हाल के कुछ महीनों में तेल की कीमतों, खासकर पेट्रोल के दामों में क्रमिक रूप से बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली है। आम जनता जहां बढ़ती महंगाई और अपनी कम होती आय व खर्चो से परेशान है वहीं सरकार सरकारी कोष पर तेल सब्सिडी का ज्यादा बोझ होने का तर्क देकर औसतन हर एक-दो महीनों में तेल के दामों में बढ़ोतरी कर देती है। कुछ दिन हंगामा मचता है, सरकार की तरफ से सफाई आती है, प्रधानमंत्री आर्थिक विकास तेज करने और महंगाई कम करने का आश्वासन देते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है। सवाल है कि क्या वाकई में सरकार तेल सब्सिडी के बोझ से दबी हुई है और उसके पास दामों में बढ़ोतरी के अलावा और दूसरा कोई विकल्प नहीं है? इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या महंगाई का विकास से कोई नाता है और यदि है तो किस तरह का है। पिछले एक-दो दशकों में विकासशील देशों में तेल की खपत व मांग तेजी से बढ़ रही है। इसके उलट तेल के उत्पादन में गिरावट आई है, जिससे वैश्विक बाजार में मांग-आपूर्ति का संतुलन बिगड़ा है। इसमें ओपेक देशों की मुनाफाप्रेरित राजनीति और खींचतान की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इन तमाम कारणों से अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें भी बढ़ रही हैं। भारत अपनी कुल तेल जरूरतों का दो-तिहाई हिस्सा कच्चे तेल के रूप में आयात करता है। जाहिर है सरकार को राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च करना पड़ता है, लेकिन यह इस समस्या का एक पहलू है, जिसकी चर्चा करके और हवाला देकर सरकार खुद के सही होने का तर्क रखती है। भारत में तेल की कीमतें अधिक होने की एक बड़ी वजह तेल पर सरकार की ओर से लगाए जाने वाले कई तरह के कर और उपकर हैं। तेल के आयात से लेकर बिक्री तक के विभिन्न स्तरों पर आम उपभोक्ताओं को सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क, बिक्री कर और विभिन्न राज्यों द्वारा लगाए जाने वाले करों का भुगतान करना होता है। इसके अलावा डिस्ट्रीब्यूटर से लेकर रिटेलर तक के स्तर पर लूटखसोट और मुनाफाखोरी होती है। भारत में पेट्रोल के उत्पादन पर सरकार की ओर से वसूला जाने वाला टैक्स भी दुनिया के किसी भी अन्य देश से ज्यादा है। यह भार अंतत: पेट्रोल की बढ़ती कीमत के रूप में सामने आता है, जिसका भार उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है। इसमें एक बड़ा अंतर्विरोध यह है कि करों की उगाही से मिलने वाला पैसा यानी कर प्राप्ति का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक तेल कंपनियों के घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है। यहां खेल यह होता है कि पहले निजी कंपनियां सरकार पर दबाव बनाकर अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए तेल के दाम बढ़वाती हैं, फिर सरकार सार्वजनिक कंपनियों को निजी कंपनियों के बराबर लाने के नाम पर उन्हें भारी सब्सिडी देती है अथवा ऑयल बांड जारी करती है। साफ है कि पेट्रोल की कीमतें इसलिए नहीं बढ़ाई जातीं, क्योंकि तेल के दाम बढ़ गए होते हैं, बल्कि यह इसलिए होता है ताकि निजी कंपनियों की कमाई का मार्जिन घटने न पाए और उनका मुनाफा दिनोंदिन बढ़ता रहे व सरकार के पास टैक्स के रूप में जनता का अधिक से अधिक पैसा आए। यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया के अन्य देशों में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिरती हैं तो वहां पेट्रोल के दाम घटा दिए जाते हैं, लेकिन भारत में ऐसा कभी नहीं होता। सरकार बजट में हर वर्ष तेल घाटे का भारी-भरकम आंकड़ा प्रस्तुत करती है, लेकिन वह टैक्स प्रणाली के इस अंतर्विरोध को खत्म करने अथवा निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की नीति पर कुछ नहीं कहती, शायद इसलिए कि इन कंपनियों से सरकार को भारी-भरकम चुनावी चंदा जो मिलता है। इस तरह सार्वजनिक व निजी कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने व सरकार को ज्यादा टैक्स देने का बोझ आम उपभोक्ताओं को ही उठाना होता है। इसके अलावा पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों की सबसे ज्यादा मार महंगाई के रूप में पड़ती है। इसका प्रभाव यह होता है कि खर्च बढ़ने से आम व्यक्ति की बचत कम होती जाती है और उसकी क्रय क्षमता कम होती है। इसका दीर्घकालिक प्रभाव समाज के एक बड़े वर्ग या कहें वंचित वर्ग की तरफ से औद्योगिक व अन्य सामानों की मांग में कमी के रूप में सामने आता है। इस तरह देश में गरीबी-अमीरी की असमानता का ग्राफ बढ़ता है और देश में विकास के अवसर महज चंद लोगों तक सिमटने से समग्र देश का संतुलित विकास प्रभावित होता है। अब डीजल, एलपीजी और केरोसिन में दी जा रही सब्सिडी को भी खत्म करने की बात की जा रही है। आखिर जब सेज के लिए 90 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के विरोध के बावजूद दी जा सकती है तो गरीबों को सब्सिडी से मिलने वाला लाभ क्यों खत्म किया जा रहा है? यह ठीक है कि इससे कालाबाजारी खत्म होगी, लेकिन हम इतना तो कर ही सकते हैं कि यह सब करते समय अन्य तमाम पहलुओं पर भी विचार करें और अधिक व्यावहारिक व जनकल्याणकारी नीति को अपनाएं। (लेखक जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)
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