Tuesday, March 29, 2011

जल्द मिलेंगे नए बैंकिंग लाइसेंस


 देश के बैंकिंग क्षेत्र में उतरने का मंसूबा रखने वाली कंपनियों का इंतजार जल्द खत्म होगा। लगभग एक वर्ष की तैयारी के बाद रिजर्व बैंक (आरबीआइ) निजी क्षेत्र में नए बैंकों के प्रवेश के रोडमैप को अंतिम रूप दे चुका है। इस बारे में दिशानिर्देश एक हफ्ते के भीतर जारी कर दिए जाएंगे। माना जा रहा है कि देश की मजबूत गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) व वित्तीय संस्थानों को आरबीआइ कुछ सख्त शर्तो के साथ बैंक खोलने की अनुमति दे देगा। वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव आर. गोपालन ने संवाददाताओं को बताया कि इस महीने के अंत तक केंद्रीय बैंक नए बैंकिंग लाइसेंस जारी करने पर अपने दिशानिर्देश सार्वजनिक कर देगा। गोपालन यहां उद्योग चैंबर सीआइआइ के एक सेमिनार के बाद संवाददाताओं से बात कर रहे थे। उन्होंने संभावित दिशानिर्देश के पहलुओं के बारे में तो नहीं बताया, लेकिन औद्योगिक घरानों को बैंकिंग लाइसेंस देने पर चरणबद्ध रणनीति अपनाई जा सकती है। आरबीआइ ने इस बारे में शुरुआती प्रारूप तैयार किया था। उससे औद्योगिक घरानों को लेकर सोच समझकर नीति तैयार करने को कहा गया है। जानकारों के मुताबिक आरबीआइ अच्छे रिकॉर्ड वाले एनबीएफसी को एक मुकम्मल बैंक के तौर पर काम करने की अनुमति देने को लेकर भी गंभीर है। वित्त मंत्रालय भी इस मामले में केंद्रीय बैंक के साथ है। हालांकि, इस बात की गुंजाइश कम ही है कि औद्योगिक घरानों की तरफ से चलाए जाने वाले एनबीएफसी को बैंकिंग कारोबार में उतरने की अनुमति मिलेगी। आरबीआइ ने ऐसा करने का प्रस्ताव शुरुआत में किया था, लेकिन बाद में आम जन से लेकर उद्योग जगत तक ने इसका विरोध किया। इसके साथ ही यह भी पक्का है कि पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन, आइएफसीआइ और आइडीएफसी जैसे सरकारी या अ‌र्द्ध-सरकारी वित्तीय संस्थानों को पूरी तरह से बैंक के तौर पर काम करने की इजाजत मिल जाएगी। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने वर्ष 2010-11 का बजट पेश करते हुए नए बैंकिंग लाइसेंस जारी करने का एलान किया था। उसके बाद आरबीआइ ने अगस्त, 2010 में इसके शुरुआती दिशानिर्देश जारी किए थे। बाद में इस पर सभी पक्षों के सुझाव व आपत्तियों को शामिल करते हुए जनवरी, 2011 में दिशानिर्देशों को नया रूप दिया गया। फिर इसे वित्त मंत्रालय को भेजा गया था। सरकार का कहना है कि देश के हर व्यक्ति को बैंकिंग सेवा में शामिल करने के लिए नए बैंक खोले जाने की जरूरत है|

