आम बजट से वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह से सबको लुभाने की कोशिश की थी, अब उसकी पोल खुलने लगी है। एक फीसदी उत्पाद शुल्क बढ़ाए जाने से 130 चीजों के दाम बढ़ने लगे हैं। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है, उसमें पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली बहुत-सी छोटी चीजें महंगी हो जाएंगी। वित्तमंत्री ने उत्पाद शुल्क की बुनियादी दर को 4 से पांच फीसदी करने की जो घोषणा की है, वह दवाओं से लेकर खाद्य उत्पादों तक ढेर सारे सामानों में महंगाई की आग लगाएगी। उत्पादक बढ़े हुए कर को तत्काल उपभोक्ताओं की जेब पर मढ़ देते हैं। इसलिए उत्पादन के बजाय आय पर कर लगाने की सलाह दी जाती है। खासतौर पर जब महंगाई खेत से निकलकर कारखानों तक पहुंच चुकी हो, तब तो यह नया कराधान जनता को और चोट पहुंचाएगा। आम जनता पर पहले से ही करों का भारी भरकम बोझ है। इस बार के बजट ने इस बोझ को और अधिक बढ़ा दिया है। बजट ने ब्रांडेड रेडीमेड गारमेंट के साथ चादरें, तौलिया, परदे, लुंगी और रुमाल भी महंगा कर दिया है। कपास और धागों की कीमतें बढ़ने से पहले ही महंगाई की मार सह रहे टेक्सटाइल उद्योग के ऊपर अब अलग-अलग स्तरों पर करों का नया और भारी बोझ आ गया है। 10 प्रतिशत के उत्पाद शुल्क से जहां रेडीमेड गारमेंट महंगे हो जाएंगे, वहीं पांच फीसदी के उत्पाद शुल्क से पॉवरलूम का कपड़ा भी अब सस्ता नहीं रह पाएगा। सीमेंट की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ अब मकान बनाना महंगा हो गया है। उत्पाद शुल्क में हुए फेरबदल के कारण भवन निर्माण से जुड़े कच्चे माल महंगे हो रहे हैं। मकान बनाने के लिए प्रमुख कच्चे माल सीमेंट और स्टील के दामों में पिछले दो-तीन महीने से तेज बढ़ोतरी जारी है, जिसे बजट से और ताकत मिलेगी। सीमेंट के दामों में तो अप्रत्याशित तेजी आई है। संसदीय समिति ने भी माना है कि कंपनिया कार्टेल बनाकर सीमेंट के दाम बढ़ा रही हंै, पर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने सीमेंट पर लगने वाले उत्पाद शुल्क की दरों में बदलाव कर इसके दाम और बढ़ाने का रास्ता खोल दिया है। पिछले तीन महीने में सीमेंट की एक बोरी पर 70 से 80 रुपये की बढ़ोतरी हुई है। बजट में उत्पाद शुल्क से समग्र प्रावधानों के बाद इसमें और बीस रुपये तक की बढ़ोतरी की आशंका है। प्रणब मुखर्जी के इस बजट में आम लोगों को जितनी सब्सिडी दी गई है, उसकी करीब चार गुनी रियायत देश की कंपनियां ले जाती हैं। यह रियायत सरकार के उन प्रोत्साहनों का हिस्सा है, जो कर छूट के तौर कंपनियों को दिए जाते हैं। बजट में आम लोगों को 1,53,962 करोड़ रुपये की सब्सिडी की दी गई, जबकि उद्योग जगत को कर और शुल्कों में 4,60,772 करोड़ रुपये की रियायत मिली है। अगर कच्चे तेल, खाद्य तेल व कई तरह के अनाजों और उर्वरक के आयात वगैरह पर कंपनियों को मिली 76,000 करोड़ रुपये की कर राहत को निकाल दिया जाए (जो कि आम लोगों की मदद के पैकेज का हिस्सा है) तो भी उद्योग जगत को 3,84,000 करोड़ रुपये की छूट मिली हुई है। इसके ठीक विपरीत वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी यह आंक रहे हैं कि नए वित्तवर्ष 2011-12 में बजट से दी जाने वाली सब्सिडी घट जाएगी। दूसरी तरफ कंपनियों को कर रियायत का आकार नए वित्तवर्ष में बढ़ जाएगा। कॉरपोरेट जगत को उत्पाद शुल्क में रियायत इसलिए दी जाती है ताकि वह उत्पादों की कीमतें संतुलित रखें। महंगाई पर काबू पाने की अपनी रणनीति के तहत सरकार ने वर्ष 2009-10 के बजट में तमाम उत्पादों को सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में राहत दी थी, लेकिन उसके बाद अभी तक महंगाई की दर काबू में नहीं आई। पिछले वित्त वर्ष के दौरान भारतीय कंपनियों का संयुक्त तौर पर कर बाद मुनाफे में 2335 फीसदी की वृद्धि हुई है। उधर लघु उद्योगों को उत्पाद शुल्क के दायरे में लाने के खिलाफ कांग्रेस ने भी आवाज उठाई है। