Wednesday, May 11, 2011

चीखतीं चुनौतियों का भान नहीं


भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है और जिस मौद्रिक नीति की घोषणा की है,उनसे पता चलता है कि आर्थिक क्षेत्र में भारत के सामने राहत और सहूलियत से ज्यादा गंभीर चुनौतियां विद्यमान हैं। बैंक ने रेपो और रिवर्स रेपो दरों में आधा-आधा प्रतिशत यानी 0.50 प्वाइंट की बढ़ोत्तरी की है। अब रेपो दर 7.25 प्रतिशत तथा रिवर्स रेपो दर 6.25 प्रतिशत होगा। इसका अर्थ हुआ कि आम बैंक रिजर्व बैंक से जो भी कर्ज लेंगे वह और रिजर्व बैंक में ये बैंक जो धन रखेंगे वह भी (रिवर्स रेपो) महंगा हो जाएगा। मार्च 2010 के बाद के एक वर्ष एक महीने में नौंवी बार यह दर बढ़ाई गई है। इसलिए यह किसी दृष्टि से स्थिर नीति का संकेत नहीं है। हां, बैंकों का नकदी जमा अनुपात यानी सीआरआर अवश्य 6 प्रतिशत रहने दिया गया है। रेपो दरों में वृद्धि का प्रत्यक्ष उद्देश्य बाजार से नकदी खींचना होता है यानी बाजार से नकद बैंक तक आ जाए। बचत खाता में आधा प्रतिशत ब्याज की बढ़ोत्तरी का उद्देश्य भी आम खातेदारों को बैंक में धन रखने के लिए प्रेरित करना है। लगभग सात साल बाद की गई, यह बढ़ोत्तरी साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। यह रिजर्व बैंक की सोच में आए परिवर्तन का संकेतक है। इससे सभी प्रकार के कर्ज महंगे हो जाएंगे। कर्ज का महंगा होना पूंजीवाद की अर्थव्यवस्था में विकास की गाड़ी के सामने गति अवरोधक समान है। उद्योग जगत कतई नहीं चाहता था कि ब्याज दरों में वृद्धि हो क्योंकि इससे बाजार में नकदी कम होती है। कर्ज कम मिलता है, जिससे मांग एवं आपूर्ति दोनों पर असर होता है। उत्पादन लागत भी बढ़ता है। औद्योगिक विकास दर में लगातार गिरावट की प्रवृत्ति चल रही है। कच्चे माल के बढ़े हुए मूल्यों के कारण भी उत्पादन लागत बढ़ता है। जाहिर है, रिजर्व बैंक ने ये जानते हुए भी यदि ब्याज दर बढ़ाने का निर्णय किया है तो उसकी ठोस आर्थिक-वित्तीय वजहें होंगी। मौद्रिक नीति जारी करने के एक दिन पूर्व रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में महंगाई दर पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। इसके अनुसार महंगाई दर 7.5 प्रतिशत तक जा सकती है। यह उसके ही पूर्व अनुमान 6.6 प्रतिशत से .9 प्रतिशत अधिक है। तमाम कोशिशों के बावजूद महंगाई का ग्राफ सामान्य नहीं हो रहा। यह अब भी बहुत बड़ी चुनौती है। मार्च में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 8.98 प्रतिशत बताई गई थी। खाद्य सामग्री और कच्चे तेल के मूल्यों को महंगाई का सर्व प्रमुख कारण माना जा रहा है। राजनीतिक दबाव में महंगाई कम करने को सरकार उच्चतम प्राथमिकता बता रही है और पूंजीवादी अर्थशास्त्र के परम्परागत नुस्खे में बाजार से नकदी घटाना एक प्रमुख दवा है। एक वर्ष पूर्व महंगाई दर करीब 11 प्रतिशत पहुंचने के साथ रिजर्व बैंक ने बाजार से नकदी खींचने की नीति आरम्भ की थी। प्रश्न है कि जब एक वर्ष में महंगाई कम नहीं हुई तो आगे कैसे हो जाएगी? ध्यान रखने की बात है कि महंगाई दर का यह आकलन सामान्य मानसून और कच्चे तेल के 110 डॉलर प्रति बैरल के औसत मूल्य पर आधारित है। मिस्र-ट्यूनीशिया और लीबिया के हालात से तेल मूल्यों में वृद्धि हुई है। 