगी। ऐतिहासिक रूप से देखें तो वर्ष 1700 से 1961 तक दुनिया की आबादी में पांच गुना बढ़ोत्तरी हुई और खाद्यान्न की बढ़ी हुई मांग को खेती का रकबा बढ़ाकर पूरा किया गया। 1961 के बाद अब तक जनसंख्या 80 फीसदी बढ़ी है, लेकिन खेती का रकबा महज आठ फीसदी ही बढ़ पाया। इस अंतर की भरपाई प्रति एकड़ पैदावार से बढ़ोत्तरी करके की गई है लेकिन अब बढ़ती आबादी के अनुपात में पैदावार में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। ऐसे में यदि तत्काल कुछ उपाय नहीं किए गए तो खाद्य संकट और महंगाई के मोर्चे पर चुनौतियां बढ़ जाएंगी। दक्षिण अमेरिका, एशिया और अफ्रीका में करोड़ों छोटे किसान ऐसे हैं जो खाद्यान्न उत्पादक होने के बावजूद भूखे लोगों की श्रेणी में आते हैं क्योंकि उन्नत बीज, सिंचाई, मशीनरी, उर्वरक खरीदने की उनकी क्षमता नहीं है। यही वजह है कि उनकी उत्पादकता कम है और वे गरीबी के जाल में उलझे हैं। लेकिन दुनिया भर की सरकारें बड़े किसानों, खेती के औद्योगिकरण, नकदी फसल आदि को बढ़ावा देने पर तुली है जिनमें प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी होती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण विश्व भर में मुख्य फसलों की पैदावार में कमी आई है। फिर उदारीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र में होने वाला निवेश तेजी से घटा। 1970 की तुलना में कृषि उत्पादन में वैश्विक सार्वजनिक निवेश 75 फीसदी तक कम हो गया। हाल के दशकों में विकास रणनीति के केंद्र में ऊंची आर्थिक संवृद्धि दर ही रही। सरकारी स्तर पर यह मान लिया गया कि ऊंची विकास दर की रिसन से भुखमरी, कुपोषण, गरीबी का खात्मा हो जाएगा जबकि हुआ इसका ठीक उल्टा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Wednesday, May 18, 2011

भारत जैसे देशों पर निर्भर होगी दुनिया की रफ्तार


अगले 15 बरसों में दुनिया की आर्थिक तस्वीर बहुत ज्यादा बदल जाएगी। वर्ष 2025 तक विश्व के विकास की रफ्तार का दारोमदार भारत जैसे छह प्रमुख विकासशील देशों के हाथ में होगा। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में दुनिया की कुछ ऐसी ही तस्वीर पेश की गई है। इसके मुताबिक, विश्व के ये छह देश (भारत, चीन, ब्राजील, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और रूस) वर्ष 2011 से 2025 के बीच 4.7 फीसदी की औसत सालाना रफ्तार से बढे़ंगे। भारत-चीन की मौजूदा विकास दर 9 फीसदी के करीब है। विश्व बैंक ने ग्लोबल डेवलपमेंट होराइजंस 2011- मल्टी पोलरिटी: द न्यू ग्लोबल इकोनॉमी नाम की यह रिपोर्ट मंगलवार को जारी की। इसमें कहा गया है कि इन छह सफल अर्थव्यवस्थाओं के उलट यूरो क्षेत्र, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका की सालाना विकास दर औसतन 2.3 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। साथ ही यह संभव है कि उस वक्त तक अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली में किसी एक मुद्रा यानी डॉलर का वर्चस्व समाप्त हो जाए। इसकी ज्यादा संभावना है कि वर्ष 2025 तक डॉलर के साथ यूरो और युआन के ईद-गिर्द विश्व की मौद्रिक प्रणाली घूमे। विकासशील देशों में निवेश तेजी के साथ बढ़ने से इन मुल्कों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां ग्लोबल उद्योगों को नई शक्ल देने वाली ताकत बनकर उभरी हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को नई परिस्थितियों के मुताबिक ढालना होगा। विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री व वरिष्ठ उपाध्यक्ष जस्टिन ईफू लिन ने कहा कि भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं के तेजी से उभरने से दुनिया के आर्थिक विकास का केंद्र भी अब एक क्षेत्र में केंद्रित नहीं रह गया है। यह विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्था में फैल गया है। यह सचमुच बहुध्रुवीय दुनिया हो गई है। रिपोर्ट में विकासशील देशों के लिए अगले 20 वषरें के दौरान बहुधु्रवीय दुनिया में आने वाली चुनौतियों को भी रेखांकित किया गया है। इन देशों में बड़े स्तर पर मध्य वर्ग के उभरने और युवा आबादी में तेज बढ़ोतरी के चलते मांग मजबूत बनी रहने की संभावना है। इससे दुनिया सतत विकास का रास्ता तय कर सकेगी।