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी के साथ लघु उद्योगों के प्रतिनिधियों ने उद्योगों को उत्पाद शुल्क के दायरे में लाने के प्रस्ताव को वापस लेने का आग्रह किया है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के अनुसार इन उद्योगों पर उत्पाद शुल्क को पहले की तरह ही वैकल्पिक रखा जाए। इन पर उत्पाद शुल्क अनिवार्य करने से देश भर में फैले लाखों छोटे व मझोले उद्यमियों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो जाएगी। इसीलिए पावरलूम और हैंडलूम सेक्टर की चुनौतियों को देखते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 2004 के बजट में हैंडलूम और पावरलूम सेक्टर को केंद्रीय वैट से मुक्त कर दिया था। हमारे बजट का बहुत बड़ा हिस्सा उस निकम्मी और नकारा नौकरशाही पर खर्च होता है, जो आज इस देश की जनता पर बोझ बन गई है। तमाम आर्थिक सुधारों, राजकोषीय प्रबंधन की रणनीतियों और बढ़ते कंप्यूटरीकरण के बावजूद सरकारी बाबुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यह संख्या साल दर साल बढ़ रही है। आर्थिक सुधार के दौर में महत्वहीन हो चुके मंत्रालय व विभाग भी नए कर्मचारियों की नियुक्ति से परहेज नहीं कर रहे। ताजा आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ दो वर्षो में सरकारी कर्मचारियों की संख्या में लगभग साढ़े छह फीसदी की वृद्धि हुई है। वर्ष 2009-10 के अंत तक में इनकी संख्या 32,24,486 थी। यह मार्च 2012 तक बढ़कर 34,30,843 हो जाएगी। अगले वित्त वर्ष (2011-12) में विभिन्न सरकारी विभागों में 57,879 नई भर्तियां होंगी। संख्या बल बढ़ने के साथ ही सरकार पर इनके वेतन, भत्ते व अन्य व्यय भी उसी रफ्तार से बढ़ेगा। चालू वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान सरकारी कर्मियों के वेतन, भत्ते व अन्य व्यय पर 97,566.39 करोड़ रुपये खर्च हुए। यह राशि अगले वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान 12 फीसदी तक बढ़ जाएगी। इन कर्मियों के यात्रा भत्ते पर ही सरकार 3,295 करोड़ रुपये सालाना खर्च कर रही है। कुल मिलाकर सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते पर एक लाख करोड़ रूपये से अधिक खर्च होता है। बजट अब देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश नहीं करते हैं। यह राजनीतिक दलों के दांवपेच का हथियार बन गए है। जिसका इस्तेमाल राजनेता जनता को रिझाने और भरमाने के लिए करते हैं। देश की अर्थनीति को और अधिक उदार बनाना आवश्यक है। पर यह कार्य सरल नहीं है। इस बारे में पहली बात यह है कि उदारीकरण की क्रिया सिलसिलेवार होनी चाहिए, अचानक बहुत तेजी के साथ नहीं। आज भी आधुनिकीकरण या विस्तार के लिए जो आवेदन दिए जाते हैं, उनमें लालफीताशाही के कारण बहुत देर हो जाती है और कई स्तरों पर नौकरशाही की निष्ठुरता और कठोरता भी देखने को मिलती है। राजनीतिक रूप से निजीकरण भले ही संभव न हो, लेकिन निजी क्षेत्र की नई इकाइयों को उन स्थानों पर जाने और अपना काम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, जो फिलहाल सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। जैसे बैंक, यूटीआइ, बिजली विभाग आदि। स्वदेशी तकनीक के विकास के प्रोत्साहन के बारे में सरकारी नीतियों में सर्वोच्च वरीयता दी जानी चाहिए। यह हमारे जैसे उस देश के लिए, जिसने आत्मनिर्भरता के सिद्धांत को अपना रखा है, बड़ी गंभीर बात है। आज स्वदेशी तकनीक के विकास को वरीयता देने के बदले उसके मार्ग में सरकार रोड़े अटकाती है। पूर्णतया स्वदेशी तकनीक से निर्मित उत्पादों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसे निर्माताओं को जिन्होंने बाजार में ऐसे उत्पाद बिक्री के लिए रखे हैं और जो अपेक्षित मानदंडों की कसौटी पर खरे उतरते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए अनुदान, तैयार उत्पादों पर सीमा शुल्क की छूट और कच्चे मालों के आयात पर रियायत मिलनी चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Wednesday, March 23, 2011
Monday, March 21, 2011
यूनुस का गुनाह
ग्रामीण बैंक हो या कोई और, उसे कायदे-कानून से ही चलना होगा
बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक से उसके संस्थापक मुहम्मद यूनुस की विवादास्पद विदाई पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में तो थी ही, इसने हमारे इस पड़ोसी देश की छवि को भी नुकसान पहुंचाया है। यूनुस ने तीन दशक पहले ग्रामीण बैंक की स्थापना की थी। वह एक ऐसे मुल्क में नोबल पुरस्कार प्राप्त इकलौती शख्सीयत हैं, जिसे ज्यादातर प्राकृतिक दुर्योगों और गरीबी के कारण रेखांकित किया जाता है। फिर ग्रामीण क्षेत्रों की गरीब महिलाओं तक बैंक के जरियेऋण के रूप में छोटी-मोटी राशि पहुंचाने की अवधारणा भी अनूठी है। इसकी जड़ दरअसल एक और नोबेलजयी रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़ी है, जिन्होंने अपनी जमींदारी वाले इलाके में गरीबों को कर्ज मुहैया कराने का सफल प्रयोग किया था-यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे कम लोग जानते हैं।
ग्रामीण बैंक अब कई देशों में सफलता के साथ चलाए जा रहे हैं, जिसका श्रेय यूनुस और उनके उन सहयोगियों को जाता है, जिन्हें उन्होंने प्रशिक्षित किया। विश्व समुदाय और विशेषज्ञों ने इस उपलब्धि के लिए यूनुस की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यूनुस के भारतीय प्रशंसकों में राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा भी शामिल हैं, जो बांग्लादेश में उनकी इस उपलब्धि को देख चुके हैं।
इन मूल बातों को स्वीकारते हुए अब विवाद के कुछ अन्य पहलुओं का परीक्षण करते हैं। अपने अच्छे काम के बावजूद ग्रामीण बैंक 24 से 36 प्रतिशत तक ब्याज वसूलते हैं। वैश्विक सहानुभूति और मीडिया के हंगामे के कारण यह सचाई सही ढंग से लोगों की जानकारी में नहीं आ पाती। ग्रामीण बैंक की ऊंची ब्याज दर का तथ्य सामने लाते ही लोग इसे निहित स्वार्थ बताकर खारिज कर देते हैं।
बांग्लादेश के पड़ोसी पश्चिम बंगाल में तुलनात्मक रूप से ब्याज दर काफी कम है। यहां तक कि बनिया और मारवाड़ी साहूकार भी 24 से 30 प्रतिशत ब्याज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में फैले हुए भारत के सार्वजनिक बैंक मात्र सात प्रतिशत ब्याज वसूलते हैं, हालांकि उनका प्रसार बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक जितना नहीं है। ताजा बजट प्रस्ताव में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सात प्रतिशत ब्याज वाली ऋण योजना का विस्तार करते हुए इसके दायरे में किसानों के साथ मछुआरों को भी शामिल कर लिया है।
दूसरी बात यह कि यूनुस ने बैंक का नियंत्रण अपने और अपने परिवार तक ही सीमित रखा। वह इसके प्रबंध निदेशक थे। ग्रामीण बैंक के बाद उन्होंने दूरसंचार के क्षेत्र में अपने पांव फैलाए-आज ग्रामीण फोन देश का सबसे बड़ा दूरसंचार उपक्रम है। इसके बाद वह बहुराष्ट्रीय ब्रांडों के जूते के व्यापार में कूदने की भी योजना बना रहे थे। हालांकि यह रोजगार सृजन के कारण बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होता, लेकिन यूनुस की इस योजना पर यूरोपीय दानदाता देशों की त्योरियां चढ़ गईं।
नॉर्वे की सरकार के साथ इस मामले में यूनुस का एक विवाद भी हुआ, हालांकि बाद में उसे सुलझा लिया गया था। अलबत्ता पिछले साल नॉर्वे में बनी एक डॉक्यूमेंटरी के बाद यह विवाद फिर भड़क उठा। यूनुस ने इससे इनकार किया कि नॉर्वे से आए किसी फंड से उन्होंने अवैध तरीके से धन निकाले थे। पर मामला उनके पक्ष में गया और नॉर्वे की सरकार भी उनके पक्ष में थी।
लेकिन यहीं से यूनुस के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनका और ग्रामीण बैंक का नाम लिए बिना ही उन्हें ‘खून चूसनेवाला’ कहा। वित्त मंत्री ने औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों तरह से यूनुस को बैंक छोड़ने के लिए कहा। कहते हैं कि यूनुस ने यह तर्क दिया कि उनके हटने से ग्रामीण बैंक खत्म हो जाएगा। कागजी तौर पर वह जाने के लिए सहमत हो गए और अपने उत्तराधिकारी की तलाश में भी जुट गए थे, लेकिन वस्तुत: वह अपने पद से चिपके रहे और अपने पक्ष में अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने में लग गए। यह सवाल उठ सकता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय और खासकर अमेरिका के समर्थन के बिना, जहां उन्होंने पढ़ाई की थी, यूनुस इस हद तक जा भी सकते थे।
ढाका हाई कोर्ट द्वारा बर्खास्तगी को चुनौती देनेवाली उनकी याचिका खारिज कर देने के अगले दिन अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने उनका समर्थन करने की बात कही। अलबत्ता बांग्लादेश के बारे में पश्चिमी शक्तियों द्वारा इस तरह सार्वजनिक राय जाहिर करना नया नहीं है। पिछले साल वहां हुए आम चुनाव के संचालन का श्रेय भी विदेशी सरकारों को ही जाता है। बहरहाल, बांग्लादेश सरकार के ‘अत्याचार’ के विरोध में आयरलैंड की पूर्व राष्ट्रपति मैरी रॉबिनसन के नेतृत्व में फ्रैंड्स ऑफ ग्रामीण का गठन हुआ, जिसमें भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस वर्मा भी हैं।
