महंगाई यूपीए सरकार का सिरदर्द बनी हुई है। लेकिन बहुत पहले उसके आगे घुटने टेक चुकी सरकार को समझ में नहीं आ रहा है कि महंगाई की सुरसा को काबू में कैसे करें। यही कारण है कि उसने अपना हाथ खड़ा करते हुए महंगाई से निपटने का जिम्मा रिजर्व बैंक के हवाले कर दिया है। गोया मौजूदा महंगाई की समस्या केवल मौद्रिक समस्या हो। जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। नतीजा, रिजर्व बैंक पिछले एक साल से महंगाई को काबू में करने के लिए लगातार ब्याज दरों में वृद्धि कर रहा है लेकिन महंगाई बेलगाम बनी हुई है। रिजर्व बैंक के साथ मुश्किल यह है कि वह भी महंगाई को केवल एक मौद्रिक समस्या मानकर उससे निपटने की कोशिश कर रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की तेज महंगाई का सम्बन्ध मौद्रिक नीतियों से अधिक मांग-आपूर्ति, जमाखोरी-मुनाफाखोरी, प्रशासनिक और नीतिगत कारणों से है। यह सही है कि मौजूदा महंगाई के लिए वैश्विक कारण जैसे, जिंसों की कीमतों में उछाल आदि भी जिम्मेदार हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि यूपीए सरकार असली कारणों पर पर्दा डालने के लिए इसे बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है। यही नहीं, सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि महंगाई से निपटने के मुद्दे पर एकदू सरे के साथ सहयोग करने के बजाए केन्द्र और राज्य सरकारें आरोप-प्रत्यारोप में जुटी हुई हैं। नतीजा, आम आदमी खासकर गरीब का कोई पुरसाहाल नहीं है। महंगाई की मार से उसका जीना दूभर होता जा रहा है। असल में, मुद्रास्फीति की ऊं ची दर की समस्या इस समय दुनिया के अधिकांश देशों, खासकर विकासशील देशों की एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है लेकिन मुद्दा यह है कि जहां दुनिया के अधिकांश देश इस चुनौती से निपटने, विशेषकर आम लोगों को राहत देने की ईमानदार कोशिश कर रहे हैं, वहीं भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें बहाने बनाने और आरोप-प्रत्यारोप में लगी हुई हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि महंगाई से राहत दिलाने की जगह केन्द्र और राज्य सरकारें इस या उस बहाने लोगों पर और बोझ डालने में भी संकोच नहीं कर रही हैं। उदाहरण के लिए, अगर यूपीए सरकार के अंदर से छन- छनकर आ रही खबरों पर भरोसा करें तो उसने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी का मन बना लिया है। खबर है कि अगले कु छ दिनों में पेट्रोल की कीमतों में तीन रुपये से छह रुपये प्रति लीटर और डीजल की कीमतों में दो से चार रुपये प्रति लीटर तक की वृद्धि हो सकती है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रस्तावित वृद्धि के विशुद्ध आर्थिक कारण तो समझ में आते हैं लेकिन मौजूदा ऊं ची महंगाई दर को देखते हुए इस फैसले का राजनीतिक-सामाजिक और मानवीय तर्क समझ से बाहर है। सच पूछिए तो मौजूदा परिस्थितियों में जब मुद्रास्फीति की दर 9 फीसद से ऊपर चल रही है और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति भी लगभग 8 फीसद के आसपास है, कोई भी सरकार ऐसा फैसला करने से पहले कई बार सोचेगी। वजह यह है कि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में दस फीसद की वृद्धि भी मुद्रास्फीति की दरों में 0.7 फीसद से लेकर एक फीसद तक की बढ़ोत्तरी कर देती है। ऐसे में, अगर मनमोहन सिंह सरकार तेल कंपनियों के मुनाफे और अपने राजकोषीय घाटे को आम आदमी की जरूरतों और परेशानियों से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं मानती है तो उसे भी इस मुद्दे पर कोई फैसला करने से पहले गंभीरता से विचार करना चाहिए। असल में, मौजूदा स्थितियों में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि एक तरह से आग में घी डालने की तरह होगा। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 115 डालर प्रति बैरल के आसपास पहुंच चुकी हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार के पास और विकल्प नहीं हैं। यह किसे पता नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में लगभग आधा हिस्सा केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए टैक्स का है। लेकिन मुश्किल यह है कि चाहे वह केन्द्र सरकार हो या फिर राज्य सरकारें, दोनों में से कोई भी आमदनी के इस सबसे आसान और महत्वपूर्ण स्रेत को छोड़ना नहीं चाहता है। दोनों ही टैक्स छूट के मामले में जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालकर खुद बचने की कोशिश करती रही हैं। आश्र्चय नहीं कि यूपीए सरकार इस मुद्दे पर एक बार फिर सबसे आसान रास्ता तलाश रही है। लेकिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का फैसला एक मायने में राजनीतिक रूप से अनैतिक भी है। क्या यह सच नहीं है कि केन्द्र सरकार पिछले दो महीनों से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का फैसला इसलिए टाल रही थी क्योंकि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव थे। लेकिन चुनावों में बड़े-बड़े वायदे करने वाली कांग्रेस और उसके गठबंधन के साथी चुनाव खत्म होते ही लोगों को रिटर्न तोहफे के रूप में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का उपहार देने जा रहे हैं। सवाल सिर्फ यही नहीं है बल्कि यह भी है कि क्या कारण है कि एक ओर महंगाई आसमान छू रही है और दूसरी ओर, सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज पड़ा हुआ है। अनाज सड़ रहा है लेकिन सरकार उसे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है। यही नहीं, हालत यह हो गई है कि इस साल गेहूं के रिकार्ड उत्पादन के बाद सरकार उसे खरीदने के लिए बहुत इच्छुक नहीं दिख रही है क्योंकि उसके पास अनाज रखने के लिए जगह नहीं है। मजे की बात यह है कि खाद्य मुद्रास्फीति से निपटने में बुरी तरह नाकाम साबित हुआ कृषि मंत्रालय अब अनाज निर्यात करने की सलाह दे रहा है। यह खाद्य अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की इंतहा है। एक ऐसे देश में जहां पिछले तीन वर्षो से लगातार खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है और उसकी एक बड़ी वजह खुद केन्द्र सरकार का सबसे बड़े जमाखोर में बदल जाना है, वहां अनाज के रिकार्ड भंडार का इस्तेमाल महंगाई से निपटने के बजाय उसे निर्यात करने का सुझाव देना किस हद तक तर्कसंगत है? यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि पहले भी सस्ते में अनाज निर्यात करके बाद में महंगा अनाज आयात करने का खेल होता रहा है। जाहिर है कि यह एक और घोटाला होगा लेकिन इसकी शिकायत किससे करें जब आसमान छूती महंगाई खुद एक बड़ा घोटाला बनती जा रही है।
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