Wednesday, March 14, 2012

हाथ आए कालाधन तो बात बने


कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों परिणाम के मद्देनजर कांग्रेस की असफलता के कारणों की पड़ताल करते हुए स्वीकार किया था कि इसकी एक वजह महंगाई भी हो सकती है। यानी महंगाई ने कांग्रेस की राह में रोड़े अटकाये और त्रस्त जनता ने इसके लिए उसे जिम्मेदार मानते हुए वोट नहीं दिया। सचाई यह है कि आज महंगाई के कारण आम ही नहीं, खास आदमी तक का बजट पूरी तरह गड़बड़ा गया है। यूं मोटे तौर पर भारत की अर्थव्यवस्था को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। यहां एक हिस्सा तो पूरी तरह अमेरिकापरस्त हो चुका है। यानी हमारी करीब पांच करोड़ के आसपास की जनसंख्या आय और संपत्ति के लिहाज से अमेरिकियों जैसी जीवन-शैली जी रही है। करीब बीस-पचीस करोड़ के आसपास की जनसंख्या मध्यवर्गीय है और स्तर के लिहाज से मलयेशिया जैसे मंझोले देशों के लोगों की तरह जीवन यापन कर रही है। बाकी की करीब अस्सी से नब्बे करोड़ की जनसंख्या युगांडा या बांग्लादेश जैसे गरीब मुल्कों की गरीब स्थितियों में गुजर-बसर कर रही है। भारत महादेश के अंदर अति संपन्न, संपन्न और विपन्न जीवन जीने वाली जनता 2012 के बजट के मामले में अपनी-अपनी तरह से सरकार से उम्मीदे लगाये बैठी है। बड़े उद्योगपति इस बजट में सरकार से तमाम तरह के पैकेज और छूट की मांग कर रहे है तो मध्यमवर्गीय लोग जो महंगाई के कारण परेशान है उसी का रोना रो रहे है और उससे निजात पाने के सपने देख रहे है। गरीब हमेशा की तरह यही विलाप कर रहा है कि उसके लिए जिंदगी बसर करना मुश्किल होता जा रहा है। आज के समय में गरीब की जिंदगी बहुत मुश्किल होती जा रही है, इस बात का अंदाज हाल के चुनावों से भी मिलता है। केंद्र सरकार के प्रति आम जन इसे लेकर गहरे गुस्से में है। प्रधानमंत्री वित्तमंत्री बहुत बार बयान दे चुके है कि महंगाई बस कम होने ही वाली है पर महंगाई कभी कम नहीं हुई। फिर इधर तो सरकार के पास शोकेस में दिखाने जैसा कुछ है ही नहीं। एक वक्त टेलीकाम, एवियेशन जैसे उद्योगों को नयी आर्थिक नीति की सफलता के परिणाम के तौर पर चिह्नित किया जाता था पर आज के समय में यह भी सीन नहीं है। टेलीकाम उद्योग जहां बड़े स्तर के राजनीतिक घष्टाचार का बड़ा नमूना बन गया है वहीं एवियेशन कुप्रबंध का जीता-जागता उदाहरण माना जा रहा है। ये दोनों ही उद्योग बजट से बहुत उम्मीदें लगा रहे है। सॉफ्टवेयर उद्योग की हालत पहले से बेहतर है पर अमेरिका से जो खबरें आ रही है, उन्हें देखते हुए यह उम्मीद करना बेमानी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था जल्दी ही अपनी पुरानी स्थिति में आ पाएगी और साफ्टवेयर की हालत सुधर जाएगी। बहरहाल, बजट से इस बार बहुत आस लगाये है उद्योग जगत और सॉफ्टवेयर क्षेत्र को उम्मीद है कि बजट उनके लिए कुछ ठोस करेगा। यूं देखें तो उम्मीद आम पब्लिक को भी बहुत है कि बजट कुछ सस्ताई लेकर आये। यद्यपि तेल, डीजल की सस्ताई बजट के बूते से बाहर की बात है, पर रोटी, कपड़ा और मोबाइल की सस्ताई उसके बूते में दिखती है। तमाम आइटमों पर यदि एक्साइज शुल्क कम कर दिया जाये तो पक्के तौर पर महंगाई कुछ कम हो सकती है। पर इस मुद्दे पर वित्त मंत्री सोच भी पाएंगे, अभी यह मसला साफ नहीं है। वित्तमंत्री बढ़ते घाटे से परेशान है। उन्हें अपनी आय बढ़ानी है। सरकार की आय बढ़ानी हो, तो कर घटाना विकल्प नहीं होता, कर बढ़ाना विकल्प होता है। ऐसे में नयी-नयी सेवाएं सेवा कर के दायरे में आने की आशंका है। कुल मिलाकर जनता की आशंका यही है कि महंगाई बढ़ेगी। एक आशंका यह भी है कि कहीं बजट में ही पेट्रोल डीजल के भाव