लेकिन मौजूदा विवाद में इस तथ्य की अनदेखी की जा रही है कि किसी भी देश में बैंक नियम-कानूनों से ही चलते हैं। अपने पड़ोसी देश के तमाम बैंक बांग्लादेश बैंक के अधीन हैं। इस बात का कोई मतलब नहीं कि ग्रामीण बैंक कितना धन विदेशों से उगाहता है या कितने बढ़िया तरीके से काम करता है। महत्व केवल इस बात का है कि वह बांग्लादेश में स्थापित है, लिहाजा उसे उसी देश के नियम-कानूनों के अनुसार चलना चाहिए। वर्तमान विवाद इस बात को लेकर है कि ग्रामीण बैंक में सरकार की हिस्सेदारी कम है। लेकिन कम हिस्सेदारी के बावजूद सरकार को उसकी निगरानी और उस पर नियंत्रण का अधिकार है। नियुक्ति रद्द होने के बावजूद यूनुस का लगातार ऑफिस जाना किसी की समझ में नहीं आता। किसी भी देश में इसे अदालत की अवमानना ही माना जाएगा। मीडिया प्रचार और भावनात्मक उबाल में तथ्यों और कानून की अनदेखी की जा रही है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस विवाद से ग्रामीण बैंक के लाभार्थियों का अहित नहीं होगा।
रोजगार सृजन में अहम हो सकती हैं डायरेक्ट सेलिंग कंपनियां
सरकार ने कहा है कि वर्ष 2022 तक देश में रोजगार के 50 करोड़ नए अवसर पैदा करने के लक्ष्य में डायरेक्ट सेलिंग कंपनियां महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। फिलहाल इस क्षेत्र में काम कर रहे कर्मचारियों में 70 फीसदी महिलाएं हैं। यह उद्योग इस समय 49,400 करोड़ रुपये का है। वर्ष 2013 तक इसके 71,500 करोड़ रुपये होने की उम्मीद है। योजना और संसदीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार ने भारत में डायरेक्ट सेलिंग उद्योग पर शुक्रवार को एक रिपोर्ट जारी की। इसे इक्रियर (आइसीआरआइईआर) और इंडियन सेलिंग एसोसिएशन द्वारा तैयार किया गया है। सीधी बिक्री का समाजिक और आर्थिक प्रभाव :एक प्रोत्साहन नीति की जरूरत रिपोर्ट को जारी करते हुए कुमार ने कहा डायरेक्ट सेलिंग इस क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं को सशक्त कर रहा है। यह क्षेत्र सरकार के लिए 50 करोड़ रोजगार के अवसरों के सृजन के राष्ट्रीय लक्ष्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में अधिक लोगों की जरूरत होती है। इसलिए यह समावेशी विकास और समृद्धि के ऊपर से नीचे की ओर जाने के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में सीधी बिक्री का कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2003 से 2010 के दौरान इसमें 60 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। ऐसे में इस उद्योग की वृद्धि दर को बरकरार रखने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत है। इसके लिए एक अलग मंत्रालय बनाया जाना चाहिए और कानून के जरिए इसकी निगरानी की जानी चाहिए। वर्ष 2001-02 में इस क्षेत्र में दस लाख लोग कार्यरत थे जो वर्ष 2009-10 में 30 लाख हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में डायरेक्ट सेलिंग का वर्गीकरण अभी भी अस्पष्ट है। इसकी परिभाषा स्पष्ट करने की जरूरत है ताकि इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह हो सके। रपट के मुताबिक इस क्षेत्र को 43 प्रतिशत आमदनी प्रथम श्रेणी के शहरों से होती है। मगर कंपनियां अब नए ग्राहकों की खोज में छोटे शहरों और गांवों की ओर रुख कर रही हैं। देश में इस समय एमवे इंडिया, ओरीफ्लेम, टप्परवेयर, एवन ब्यूटी प्रॉडक्ट्स, के-लिंक हेल्थकेयर, 4लाइफ ट्रेडिंग इंडिया, मैक्स न्यूयार्क लाइफ इंश्योरेंस, मोदीकेयर जैसी कंपनियां डायरेक्ट सेलिंग कारोबार में सक्रिय हैं। विश्व स्तर पर सीधी बिक्री क्षेत्र का उदय 20वीं सदी की शुरुआत में हुई लेकिन इसने 1980 के दशक में रफ्तार पकड़ी। वहीं भारत में यह क्षेत्र 1980 के दशक में शुरू हुआ और 1990 में विदेशी कंपनियों के भारत में प्रवेश के साथ इस क्षेत्र में गति आई|
Friday, March 18, 2011
गुलजार होता जॉब मार्केट
