Saturday, January 29, 2011

नहीं थम रही केरोसिन मिलावट

पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट रोकने के मामले में तेल कंपनियों की लापरवाही का ही नतीजा है कि तेल माफियाओं की हिम्मत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। मंगलवार को मालेगांव में अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने की दिनदहाड़े हत्या इसका जीता जागता प्रमाण है। पेट्रोलियम मंत्रालय और सरकारी तेल कंपनियों ने पेट्रो उत्पादों में मिलावट रोकने के लिए यदि गंभीर कोशिश की होती तो ऐसे हादसों को रोका जा सकता था। सूत्रों का कहना है कि तेल उत्पादों में मिलावट रोकने की मुहिम पिछले कुछ वर्षो में काफी सुस्त हो गई है। इसके पीछे मुख्य वजह यह है कि सरकार तेल कंपनियों पर मिलावट रोकने के लिए दबाव नहीं बना पा रही है। तेल कंपनियों का तर्क है कि वे लगभग सभी पेट्रोलियम उत्पाद घाटे पर बेच रही हैं। उन्हें अपनी विस्तार योजनाओं पर भी बहुत ज्यादा राशि खर्च करनी पड़ रही है। ऐसे में उनके पास मिलावट रोकने जैसे कामों के लिए धन नहीं है। इस वजह से ही पेट्रोल, डीजल व केरोसिन की ढुलाई करने वाली तेल कंपनियों के वाहनों में जीपीएस लगाने की योजना धीमी रफ्तार से चल रही है। वर्ष 2005 में दो साल के भीतर तेल कंपनियों के सभी ढुलाई वाहनों में जीपीएस लगाने की योजना बनी थी, लेकिन यह काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। सूत्रों का कहना है कि पिछले पांच वर्षो में पेट्रोल व डीजल की कीमत बढ़ने की वजह से इनमें केरोसिन मिलाने की घटनाएं बढ़ी हैं। पांच वर्ष पहले मुंबई में डीजल 30 रुपये और पेट्रोल 38 रुपये प्रति लीटर के करीब था, जबकि केरोसिन नौ रुपये प्रति लीटर था। अब डीजल 42 रुपये और पेट्रोल 63 रुपये प्रति लीटर के करीब है, जबकि केरोसिन 12.32 रुपये प्रति लीटर है। कीमत में अंतर बढ़ने से केरोसिन मिलाना ज्यादा मुनाफे का धंधा हो गया है। मिलावट रोकने के लिए वर्ष 1993 के बाद से अभी तक पांच बार विभिन्न तरह की मार्कर प्रणाली शुरू की गई। हर बार सरकार का यह दावा रहा है कि इससे मिलावट पूरी तरह से बंद हो जाएगी। मगर नतीजा हमेशा ही उल्टा साबित हुआ। ब्रिटिश कंपनी एंथ्रेक्स के मार्कर का इस्तेमाल वर्ष 2006 में शुरू हुआ। मगर दो साल के भीतर ही इसकी अनुपयोगिता को देखते हुए पेट्रोलियम मंत्रालय को इसे बंद करना पड़ा। अब घरेलू मार्कर की तलाश जारी है। पेट्रोलियम मंत्रालय ने केरोसिन मिलावट की स्थिति जानने के लिए वर्ष 2005 में प्रमुख इकोनॉमिक थिंक टैंक एनसीएईआर से अध्ययन करवाया था। इस रिपोर्ट में बताया गया कि राशन की दुकानों पर बिकने वाला 38 फीसदी केरोसिन बाहर बेच दिया जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा गैरकानूनी मिलावट व बिक्री (50 फीसदी से ज्यादा) बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, झारखंड, पंजाब व उड़ीसा में होती है। वहीं हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में राशन दुकानों के लिए आवंटित 40 फीसदी तक केरोसिन बाहर बेच दिया जाता है।