Sunday, May 15, 2011

महंगाई की आग में घी डालने की तैयारी


महंगाई यूपीए सरकार का सिरदर्द बनी हुई है। लेकिन बहुत पहले उसके आगे घुटने टेक चुकी सरकार को समझ में नहीं आ रहा है कि महंगाई की सुरसा को काबू में कैसे करें। यही कारण है कि उसने अपना हाथ खड़ा करते हुए महंगाई से निपटने का जिम्मा रिजर्व बैंक के हवाले कर दिया है। गोया मौजूदा महंगाई की समस्या केवल मौद्रिक समस्या हो। जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। नतीजा, रिजर्व बैंक पिछले एक साल से महंगाई को काबू में करने के लिए लगातार ब्याज दरों में वृद्धि कर रहा है लेकिन महंगाई बेलगाम बनी हुई है। रिजर्व बैंक के साथ मुश्किल यह है कि वह भी महंगाई को केवल एक मौद्रिक समस्या मानकर उससे निपटने की कोशिश कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की तेज महंगाई का सम्बन्ध मौद्रिक नीतियों से अधिक मांग-आपूर्ति, जमाखोरी-मुनाफाखोरी, प्रशासनिक और नीतिगत कारणों से है। यह सही है कि मौजूदा महंगाई के लिए वैश्विक कारण जैसे, जिंसों की कीमतों में उछाल आदि भी जिम्मेदार हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि यूपीए सरकार असली कारणों पर पर्दा डालने के लिए इसे बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है। यही नहीं, सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि महंगाई से निपटने के मुद्दे पर एकदू सरे के साथ सहयोग करने के बजाए केन्द्र और राज्य सरकारें आरोप-प्रत्यारोप में जुटी हुई हैं। नतीजा, आम आदमी खासकर गरीब का कोई पुरसाहाल नहीं है। महंगाई की मार से उसका जीना दूभर होता जा रहा है। असल में, मुद्रास्फीति की ऊं ची दर की समस्या इस समय दुनिया के अधिकांश देशों, खासकर विकासशील देशों की एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है लेकिन मुद्दा यह है कि जहां दुनिया के अधिकांश देश इस चुनौती से निपटने, विशेषकर आम लोगों को राहत देने की ईमानदार कोशिश कर रहे हैं, वहीं भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें बहाने बनाने और आरोप-प्रत्यारोप में लगी हुई हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि महंगाई से राहत दिलाने की जगह केन्द्र और राज्य सरकारें इस या उस बहाने लोगों पर और बोझ डालने में भी संकोच नहीं कर रही हैं। उदाहरण के लिए, अगर यूपीए सरकार के अंदर से छन- छनकर आ रही खबरों पर भरोसा करें तो उसने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी का मन बना लिया है। खबर है कि अगले कु छ दिनों में पेट्रोल की कीमतों में तीन रुपये से छह रुपये प्रति लीटर और डीजल की कीमतों में दो से चार रुपये प्रति लीटर तक की वृद्धि हो सकती है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रस्तावित वृद्धि के विशुद्ध आर्थिक कारण तो समझ में आते हैं लेकिन मौजूदा ऊं ची महंगाई दर को देखते हुए इस फैसले का राजनीतिक-सामाजिक और मानवीय तर्क समझ से बाहर है। सच पूछिए तो मौजूदा परिस्थितियों में जब मुद्रास्फीति की दर 9 फीसद से ऊपर चल रही है और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति भी लगभग 8 फीसद के आसपास है, कोई भी सरकार ऐसा फैसला करने से पहले कई बार सोचेगी। वजह यह है कि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में दस फीसद की वृद्धि भी मुद्रास्फीति की दरों में 0.7 फीसद से लेकर एक फीसद तक की बढ़ोत्तरी कर देती है। ऐसे में, अगर मनमोहन सिंह सरकार तेल कंपनियों के मुनाफे और अपने राजकोषीय घाटे को आम आदमी की जरूरतों और परेशानियों से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं मानती है तो उसे भी इस मुद्दे पर कोई फैसला करने से पहले गंभीरता से विचार करना चाहिए। असल में, मौजूदा स्थितियों में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि एक तरह से आग में घी डालने की तरह होगा। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 115 डालर प्रति बैरल के आसपास पहुंच चुकी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार के पास और विकल्प नहीं हैं। यह किसे पता नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में लगभग आधा हिस्सा केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए टैक्स का है। लेकिन मुश्किल यह है कि चाहे वह केन्द्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें, दोनों में से कोई भी आमदनी के इस सबसे आसान और महत्वपूर्ण स्रेत को छोड़ना नहीं चाहता है। दोनों ही टैक्स छूट के मामले में जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालकर खुद बचने की कोशिश करती रही हैं। आश्र्चय नहीं कि यूपीए सरकार इस मुद्दे पर एक बार फिर सबसे आसान रास्ता तलाश रही है। लेकिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का फैसला एक मायने में राजनीतिक रूप से अनैतिक भी है। क्या यह सच नहीं है कि केन्द्र सरकार पिछले दो महीनों से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का फैसला इसलिए टाल रही थी क्योंकि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव थे। लेकिन चुनावों में बड़े-बड़े वायदे करने वाली कांग्रेस और उसके गठबंधन के साथी चुनाव खत्म होते ही लोगों को रिटर्न तोहफे के रूप में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का उपहार देने जा रहे हैं। सवाल सिर्फ यही नहीं है बल्कि यह भी है कि क्या कारण है कि एक ओर महंगाई आसमान छू रही है और दूसरी ओर, सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज पड़ा हुआ है। अनाज सड़ रहा है लेकिन सरकार उसे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है। यही नहीं, हालत यह हो गई है कि इस साल गेहूं के रिकार्ड उत्पादन के बाद सरकार उसे खरीदने के लिए बहुत इच्छुक नहीं दिख रही है क्योंकि उसके पास अनाज रखने के लिए जगह नहीं है। मजे की बात यह है कि खाद्य मुद्रास्फीति से निपटने में बुरी तरह नाकाम साबित हुआ कृषि मंत्रालय अब अनाज निर्यात करने की सलाह दे रहा है। यह खाद्य अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की इंतहा है। एक ऐसे देश में जहां पिछले तीन वर्षो से लगातार खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है और उसकी एक बड़ी वजह खुद केन्द्र सरकार का सबसे बड़े जमाखोर में बदल जाना है, वहां अनाज के रिकार्ड भंडार का इस्तेमाल महंगाई से निपटने के बजाय उसे निर्यात करने का सुझाव देना किस हद तक तर्कसंगत है? यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि पहले भी सस्ते में अनाज निर्यात करके बाद में महंगा अनाज आयात करने का खेल होता रहा है। जाहिर है कि यह एक और घोटाला होगा लेकिन इसकी शिकायत किससे करें जब आसमान छूती महंगाई खुद एक बड़ा घोटाला बनती जा रही है।