यद्यपि देश में नौकरियों और प्लेसमेंट के अवसर बढ़ रहे हैं लेकिन रोजगार बाजार में उभर रही सचाइयों पर भी ध्यान देना होगा। अब भी देश में कुछ ही प्रतिभाशाली युवाओं की मुट्ठी में चमकीले रोजगार हैं और अधिकांश रोजगार रहित हैं। बढ़ रहे कुल रोजगार अवसरों के आधे से अधिक छह स्थानों दिल्ली- एनसीआर, मुंबई, बेंगलुरू, चेन्नई, हैदराबाद औरकोलकाता से संबंधित हैं। गांवों में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत बढ़ रहे रोजगार अवसरों के अलावा अन्य किसी तरह के रोजगार अवसर नहीं बढ़े हैं जयंतीलाल भं डारी विश्लेषण
न दिनों भारतीय जॉब मार्केट चमकता हुआ दिखाई दे रहा है। नई नियुक्तियों के पूर्वानुमान से संबंधित सभी मानव संसाधन रिपोर्ट रोजगार बाजार के गुलजार रहने के संकेत दे रही हैं। कहा जा रहा है कि फिर से देश में 2007 की तरह नौकरियों के वे अच्छे दिन लौट आएंगे जब कंपनियों के लिए अच्छे कर्मचारी और प्रबंधक लगातार ढूंढे जा रहे थे। निश्चित रूप से देश में छलांगें लगाकर बढ़ रही नौकरियों के पीछे तेजी से बढ़ता आर्थिक विकास प्रमुख कारण है। 26 फरवरी को लोकसभा में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि वर्ष 2010-11 में आर्थिक विकास दर 8.6 फीसद रही है। कृषि और इ उद्योग की विकास दर अच्छी रही है। ऐसे में देश के प्रमुख औद्योगिक संगठन एसोचैम का कहना है कि वर्ष 2011 में डेढ़ करोड़ नए रोजगार के अवसर निर्मित होंगे। इनमें 75 फीसद रोजगार व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता से संबंधित होंगे। इंटरनेशनल रिक्रूटमेंट फर्म एटल में प्रकाशित सव्रे में यह बात सामने आई है कि रोजगार के लिहाज से सकारात्मक माहौल होने से भारत में दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में नई नियुक्तियां सबसे अधिक होंगी। इसी तरह मैनपावर इंडिया और नौकरी डॉट कॉम ने 2011 में रोजगार अवसरों से संबंधित अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि मौजूदा साल में देश में नौकरियों की भरमार होगी। रिपोर्ट के मुताबिक सेवा और विनिर्माण क्षेत्र में सबसे ज्यादा मौके होंगे। इसके अलावा देश में वित्त, बैंकिंग, बीमा, रियल एस्टेट, खनन, विनिर्माण और थोक व खुदरा क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर नियुक्तियां होंगी। प्लेसमेंट देने वाली अधिकांश कंपनियों ने नए उत्साह के साथ कैम्पस आने की रणनीति बनाई है। खासतौर से वित्तीय सेवा, बैंकिंग, आईटी, परामर्श, दूरसंचार और फार्मास्युटिकल क्षेत्र की कम्पनियां नई नियुक्यिों के लिए स्कूल- कॉलेजों में कदम बढ़ाते दिख रही हैं। देशिवदेश की कंपनियों ने प्रतिभाओं को लेने के लिए आईआईएम, आईआईटी और मैनजमेंट बिजनेस स्कूल्स में प्लेसमेंट का दौर शुरू कर दिया है। प्लेसमेंट में वेतन के साथ बोनस और हॉलीडे पैकेज दिए जा रहे हैं। वैिक वित्तीय सेवा और कंसल्टिंग कंपनियों के साथ तेजी से बढ़ती भारतीय कंपनियां भी बहुत अच्छे वेतन देती दिख रही हैं। नियुक्तियों की यह आपाधापी केवल बिजनेस स्कूलों और इंजीनियरिंग कॉलेजों में ही नहीं है बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी कई बड़ी कंपनियां पहुंच रही हैं। इस साल प्लेसमेंट में वेतन पैकेज का औसत पिछले वर्ष से 20 से 30 फीसद अधिक दिखाई दे रहा है। वर्ष 2011 में अच्छी नौकरियों की चाह में भारतीय कर्मचारियों द्वारा अपने नियोक्ता बदलने की संभावना भी दुनियाभर में सबसे अधिक रहेगी। 25 देशों से संबंधित वैिक कार्य निगरानी संबंधी अध्ययन में दर्शाया गया है कि बेहतर संभावना के लिए नौकरी बदलने के परिप्रेक्ष्य में भारत के सबसे अधिक 141 अंक हैं। उसके बाद चीन और मैक्सिको का क्रम है। अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि अब भारत में प्रतिभा पलायन या ब्रेन ड्रेन की जगह ब्रेन गेन की रंगत दिखाई दे रही है। आईटी सेक्टर हो या बीपीओ या मेडिकल, सभी में प्रतिभा पलायन का दौर बेहद धीमा हो गया है। करियर के लिए विदेश गए लोग भी बड़ी संख्या में लौटते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि चाहे अमेरिका ने अपने यहां नौकरी के लिए वीजा महंगा और कठिन पण्राली लागल कर दी है और चाहे अमेरिका के कई प्रांतों में आउटसोर्सिग रोकने के प्रयास हो रहे हैं लेकिन वैिक अध्ययन रिपोर्ट्स बता रही हैं कि अब भारतीय युवाओं द्वारा की