Wednesday, January 26, 2011

चीनी निर्यात की मांग लेकर राहुल से मिले किसान नेता


चीनी निर्यात जारी रखने और गन्ने का उचित मूल्य दिलाने की मांग को लेकर गन्ना किसानों का एक दल सोमवार को कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी से मिला। ये किसान आने वाले दिनों में गन्ना भुगतान के संकट की आशंका से परेशान हैं। गन्ना किसानों की व्यथा सुनने के बाद राहुल गांधी ने उन्हें समस्या के समाधान का भरोसा दिलाया। चीनी निर्यात से महंगाई बढ़ने की बात भी उन्होंने जोड़ी। किसान नेता भी आज पूरी तैयारी से आए थे। उन्होंने तर्क दिया कि चीनी के वास्तविक उपभोक्ता तो सिर्फ 20 फीसदी हैं। चीनी की बाकी घरेलू खपत बहुराष्ट्रीय कंपनियां करती हैं, जिनमें बड़ी कोल्ड ड्रिंक्स और चाकलेट बनाने वाली कंपनियां शामिल हैं। इन 80 फीसदी के नाम पर थोक उपभोक्ताओं के हित की सरकारी चिंता के कोई मायने नहीं है। किसान नेताओं ने राहुल गांधी को चीनी मांग और उत्पादन के साथ अन्य ब्योरा भी सौंपा। उन्होंने बताया कि गरीब उपभोक्ताओं को राशन दुकानों से रियायती दर पर पहले से ही चीनी उपलब्ध कराई जा रही है। इसके बावजूद निर्यात रोके जाने से घरेलू बाजार में चीनी मूल्य लगातार घट रहे हैं, जिससे किसानों का नुकसान हो रहा है। किसान नेताओं ने पिछले साल चीनी के मूल्य बढ़ने पर गन्ने के बढ़े भाव का भी जिक्र किया। उत्तर प्रदेश गन्ना समितियों के अध्यक्ष नेता अवधेश मिश्र ने बताया कि गन्ना खेती के बारे में राहुल गांधी ने रुचि लेते हुए कम उत्पादकता का सवाल खड़ा किया।

