Friday, September 28, 2012

पीएम ने जितना कहा, उससे भी खराब है अर्थव्यवस्था



11 वीं योजना में एक भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता सब्सिडी का बोझ 2.5 प्रतिशत और राजकोषीय घाटा 7.5 प्रतिशत के रिकार्ड स्तर पर
रोशन/एसएनबी नई दिल्ली। रसोई गैस और डीजल पर सब्सिडी का बोझ कम करने के बाद प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने संबोधन में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति बताई है, 12वीं योजना के प्रारूप में योजना आयोग ने उससे भी कहीं भयावह स्थिति बताई है। आयोग की मानें तो केंद्र और राज्य सरकारों का राजकोषीय घाटा 7.54 प्रतिशत तक पंहुच गया है, सब्सिडी का बोझ 2.5 प्रतिशत पर पंहुच गया है। इन कारणों से 11वीं पंचवर्षीय योजना में रखे लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 12वीं योजना 2012-17) को तैयार करने के लिए योजना आयोग ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) की विस्तार से समीक्षा की है। 15 सितम्बर को हुई योजना आयोग की पूर्ण बैठक में ही बीती पांच साला योजना की समीक्षा के बाद ही सरकार ने साधारण डीजल की कीमत में 5 रुपये, प्रीमियम डीजल की कीमत में 16 रुपये और प्रीमियम पेट्रोल की कीमत में 6 रुपये की बढोत्तरी की। साधारण डीजल की कीमत बढाने से देश में हल्ला हो गया लेकिन प्रीमियम डीजल की कीमत को लेकर हो हल्ला नहीं मचा, इसकी वजह थी कि प्रीमियम का उपयोग पैसे वाले लोग करते हैं। उसके बाद ही प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए कहा था कि देश की आर्थिक स्थिति 1991 जैसी पंहुच गयी है। लेकिन योजना आयोग ने 11वीं योजना की जो समीक्षा की है वह काफी निराश करने वाली है। केंद्र सरकार की सब्सडी का बजट जो 11 वीं योजना के चार सालों तक 2 प्रतिशत तक पंहुच गया था वह पांचवें वर्ष 2011-12 का सब्सडी का बिल बढक र 2.6 प्रतिशत तक पंहुच गया है। पिछले पांच सालों में सब्सडी 8 लाख 57 हजार करोड़ रुपये दिये गए हैं। इसी तरह राजकोषीय घाटा पिछले पांच सालों में 17 लाख 78 हजार करोड़ रुपये पंहचु गया है। राज्यों का राजकोषीय घाटा 7 लाख 57 हजार करोड़ रुपये को भी जोड़ दिया जाए तो यह बढकर 25 लाख 35 हजार करोड़ रुपये तक पंहुच गया जो किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही खतरनाक है। वैसे सरकार कहती रही है कि राजकोषीय घाटा 4 प्रतिशत के आसपास है लेकिन योजना आयोग के कागजात बता रहे हैं कि केंद्र का घाटा 5.29 प्रतिशत और राज्यों को 2.25 प्रतिशत है। जो धन देश के विकास पर लगना चाहिए उससे वोट बैंक की राजनीतिक में बहाने के लिए ढांचागत विकास के लक्ष्य पूरे नहीं हो पाए हैं। 11 वीं योजना में सड़क निर्माण का लक्ष्य 48, 479 किलोमीटर तय किया था लेकिन अभी तक 17, 571 किलोमीटर सड़क ही बन पाई, 13, 981 किलोमीटर सड़के बनायी जा रही है जकि 16927 किलोमीटर सड़कों के काम अभी अवार्ड ही नहीं हुआ है। प्रधानंमत्री डा. मनमोहन सिंह का फोकस बिजली उत्पादन पर था। उन्होंने लक्ष्य रखा था कि पांच साल में 78,700 मेगावाट बिजली उत्पादन की जाएगी लेकिन अब तक 55000 मेगावाट बिजली ही बन सकी। कोयले का उत्पादन का लक्ष्य 680 मिलियन टन रखा गया था हासिल हुआ 540 मिलियन टन। कच्चे तेल का उत्पादन प्रतिवर्ष 206.73 मिलियिन टन करना था और प्राप्त हुआ 177.09 मिलियन टन। गैस का उत्पदान प्रतिवर्ष 255 बिलियन ब्यूबिक मीटर करने का लक्ष्य था जो प्राप्त हुआ 212 बिलियन क्यूबिक मीटर ही हुआ।