Wednesday, May 11, 2011

चीखतीं चुनौतियों का भान नहीं


भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है और जिस मौद्रिक नीति की घोषणा की है,उनसे पता चलता है कि आर्थिक क्षेत्र में भारत के सामने राहत और सहूलियत से ज्यादा गंभीर चुनौतियां विद्यमान हैं। बैंक ने रेपो और रिवर्स रेपो दरों में आधा-आधा प्रतिशत यानी 0.50 प्वाइंट की बढ़ोत्तरी की है। अब रेपो दर 7.25 प्रतिशत तथा रिवर्स रेपो दर 6.25 प्रतिशत होगा। इसका अर्थ हुआ कि आम बैंक रिजर्व बैंक से जो भी कर्ज लेंगे वह और रिजर्व बैंक में ये बैंक जो धन रखेंगे वह भी (रिवर्स रेपो) महंगा हो जाएगा। मार्च 2010 के बाद के एक वर्ष एक महीने में नौंवी बार यह दर बढ़ाई गई है। इसलिए यह किसी दृष्टि से स्थिर नीति का संकेत नहीं है। हां, बैंकों का नकदी जमा अनुपात यानी सीआरआर अवश्य 6 प्रतिशत रहने दिया गया है। रेपो दरों में वृद्धि का प्रत्यक्ष उद्देश्य बाजार से नकदी खींचना होता है यानी बाजार से नकद बैंक तक आ जाए। बचत खाता में आधा प्रतिशत ब्याज की बढ़ोत्तरी का उद्देश्य भी आम खातेदारों को बैंक में धन रखने के लिए प्रेरित करना है। लगभग सात साल बाद की गई, यह बढ़ोत्तरी साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। यह रिजर्व बैंक की सोच में आए परिवर्तन का संकेतक है। इससे सभी प्रकार के कर्ज महंगे हो जाएंगे। कर्ज का महंगा होना पूंजीवाद की अर्थव्यवस्था में विकास की गाड़ी के सामने गति अवरोधक समान है। उद्योग जगत कतई नहीं चाहता था कि ब्याज दरों में वृद्धि हो क्योंकि इससे बाजार में नकदी कम होती है। कर्ज कम मिलता है, जिससे मांग एवं आपूर्ति दोनों पर असर होता है। उत्पादन लागत भी बढ़ता है। औद्योगिक विकास दर में लगातार गिरावट की प्रवृत्ति चल रही है। कच्चे माल के बढ़े हुए मूल्यों के कारण भी उत्पादन लागत बढ़ता है। जाहिर है, रिजर्व बैंक ने ये जानते हुए भी यदि ब्याज दर बढ़ाने का निर्णय किया है तो उसकी ठोस आर्थिक-वित्तीय वजहें होंगी। मौद्रिक नीति जारी करने के एक दिन पूर्व रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में महंगाई दर पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। इसके अनुसार महंगाई दर 7.5 प्रतिशत तक जा सकती है। यह उसके ही पूर्व अनुमान 6.6 प्रतिशत से .9 प्रतिशत अधिक है। तमाम कोशिशों के बावजूद महंगाई का ग्राफ सामान्य नहीं हो रहा। यह अब भी बहुत बड़ी चुनौती है। मार्च में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 8.98 प्रतिशत बताई गई थी। खाद्य सामग्री और कच्चे तेल के मूल्यों को महंगाई का सर्व प्रमुख कारण माना जा रहा है। राजनीतिक दबाव में महंगाई कम करने को सरकार उच्चतम प्राथमिकता बता रही है और पूंजीवादी अर्थशास्त्र के परम्परागत नुस्खे में बाजार से नकदी घटाना एक प्रमुख दवा है। एक वर्ष पूर्व महंगाई दर करीब 11 प्रतिशत पहुंचने के साथ रिजर्व बैंक ने बाजार से नकदी खींचने की नीति आरम्भ की थी। प्रश्न है कि जब एक वर्ष में महंगाई कम नहीं हुई तो आगे कैसे हो जाएगी? ध्यान रखने की बात है कि महंगाई दर का यह आकलन सामान्य मानसून और कच्चे तेल के 110 डॉलर प्रति बैरल के औसत मूल्य पर आधारित है। मिस्र-ट्यूनीशिया और लीबिया के हालात से तेल मूल्यों में वृद्धि हुई है। 