120 डालर प्रति बैरल की दर से भारत को कच्चा तेल खरीदना पड़ा है। स्पष्ट है, तेल के मूल्य यदि 110 डालर प्रति बैरल के आसपास नहीं रहा तो महंगाई में उछाल अवश्यम्भावी है। इस समय भी इसका मूल्य 114 डालर प्रति बैरल के आसपास है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी के मुताबिक प्रति बैरल एक डालर की वृद्धि का असर 3200 करोड़ हो जाता है। रिजर्व बैंक का सुझाव है कि सरकार डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाए अन्यथा सब्सिडी के बोझ से राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है। महंगाई रोकने के लिए सम्भव है, वह आगे भी ब्याज दर तुरंत बढ़ाए लेकिन यह इंतजाम अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे में कई चुनौतियां और समस्याएं पैदा कर रहे हैं। बाजार से नकदी हटाते हैं या ब्याज दर बढ़ाते हैं तो इसका असर आर्थिक गतिविधियों के लिए धन की कमी और उपलब्ध धन के महंगे होने के रूप में सामने आता है। तो फिर चारा क्या है? इसका उत्तर देना कठिन हो गया है। रिजर्व बैंक के मुताबिक कृषि पैदावार बेहतर होने के बावजूद आगामी अगस्त-सितम्बर तक महंगाई दर ऊंची बनी रहेगी। साफ है कि महंगाई दर को प्रभावित करने की मौद्रिक नीति की क्षमता अब नि:शेष हो रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो फिर वर्तमान अर्थव्यवस्था की ऐसी कई पेचीदगियां उभरने लगती हैं जिनके जवाब किन्ही के पास नहीं हैं। भूमंडलीकरण से उत्पन्न पेचीदगियों की व्याख्या न परम्परागत दृष्टिकोण से सम्भव है और न उनका निदान ही। अगर बाजार में सामान पर्याप्त उपलब्ध हैं तो फिर महंगाई होनी नहीं चाहिए लेकिन ऐसा हो रहा है। स्पष्ट है कि बाजार को कई ऐसी शक्तियां, ऐसे सिद्धांत प्रभावित कर रहे हैं जिनका नियंतण्रसरकार एवं केन्द्रीय बैंक की सीमा से बाहर हैं। महंगाई पूरी अर्थव्यवस्था पर कितना असर डाल सकती है। इसका खुलासा रिजर्व बैंक ने अपनी ‘वृहत आर्थिक और मौद्रिक घटनाक्रम’ रिपोर्ट में किया है। उसने सबसे पहले 2011-12 की विकास दर को घटाकर 8.2 प्रतिशत कर दिया है। यह सरकार के 9 प्रतिशत तथा पूर्व के अपने ही अनुमान 8.5 प्रतिशत से कम है। रिजर्व बैंक के गवर्नर इसका कारण यूरो क्षेत्र का कर्ज संकट, बढ़ते दाम विशेषकर तेल के उच्च मूल्य एवं अर्थव्यवस्थाओं पर महंगाई के दबावों को मानते हैं। इससे चालू खाते का घाटा भी बढ़ सकता है। फिलहाल, चालू खाते का घाटा 2.5 प्रतिशत तक सीमित रहने का अनुमान है। आगे इसका दारोमदार तेल मूल्यों तथा आयात-निर्यात में अंतर पर निर्भर करता है। इसके अलावा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी, इक्विटी और बांड बाजार में अस्थिरता तथा देश पर बढ़ता विदेशी कर्ज हमारी अर्थव्यवस्था के ऐसे साकार पहलू हैं जो चालू खाते पर घाटा तो बढ़ाएंगे ही पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। जरा व्यापार घाटा तो देखिए। वाणिज्य-उद्योग मंत्रालय के अनुसार 2010-11 में कुल घाटा 104.82 अरब डालर हुआ। माना जा रहा है कि वर्षान्त तक व्यापार घाटा पिछले साल से बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। निर्यात 300 अरब डालर को पार करेगा तो आयात 400 अरब से ऊपर चला जाएगा। ये सारी चुनौतियां हमें साफ शब्दों में आगाह कर रही हैं पर वर्तमान अर्थव्यवस्था के ढांचे में विचार करने वालों को इसका भान नहीं हो सकता। वस्तुत: ये चुनौतियां विकास के नाम पर अत्यधिक उपभोग को प्रोत्साहन, उसके लिए सुलभ कर्ज उपलब्धता, कर्ज एवं उपभोग को सामान्य जीवन शैली मान लेने की प्रेरणा आदि के सम्मिलित परिणाम हैं। जाहिर है, इनका निदान मौद्रिक या अन्य कृत्रिम नीतियों में नहीं, पूरी आर्थिक सोच में परिवर्तन से निकलेगा।


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