राष्ट्रीय  सहारा  दिल्ली संस्करण पेज 9, 26-9-2012 अर्थव्यवस्था

दिखावटी सुधारों की समस्या





मुझे मालूम है कि कांग्रेस मेरी बात नहीं सुनेगी। फिर भी मैं पार्टी को आखिरी दम तक संघर्ष की सलाह दूंगा, क्योंकि फिलहाल अगर वह बच भी जाती है तो मात्र कुर्सी से चिपकी रहेगी, शासन नहीं कर पाएगी। पार्टी के सामने जो समस्या है वह कोई समस्या नहीं है। सुधारों को अपनाने-नहीं अपनाने को लेकर वह पिछले तीन चार सालों से चर्चा-बहस करती रही है, लेकिन सत्ता जाने के डर से पार्टी कुछ भी अलग नहीं कर पा रही थी। इसके कारण प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा गिरी और उनकी छवि दयनीय बन गई। यह सही है कि पार्टी के पास आवश्यक संख्या बल नहीं है। तृणमूल कांग्रेस ने समर्थन वापसी की घोषणा कर दी है। इसके बाद लोकसभा में सत्तारूढ़ गठबंधन के पास मात्र 254 सदस्यों का समर्थन रह गया। ऐसे में बहुमत जुटाने के लिए 22 सदस्यों वाली समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव या 21 सदस्यों वाली बसपा की मायावती को अपने खेमे में लाने का लोभ सामने है। हालांकि इनमें से किसी एक या दोनों का समर्थन हासिल करने के लिए जो कीमत चुकानी पड़ेगी, उसका कांग्रेस को अहसास है। सरकार नियंत्रित सीबीआइ इसके लिए अपने तरकश के तमाम तीरों का इस्तेमाल करेगी। ये दोनों नेता भ्रष्टाचार और आय से अधिक संपत्ति के कई मामलों में फंसे हुए हैं। हालांकि मायावती तुलनात्मक दृष्टि से शांत हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि कांग्रेस का मतलब भ्रष्टाचार है। हालांकि ऐसा कहने का उनका मुंह नहीं रह गया है। द्रमुक अपने 18 सदस्यों के साथ कांग्रेस को घुड़की दिखा रही है जो कि संभवत: सिर्फ दिखाने के लिए है। वैसे पार्टी कांग्रेस के प्रति वफादार है। असली समस्या उत्तर प्रदेश के नेताओं-मुलायम सिंह यादव और मायावती को लेकर है। कांग्रेस अगर इनमें से किसी एक या दोनों का समर्थन हासिल कर भी लेती है तो भी पहले से ही दागदार कांग्रेस की क्या छवि रह जाएगी? समझौता और शासन में किसी एक को चुनना आसान नहीं है, लेकिन अगर कांग्रेस अपनी प्रतिष्ठा को जरा भी बचाना चाहती है तो वह अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते को लेकर हुई वोटिंग के वक्त जो कुछ हुआ था, वैसा फिर से नहीं कर सकती। उस वक्त मुलायम सिंह यादव को ब्लैंक चेक देकर अपने खेमे में लाया गया था। कांग्रेस के सामने डीजल के दाम में बढ़ोतरी का सवाल खड़ा है। हालांकि दाम बढ़ने के बाद भी सरकार को सब्सिडी देनी ही है। दूसरा मुख्य सवाल, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत। संभव है कि विदेशियों को खुदरा व्यापार की इजाजत देने से लोगों को मनमौजी दुकानदारों, विशेषकर खाद्यान्न व्यापारियों, से कुछ राहत मिल जाए। ये दुकानदार मांग बढ़ने पर मनचाहे तरीके से दाम बढ़ा देते हैं। हालांकि सच्चाई यह है कि पांच करोड़ खुदरा व्यापारियों में से सभी ऐसा नहीं करते। इनमें से बहुत सारे अपनी जवाबदेही समझते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने इनमें हर किसी को एक जैसा मानकर बिना राजनीतिक सहमति बनाए जो आर्थिक कदम उठाया है वह उसे मनमानी की ओर ले जाएगा। मैं यह समझ नहीं पा रहा कि पीछे की ओर जाने वाले एक कदम के लिए सुधार शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है? क्या इसका मतलब यह हुआ कि इसका विरोध करने वाले तमाम लोग सुधार विरोधी हैं? एक बंटे समाज में विभाजन और तनाव बढ़ाने वाली शब्दावली से परहेज किया जाना चाहिए। सुधार का नाम देकर जिस नारे को जनता के सामने उछाला जा रहा है वह उनके पास पिछले तीन-चार वर्षो से था। फिर मनमोहन सरकार ने इन्हें लागू करने के लिए सितंबर 2012 को ही सबसे सही समय क्यों माना? 