Monday, March 28, 2011

पाक को चीनी बेचना चाहता है महाराष्ट्र


महाराष्ट्र ने केन्द्र सरकार से कहा है कि देश में जरूरत से ज्यादा चीनी है और दुनिया के बाजार में चीनी का भाव भी चढ़ा हुआ है, लिहाजा अधिक चीनी के निर्यात की अनुमति दी जानी चाहिए। अगर केन्द्र सरकार ने अनुमति दी तो महाराष्ट्र अपनी चीनी सिर्फ अरब देशों, बांग्लादेश और श्रीलंका के अलावा पाकिस्तान को भी बेचेगा। अभी सरकार ने पांच लाख मिलियन टन चीनी ही निर्यात के लिए खोली है। देश में चीनी का अधिक उत्पादन करने वाले राज्यों में से एक महाराष्ट्र का कहना है कि चीनी को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर रखने का भी समय आ गया है। राज्य की मांग है कि अगर सरकार यह कदम उठाती है तो इससे किसानों को गन्ने का सही भाव भी मिल सकेगा और चीनी मिलों की भी हालत सुधरेगी। महाराष्ट्र में अभी गन्ना किसानों को प्रति टन दो हजार रुपए मिल रहे हैं और राज्य का कहना है कि आवश्यक वस्तुओं की सूची से चीनी को हटाकर किसानों को ढाई हजार रुपए प्रति टन का भाव दिया जा सकता है। सहकारिता क्षेत्र में बेहद सफल और गांधीवादी तरीके से चलने वाली पश्चिम महाराष्ट्र की चीनी मिल एसबी थोराट शक्कर कारखाने के अध्यक्ष महादेव कनवाड़े का कहना है कि देश में 2.50 करोड़ टन चीनी का उत्पादन हुआ है और देश में चीनी की खपत सिर्फ 2.30 करोड़ टन है। इसके अलावा पिछले साल की भी काफी चीनी स्टॉक में पड़ी है इसलिए जरूरी है कि देशी खपत से जो ज्यादा चीनी हमारे पास है, उसे कोल्ड ड्रिंक और दूसरी जरूरतों के लिए दूसरे देशों को बेचना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह बाहर चीनी बेचने का उपयुक्त समय है, क्योंकि इस वक्त वहां 40 से 50 रुपए प्रतिकिलो का भाव चल रहा है। मिल के अध्यक्ष ने कहा कि यह डर फिजूल है कि बाहर चीनी बेचने से देश में चीनी की कमी हो जाएगी और उसका दाम बढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि भारतीय बाजारों में अभी चीनी के दाम 37 रुपए किलो तक ही रहेंगे, क्योंकि हमारे पास घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए चीनी का पर्याप्त भंडार है। उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में गन्ने की खेती से विमुख हो रहे किसानों और इस धंधे को घाटे का सौदा बताकर चीनी मिलें बंद करने वालों को सहकारिता क्षेत्र के इस कारखाने ने कुछ अभिनव प्रयोग करके यह समझाने का प्रयास किया है। इससे किसान और मिल चलाने वाले भी खुश रह सकते हैं। इस कारखाने को चलाने वाली सहकारी समिति ने किसानों को आमदनी बढ़ाने के लिए कई तरह के पूरक धंधे करने के लिए प्रेरित किया है। मसलन समिति ने दूध से बनाए जाने वाले सामान का बड़ा उपक्रम खोलकर किसानों को गाय पालने के लिए प्रेरित किया है। समिति 171 गांवों से दूध जमा करके न सिर्फ महाराष्ट्र और गुजरात तक दूध ही नहीं, बल्कि छाछ, गुलाब जामुन और रसगुल्ले तक बेच रही है। यही नहीं समिति ने अपना मिनरल वाटर भी बाजार में उतार दिया है। किसानों के लिए समिति का सदैव यही मूल मंत्र रहता है कि गन्ने के साथ-साथ छोटे काम धंधे भी किए जाएं। समिति ने किसानों के बच्चों के लिए नर्सरी से लेकर उच्च शिक्षा का प्रबंध भी संगमनेर जैसे छोटे इलाके में किया है।

Sunday, March 27, 2011

चिदंबरम जी, सरकारी आंकडे़ तो देख लेते!


गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने अमेरिकी राजनयिक के समक्ष देश के सुस्त आर्थिक विकास के लिए उत्तरी राज्यों को जिम्मेदार माना था या नहीं, यह तो शायद ही पता चले। मगर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक व सामाजिक विकास के मामले में उत्तरी क्षेत्र के राज्य अब दक्षिण भारतीय राज्यों से बहुत पीछे नहीं हैं। चाहे राज्यों की सकल घरेलू आर्थिक विकास दर की बात हो या सामाजिक विकास पर खर्च की जाने वाली राशि का मामला। बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल से बहुत पीछे नहीं हैं। वित्तीय प्रबंधन के मामले में भी इन राज्यों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है। रिजर्व बैंक और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की सालाना रिपोर्ट इस बात की तसदीक करती है कि उत्तर भारत के राज्यों को अब बीमारू राज्य नहीं कहा जाना चाहिए। सीएसओ की सबसे ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2008-09 में सबसे तेज 11.44 फीसदी आर्थिक विकास दर बिहार ने हासिल की थी। इससे पिछले वर्ष यह दर 22.7 फीसदी थी। पंजाब में 7.12 फीसदी, राजस्थान में आठ फीसदी, हरियाणा में 8.02 फीसदी की विकास दर रही थी। दूसरी तरफ आंध्र प्रदेश की विकास दर 5.53 फीसदी और कर्नाटक की 5.08 फीसदी रही थी। तेज आर्थिक प्रगति के साथ ही राजकोषीय घाटे को काबू में करने को लेकर भी उत्तर भारत के राज्यों का प्रदर्शन दक्षिण भारतीय राज्यों के मुकाबले बहुत फिसड्डी नहीं रहा है। वर्ष 2009-10 के दौरान अपने राजकोषीय घाटे को तीन फीसदी की सीमा के भीतर रखने में जिन राज्यों ने सफलता प्राप्त की है, उनमें गुजरात और तमिलनाडु जैसे विकसित राज्यों के साथ बिहार, छत्तीसगढ़ भी शामिल हैं। जिन राज्यों का राजकोषीय घाटा इस दौरान तीन फीसदी से ज्यादा रहा है, उनमें हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, झारखंड के साथ आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे दक्षिणी राज्य भी हैं। बात सिर्फ विकास दर की नहीं है। बल्कि राज्य अपने संसाधन का इस्तेमाल किस तरह से कर रहे हैं, इस बारे में भी उत्तर भारत के राज्यों के प्रदर्शन में काफी सुधार देखने को मिला है। इस बारे में आरबीआइ की रिपोर्ट का कहना है विकास कार्यो में राशि खर्च करने के मामले में भी उत्तर भारत के राज्यों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। मसलन, बिहार ने वर्ष 2008-09 के दौरान अपने सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 56.7 फीसदी विकास कार्यो में खर्च किया था। इस मानक पर उत्तर प्रदेश (37.2 फीसदी), उड़ीसा (47.8 फीसदी), पश्चिम बंगाल (62.9 फीसदी) और पंजाब (37.4 फीसदी) का प्रदर्शन भी खराब नहीं था। दूसरी तरफ दक्षिण भारत के राज्यों का विकासात्मक खर्च को लेकर प्रदर्शन कुछ यूं रहा है : आंध्र प्रदेश (27.9 फीसदी), कर्नाटक (6.1 फीसदी), तमिलनाडु (30.3 फीसदी) और केरल (25.9 फीसदी)। दूसरे शब्दों में कहें तो उत्तर भारत के राज्यों ने यहां दक्षिण भारत के राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है। अब सामाजिक क्षेत्र में राज्यों के खर्चे का लेखा-जोखा देखते हैं। वर्ष 2005-10 में बिहार ने सकल राज्य घरेलू उत्पाद के मुकाबले सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले खर्चे में 13.6 फीसदी की वृद्धि की है। उत्तर प्रदेश ने नौ फीसदी, राजस्थान ने 9.3 फीसदी तो आंध्र प्रदेश ने 7.9 फीसदी की वृद्धि की। जबकि कर्नाटक ने 7.4 फीसदी की और तमिलनाडु ने 6.7 फीसदी की वृद्धि की है। यही वजह है कि आरबीआइ ने वर्ष 2008-09 के मंदी के दौर में उत्तर भारत के राज्यों के वित्तीय प्रबंधन की सराहना की है।


