भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है। लाखों लोगों की जिंदगी दांव
पर लगी है। हर संकेत
खतरे का है-खर्च, कर्ज, घाटा, महंगाई, और ईएमआइ सब कुछ
बढ़ता जा रहा है, जबकि विकास दर गिर
रही है। इससे राजनीतिक दल परेशान नहीं हैं। संसद, जहां से प्रशासन का संचालन होता है, ठप रही। खबरिया
चैनलों पर नेताओं
के
बीच होने वाले वाद-विवाद किसी रियलिटी शो की तरह हो गए। राजनीतिक भाषणों का आधार ही
अपनी तारीफ रह गया। झटका राजनीति के बीच अर्थव्यवस्था का दम निकल रहा है और यह
हलाल होने की स्थिति में
आ गई है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पिछली नौ तिमाहियों से हर बार गिर रहा है और
दशक में सबसे नीचे तक गिरने के संकेत दे रहा है। सकल बचत 36.8 फीसद से 32.3 फीसद रह गई है और
सकल निवेश 38 से 35 फीसद ही रह गया है। सिर्फ तीन
महीनों में ही घाटा 1.97 लाख करोड़
रुपये तक पहुंच गया, जो प्रणब मुखर्जी के
बजट में साल भर में 5.13 लाख करोड़
था। सब्सिडी घटाने के बाद भी सिर्फ खाद्य, ईंधन और खाद सब्सिडी से ही 2.5 लाख करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है। यह हैरानी की बात
नहीं है कि 2008 से 2012 के बीच 2.5 लाख करोड़ का कर्ज दोगुना होकर 5.6 लाख करोड़ रुपये तक
पहुंच गया। वर्ष 2008-09 में सरकार 750 करोड़ रुपये
प्रतिदिन के हिसाब से कर्ज ले रही थी। इस साल का ही इसका कर्ज 1560 करोड़ रुपये है।
इसमें से आधे से ज्यादा तो ब्याज चुकाने में ही चला गया। जाहिर है
कि इस राजनीतिक फिजूलखर्ची की कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ेगी। यह गली के नुक्कड़
पर खड़े आम आदमी को भी दिखाई दे रहा है। बैंक की बचत दर महंगाई दर से भी कम
है। म्युचुअल फंड में निवेश की कीमत गिर रही है, वेतन बढ़ नहीं रहा, जबकि जीवनयापन की लागत बढ़ती जा रही है।
नौकरियों की लाइन
लगी
है, लेकिन अवसर
कम होते जा रहे हैं। पिछले हफ्ते ही सरकार ने खुलासा किया था कि 2007 से 2012 के दौरान वह सिर्फ 17,571 किलोमीटर सड़कें ही
बना पाई, जबकि लक्ष्य 48,479 किलोमीटर का था। 77,000 मेगावाट की जगह
सिर्फ 55,000 मेगावाट
बिजली का ही उत्पादन हो पाया और 21,000 किलोमीटर पटरियां बिछाने का काम सिर्फ 15,752 किलोमीटर तक ही हो पाया। अब निवेश, रोजगार और विकास की
गति दोबारा पकड़ने के लिए कुछ फैसलों की जरूरत है। व्यवस्थागत कमी और राजनीतिक
अक्षमता दो कानूनों में साफ दिखाई देती है, भूमि अधिग्रहण विधेयक और नया कंपनी एक्ट। इसके अलावा
स्थायी और वित्तीय
समितियों से मंजूरी मिलने के बाद भी 35 विधेयक अपने कानूनीजामा पहनने की बाट जोह
रहे हैं। बिलावजह की
अनदेखी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़नी ही थी। 25 अप्रैल को ही अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड
पूअर्स (एसएंडपी) ने भारत की रेटिंग नकारात्मक कर डाली। फिर 18 जून को फिच ने भी
ऐसा ही किया। एसएंडपी ने नीतिगत लकवे के लिए सरकार में वैचारिक मतभेद को जिम्मेदार
ठहराया और चेतावनी दी
कि घटती जीडीपी और बढ़ते राजनीतिक गतिरोध के चलते भारत की निवेश साख भी गिर सकती है
और शायद ब्रिक देशों में ऐसा पहला हादसा भारत के साथ होगा। इसका मतलब है
