Friday, September 7, 2012

आर्थिक सुधारों का कड़वा सच


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मुद्दा कृष्ण प्रताप सिंह
अंधाधुंध और एकतरफा आर्थिक सुधारों के हामी हमारे कर्णधारों के लिए एक औरखुशखबरीआ गयी है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिलने अपने एक अध्ययन में पाया है कि अब शहरों के मुकाबले गांवों में अतिरिक्त उपभोगबढ़ रहा है, जिससे वहां आईटी व उपभोक्ता उत्पादों और साथ ही सेवाओं की मांग व खपत में भारी इजाफा हुआ है। अध्ययन के अनुसार ऐसा, देश के इतिहास में पहली बार इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि आर्थिक सुधारों के दो दशकों में बढ़े गैर कृषि रोजगारों ने ग्रामीणों की आमदनी उल्लेखनीय स्तर तक बढ़ायी है। अध्ययन इस ऐतिहासिक वृद्धिका कुछ श्रेय मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं और शहरों में बुनियादी ढांचे व निर्माण परियोजनाओं में मिल रहे काम के अवसरों के साथ भी बांटता है। वह बताता है कि 2009-10 2011-12 के दौरान ग्रामीण भारत का अतिरिक्त उपभोग खर्च शहरी भारत के दो दशमलव नौ लाख करोड़ रुपये के मुकाबले तीन दशमलव सात पांच लाख करोड़ रुपये रहा है। इस अध्ययन से निश्चित ही कर्णधारों को यह प्रचारित करने की एक अतिरिक्त सुविधामिल जाएगी कि कुछ लोगों की नजर में अमानवीयआर्थिक सुधार अब अच्छे फल देने लगे हैं। महानगरों को तो उन्होंने पहले ही चमका दिया था, अब गांवों के भी कायाकल्प में लग गये हैं तो उनके रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ने की मनाहियोें और विकल्प तलाशने की सलाहों को कान देने की कतई जरूरत नहीं है। आखिरकार राष्ट्रीय नमूना सव्रेक्षण संगठन के ये निष्कर्ष अगर सही हैं कि 2004-05 से 2009-10 के दौरान ग्रामीण भारत में निर्माण क्षेत्र के रोजगारों में 88 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई और कृषि क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या 24 दशमलव नौ करोड़ से घटकर 22 दशमलव नौ करोड़ हो गयी, तो हमारे गांवों को भला किसी और चमत्कार की जरूरत क्यों कर होने लगी? तब तो सचमुच वहां करने के लिए इतना ही शेष है कि इस तेजी को टिकाऊ बनाया जाए ताकि अभी जो रोजगार अस्थायी रूप से बढ़े हैं, वह स्थायित्व प्राप्त कर सकें। लेकिन क्या दृश्य वास्तव में उतना ही सुहावना है, जितना बताया जा रहा है? इसके जवाब में इतना ही कहा जा सकता है कि काश, ऐसा होता! क्योंकि अगर यह सच होता तो फिर ऐसा नहीं होता कि अमेठी से सटे सुल्तानपुर जिले में मनोज नाम के एक युवक की बेबसी पत्नी व बेटे समेत उसकी जान ले लेती और बीच के फैजाबाद जिले के उस पार बस्ती में कलपती उसकी मां कलावती, पुलिस द्वारा लावारिस करार देकर दफना देने से पहले, अपने बेटे,बहू और पोते की लाशों को लेने सुल्तानपुर न पहुंच पाती। तब उड़ीसा में कटक के पास स्थित जगतपुर के ग्रामीणों को भी वह 600 कुन्तल चावल खोदकर निकालना और खाना नहीं पड़ता, जिसे भारतीय खाद्य निगम और रेलवे की कृपा से पशुओं के खाने लायक भी नहीं बताकर जमीन में गाड़ दिया गया था। हाल की ही इन दो घटनाओं के उल्लेख का उद्देश्य उस परिवर्तनको आंख मूंदकर नकारना नहीं है जो आर्थिक सुधारों के दो दशकों में ग्रामीण भारत में आया है। शहरों की तरह वहां भी एक छोटे से खाते-पीतेवर्ग का उदय तो हुआ ही है। अलबत्ता, यह वर्ग कुल ग्रामीणों की संख्या का दस प्रतिशत भी नहीं