120 डालर प्रति बैरल की दर से भारत को कच्चा तेल खरीदना पड़ा है। स्पष्ट है, तेल के मूल्य यदि 110 डालर प्रति बैरल के आसपास नहीं रहा तो महंगाई में उछाल अवश्यम्भावी है। इस समय भी इसका मूल्य 114 डालर प्रति बैरल के आसपास है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी के मुताबिक प्रति बैरल एक डालर की वृद्धि का असर 3200 करोड़ हो जाता है। रिजर्व बैंक का सुझाव है कि सरकार डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाए अन्यथा सब्सिडी के बोझ से राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है। महंगाई रोकने के लिए सम्भव है, वह आगे भी ब्याज दर तुरंत बढ़ाए लेकिन यह इंतजाम अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे में कई चुनौतियां और समस्याएं पैदा कर रहे हैं। बाजार से नकदी हटाते हैं या ब्याज दर बढ़ाते हैं तो इसका असर आर्थिक गतिविधियों के लिए धन की कमी और उपलब्ध धन के महंगे होने के रूप में सामने आता है। तो फिर चारा क्या है? इसका उत्तर देना कठिन हो गया है। रिजर्व बैंक के मुताबिक कृषि पैदावार बेहतर होने के बावजूद आगामी अगस्त-सितम्बर तक महंगाई दर ऊंची बनी रहेगी। साफ है कि महंगाई दर को प्रभावित करने की मौद्रिक नीति की क्षमता अब नि:शेष हो रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो फिर वर्तमान अर्थव्यवस्था की ऐसी कई पेचीदगियां उभरने लगती हैं जिनके जवाब किन्ही के पास नहीं हैं। भूमंडलीकरण से उत्पन्न पेचीदगियों की व्याख्या न परम्परागत दृष्टिकोण से सम्भव है और न उनका निदान ही। अगर बाजार में सामान पर्याप्त उपलब्ध हैं तो फिर महंगाई होनी नहीं चाहिए लेकिन ऐसा हो रहा है। स्पष्ट है कि बाजार को कई ऐसी शक्तियां, ऐसे सिद्धांत प्रभावित कर रहे हैं जिनका नियंतण्रसरकार एवं केन्द्रीय बैंक की सीमा से बाहर हैं। महंगाई पूरी अर्थव्यवस्था पर कितना असर डाल सकती है। इसका खुलासा रिजर्व बैंक ने अपनी ‘वृहत आर्थिक और मौद्रिक घटनाक्रम’ रिपोर्ट में किया है। उसने सबसे पहले 2011-12 की विकास दर को घटाकर 8.2 प्रतिशत कर दिया है। यह सरकार के 9 प्रतिशत तथा पूर्व के अपने ही अनुमान 8.5 प्रतिशत से कम है। रिजर्व बैंक के गवर्नर इसका कारण यूरो क्षेत्र का कर्ज संकट, बढ़ते दाम विशेषकर तेल के उच्च मूल्य एवं अर्थव्यवस्थाओं पर महंगाई के दबावों को मानते हैं। इससे चालू खाते का घाटा भी बढ़ सकता है। फिलहाल, चालू खाते का घाटा 2.5 प्रतिशत तक सीमित रहने का अनुमान है। आगे इसका दारोमदार तेल मूल्यों तथा आयात-निर्यात में अंतर पर निर्भर करता है। इसके अलावा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी, इक्विटी और बांड बाजार में अस्थिरता तथा देश पर बढ़ता विदेशी कर्ज हमारी अर्थव्यवस्था के ऐसे साकार पहलू हैं जो चालू खाते पर घाटा तो बढ़ाएंगे ही पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। जरा व्यापार घाटा तो देखिए। वाणिज्य-उद्योग मंत्रालय के अनुसार 2010-11 में कुल घाटा 104.82 अरब डालर हुआ। माना जा रहा है कि वर्षान्त तक व्यापार घाटा पिछले साल से बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। निर्यात 300 अरब डालर को पार करेगा तो आयात 400 अरब से ऊपर चला जाएगा। ये सारी चुनौतियां हमें साफ शब्दों में आगाह कर रही हैं पर वर्तमान अर्थव्यवस्था के ढांचे में विचार करने वालों को इसका भान नहीं हो सकता। वस्तुत: ये चुनौतियां विकास के नाम पर अत्यधिक उपभोग को प्रोत्साहन, उसके लिए सुलभ कर्ज उपलब्धता, कर्ज एवं उपभोग को सामान्य जीवन शैली मान लेने की प्रेरणा आदि के सम्मिलित परिणाम हैं। जाहिर है, इनका निदान मौद्रिक या अन्य कृत्रिम नीतियों में नहीं, पूरी आर्थिक सोच में परिवर्तन से निकलेगा।