कि भारत बहुत लंबे समय तक विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षण का केंद्र
नहीं रहेगा। जिन वैश्विक कंपनियों ने भारत में निवेश किया है वे भी जाती
रहेंगी और सरकार का कर्ज किसी नए निवेशक को आने नहीं देगा। जंक रेटिंग के डर
से ही सरकार ने पिछले हफ्ते डीजल के दाम बढ़ा दिए। फिर उड्डयन, डीटीएच और मल्टी
ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दे डाली।
इनसे ठोस नतीजों के बजाय बाजार को सुधार के संकेत जाने थे। हालांकि तर्क दिया
जा सकता है कि जीडीपी इस वक्त आइसीयू में है और सरकार अब भी बैंड-एड
लगाने जैसे उपचार ही कर रही है। यह राजनीतिक वाद-विवाद का विषय है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
की तुलना में दुनिया
के सबसे पुराने लोकतंत्र में मुद्दा यह है कि लोगों को रोजगार कैसे दिए जाएं, अमेरिकियों के
जीवनस्तर में सुधार कैसे लाया जाए और फिर विकास दर कैसे बढ़ाई जाए। हमारे यहां
राजनीति आरोप-प्रत्यारोप के उद्योग में बदल चुकी है। किसी भी राजनीतिक दल में जमीनी हकीकत
का सामना करने की
इच्छाशक्ति
नहीं दिखती। सारी राजनीतिक बिरादरी किसी भी तरह के सुधार के खिलाफ एकजुट हो गई
है। कांग्रेस को 2004 से ही लग
रहा था कि उसके पास अलादीन का चिराग है। नतीजतन इसने सब्सिडी जारी रखी और मनरेगा
जैसी योजनाओं को बढ़ावा
देती रही। भाजपा ने 1998-2004
के
दौरान परंपराएं तोड़ते हुए कुछ सुधार किए। आज जितना कर्ज है उससे अर्थव्यवस्था स्थिर
नहीं रह सकती और यदि यही विकास दर रही तो उससे सामाजिक स्थिरता नहीं बनी रह सकती।
भारत को अपनी अर्थव्यवस्था
को सुधारना ही होगा। इसे अपने खर्च पर लगाम लगानी होगी या फिर पैसों के लिए
सोना-चांदी बेचना पड़ेगा। सब्सिडी खत्म की नहीं जा सकती, खर्च कम हो नहीं
सकते और कांग्रेस सहित सभी दल विनिवेश के विरोध में हैं। अब लाख टके का सवाल
यह है कि बिना सुधारों के अर्थव्यवस्था गति कैसे पकड़ेगी। अर्थव्यवस्था सियासत
के पेंच में फंसी हुई है। इसका सारा दोष अपने नेताओं को चुनने वालों और
इस तंत्र को जाता है। 1991-96
के
दौरान नरसिंह राव सरकार ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों से देश को शर्मसार होने से
बचाया था। 1998 में
कांग्रेस ने इन सुधारों पर रोक लगा दी। इसने यह स्थापित करने के लिए एके एंटनी की
अध्यक्षता में एक समिति भी गठित कर दी कि ये सुधार गरीब-विरोधी थे। 2004 तक राजग सरकार ने
अर्थव्यवस्था को गति दी और उच्च ब्याज दरों के साथ विकास दर भी अच्छी बनाए रखी, लेकिन दुर्भाग्य कि
चुनाव हार गई। लिहाजा, राजनीतिक बिरादरी
ने लब्बोलुआब यह निकाला कि विकास दर के लिए कोई वोट नहीं देता।
इसलिए उन्होंने अब कोई गलती नहीं करने की ठानी। अच्छे प्रशासन के लिए
जरूरी है कि सरकार विकास दर भी अच्छी बनाए रखे और फिर इससे मिलने वाले लाभ का
समान रूप से वितरण करे। किन्हीं कारणों से सियासी जमात के एक बड़े वर्ग ने
यह मान लिया कि विकास दर की दौड़ और समानता दोनों ही परस्पर अलग हैं।
उनके दिमाग से यह निकल गया कि बिना विकास के उनके पास बांटने को सिर्फ
गरीबी होगी। (लेखक
आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण पेज -8,20-9-2012 अर्थव्यवस्था
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