Friday, March 25, 2011

मिल डिलीवरी गेहूं समर्थन मूल्य से नीचे


उनके खाते में


नगद सबसिडी योजना का लाभ वास्तविक गरीबों तक पहुंचेगा

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने मन बनाया है कि खाद्यान्न, फर्टिलाइजर, केरोसीन एवं डीजल पर दी जा रही सबसिडी सीधे उपभोक्ता को नगद दे दी जाए। वर्तमान में यह रकम कंपनियों को दी जाती है। मसलन, फर्टिलाइजर सबसिडी की रकम यूरिया उत्पादन करने वाली कंपनियों को दी जाती है। मान लें कि कंपनी की लागत नौ रुपये प्रति किलो आती है। सरकार चाहती है कि किसान को यूरिया सात रुपये प्रति किलो उपलब्ध हो जाए। ऐसे में सरकार दो रुपये प्रति किलो की रकम कंपनी को देती है और कंपनी सात रुपये में यूरिया बेचती है।
इस प्रक्रिया में कई समस्याएं सामने आई हैं। कंपनियों द्वारा उत्पादन लागत बढ़ाकर दर्ज कराए जाने के संकेत मिलते रहे हैं। इसके तहत कंपनियां खातों में हेराफेरी कर उत्पादन लागत बढ़ाकर बताती हैं और ज्यादा सबसिडी हथिया लेती हैं। दूसरी समस्या यह है कि सबसिडी की अधिकाधिक रकम कृषि कंपनियों एवं बड़े किसानों द्वारा पकड़ ली जाती है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बड़े किसानों के पास 18 प्रतिशत कृषि भूमि है, लेकिन वे 48 प्रतिशत फर्टिलाइजर की खपत करते हैं। यानी जो सबसिडी छोटे किसान के लिए है, उसका लाभ बड़े किसान उठा रहे हैं। खाद्य सबसिडी का वितरण बीपीएल कार्ड के आधार पर किया जाता है। लेकिन इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 52 प्रतिशत खेत मजदूर एवं 60 प्रतिशत अनुसूचित जातियों को बीपीएल कार्ड नहीं मिले थे। ऐसी ही समस्याएं रसोई गैस, केरोसीन और डीजल पर दी जा रही सबसिडी में पाई गई हैं। अत: वित्त मंत्री ने मन बनाया है कि लाभार्थी को सबसिडी सीधे नगद दे दिया जाए।
सरकार का यह रुख सही है। गरीबों के नाम पर उच्च वर्ग और कंपनियों को पोषित करना उचित नहीं है। हालांकि नगद सबसिडी के विरोध में भी कई तर्क दिए जा रहे हैं। पहला तर्क है कि नगद सबसिडी को लाभार्थी तक पहुंचाना उतना ही कठिन होगा, जितना फर्टिलाइजर या खाद्यान्न सबसिडी पहुंचाना। रोजगार गारंटी कार्यक्रम के तहत लाभार्थियों को उनके बैंक खातों के माध्यम से भुगतान किया जा रहा है। फिर भी फरजी खातों से रकम का रिसाव हो रहा है। यह समस्या तो है, लेकिन यह भी सच है कि नगद सबसिडी में रिसाव कम होने की संभावना है। बैंक खाते की खोजबीन करना अपेक्षाकृत आसान है। सरकार द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को विशेष पहचान नंबर आबंटित किया जा रहा है, जिसमें फिंगर प्रिंट एवं आंख के चित्र शामिल होंगे। ऐसे में गड़बड़ करना कठिन होगा।
आशंका यह भी है कि नगद सबसिडी देने से देश की खाद्य सुरक्षा पर संकट आ सकता है। इस समय किसान को प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है। इसी से प्रोत्साहित होकर किसान गेहूं और धान जैसी फसलों का अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं। नगद सबसिडी से सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा किसानों से खरीद नहीं की जाएगी तथा समर्थन मूल्य नीति खत्म की जाएगी। किसान को उचित मूल्य की गारंटी नहीं मिलेगी, तो खाद्यान्न उत्पादन गिर सकता है। हालांकि इसके दूसरे विकल्प भी उपलब्ध हैं। सुझाव है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति जारी रखी जाए और इसके तहत खरीदे खाद्यान्न को खुले बाजार में बेचा जाए।
नगद सबसिडी के विरुद्ध तीसरा तर्क जनता को सही दिशा देने का है। मान्यता है कि जनता अज्ञानी होती है और खुद सही निर्णय नहीं ले पाती। जैसे साठ के दशक में किसान रासायनिक खादों का उपयोग कम करते थे, यद्यपि यह लाभप्रद था। इसलिए लाभप्रद वस्तुओं को कृत्रिम रूप से सस्ता बनाकर जनता को उपयोग के लिए पे्ररित करना चाहिए। इस आधार पर फर्टिलाइजर सबसिडी शुरू हुई थी। मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने का भी यही आधार है। लिहाजा यदि जनता को मूर्ख माना जाए, तो लोकतंत्र का आधार ही खिसक जाता है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि किसान मूल्यों के आधार पर फसलों का चयन करते हैं। यदि रासायनिक खाद वास्तव में लाभप्रद है, तो किसान उसे बिना सबसिडी के भी अपना लेगा।
वास्तव में नगद सबसिडी का और अधिक विस्तार करने की जरूरत है। सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं जन कल्याण तंत्र को समाप्त कर इस रकम को भी नगद वितरित कर देना चाहिए। साथ ही नगद वितरण को बीपीएल के झंझट से मुक्त कर देना चाहिए। बीपीएल मात्र को सबसिडी देने से गरीब को चिह्नित करने के विवाद उत्पन्न होते हैं। सुझाव यह है कि जन कल्याण खर्च एवं सबसिडी की रकम को संपूर्ण देश की जनता में वितरित कर देना चाहिए।
वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2009-10 में सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने 406 हजार करोड़ रुपये खर्च किए। इसमें स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाएं सम्मिलित हैं। इनमें रिसर्च आदि को छोड़कर शेष कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त कर दें, तो 300 हजार करोड़ की रकम बच सकती है। इसके अतिरिक्त 150 हजार करोड़ विभिन्न सबसिडी तथा 50 हजार करोड़ रोजगार गारंटी में खर्च किए जा रहे हैं। इन तमाम योजनाओं को खत्म कर दें, तो 500 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष उपलब्ध हो सकते हैं। इसे देश के 20 करोड़ परिवारों में 24,000 रुपये सालाना की दर से वितरित किया जा सकता है। ऐसा करने से हर परिवार को जीवनयापन की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध हो जाएंगी और देश को सरकारी कर्मचारियों की वेलेफयर माफिया से निजात भी मिल जाएगी। लिहाजा गरीबों के लिए नगद सबसिडी की योजना सरकार जितनी जल्दी शुरू करती है, उतना ही अच्छा होगा।