Friday, May 6, 2011

ग्लोबल डॉक्टर बनने के सपने


वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य पर्यटन के क्षेत्र में दक्षिण पूर्वी एशियाई देश बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। थाईलैंड इस प्रतिस्पर्धा में दक्षिण पूर्व ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सबसे आगे खड़ा है। वहां के वुमरूनग्रैंड अस्पताल में हर साल लगभग तीन लाख विदेशी मरीज इलाज करवाने आते हैं। भविष्य में भारत में भी इस क्षेत्र में संभावनाएं दिख रही हैं। 2012 तक भारत इस क्षेत्र में अच्छी रणनीति बनाकर सौ अरब डॉलर तक कमा सकता है लेकिन सिंगापुर, मलयेशिया, फिलिपींस, जॉर्डन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से उसे कड़ी टक्कर मिल रही है। भारत में 2005 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री अम्बुमणि रामदास ने स्वास्थ्य पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए एक कार्यदल का गठन कर कहा था कि हमारी संस्कृति, धरोहर और स्थापत्य के साथ अगर स्वास्थ्य योजनाएं जोड़ दी जाएं तो काफी सफलता मिल सकती है। इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने भारत में मेडिकल वीजा की श्रेणी की भी बात कही। भारत ग्लोबल डॉक्टर बन सकता है लेकिन उसके लिए कई नीतियां बनानी होंगी और नियमों में बदलाव भी जरूरी हैं। अन्तरराष्ट्रीय एयरलाइंस और निजी टूर ऑपरेटरों के जरिये अधिकाधिक स्वास्थ्य पर्यटकों को भारत लाने की कोशिश हो रही है। विदेशों से जो मरीज यहां इलाज के लिए आते हैं, उसमें न्यूरो, कार्डिक, ईएनटी, आर्थो, प्लास्टिक सर्जरी, गैस्ट्रो, कास्मेटिक और लाइफ एनहांसिग और बांझपन के साथ सबसे अधिक सरोगेसी यानी किराये की कोख वाले होते हैं। सरोगेसी हालांकि अभी स्वास्थ्य पर्यटन में पूरी तरह शामिल नहीं है लेकिन सरकार इस बारे में जो कानून ला रही है उसके गलत इस्तेमाल की संभावना ज्यादा है। यह कहीं न कहीं सामाजिकता और नैतिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। यह भी सोचने वाली बात है कि अमेरिका और ब्रिटेन समेत कुछ ही देश सरोगेसी को कानूनी मान्यता देते हैं। लेकिन इन देशों में इस प्रक्रिया में कम से कम पचास लाख का खर्च आता है। जबकि भारत में पांच लाख में सब कुछ हो जाता है। इस रूप में ध्यान रखना जरूरी है कि स्वास्थ्य पर्यटन के विचार में स्वस्थ माहौल कायम रहे। अपने यहां बांझपन के उपचार की लागत विकसित राष्ट्रों की तुलना में एक चौथाई है। लेकिन स्वास्थ्य पर्यटन के मामले में कुछ दिक्कतें भी हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर के बुनियादी ढांचे के अभाव में विदेशी मरीजों की परेशानियां भारत पहुंचते ही शुरू हो जाती हैं। पंजाब व चंडीगढ़ में इनकी बढ़ती संख्या देखते हुए चिकित्सकों