तेल के भुगतान का संकट


लेखक ईरान से आने वाले तेल के भुगतान को लेकर उपजे संकट की तह में जा रहे हैं ……

भारत द्वारा आयातित ईंधन तेल का 16 प्रतिशत ईरान से आता है। ईरान के पास विश्व का दूसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार है। अत: दीर्घकाल में ऊर्जा सुरक्षा के लिए ईरान से सहयोग जरूरी दिखता है, परंतु भारत सरकार विपरीत दिशा में चल रही है। विषय विश्व के वित्तीय ढांचे से जुड़ा हुआ है। 2008 के वित्तीय संकट के पहले संपूर्ण विश्व का व्यापार मुख्यत: अमेरिकी डॉलर में होता था। मसलन भारत को जापान से कंप्यूटर का आयात करना हो तो भारत द्वारा जापानी कंपनी को डॉलर में भुगतान किया जाता था। भारतीय आयातक रुपये जमा कराकर डॉलर खरीदता था। इन डॉलरों को वह जापानी सप्लायर को भेजता था। जापानी सप्लायर इन डॉलरों को बेचकर अपनी मुद्रा येन प्राप्त करता था। इसी प्रकार तेल का भुगतान डॉलर में होता था। इससे अमेरिका को भारी लाभ हो रहा था। मान लीजिए किसी व्यापारी का सप्लायर जिद करता है कि स्टेट बैंक इंडिया के ड्राफ्ट में ही वह भुगतान स्वीकार करेगा। फलस्वरूप व्यापारी स्टेट बैंक में चालू खाता खुलवा लेता है। वह चालू खाते में बड़ी रकम रखता है। उसका चपरासी रोज स्टेट बैंक जाता है अत: व्यापारी ने घरवालों के बचत खाते भी स्टेट बैंक में खुलवा लिए। फिक्स डिपाजिट भी स्टेट बैंक में ही करवा लिए। ये सभी कार्य किसी दूसरे बैंक से भी कराए जा सकते थे, किंतु सहज ही स्टेट बैंक में कराए जाने लगे। इसी प्रकार तेल का भुगतान डॉलर में होने से अमेरिका को भारी लाभ हो रहा था। विश्व के सभी देशों द्वारा भारी मात्रा में रकम को अमेरिकी बैंक में रखा जाता था। विदेशी मुद्रा भंडार भी अमेरिकी सरकार द्वारा जारी ट्रेजरी बांड के रूप में रखा जाता था। अक्सर विकासशील देशों के पास इतनी मात्रा में डॉलर अमेरिकी बैंकों में जमा रखना कठिन हो जाता है। इस समस्या को साधने के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्था एस्केप के सहयोग से एशियन क्लीयरिंग यूनियन की स्थापना की गई। इस संस्था के सदस्य बांग्लादेश, भूटान, भारत, ईरान, नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव, म्यांमार एवं श्रीलंका हैं। इन देशों के बीच आपसी लेन-देन इस क्लीयरिंग यूनियन के माध्यम से होने लगा है। पूर्व में भारत को ईरान से आयातित तेल के भुगतान के लिए न्यूयॉर्क के बैंक के चालू खाते में बड़ी रकम रखनी पड़ती थी। अब यह जरूरी नहीं रह गया है। यह क्लीयरिंग यूनियन उसी तरह काम करता है जैसे किसी भी शहर में बैंक का क्लीयरिंग हाउस काम करता है। गत दिसंबर में रिजर्व बैंक ने ईरान को तेल के पेमेंट एशियन क्लीयरिंग यूनियन के माध्यम से करने पर प्रतिबंध लगा दिया। कराण रिजर्व बैंक ने स्पष्ट नहीं किया है। दूसरे विश्लेषकों एवं मेरा स्वयं का मानना है कि रिजर्व बैंक ने यह कदम अमेरिका के दबाव में उठाया है। क्लीयरिंग यूनियन पर रोक लगाने का एक कारण यह हो सकता है कि इसका मुख्यालय तेहरान में स्थापित है। इस समय अमेरिका ने ईरान को घेरने की मुहिम छेड़ रखी है। अमेरिकी इशारों पर यह निर्णय लिया गया लगता है। इस प्रतिबंध के लगने के बाद ईरान ने तेल का पेमेंट रुपये में लेना स्वीकार किया। मान लीजिए इंडियन ऑयल ने एक बैरल तेल का आयात किया, जिसका मूल्य 95 अमेरिकी डॉलर है। पूर्व में इंडियन ऑयल द्वारा इस रकम की खरीद के लिए 45 रुपये की दर से 4,275 रुपये एशियन क्लीयरिंग यूनियन के खाते में जमा करा दिए जाते थे। ईरान