Wednesday, February 2, 2011

ऊर्जा सं कट में यह नवाचार


पेट्रोल पर खर्च की विषमता से बचने का कोई तरीका निकालना चाहिए। मेरी सम्मति में, इसका एक तरीका पेट्रोल की दोहरी मूल्य पण्राली है। यानी पेट्रोल का ज्यादा उपभोग करने वालों से अधिक कीमत वसूल की जाए और इससे जो रकम उपलब्ध होती है, उसका प्रयोग पेट्रोल की कीमत गिराने में किया जाए
पिछले साल भर में पेट्रोल तथा डीजल की कीमतों में जिस तेजी से वृद्धि की गई है, वह आश्र्चयजनक है। पहले की बात और थी। जब विश्व बाजार में क्रूड तेल की कीमतें बढ़ती थीं, तो इसका सीधा असर उपभोक्ताओं पर नहीं पड़ता था। झटके का कुछ हिस्सा सरकार संभाल लेती थी। यूपीए सरकार ने तय किया कि वह पेट्रोल उत्पादों पर सब्सिडी जारी नहीं रखेगी। पेट्रोल उत्पादों की कीमतें बाजार द्वारा निर्धारित होंगी। इसी का नतीजा है कि सभी तेल कंपनियां अपने उत्पादों की कीमतें लगातार बढ़ाती रही हैं। जब कोई दल कीमत वृद्धि का विरोध करता है, तो सरकार कहती है कि वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। विश्व बाजार में कीमत बढ़ने पर उसे भी बढ़ानी पड़ती है। सरकार के इस तर्क से युद्ध नहीं किया जा सकता। वाकई कोई भी चीज अपनी कीमत पर ही बिकनी चाहिए। आम तौर पर सब्सिडी देना कोई अच्छी बात नहीं है। यह एक तरह से खैरात देना है, जिसे किसी को स्वीकार भी नहीं करना चाहिए। मुश्किल यह है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें आर्थिक स्तर पर भयावह विषमता है। ऐसे समाज में एक ही कीमत किसी को जरा भी बोझ नहीं लगती, तो दूसरे की जेब खाली कर देती है। जब आय में भयावह विषमता है, तो खर्च में भी भयावह विषमता होना लाजिमी है। इसलिए कोई भी कीमत वृद्धि समाज के सभी वगरे को समान रूप से प्रभावित नहीं करती। दाल-चावल या सब्जियों की कीमत बढ़ती है, तो उच्च वर्ग में इनकी खपत कम नहीं हो जाती लेकिन जिनके पास कम पैसा है, उन्हें इन वस्तुओं का उपभोग कम करना पड़ जाता है। जब शक्कर का दाम बढ़ा था, तब बहुत-से परिवारों ने फीकी चाय पीना शुरू कर दिया था। इसी तरह, अब जब कि सब्जियों की कीमतें आग उगल रही हैं, साधारण लोग जहां तक संभव है, सब्जी के उपभोग में कटौती कर रहे हैं। पेट्रोल के साथ ऐसा नहीं है। जब पेट्रोल की कीमत बढ़ाई जाती है, तब उसका उपभोग कम नहीं हो जाता। कोई स्कूटर वाला बस से चलना शुरू नहीं कर देता। हालांकि आजकल बसों या मेट्रो रेल की दरें कोई आरामदेह नहीं हैं। कुछ लोगों की कमाई का बीस से तीस प्रतिशत तक घर से कार्य स्थल तक जाने और वहां से लौटने में खर्च हो जाता है। तिस पर समय से पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है। इसीलिए निजी वाहनों का चलन बढ़ता जा रहा है। महानगरों में तो फिर भी सार्वजनिक वाहनों की व्यवस्था है, वह चाहे जैसी हो। पर छोटे शहरों और कस्बों में सार्वजनिक वाहन खरगोश के सींग की तरह अदृश्य हैं। इसलिए वहां जिसके पास भी साधन हैं, वह स्कूटर, मोटरसाइकिल या सेकेंड हैंड कार खरीद कर ही रहता है। इससे भी पेट्रोल की खपत तेजी से बढ़ रही है। अगर इन रिहायशों में उचित संख्या में बसें चला दी जाएं तो इस दुर्लभ ईधन की काफी बचत हो सकती है। तो किस्सा यह है कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने पर वाहन रखने वाले साधारण लोगों की जेब पर तुरंत असर होता है। ईधन पर उनका खर्च बढ़ जाता है। इसमें कटौती भी नहीं की जा सकती, क्योंकि यह वर्ग वैसे भी अंधाधुंध वाहन नहीं चलाता। इसके विपरीत, संपन्न वर्ग को कोई दिक्कत नहीं होती, क्योंकि पेट्रोल का बजट उसकी आय का बहुत मामूली प्रतिशत होता है। अधिकतर की कारें तो नियोक्ता के पैसे से चलती हैं। पेट्रोल पर खर्च की इस विषमता