आम बजट से वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह से सबको लुभाने की कोशिश की थी, अब उसकी पोल खुलने लगी है। एक फीसदी उत्पाद शुल्क बढ़ाए जाने से 130 चीजों के दाम बढ़ने लगे हैं। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है, उसमें पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली बहुत-सी छोटी चीजें महंगी हो जाएंगी। वित्तमंत्री ने उत्पाद शुल्क की बुनियादी दर को 4 से पांच फीसदी करने की जो घोषणा की है, वह दवाओं से लेकर खाद्य उत्पादों तक ढेर सारे सामानों में महंगाई की आग लगाएगी। उत्पादक बढ़े हुए कर को तत्काल उपभोक्ताओं की जेब पर मढ़ देते हैं। इसलिए उत्पादन के बजाय आय पर कर लगाने की सलाह दी जाती है। खासतौर पर जब महंगाई खेत से निकलकर कारखानों तक पहुंच चुकी हो, तब तो यह नया कराधान जनता को और चोट पहुंचाएगा। आम जनता पर पहले से ही करों का भारी भरकम बोझ है। इस बार के बजट ने इस बोझ को और अधिक बढ़ा दिया है। बजट ने ब्रांडेड रेडीमेड गारमेंट के साथ चादरें, तौलिया, परदे, लुंगी और रुमाल भी महंगा कर दिया है। कपास और धागों की कीमतें बढ़ने से पहले ही महंगाई की मार सह रहे टेक्सटाइल उद्योग के ऊपर अब अलग-अलग स्तरों पर करों का नया और भारी बोझ आ गया है। 10 प्रतिशत के उत्पाद शुल्क से जहां रेडीमेड गारमेंट महंगे हो जाएंगे, वहीं पांच फीसदी के उत्पाद शुल्क से पॉवरलूम का कपड़ा भी अब सस्ता नहीं रह पाएगा। सीमेंट की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ अब मकान बनाना महंगा हो गया है। उत्पाद शुल्क में हुए फेरबदल के कारण भवन निर्माण से जुड़े कच्चे माल महंगे हो रहे हैं। मकान बनाने के लिए प्रमुख कच्चे माल सीमेंट और स्टील के दामों में पिछले दो-तीन महीने से तेज बढ़ोतरी जारी है, जिसे बजट से और ताकत मिलेगी। सीमेंट के दामों में तो अप्रत्याशित तेजी आई है। संसदीय समिति ने भी माना है कि कंपनिया कार्टेल बनाकर सीमेंट के दाम बढ़ा रही हंै, पर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने सीमेंट पर लगने वाले उत्पाद शुल्क की दरों में बदलाव कर इसके दाम और बढ़ाने का रास्ता खोल दिया है। पिछले तीन महीने में सीमेंट की एक बोरी पर 70 से 80 रुपये की बढ़ोतरी हुई है। बजट में उत्पाद शुल्क से समग्र प्रावधानों के बाद इसमें और बीस रुपये तक की बढ़ोतरी की आशंका है। प्रणब मुखर्जी के इस बजट में आम लोगों को जितनी सब्सिडी दी गई है, उसकी करीब चार गुनी रियायत देश की कंपनियां ले जाती हैं। यह रियायत सरकार के उन प्रोत्साहनों का हिस्सा है, जो कर छूट के तौर कंपनियों को दिए जाते हैं। बजट में आम लोगों को 1,53,962 करोड़ रुपये की सब्सिडी की दी गई, जबकि उद्योग जगत को कर और शुल्कों में 4,60,772 करोड़ रुपये की रियायत मिली है। अगर कच्चे तेल, खाद्य तेल व कई तरह के अनाजों और उर्वरक के आयात वगैरह पर कंपनियों को मिली 76,000 करोड़ रुपये की कर राहत को निकाल दिया जाए (जो कि आम लोगों की मदद के पैकेज का हिस्सा है) तो भी उद्योग जगत को 3,84,000 करोड़ रुपये की छूट मिली हुई है। इसके ठीक विपरीत वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी यह आंक रहे हैं कि नए वित्तवर्ष 2011-12 में बजट से दी जाने वाली सब्सिडी घट जाएगी। दूसरी तरफ कंपनियों को कर रियायत का आकार नए वित्तवर्ष में बढ़ जाएगा। कॉरपोरेट जगत को उत्पाद शुल्क में रियायत इसलिए दी जाती है ताकि वह उत्पादों की कीमतें संतुलित रखें। महंगाई पर काबू पाने की अपनी रणनीति के तहत सरकार ने वर्ष 2009-10 के बजट में तमाम उत्पादों को सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में राहत दी थी, लेकिन उसके बाद अभी तक महंगाई की दर काबू में नहीं आई। पिछले वित्त वर्ष के दौरान भारतीय कंपनियों का संयुक्त तौर पर कर बाद मुनाफे में 2335 फीसदी की वृद्धि हुई है। उधर लघु उद्योगों को उत्पाद शुल्क के दायरे में लाने के खिलाफ कांग्रेस ने भी आवाज उठाई है। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी के साथ लघु उद्योगों के प्रतिनिधियों ने उद्योगों को उत्पाद शुल्क के दायरे में लाने के प्रस्ताव को वापस लेने का आग्रह किया है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के अनुसार इन उद्योगों पर उत्पाद शुल्क को पहले की तरह ही वैकल्पिक रखा जाए। इन पर उत्पाद शुल्क अनिवार्य करने से देश भर में फैले लाखों छोटे व मझोले उद्यमियों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो जाएगी। इसीलिए पावरलूम और हैंडलूम सेक्टर की चुनौतियों को देखते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 2004 के बजट में हैंडलूम और पावरलूम सेक्टर को केंद्रीय वैट से मुक्त कर दिया था। हमारे बजट का बहुत बड़ा हिस्सा उस निकम्मी और नकारा नौकरशाही पर खर्च होता है, जो आज इस देश की जनता पर बोझ बन गई है। तमाम आर्थिक सुधारों, राजकोषीय प्रबंधन की रणनीतियों और बढ़ते कंप्यूटरीकरण के बावजूद सरकारी बाबुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। यह संख्या साल दर साल बढ़ रही है। आर्थिक सुधार के दौर में महत्वहीन हो चुके मंत्रालय व विभाग भी नए कर्मचारियों की नियुक्ति से परहेज नहीं कर रहे। ताजा आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ दो वर्षो में सरकारी कर्मचारियों की संख्या में लगभग साढ़े छह फीसदी की वृद्धि हुई है। वर्ष 2009-10 के अंत तक में इनकी संख्या 32,24,486 थी। यह मार्च 2012 तक बढ़कर 34,30,843 हो जाएगी। अगले वित्त वर्ष (2011-12) में विभिन्न सरकारी विभागों में 57,879 नई भर्तियां होंगी। संख्या बल बढ़ने के साथ ही सरकार पर इनके वेतन, भत्ते व अन्य व्यय भी उसी रफ्तार से बढ़ेगा। चालू वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान सरकारी कर्मियों के वेतन, भत्ते व अन्य व्यय पर 97,566.39 करोड़ रुपये खर्च हुए। यह राशि अगले वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान 12 फीसदी तक बढ़ जाएगी। इन कर्मियों के यात्रा भत्ते पर ही सरकार 3,295 करोड़ रुपये सालाना खर्च कर रही है। कुल मिलाकर सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते पर एक लाख करोड़ रूपये से अधिक खर्च होता है। बजट अब देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश नहीं करते हैं। यह राजनीतिक दलों के दांवपेच का हथियार बन गए है। जिसका इस्तेमाल राजनेता जनता को रिझाने और भरमाने के लिए करते हैं। देश की अर्थनीति को और अधिक उदार बनाना आवश्यक है। पर यह कार्य सरल नहीं है। इस बारे में पहली बात यह है कि उदारीकरण की क्रिया सिलसिलेवार होनी चाहिए, अचानक बहुत तेजी के साथ नहीं। आज भी आधुनिकीकरण या विस्तार के लिए जो आवेदन दिए जाते हैं, उनमें लालफीताशाही के कारण बहुत देर हो जाती है और कई स्तरों पर नौकरशाही की निष्ठुरता और कठोरता भी देखने को मिलती है। राजनीतिक रूप से निजीकरण भले ही संभव न हो, लेकिन निजी क्षेत्र की नई इकाइयों को उन स्थानों पर जाने और अपना काम शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, जो फिलहाल सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। जैसे बैंक, यूटीआइ, बिजली विभाग आदि। स्वदेशी तकनीक के विकास के प्रोत्साहन के बारे में सरकारी नीतियों में सर्वोच्च वरीयता दी जानी चाहिए। यह हमारे जैसे उस देश के लिए, जिसने आत्मनिर्भरता के सिद्धांत को अपना रखा है, बड़ी गंभीर बात है। आज स्वदेशी तकनीक के विकास को वरीयता देने के बदले उसके मार्ग में सरकार रोड़े अटकाती है। पूर्णतया स्वदेशी तकनीक से निर्मित उत्पादों के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसे निर्माताओं को जिन्होंने बाजार में ऐसे उत्पाद बिक्री के लिए रखे हैं और जो अपेक्षित मानदंडों की कसौटी पर खरे उतरते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए अनुदान, तैयार उत्पादों पर सीमा शुल्क की छूट और कच्चे मालों के आयात पर रियायत मिलनी चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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