Wednesday, March 23, 2011

रूपया मजबूत होने से प्रदेश को ११० करोड़ की चपत


पांच लाख टन चीनी होगी निर्यात


City counts high in state's income


The commercial capital of India is not just the most sought after destination for employment in the service sector but it also generates the highest revenue for the state income.
Mumbai and its suburban districts, along with Thane and Pune contribute 56% to the state income.
The economic survey of Maharashtra for 2010-11 is a pointer to the imbalance in the socio-economic development across the state. Although it promises a double-digit growth at 10.5% with agriculture and allied sectors contributing 12.5%, industry 9.1% and service sector 10.9%, there are indications of delay in achieving the fiscal consolidations as desired because of growing expenditure in the state administration.
Despite a sustained growth, the government appears to be grappling to contain the increasing debt. The survey estimates the debt rising to Rs2,09,648 crore.
The overall fiscal liability of the state has increased at a compound growth rate of 13.9% during 2006-07 and 2010-11. The loan raised from central government during 2009-10 was Rs1,291 crore. Taking into consideration the repayment or redemption of loans and deposits of Rs8,996 crore, the net debt of the government amounted to Rs23,153 crore.
Earlier, chief minister Prithviraj Chavan maintained: "There should be concerns about the debt because of borrowings from the Centre. Major parts of the funds loaned are invested in infrastructure which is integral for the state welfare."
However, the leader of the opposition Eknath Khadse termed the rising debt as signs of fiscal indiscipline. The opposition also blamed the government for neglecting sectors that lead to regional imbalance.
In the backdrop of the debate on shrinking agriculture land being acquired for development of real estate and special economic zones, the economic survey established the growth in service sectors at the cost of agriculture and allies activities.
The statistics for the last 50 years show the share of agriculture and allied activities in the state income has steadily declined from 31.1% to 10.5%, whereas share of the service sector has risen from 45.5% to 60.6%.
However, it was heartening to note that Maharashtra continues to lead in country's economy with contribution 15%, whereas the devolution of funds from the centre remains stagnant a little above 5%.
The administration's concern over Gujarat getting away in the investment sector is proved wrong by the survey. Maharashtra remains the chosen destination for the investors thus giving it a leading status in the industrial sector. The states share in proposed investment and employment in county is 10 and 15% respectively. A total of 20,484 industrial projects including foreign direct investments of Rs9, 20, 121 crore have been approved for setting up new industries in state till 2010.
Despite sustained measures the irrigation and power remains the key concerns.