से बचने का कोई तरीका निकालना चाहिए। मेरी सम्मति में, इसका एक तरीका पेट्रोल की दोहरी मूल्य पण्राली है। यानी पेट्रोल का ज्यादा उपभोग करने वालों से अधिक कीमत वसूल की जाए और इससे जो रकम उपलब्ध होती है, उसका उपयोग पेट्रोल की कीमत गिराने में किया जाए। यह कैसे किया जाए, इस पर जानकार लोगों को अपनी राय रखनी चाहिए। मेरे खयाल से, एक सहज उपाय यह है कि पेट्रोल की राशनिंग कर दी जाए। प्रत्येक वाहन के लिए पेट्रोल की एक निश्चित मात्रा तय कर दी जाए। जिस वाहन पर इस निश्चित सीमा से ज्यादा पेट्रोल खर्च किया जाता है, उसके स्वामी को उस निश्चित सीमा से अधिक पेट्रोल खरीदने पर ज्यादा कीमत वसूल की जाए। ऐसा करने में कोई अन्याय या भेदभाव नहीं है। जिस इफरात से कारों की संख्या बढ़ रही है और ज्यादा तेल पीने वाली गाड़ियां बाजार में उतर रही हैं, उसे देखते हुए पेट्रोल के उपभोग पर अंकु लगाना आवश्यक हो गया है। दोहरी मूल्य पण्राली का संदेश यह है- या तो पेट्रोल का उपभोग कम करो या उसके लिए ज्यादा कीमत चुकाओ। इस अतिरिक्त कीमत से पेट्रोल की दर में स्थिरता लाने की कोशिश की जाएगी या प्रदूषण कम करने का प्रयास किया जाएगा। दोहरी मूल्य पण्राली के पक्ष में आर्थिक तर्क हो या हो, सामाजिक तर्क जरूरी है। सामाजिक तर्क आर्थिक तर्क की तुलना में ज्यादा स्वीकार्य होना चाहिए। इस पण्राली का विस्तार रेल या वायु मार्ग से सफर करने वालों तक भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन यात्राओं की सीमा बांधी जा सकती है। जो लोग अधिक यात्रा करेंगे, उनसे अतिरिक्त कीमत वसूल की जाएगी। इससे भी सरकार को कु आय हो सकती है। साइकिलों के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए यह किया जा सकता है कि प्रत्येक साइकिल में ऐसा मीटर लगाया जाए जिससे पता चले कि उसने महीने भर में कितनी दूरी तय की है। जो साइकिल एक निश्चित दूरी से ज्यादा चलेगी, उसे सरकार की ओर से कुछ प्रोत्साहन राशि दी जा सकती है। पश्चिमी देशों में साइकिल का चलन बढ़ रहा है। हमारे देश में इसे गरीब की सवारी मान लिया गया है। इसी तरह, दोहरी मूल्य पण्राली बिजली के इस्तेमाल पर भी लागू की जा सकती है। प्रति व्यक्ति ज्यादा बिजली खर्च करते हो, तो ज्यादा कीमत चुकाओ। ऊर्जा संकट के दिनों में इस तरह के नवाचार अपनाना बहुत आवश्यक है। अन्यथा यह संकट गहराता जाएगा। खासकर हमारे जैसे गरीब देशों में।


गांधीजी की अर्थनीति


महात्मा गांधी की अर्थव्यवस्था व अर्थशास्त्र के बारे में बहुत मौलिक सोच थी। यह सोच उस समय के प्रचलित विचारों की परवाह न कर सीधे-सीधे ऐसी नीतियों की मांग करती थी जिससे गरीबों को राहत मिले। साथ ही उन्होंने ऐसे सिद्धांत अपनाने को कहा जिनसे दुनिया में तनाव व हिंसा दूर हो तथा पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे। गांधीजी के लिए विश्व शांति, संतोष व पर्यावरण की रक्षा सबसे महत्वपूर्ण थे। वह इसी के अनुकूल आर्थिक नीतियों की बात करते थे। उन्होंने अर्थनीति और नैतिकता में कभी भेद नहीं किया। गांधी ने स्पष्ट लिखा मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या में कोई भेद नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुंचती हो उसे मैं अनीतिमय और पापपूर्ण कहूंगा। उदाहरण के लिए जो नीति एक देश को दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहनताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं उनसे वस्तुएं खरीदना या उन वस्तुओं का उपयोग करना पाप है। उन्होंने शोषण विहीन व्यवस्था की मांग रखी ताकि सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी हों। उन्होंने कहा कि गरीब लोगों को भी उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण मिले ताकि उनका शोषण न हो। गांधी ने लिखा मेरी राय में न केवल भारत की, बल्कि सारी दुनिया की अर्थरचना ऐसी होनी चाहिए कि किसी को भी अन्न और वस्त्र के अभाव में तकलीफ न सहनी पड़े। दूसरे शब्दों में हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने खाने-पहनने की जरूरतें पूरी कर सके। यह आदर्श तभी कार्यान्वित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहें। वह हर एक को बिना किसी बाधा के उसी तरह उपलब्ध होने चाहिए जिस तरह कि भगवान की दी हुई हवा और पानी हमें उपलब्ध है। किसी भी हालत में वे दूसरों के शोषण के लिए चलाए जाने वाले व्यापार का वाहन न बनें। किसी भी देश या समुदाय का उन पर एकाधिकार अन्यायपूर्ण होगा। हम आज न केवल अपने इस दुखी देश में, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जो गरीबी देखते हैं उसका कारण इस सरल सिद्धांत की उपेक्षा है। प्राय: यही माना जाता है कि निरंतर आर्थिक विकास व वृद्धि से ही दुनिया से गरीबी व अभाव दूर होगी, लेकिन महात्मा गांधी ने यह पहचान लिया था कि इस तरह के आर्थिक विकास के तहत गरीबी व विषमता बढ़ने की संभावना भी मौजूद रहती है। अत: उन्होंने आर्थिक विकास को नहीं, बल्कि गरीब आदमी की बुनियादी आवश्यकताओं को अपनी आर्थिक सोच का केंद्र बनाया। उन्होंने देश के नेताओं और नियोजकों से विशेष आग्रह किया कि जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ। जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा है, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त? इस तरह महात्मा गांधी गरीब आदमी को आर्थिक चिंतन के केंद्र में ले आए। तेजी से होने वाला तकनीकी बदलाव और मशीनीकरण उस समय की विचारधारा पर भी छाया हुआ था, क्योंकि इसी रास्ते पर चलकर यूरोप में समृद्धि आई थी। पर महात्मा गांधी ने इस विचारधारा को भी चुनौती दी और देश के गरीब किसान, दस्तकार और मजदूर के रोजगार और आजीविका को अंधाधुंध मशीनीकरण से बचाने के लिए उन्होंने जोर दिया। यंत्रों के बारे में उन्होंने कहा कि उससे मनुष्य को सहारा मिलना चाहिए। वर्तमान यह झुकाव है कि कुछ लोगों के हाथ में खूब संपत्ति पहुंचाई जाए और जिन करोड़ों स्त्री-पुरुषों के मंुह से रोटी छीनी है उन बेचारों की जरा भी परवाह न की जाए। सच्ची योजना तो यह होगी कि भारत की संपूर्ण मानव शक्ति का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए। मानव श्रम की परवाह न करने वाली कोई भी योजना न तो मुल्क में संतुलन कायम रख सकती है और न इनसानों को बराबरी का दर्जा दे सकती है। इसी तरह गांधीजी ने कहा मनुष्य का लक्ष्य अपने उपभोग को निरंतर बढ़ाना नहीं अपितु सादगी के जीवन में संतोष प्राप्त करना है। यदि शक्तिशाली व अमीर लोग इस भावना में जिएं तो गरीबों के लिए संसाधन बचने की संभावना कहीं अधिक होगी। उनके शब्दों में, सच्ची सभ्यता का लक्षण संग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझकर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है। ज्यों ज्यों हम संग्रह घटाते जाते हैं त्यों-त्यों सच्चा सुख और संतोष बढ़ता जाता है, सेवा की शक्ति बढ़ती जाती है। त्याग की यह शक्ति हममें अचानक नहीं आएगी। पहले हमें ऐसी मनोवृत्ति पैदा करनी होगी कि हमें उन सुख-सुविधाओं का उपयोग नही करना है, जिनसे लाखों लोग वंचित हैं। समता और सादगी को एक महत्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में प्रतिष्ठित कर पर्यावरण का नाम लिए बिना ही महात्मा गांधी हमें पर्यावरण संरक्षण के मूल से परिचित करा गए। उन्होंने कहा भी कि प्रकृति सब मनुष्यों की जरूरतें तो पूरी कर सकती है, लेकिन लालच नहीं।