Wednesday, May 25, 2011

भुखमरी का संकट


2050 में नौ अरब लोगों का पेट भरने की चुनौती दुनिया के कृषि विशेषज्ञों के माथे पर बल डाल रही है। हर रोज 2,29,000 लोगों की नई फौज खाने वालों की कतार में शामिल हो रही है। इसी को देखते हुए एग्रोबिजनेस कंपनियां भुखमरी का हौवा खड़ा कर मुनाफा कमाने के अभियान में जुट गई हैं। ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों पर दबाव बना रही हैं कि वे कृषि क्षेत्र में सुधारों को लागू करें। यह ठीक है कि बढ़ती आबादी के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन न होने और सीमित क्रय क्षमता के कारण भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक आज दुनिया का हर छठा व्यक्ति भुखमरी की कगार पर है। लेकिन एफएओ ने हाल ही में एक चौकाने वाली रिपोर्ट भी जारी की है। इसके अनुसार विकसित व विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर भोजन की बर्बादी जारी है। औद्योगिक देश जहां हर साल 67 करोड़ टन भोजन बर्बाद करते हैं वहीं विकासशील देश 63 करोड़ टन। सर्वाधिक बर्बादी फलों, सब्जियों और जड़ वाले आहारों की होती है। खाद्यान्न की कुल बर्बादी विश्व के कुल अनाज उत्पादन (230 करोड़ टन) का आधा होगी। अर्थात हर साल 130 करोड़ टन भोजन बर्बाद होता है। भोजन की बर्बादी औद्योगिक देशों की प्रमुख समस्या है। यूरोप व अमेरिका में प्रति व्यक्ति 95 से 115 किलो भोजन बर्बाद होता है जबकि उप सहारा अफ्रीका और एशियाई देशों में यह बर्बादी मात्र 6 से 11 किलो ही है। जहां विकसित देशों में 40 फीसदी बर्बादी भोजन की थाली में होती है, वहीं विकासशील देशों में सर्वाधिक हानि भंडारण, प्रसंस्करण स्तर पर। बर्बादी रोकने के साथ-साथ खान-पान की आदतों में बदलाव से भी करोड़ों लोगों की भूख शांत की जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी पर्यावरण खाद्य संकट नामक रिपोर्ट के मुताबिक यदि पशुओं को अनाज की जगह पशु चारा खिलाया जाए तो 300 करोड़ अतिरिक्त लोगों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हो सकेगा। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी में करीब इतनी ही वृद्धि होगी। ऐतिहासिक रूप से देखें तो वर्ष 1700 से 1961 तक दुनिया की आबादी में पांच गुना बढ़ोत्तरी हुई और खाद्यान्न की बढ़ी हुई मांग को खेती का रकबा बढ़ाकर पूरा किया गया। 1961 के बाद अब तक जनसंख्या 80 फीसदी बढ़ी है, लेकिन खेती का रकबा महज आठ फीसदी ही बढ़ पाया। इस अंतर की भरपाई प्रति एकड़ पैदावार से बढ़ोत्तरी करके की गई है लेकिन अब बढ़ती आबादी के अनुपात में पैदावार में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। ऐसे में यदि तत्काल कुछ उपाय नहीं किए गए तो खाद्य संकट और महंगाई के मोर्चे पर चुनौतियां बढ़ जाएंगी। दक्षिण अमेरिका, एशिया और अफ्रीका में करोड़ों छोटे किसान ऐसे हैं जो खाद्यान्न उत्पादक होने के बावजूद भूखे लोगों की श्रेणी में आते हैं क्योंकि उन्नत बीज, सिंचाई, मशीनरी, उर्वरक खरीदने की उनकी क्षमता नहीं है। यही वजह है कि उनकी उत्पादकता कम है और वे गरीबी के जाल में उलझे हैं। लेकिन दुनिया भर की सरकारें बड़े किसानों, खेती के औद्योगिकरण, नकदी फसल आदि को बढ़ावा देने पर तुली है जिनमें प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी होती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण विश्व भर में मुख्य फसलों की पैदावार में कमी आई है। फिर उदारीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र में होने वाला निवेश तेजी से घटा। 1970 की तुलना में कृषि उत्पादन में वैश्विक सार्वजनिक निवेश 75 फीसदी तक कम हो गया। हाल के दशकों में विकास रणनीति के केंद्र में ऊंची आर्थिक संवृद्धि दर ही रही। सरकारी स्तर पर यह मान लिया गया कि ऊंची विकास दर की रिसन से भुखमरी, कुपोषण, गरीबी का खात्मा हो जाएगा जबकि हुआ इसका ठीक उल्टा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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