ने प्रस्ताव दिया कि इंडियन ऑयल इन्हीं 4,275 रुपये को ईरान की तेल कंपनी के मुंबई के बैंक के खाते में जमा करा दे। ईरान इस रकम से भारत से दूसरे माल का आयात कर लेगा अथवा दूसरे व्यापारियों को बेच देगा। इंडियन ऑयल पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। डॉलर खरीदने में जो रकम क्षय होती है उससे इंडियन ऑयल बच जाएगा। यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी उत्तम था। इस माध्यम से ईरान को प्रोत्साहन होता कि वह भारत से ज्यादा माल का आयात करे। वर्तमान में भारत 12 अरब डालर का ईरान से आयात करता है, जबकि निर्यात केवल एक अरब डालर का है। निर्यात बढ़ने से यह असंतुलन कम होता, परंतु भारतीय रिजर्व बैंक ने ईरान का यह प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया है। कहा है कि आयात के असंतुलन के कारण रुपये में भुगतान करना उचित नहीं होगा। यह तर्क अमान्य है। रुपये में पेमेंट तो हर हालत में किया ही जाता है। सीधे ईरान को पेमेंट करने से यह असंतुलन कम ही होता। संभव है कि रिजर्व बैंक भारतीय मुद्रा का भंडार ईरान के हाथ में नहीं देना चाहता हो। संभावना बनती है कि भारत द्वारा अदा की गई रकम को ईरान भंडार के रूप में रखे और किसी समय इनका दुरुपयोग भारतीय मुद्रा को तोड़ने के लिए करे। वर्तमान में ऐसा ही भय अमेरिका को चीन के हाथ में पड़े 1400 अरब डॉलर के भंडार से उत्पन्न हो रहा है। मुझे यह भय भी अनुचित लगता है। भारतीय मुद्रा को यदि हम विश्व मुद्रा बनाना चाहते हैं तो रुपये का भंडारण केवल ईरान ही नहीं वरन पाकिस्तान समेत विश्व के तमाम देश करेंगे। अत: ईरान द्वारा संभावित भंडारण को रुपये के विश्व मुद्रा बनने की पहली कड़ी मानना चाहिए। इन लाभ के बावजूद रिजर्व बैंक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। ईरान ने जनवरी माह के तेल के आयात के लिए जर्मनी में स्थापित ईरान के बैंक में यूरो मुद्रा में पेमेंट लेना स्वीकार किया है। इस पूरे प्रकरण के पीछे अमेरिका का दबाव दिखता है। अमेरिका ने बीते समय में प्रमुख यूरोपीय एवं एशियाई बैंकों को ईरान से संबंध कम करने को कहा है। अमेरिका के इस दबाव का एक कारण ईरान का कथित परमाणु कार्यक्रम है। दूसरा कारण आर्थिक है। विश्व तेल व्यापार को डॉलर से हटाने के लिए ईरान द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। अब तक विश्व का अधिकतर व्यापार डॉलर में होता था। इससे अमेरिका को सहज ही भारी रकम मिल जाती थी, परंतु अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने से अमेरिकी डॉलर कमजोर पड़ रहा है। तमाम देश अपने व्यापार एवं मुद्रा भंडार दूसरी मुद्राओं में बदल रहे हैं। वेनेजुएला एवं संयुक्त अरब अमीरात ने भी अपने भंडार को दूसरी मुद्राओं में रखने का निर्णय लिया है। रूस ने तेल के निर्यात का का पेमेंट रूबल में स्वीकार किया है। जापान द्वारा ईरान से आयात किए जा रहे तेल का भुगतान घरेलू मुद्रा येन में किया जा रहा है। इन प्रयासों से अमेरिकी मुद्रा के साथ-साथ अमेरिकी प्रभुत्व खतरे में पड़ रहा है। ईरान को घेरकर अमेरिका द्वारा इन प्रयासों पर विराम लगाने का प्रयास किया जा रहा है। भारत का उपयोग अमेरिका द्वारा इस मुहिम के मोहरे के रूप में किया जा रहा है। हमें सचेत हो जाना चाहिए। ईरान से सहयोग करना चाहिए। अमेरिकी प्रपंच में पड़कर अपनी ऊर्जा सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाना चाहिए। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