जा रही आउटसोर्सिग और बढ़ेगी। आईटी और आउटसोर्सिग के बढ़ते महत्व को रेखांकित करने वाली नैस्कॉम की वैिक रिपोर्ट का कहना है कि विकसित देशों के प्रतिबंध के बावजूद भारत में आउटसोर्सिग पर खतरे नहीं हैं। दुनिया का कोई भी देश अपने उद्योग व्यवसाय को किफायती रूप से चलाने के लिए भारत की आउटसोर्सिग इंडस्ट्री को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। दुनिया में भारत आउटसोर्सिग के लिए सबसे सस्ता, सुरक्षित और गुणवत्ता वाला देश है और आईटी के वि बाजार में भारत की साख बनी हुई है। आउटसोर्सिग के क्षेत्र में भारत की प्रगति के पीछे एक कारण यह भी है कि यहां संचार का मजबूत ढांचा कायम हो चुका है। दूरसंचार उद्योग के निजीकरण से नई कंपनियों के अस्तित्व में आने से दूरसंचार की दरों में भारी गिरावट आई है। उच्च कोटि की त्वरित सेवा, आईटी एक्सपर्ट और अंग्रेजी में पारंगत युवाओं की बड़ी संख्या की बदौलत भारत पूरे वि में आउटसोर्सिग क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है। आईटी के ऐसे प्रतिष्ठित आधार पर इस साल भारत का आईटी कारोबार 50 अरब डॉलर का होगा और इसमें दो लाख नए लोगों को रोजगार मिलेगा। पिछले वर्ष आईटी उद्योग में करीब 80 हजार नई नियुक्तियां हुई थीं। यद्यपि देश में नौकरियों और प्लेसमेंट के अवसर बढ़ रहे हैं लेकिन हमें रोजगार बाजार में उभर रही रोजगार सच्चाइयों पर भी ध्यान देना होगा। अब भी देश में कुछ ही प्रतिभाशाली युवाओं की मुट्ठी में चमकीले रोजगार हैं और अधिकांश बेरोजगार हैं। देश में जो कुल रोजगार अवसर बढ़ रहे हैं, उनके आधे से अधिक छह स्थानों दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद और कोलकाता से संबंधित हैं। गांवों में नरेगा के तहत बढ़ रहे रोजगार अवसरों के अलावा अन्य किसी तरह के अवसर नहीं बढ़े हैं। ऐसे में सरकार द्वारा सभी के लिए रोजगार के रणनीतिक प्रयास जरूरी हैं। कम योग्य युवाओं के लिए प्रशिक्षण एवं सेवा क्षेत्र में अवसर खोजने होंगे और उन्हें रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रमों से शिक्षित-प्रशिक्षित करना होगा। ध्यान रहे कि अपने यहां केवल पांच फीसद युवा व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित हैं जबकि दक्षिण कोरिया में 95, जापान में 80, जर्मनी में 70 तथा चीन में 60 फीसद युवा कुशल हैं। गांवों में गरीब, अशिक्षित और अर्धशिक्षित लोगों को कुशल प्रशिक्षण से लैस कर निम्न तकनीकी विनिर्माण में लगाना होगा। 2011-12 के बजट में हायर सेकेंडरी स्कूलों में व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू करने की जो योजना घोषित है, उसकी सफलता देश के सामान्य योग्यता के युवाओं में कौशल प्रशिक्षण बढ़ाएगी। ऐसा होने पर जनसांख्यिकीय बढ़त हासिल करने के साथ दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी वाला भारत कौशल प्रशिक्षण की कमी दूर कर आर्थिक विकास को बहुत ऊंचाई दे सकता है। निश्चित रूप से सदी के दूसरे दशक में जहां देश के करोड़ों विद्यार्थियों को मानव संसाधन में बदलने के लिए शिक्षा संस्थाओं की भूमिका आवश्यक होगी, वहीं नई पीढ़ी को नई आर्थिक दर के लिहाज से अधिक उत्पादकता तथा प्रतिस्पर्धा की दौड़ में आगे बढ़ना होगा। रोजगार बाजार में मानव संसाधन के रूप में चमकने के लिए अच्छी अंग्रेजी, बेहतर उच्चारण, संवाद दक्षता, व्यापक कम्प्यूटर ज्ञान, उच्च गुणवत्ता जैसी विशेषताओं से पूर्ण होकर आगे बढ़ना होगा। रोजगार और नौकरियों के बढ़े अवसर जहां नई पीढ़ी की मुस्कराहट बढ़ाएंगे, वहीं देश के आर्थिक विकास को भी गति देंगे। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
खाद्य सुरक्षा बढ़ाने को बढ़ाएं कृषि निवेश