के एक समूह ने स्वास्थ्य पर्यटन कम्पनी शुरू की है जो मरीजों के हवाई अड्डे पर पहुंचने से लेकर इलाज के अन्तिम दौर तक उन्हें तमाम सेवाएं उपलब्ध कराती है। अपनी तरह की इस पहली स्वास्थ्य पर्यटन कम्पनी का नाम डॉक्टर जेड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड रखा गया है। भारत में स्वास्थ्य पर्यटकों को सरकार की ओर से खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने इस बारे में अध्ययन भी किया था कि यदि प्रयास हो तो मेडिकल पर्यटन के नाम पर यहां हर साल दस लाख लोग आ सकते हैं। भारत की निगाहें स्वास्थ्य पर्यटन के अन्तर्गत ब्रिटेन जैसे देशों पर भी हैं जहां सरकारी अस्पतालों में ऑपरेशन के लिए लम्बा इंतजार करना पड़ता है। ब्रिटेन के नेशनल हेल्थ सर्विसेज ने कुछ भारतीय अस्पतालों की पहचान की थी जिनमें ब्रिटेन के स्तर का इलाज वहां की तुलना में कही सस्ता है। हृदय रोग संबंधी ऑपरेशन में जहां पश्चिमी देशों में 50,000 डॉलर देने होते हैं, वहीं भारत में यह इलाज मात्र 10,000 डॉलर में हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि एक वर्ष में लगभग 20 लाख मरीज विदेशों में इलाज कराने जाते हैं। पश्चिमी देशों से एशियाई देशों में इलाज के लिए आने के दो कारण हैं। एक वे हैं जो खुद इन जगहों का चुनाव करते हैं और दूसरे वे जिनके पास मेडिकल बीमा पॉलिसी नहीं होती। स्वास्थ्य पर्यटन के तहत एशिया में करीब हर साल साढ़े तेरह लाख लोग इलाज के लिए आते हैं। यह व्यापार ज्यादा फायदेमंद होने के कारण इसमें प्रतिस्पर्धा भी खूब दिख रही है क्योंकि इलाज कराने वाले पश्चिमी देशों के मोटी जेब वाले ग्राहक हैं। थाइलैंड मरीजों को लुभाने के लिए इंटरनेट पर बड़े पैमाने पर विज्ञापन द्वारा महाअभियान चला रहा है। इसका लक्ष्य 2015 तक करीब एक करोड़ स्वास्थ्य पर्यटकों को बुलाने का है। ये मरीज सिर्फ अस्पतालों तक ही सीमित नहीं होंगे बल्कि ऑलीशान रिसोर्ट और शापिंग माल के ग्राहक भी होंगे। चीन भी पीछे नहीं है। वह शंघाई को स्वास्थ्य पर्यटन का अड्डा बना रहा है लेकिन वह इस क्षेत्र में तृतीय पक्ष या अभिकर्ता के रूप में होगा। वह ऐसा प्रचार प्लेटफार्म उपलब्ध कराएगा जो किसी विदेशी मरीज के लिए यात्रा, खानपान और कागजी कार्यवाही सहित परिवहन जैसी जरूरतें पूरी करेगा। ताइवान इसी नीति पर कार्य करते हुए अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विकास कोष की स्थापना कर रहा है लेकिन सबसे ध्यान देने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य पर्यटन के लगातार उभार से सार्वजनिक क्षेत्र के चिकित्सक और नर्स निजी क्षेत्र की तरफ अग्रसर होंगे जिससे स्वास्थ्य सेवाओं में असन्तुलन पैदा हो सकता है। इसके बावजूद भारत अपनी सकारात्मक नीति के बल पर ग्लोबल डॉक्टर बन सकता है।