भी न बढ़ा दिये जाएं क्योंकि पांच विधानसभाओं के चुनाव संपन्न होने के बाद अब सरकार के सामने राजनीतिक मजबूरी जैसा कुछ नहीं है। पर भूलना नहीं चाहिए कि 2014 के चुनाव बहुत ज्यादा दूर नहीं है। महंगाई जिस तरह से बढ़ी है और लोगों में इसे लेकर जिस तरह का गुस्सा है, उसके खिलाफ, हो सकता है 2014 का चुनाव सिर्फ महंगाई और घष्टाचार के इश्यू पर लड़ा जाये। वित्तमंत्री के सामने दिक्कत यह है कि आय के साधन लगातार बढ़ाये जायें यानी करों को बढाया जाये। रेल किराया और दूसरे कर बढ़ाये जायें पर ऐसा करने के लिए जरूरी राजनीतिक स्थितियां मौजूद नहीं हैं। मसला यह भी है कि नयी स्थितियों में ममता बनर्जी क्या आय के नये साधन आसानी से ढूंढने देंगी। हाल के विधानसभा चुनावों के बाद ममता बनर्जी का रु ख ज्यादा आक्रामक हो गया है। ममता बनर्जी बजट के मौके का इस्तेमाल केंद्र सरकार से समर्थन वापसी के लिए भी कर सकती है। ममता बनर्जी फैक्टर करों को बढाने के मामले में बहुत मुश्किलें पेश करेगा, यह साफ दिखता है। उधर हाल में सरकारी कंपनियों के शेयरों को बेचकर कमाई करने का तजुर्बा भी बहुत कारगर नहीं रहा। यानी कुल मिलाकर स्थितियों से साफ यही होता है कि सरकार की कमाई की संभावनाएं मुश्किल हो रही है और खर्च बराबर बढ़ने का सीन बन रहा है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना राजनीतिक तौर पर लाभांश देती है या नहीं, अब यह सवाल भी उठ रहा है। इस पर रकम कम की जा सकती है या नहीं, इस सवाल से जूझना पड़ेगा वित्तमंत्री को। सफल उद्योगों पर कर बढ़ाने का स्कोप ज्यादा नहीं है। हालांकि दो दिन पहले औद्योगिक उत्पादन के जो आंकड़े आये है वह सकारात्मक है। जनवरी, 2012 में औद्योगिक उत्पादन 6.8 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। पिछले सात महीनों में यह बढ़ोत्तरी सर्वाधिक है। पर इसके साथ ही उद्योग जगत मांग कर रहा है कि कर घटाये जाएं। कुल मिलाकर साफ यह होता है कि एक परंपरागत बजट बनाकर अर्थव्यवस्था के सारे तबकों को खुश करना लगातार मुश्किल हो रहा है। वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था संभाले रखने के लिए किसी बड़े आइडिया की जरूरत है। हाल में घष्टाचार एक बड़े मुद्दे के तौर पर उभरा है। हाल के तमाम कांडों ने मौजूदा सरकार की छवि को बहुत प्रभावित किया है। काले धन को बाहर निकालने का कोई उपाय अगर बजट सुझा दे, या काले धन को स्विस बैंकों से लाकर भारत की मुख्यधारा में ला पाये, तो यह इस सरकार के लिए बहुत बड़ी राहत होगी। हाल में अर्थशास्त्री देवकर ने अपने अध्ययन में साफ किया है कि 1948 से 2008 तक भारत से गैर कानूनी सौदों के जरिये करीब 213 अरब डॉलर बाहर गये है। इस रकम की वैल्यू अब करीब 462 अरब डॉलर है। 2008 में यह रकम भारतीय अर्थव्यवस्था की सकल घरेलू उत्पाद की करीब सत्रह प्रतिशत थी। यह बहुत बड़ी रकम है। वित्तमंत्री इस रकम को वापस लाने का इंतजाम अगर कर दें, तो इसके राजनीतिक लाभांश भी उनको मिल सकते है। अभी वर्तमान सरकार दो सबसे बड़ी समस्याओं से जूझ रही है-एक, महंगाई और दूसरा घष्टाचार। महंगाई के मामले में बजट एक हद तक रास्ता दिखा सकता है पर काले धन की वापसी पर बजट बहुत कुछ कर सकता है। यह बड़ा राजनीतिक आइडिया है, आर्थिक आइडिया है। इसे कार्यरूप में कैसे ढाला जाये, यह मौजूदा सरकार को देखना होगा। कुल मिलाकर इस बजट में सामान्य आइडिया से काम नहीं चलेगा। इसके लिए कुछ बड़े आइडिया चाहिए। पर मसला यह है कि राजनीतिक अस्तित्व के संकट से जूझती सरकार कहीं से बड़े आइडिया लाने की स्थिति में है भी या नहीं!

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