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) ने खाद्य जिंसों की बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करने के लिए खेतीबाड़ी में निवेश बढ़ाने का आह्वान किया है। संगठन का कहना है कि अंतराष्ट्रीय बाजार इस समय वर्ष 2008 की तरह ऊंची खाद्य जिंस कीमतों का सामना कर रहे हैं। एफएओ के महानिदेशक जैक्स डियॉफ ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि वर्ष 2050 तक पूरी दुनिया की जनसंख्या बढ़कर 9.1 अरब होने का अनुमान है, जो इस समय 6.9 अरब है। इस जनसंख्या की मांग को पूरा करने के लिए वैश्विक खाद्य उत्पादन में 70 प्रतिशत बढ़ोतरी की जरूरत होगी। जबकि विकासशील देशों को इसमें 100 प्रतिशत बढ़ोतरी की जरूरत होगी। डियॉफ ने खेतीबाड़ी के लिए धनी देशों की ओर से दी जाने वाली अधिकारिक विकास सहायता के अनुपात में गिरावट का जिक्र किया। उन्होंने कहा है कि वर्ष 1980 के दौरान इस क्षेत्र के लिए ऐसी कुल सहायता 19 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2006 में महज तीन प्रतिशत रह गई। फिलहाल यह पांच प्रतिशत है। उनका कहना है कि विकासशील देश अपने राष्ट्रीय बजट का केवल पांच प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र को देते हैं। जबकि जीडीपी, निर्यात और भुगतान संतुलन में इसका योगदान कहीं अधिक है। डियाफ ने उदाहरण देते हुए कहा कि संयुक्त अरब अमीरात में खजूर की खेती ने अर्थव्यवस्था में बदलाव ला दिया। इस कार्यक्रम से अमीरात दुनिया में सातवां सबसे बड़ा खजूर उत्पादक बन गया है। अब अमीरात दुनिया भर के खजूर का छह फीसदी उत्पादन करता है|
सुधार की साहसिक कोशिश
सुधारों के दृष्टिकोण से आम बजट से जो सकारात्मक संकेत मिले उन्हें रेखांकित कर रहे हैं लेखक
जबसे वित्त मंत्री ने 2011-12 का बजट पेश किया है, विश्लेषकों के बीच स्टूडियो में न्यूज चैनलों के एंकरों की हां में हां मिलाकर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने की होड़ मची है। बजट पर टिप्पणियां और विश्लेषण पढ़ते-पढ़ते पाठक बोर हो चुके हैं, फिर भी वे नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके दैनिक जीवन पर बजट का क्या प्रभाव पड़ेगा? वित्त मंत्री के प्रस्तावों के अपने जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में आम आदमी जानना-समझना पसंद करता है। इसी के आधार पर वह सामान खरीदने, बचत करने और निवेश करने के बारे में फैसला लेता है। आय व खर्च में बढ़ोतरी या कमी अर्थव्यवस्था की चाल, करों के स्तर और महंगाई आदि पर निर्भर करती हैं। इस परिदृश्य में बजट प्रावधानों के मूल्यांकन से आम आदमी को शायद चीजों को समझने में सहायता मिले। बजट के प्रस्तावों में मुख्य रूप से चार क्षेत्रों पर जोर दिया गया है-राजकोषीय सुदृढ़ीकरण, सुधार (खासकर आर्थिक क्षेत्र में), बुनियादी ढांचे में निवेश को प्रोत्साहन और बेहतर शासन। राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लिए वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे को 4.6 प्रतिशत पर रखने और 2014 तक इसे फिस्कल रेस्पोंसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट (एफआरबीएम) के अनुरूप लाने का खाका पेश किया है। इसके अलावा वित्त मंत्री ने कर की दरों में वृद्धि के बिना ही सरकारी ऋण को 3.4 लाख करोड़ रुपये तक सीमित रखने का प्रस्ताव रखा है। आयकर में न्यूनतम छूट सीमा को बढ़ाने और कॉरपोरेट आय कर के सरजार्च में कटौती से व्यक्तिगत और कॉरपोरेट करदाताओं को हल्की राहत मिली है। अप्रत्यक्ष करों में भी राहत पैकेज के तौर पर उत्पाद और केंद्रीय करों में दी गई छूट को कायम रखा है। इसके अलावा गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) और डायरेक्ट टैक्स कोड (डीटीसी) व्यवस्था को अप्रैल से लागू करने का प्रस्ताव है। शासन में सुधार के लिए इसी साल से सूचना प्रौद्योगिकी को अधिक प्रभावी, व्यापक और गहन बनाया जा रहा है। ऋण को जीडीपी के 56 प्रतिशत तक सीमाबद्ध करने की 13वें वित्त आयोग की सिफारिश से भी काफी कम 46 प्रतिशत तक लाने का प्रस्ताव भी बजट में रखा गया है। राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लक्ष्य की पूर्ति के लिए वित्त मंत्री की अधीरता स्पष्ट नजर आ रही है। राजकोषीय सुदृढ़ीकरण से महंगाई पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। इससे अर्थव्यवस्था में अधिक निवेश को बढ़ावा मिलेगा और जीडीपी दर में वृद्धि होगी। जाहिर है, आमदनी बढ़ने और खर्च कम होने से आम आदमी को फायदा होगा। हालांकि इस लक्ष्य को पूरा कर पाने में संशय है। खर्चो पर अंकुश लगाने के सरकारी प्रयासों पर वाह्य और आंतरिक वातावरण का असर पड़ेगा, खास तौर पर सब्सिडी के रूप में दी जाने वाली राशि से, जिसे कम नहीं किया गया है। वित्तीय सेवा क्षेत्र के सुधारों में बीमा और