है और लूटो-खाओकी ग्लोबल संस्कृति में इस कदर दीक्षित है कि गरीबों के राशन कार्ड तक उनके पास नहीं रहने देता। आत्ममुग्धता और अनैतिकता में अपना सानी न रखने वाले इस वर्ग की उपलब्धियों के आधार पर गांवों की खुशहाली के निष्कर्ष निकालना वैसा ही है जैसे किसी नदी के इस तट से उस तट तक की औसत गहराई के, जो मंझधार की वास्तविक गहराई के आस-पास भी नहीं फटकती, आधार पर पैदल ही उसे पार करने या थाहने के लिए चल पड़ना। अवधी की एक कहावत बताती है कि ऐसे ही नदी थाहने के चक्कर में एक राजा का समूचा कुनबा डूब गया तो उसने गुस्से से लाल पीले होते हुए गहराई का औसत निकालने वाले पटवारी को तलब कर लिया। लेकिन पटवारी का मासूम सा जवाब था कि औसत तो पूरी तरह दुरूस्त है,जरूर कुनबे के साथ बीच में कुछ ऊंच-नीच हुई होगी! ऐसे ऊंच-नीच पर औसत का वश थोड़े ही चलता है!
ऊंच-नीच से भरे इस देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री भी इस सच्चाई को समझते तो ऐसे अध्ययनों की खुशफहमी की आड़ लेकर आर्थिक सुधारों का ढिंढोरा पीटने के बजाय उस बेरहम गैर-बराबरी की भी कुछ फिक्र करते जिसको ये सुधार न सिर्फ बढ़ाते जा रहे हैं बल्कि सामाजिक आर्थिक ताने-बाने को नयी विसंगतियों के हवाले करने के लिए भी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी कारण क्या गांव और क्या शहर, हर जगह कुछ लोगों के हाथ अचानक इतने समृद्ध हो गये हैं कि वे खुद को मतवाले होने से नहीं रोक पा रहे जबकि अनेक लोगों के सामने खाने के लाले पड़े हुए हैं। समता और समाजवाद के सपने तो अब केवल संविधान की पोथियों में ही बचे हैं। राष्ट्रीय नमूना सव्रेक्षण संगठन के आंकड़े कहते हैं कि पिछले दो सालों में सबसे गरीब दस प्रतिशत ग्रामवासियों की आय ग्यारह दशमलव पांच प्रतिशत की दर से बढ़ी है तो सबसे अमीर दस प्रतिशत ग्लोबल इंडियन्सकी अड़तीस प्रतिशत की दर से! इस सबसे अमीर दस प्रतिशत के एक प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की दर तो 5100 गुना तक है। क्या आश्चर्य कि विकास व सहयोग संगठन यानी ओईसीडी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक सुधारों के दौर में गैर-बराबरी बढ़ाने में भारत दुनिया भर में अव्वल हो गया है। ग्रामीणों का अंतिम दस प्रतिशत अब भी 18 रुपये रोज पर गुजर-बसर को अभिशप्त है जबकि शहरी अमीरों का ऊपरी दस प्रतिशत रोज 255 रुपये खर्चता है। गैर-बराबरी का यह अतिरिक्त उपभोगखुशी का वायस है या चिन्ता का? वैसे ग्रामीण भारत में बढ़ते अतिरिक्त उपभोग का एक अर्थ यह भी है ही कि गांव वालों के हाथ जो थोड़े बहुत पैसे आ रहे हैं, वे भी टिक नहीं रहे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा थोप दी गयी जीवनशैली ने वहां व्यर्थ उपभोग की ऐसी लालसा जगा दी है कि इस हाथ दे, उस हाथ ले लेवाली हालत है। ग्रामीण दिन भर हड्डियां चटखाकर जो पैसे लाते हैं, वे तो इन कम्पनियों द्वारा उत्पादित सामानों को खरीदने भर को भी नहीं होते जो बड़े पैकेटों से लेकर छोटे-छोटे पाउचों तक में उपलब्ध हैं। दरअसल ये आर्थिक सुधार अपनी प्रकृति में ही सर्वसमावेशी विकास के विलोम हैं और जनता इस तथ्य को ठीक से न समझ सके, इसके लिए उनके पैरोकारों को नये नये झांसों की जरूरत पड़ती रहती है। क्रिसिलके अध्ययन और उसके निष्कषरें को इसी संदर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए।

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