Thursday, May 5, 2011

आयुर्वेद पर पाबंदी


मौद्रिक नीति की सार्थकता


महंगाई पर अंकुश के नाम पर रिजर्व बैंक ने एक बार फिर उलटबांसी की है। लगातार बढ़ती महंगाई ने देश में सबसे अधिक जिस वर्ग को प्रभावित किया है वह है निम्न मध्यम और निम्न वर्ग। इस वर्ग की अधिक परेशानियां खाद्य वस्तुओं तथा रोजाना उपयोग की आम चीजों की कीमतें निरंतर बढ़ते जाने से पेचीदा होती गई हैं। सरकार व उसके अर्थशास्त्रियों के पास आम आदमी की रसोई के बजट को काबू में रखने का कोई सार्थक और असरकारी उपाय नहीं सूझता। जब भी महंगाई बढ़ने और उसके खिलाफ लोगों के मुखर होने की बात आती है, वह तुरंत मुद्रा के प्रसार को रोकने का निर्णय ले लेती है। मंगलवार को रिजर्व बैंक द्वारा अपनी नीतिगत ब्याज दरों में की गई आधा फीसद की वृद्धि ऐसा ही कदम है जिससे अपना मकान खरीदने का लोगों का ख्वाब तो और दुरूह जरूर होगा लेकिन इससे महंगाई से तड़पन कम होने वाली नहीं है। इसकी एक अहम वजह यही है कि एक बार जब कोई आदमी किसी चीज को किसी तरह जरूरत के फंदे में फांस लेता है तो बाद में वह लाख कोशिश करके भी उससे मुक्त नहीं हो पाता। केंद्र सरकार की आर्थिक और वित्तीय नीतियों ने ही कुछ वर्ष पहले लोगों को कर्ज लेकर घी पीने का नशेड़ी बना दिया था। अब उनकी पूरी जिंदगी सिर्फ कर्ज को भरने में जाया होने के चक्र में फंसी लग रही है। याद कीजिए, कुछ साल पहले के दिन जब निजी ही नहीं, राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रबंधक तक पता-ठिकानाविहीन लोगों को भी सात-सवा सात फीसद ब्याज दर पर पर्सनल और ऑटो तथा होम लोन लेने के लिए पल्रोभित करने लग गए थे। आज आलम कहां पहुंच रहा है? ऑटो तथा होम लोन की दरें निजी क्षेत्र के बैंक तो कुछ मामलों को छोड़कर बारह फीसद के भी ऊपर ले जा चुके हैं जबकि सरकारी क्षेत्र के बैंकों के समक्ष भी ऐसा करने की बाध्यता होती जा रही है। धन की कमी और कर्ज का शिंकजा कड़ा होने से पर्सनल लोन के आवेदनों पर सरकारी बैंकों ने विचार प्राय: बंद कर दिया है। पर मार्च 2010 के बाद भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो दर में नौवीं बार वृद्धि किए जाने के बाद भी महंगाई पर क्या कहीं कोई अंकुश लग पाया? लगता कि सरकार, जो सांविधानिक दृष्टि से वस्तुत: ‘राज्य’ है, ने लोक कल्याण के बजाय अब अपने लोक (जनता) की ही गर्दन दबाना शुरू कर दिया है? हालिया सरकारी कदम के सकारात्मक पहलू के रूप में कहा जा सकता है कि अल्पावधि की जमाओं पर अब अधिक ब्याज मिलेगा। लेकिन देश के अधिकतर लोगों के पास बचत के लिए धन बच कहां रहा है? और जिस व्यक्ति के पास ऐसी बचत के लिए धन है, उसके पास सोना-चांदी से लेकर शेयर बाजार और रीयल एस्टेट तक के क्षेत्र में धन लगाने का ज्यादा सुरक्षित आकर्षण है। फिर कैसे माना जाए कि सरकार के इस मौद्रिक कदम से आम आदमी का कोई भला होने जा रहा है?