एलआइसी एक्ट, एसबीआइ एंड सब्सिडरीज एक्ट, आरबीआइ एक्ट, बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट, कंपनीज एक्ट और भारतीय स्टांप एक्ट आदि में संशोधन, पेंशन फंड रेगुलेटेरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी (पीएफआरडीए) को स्वीकृति, ऋण प्रबंधन प्राधिकरण का गठन, सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश जारी रखना और बैंकों का पुनपरूंजीकरण शामिल है। एक महत्वपूर्ण कदम विदेशियों को म्युचुअल फंड योजनाओं में प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति देना है। साथ ही एक छोटा कदम रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के रूप में है। वित्तीय सेवा क्षेत्र में सुधारों से निवेश दर बढ़ेगी। इससे पूंजी निर्माण में वृद्धि होगी और अंतत: इससे आम आदमी की आय में भी बढ़ोतरी होगी। असलियत में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों से वित्त मंत्री ने लंबित मामलों का निपटारा किया है। इस मुद्दे पर प्रमुख विपक्षी दल का समर्थन होने के कारण लगता है कि ये सुधार सिरे चढ़ जाएंगे। वित्तीय व्यवस्था के उपायों से बुनियादी क्षेत्र को लाभ मिलने की उम्मीद है। इसके तहत बजट में बुनियादी ढांचा क्षेत्र में नए क्षेत्रों को शामिल किया गया है। इसके अलावा करमुक्त बांड जारी करना, विदेशियों द्वारा दिए जाने वाले कॉरपोरेट कर की सीमा बढ़ाना और विदेशी निवेश को मिलने वाले लाभांश पर विद्यमान करों की दरें घटाना जैसे उपाय किए गए हैं। वित्त मंत्री ने शहरी और ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए प्रावधान में वृद्धि की है। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, भवन, सड़क और मेट्रो जैसे क्षेत्र शामिल हैं। इस मद में पिछले साल के मुकाबले 23.3 प्रतिशत की वृद्धि करके 2,14,000 करोड़ रुपये आवंटित करने का प्रस्ताव है। इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार से जीडीपी संवृद्धि बढ़ेगी और प्रति व्यक्ति आय में इजाफा होगा। हालांकि इन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण, मजबूत नियामक ढांचे का निर्माण और बड़े स्तर पर वित्तीय व्यवस्था के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बजट खामोश है। सब्सिडी हस्तांतरण की सीधी व्यवस्था, प्रक्रियाओं का सरलीकरण और प्रौद्योगिकी के अधिकाधिक इस्तेमाल से शासन में सुधार के प्रयास किए गए हैं। बेहतर शासन से न केवल लोगों की जेब में अधिक पैसा आएगा, बल्कि उनका जीवन आसान और सुखी भी होगा। हालांकि ऐसी घोषणाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया गया। शासन में सुधार एक कठिन चुनौती है और केवल जबानी जमाखर्च से इसे हासिल नहीं किया जा सकता। इन चारों घटकों के मेल से ही जीडीपी संवृद्धि दर में वृद्धि और लोगों की आय बढ़ाई जा सकती है। इसी से महंगाई पर काबू पाया जा सकता है। हालांकि इन प्रस्तावों की प्रकृति से लगता है कि महंगाई जल्दी कम होने वाली नहीं है। वित्तमंत्री ने भी कहा है कि यह 7 प्रतिशत के आसपास मंडराती रहेगी। दो मूल क्षेत्रों-कृषि और निर्माण में बड़े सुधारों की घोषणा नहीं है। 1991 में सेवा क्षेत्र से भारत ने सुधारों की यात्रा शुरू की थी। दो दशक बाद यह अब भी उसी दिशा में जा रही है। हालांकि भारत जैसे लोकतंत्र में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे आर्थिक मुद्दों पर हावी रहते हैं, लेकिन किसी भी राष्ट्र के जीवन में ऐसी अवस्था भी आती है जब समाज की खुशी और समृद्धि के लिए अर्थव्यवस्था को कमान अपने हाथ में लेनी पड़ती है। फिलहाल भारत उसी अवस्था में है। अगर समाज की बेहतरी के लिए जरूरी कदम उठाने में राजनीतिक साहस की कमी दिखाई देती है तो इससे अगर भारत की सदी पटरी से नहीं उतरेगी तो उसकी गति धीमी जरूर पड़ जाएगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि बजट भाषण और प्रस्ताव सकारात्मकता की पूर्व घोषणा है। हालांकि विधायी कार्यो की गति, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता तथा कथनी और करनी में अंतर पाटने से ही करोड़ों भारतीयों पर इसका पूरा प्रभाव देखने को मिलेगा। (लेखक एलआइसी और सेबी के पूर्व चेयरमैन हैं)
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