2009 या 2004 में जब ये लोग सरकार में आए थे उस वक्त इसे क्यों नहीं लागू किया? लोकसभा चुनाव 2014 के शुरुआती महीनों में होने हैं और इस तरह इसमें करीब डेढ़ साल से भी कम का वक्त बाकी है। यह अवधि सरकार के लिए अपने पूरे शासनकाल की गलतियों को सुधारने के लिए पूरी नहीं पड़ेगी। कहीं इन सुधारों का मकसद घोटालों की श्रृंखला जिसमें सबसे ताजा कोयला घोटाला है, से लोगों का ध्यान हटाना तो नहीं है? मैं ऊंची उड़ान वाले सुधारों के बजाय शासन में पारदर्शिता को ज्यादा महत्व देना चाहूंगा। कई छोटी पार्टियां हैं जिन्हें फुसलाकर या खरीदकर सत्तारूढ़ गठबंधन के पक्ष में किया जा सकता है। फिर भी अगर जवाबदेही नहीं हो तो फिर संख्या का कोई मायने नहीं रह जाता। कुछ को छोड़कर बाकी पर कोई कार्रवाई होते मैंने नहीं देखा है, जबकि यह खुला सच है कि करीब-करीब सभी मंत्री नौकरशाहों के साथ मिलकर खामोशी से पैसा बनाने में लगे हैं। अभी बहुत घोटालों को सामने आना है। इनमें से कुछ का पर्दाफाश हो चुका है, जिसके लिए मीडिया धन्यवाद का पात्र है। जब कभी किसी घोटाले की चर्चा होती है तो सरकार बराबर एक मुहावरे का इस्तेमाल करने लगती है कि सरकारी खजाने को कोई नुकसान नहीं हुआ। फिर हमें पता चलता है कुछ धोखाधड़ी हुई है। जल्दी से दरवाजा बंद करने की कोशिश की जाती है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मनमोहन सिंह की सरकार और यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू की सरकार के साथ भी समस्या यह रही है कि इनमें निर्णय लेने की क्षमता की कमी रही है। उस वक्त कहा जाता था कि भारत मुलायम विकल्पों (साफ्ट ऑप्शन) को अपना रहा था और अब कहा जा रहा है कि नीतियों से जुड़े फैसले लेने में लकवे की स्थिति है। वास्तविकता यह है कि नीतिगत फैसले लेने के वक्त हम संदेहों में घिरे होते हैं। दक्षिण एशिया का अध्ययन कर एशियन ड्रामा नामक पुस्तक लिखने वाले गुर्नार मिर्डल ने कहा था कि भारत एक साफ्ट स्टेट है, क्योंकि यह कोई जवाबदेही लागू नहीं कर सकता और राजनीतिक समझौते की कोशिश में रहता है। 1955 में जब हमने पहली पंचवर्षीय योजना शुरू की थी उस वक्त यह कथन जितना सही था उतना आज भी सही है। मनमोहन सिंह का आर्थिक सुधार 1990 में शुरू हुआ। इसने दर्शाया कि पारंपरिक हठधर्मिता, धार्मिक संकीर्णता और समतावादी समाज के लिए कठोर कदमों की कमी जैसे कई कारणों के चलते मिश्रित अर्थव्यवस्था या समाजवादी तरीका काम नहीं कर पाता। काश मनमोहन सिंह समावेशी विकास के अपने नारे को सही साबित कर पाते, लेकिन एक ओर भ्रष्टाचार तो दूसरी ओर निर्णय लेने की क्षमता के अभाव ने खुली अर्थव्यवस्था को एक गंभीर विकल्प बना दिया है। मैं वाम की ओर झुके विचारों से जुड़ा रह सकता हूं, लेकिन भारत में व्यावहारिकता मायने रखती है। हम भले ही विदेशों में तैयार आर्थिक उपायों को न चाहें, लेकिन वे काम करते दिखाई देते हैं। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, पेज 8  , 26-09-2012   vFkZO;oLFkk

Wednesday, September 26, 2012

पीएम ने जितना कहा, उससे भी खराब है अर्थव्यवस्था


11 वीं योजना में एक भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता सब्सिडी का बोझ 2.5 प्रतिशत और राजकोषीय घाटा 7.5 प्रतिशत के रिकार्ड स्तर पर
रोशन/एसएनबी नई दिल्ली। रसोई गैस और डीजल पर सब्सिडी का बोझ कम करने के बाद प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने संबोधन में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति बताई है, 12वीं योजना के प्रारूप में योजना आयोग ने उससे भी कहीं भयावह स्थिति बताई है। आयोग की मानें तो केंद्र और राज्य सरकारों का राजकोषीय घाटा 7.54 प्रतिशत तक पंहुच गया है, सब्सिडी का बोझ 2.5 प्रतिशत पर पंहुच गया है। इन कारणों से 11वीं पंचवर्षीय योजना में रखे लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 12वीं योजना 2012-17) को तैयार करने के लिए योजना आयोग ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) की विस्तार से समीक्षा की है। 15 सितम्बर को हुई योजना आयोग की पूर्ण बैठक में ही बीती पांच साला योजना की समीक्षा के बाद ही सरकार ने साधारण डीजल की कीमत में 5 रुपये, प्रीमियम डीजल की कीमत में 16 रुपये और प्रीमियम पेट्रोल की कीमत में 6 रुपये की बढोत्तरी की। साधारण डीजल की कीमत बढाने से देश में हल्ला हो गया लेकिन प्रीमियम डीजल की कीमत को लेकर हो हल्ला नहीं मचा, इसकी वजह थी कि प्रीमियम का उपयोग पैसे वाले लोग करते हैं। उसके बाद ही प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए कहा था कि देश की आर्थिक स्थिति 1991 जैसी पंहुच गयी है। लेकिन योजना आयोग ने 11वीं योजना की जो समीक्षा की है वह काफी निराश करने वाली है। केंद्र सरकार की सब्सडी का बजट जो 11 वीं योजना के चार सालों तक 2 प्रतिशत तक पंहुच गया था वह पांचवें वर्ष 2011-12 का सब्सडी का बिल बढक र 2.6 प्रतिशत तक पंहुच गया है। पिछले पांच सालों में सब्सडी 8 लाख 57 हजार करोड़ रुपये दिये गए हैं। इसी तरह राजकोषीय घाटा पिछले पांच सालों में 17 लाख 78 हजार करोड़ रुपये पंहचु गया है। राज्यों का राजकोषीय घाटा 7 लाख 57 हजार करोड़ रुपये को भी जोड़ दिया जाए तो यह बढकर 25 लाख 35 हजार करोड़ रुपये तक पंहुच गया जो किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही खतरनाक है। वैसे सरकार कहती रही है कि राजकोषीय घाटा 4 प्रतिशत के आसपास है लेकिन योजना आयोग के कागजात बता रहे हैं कि केंद्र का घाटा 5.29 प्रतिशत और राज्यों को 2.25 प्रतिशत है। जो धन देश के विकास पर लगना चाहिए उससे वोट बैंक की राजनीतिक में बहाने के लिए ढांचागत विकास के लक्ष्य पूरे नहीं हो पाए हैं। 11 वीं योजना में सड़क निर्माण का लक्ष्य 48, 479 किलोमीटर तय किया था लेकिन अभी तक 17, 571 किलोमीटर सड़क ही बन पाई, 13, 981 किलोमीटर सड़के बनायी जा रही है जकि 16927 किलोमीटर सड़कों के काम अभी अवार्ड ही नहीं हुआ है। प्रधानंमत्री डा. मनमोहन सिंह का फोकस बिजली उत्पादन पर था। उन्होंने लक्ष्य रखा था कि पांच साल में 78,700 मेगावाट बिजली उत्पादन की जाएगी लेकिन अब तक 55000 मेगावाट बिजली ही बन सकी। कोयले का उत्पादन का लक्ष्य 680 मिलियन टन रखा गया था हासिल हुआ 540 मिलियन टन। कच्चे तेल का उत्पादन प्रतिवर्ष 206.73 मिलियिन टन करना था और प्राप्त हुआ 177.09 मिलियन टन। गैस का उत्पदान प्रतिवर्ष 255 बिलियन ब्यूबिक मीटर करने का लक्ष्य था जो प्राप्त हुआ 212 बिलियन क्यूबिक मीटर ही हुआ।
राष्ट्रीय  सहारा  दिल्ली संस्करण पेज 9, 26-9-2012 अर्थव्यवस्था