प्याज 10 रुपये किलो!


नाशिक, जी हां, यहां की मंडी में प्याज के दाम 10 रुपये प्रति किलो तक आ गए। प्याज खरीदने वालों के लिए यह खबर किसी खुशखबरी से कम नहीं है। नए सीजन में प्याज की आवक बढ़ने और मांग कमजोर रहने की वजह से थोक दामों में यह गिरावट आई। यह अलग बात है कि किसान इस रेट पर अपनी प्याज बेचने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने महाराष्ट्र की लासलगांव, नाशिक जैसी कई मंडियों में होने वाली प्याज की नीलामी का बहिष्कार कर दिया। देश की सबसे बड़ी प्याज मंडी लासलगांव में सोमवार की सुबह इसके थोक दाम भारी गिरावट के साथ 1,000 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गए। नए प्याज की आवक और पाकिस्तान से आयात के चलते भी कीमतों पर यह दबाव बना। नवंबर में बेमौसम बारिश से खराब हुई प्याज की फसल से घाटा खाए किसान इतने कम दाम से नाराज हो गए। उन्होंने अपनी फसल को बेचने के बजाय नीलामी का बहिष्कार करना बेहतर समझा। राज्य की अन्य बड़ी मंडियों में भी यही हाल रहा। दिल्ली स्थित एशिया की सबसे बड़ी मंडी आजादपुर में इस दिन प्याज के भाव दाम 20 से 25 रुपये प्रति किलो के बीच रहे। कुछ दिन पहले यही दाम 50 रुपये किलो तक जा पहुंचे थे। वहीं, इसकी खुदरा कीमत बढ़कर 80 रुपये प्रति किलो तक चली गई थी। खुदरा बाजार में भी इसके दाम घटे हैं, लेकिन यह कमी थोक के मुकाबले कम है। प्याज अब भी खुदरा बाजार में 40-50 रुपये किलो बिक रहा है।

छठे महीने भी घटा लौह अयस्क निर्यात


कर्नाटक द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के असर से लगातार छठे महीने लौह अयस्क का निर्यात प्रभावित रहा। दिसंबर 2010 में इसमें 24.64 फीसदी की कमी आई और यह 96.9 लाख टन रहा। दिसंबर 2009 में 1.29 करोड़ टन लौह अयस्क का निर्यात किया गया था। खनिज निर्यातकों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन मिनरल इंडस्ट्रीज (फिमी) के महासचिव आरके शर्मा ने कहा कि जुलाई में कर्नाटक में लगाए गए प्रतिबंध के कारण उद्योग प्रभावित हो रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि अगले महीने जब सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई होगी तो इसका हल निकल आएगा। उद्योग को उम्मीद है कि कर्नाटक सरकार शीर्ष अदालत के निर्देश के तहत फरवरी के मध्य तक अवैध खनन को रोकने के लिए प्रणाली स्थापित करेगी। पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से अवैध खनन के खिलाफ नए कानून को दो सप्ताह के भीतर अधिसूचित करने या फिर निर्यात के लिए लौह अयस्क के परिवहन की इजाजत देने को कहा था। न्यायालय ने कहा था कि प्रतिबंध लंबे समय तक कायम नहीं रह सकता। इससे पहले कर्नाटक सरकार ने अवैध खनन पर रोक लगाने के मकसद से लौह अयस्क और अन्य खनिजों के राज्य से परिवहन के लिए परमिट जारी करने करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह प्रतिबंध छह महीने के लिए लगाया गया था। यह अवधि 31 जनवरी को समाप्त हो रही है। यह पूछे जाने पर कि उड़ीसा सरकार भी अंतरराज्यीय व्यापार पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है, आरके शर्मा ने कहा कि यह मामला केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आता है। राज्य सरकार ऐसा नहीं कर सकती। उन्होंने कहा कि ऑस्ट्रेलिया में आई बाढ़ के कारण मांग और आपूर्ति में अंतर है। जब तक स्थिति नहीं सुधरती, कीमत चढ़ेगी। ऐसी स्थिति में अगर कर्नाटक सरकार प्रतिबंध नहीं लगाती तो देश को काफी लाभ होता। दिसंबर में समाप्त चालू वित्त वर्ष 2010-11 के नौ महीनों में लौह अयस्क का निर्यात 17.02 फीसदी बढ़कर 6.44 करोड़ टन रहा जो इससे पूर्व वित्त वर्ष की समान अवधि में 7.76 करोड़ टन था। भारत तीसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क निर्यातक देश है। पिछले वित्त वर्ष 2009-10 में 21.8 करोड़ टन लौह अयस्क का उत्पादन किया गया था। देश अपने कुल निर्यात में से 80 फीसदी चीन को भेजता है जो दुनिया का सबसे बड़ा स्टील उत्पादक देश है।

कर संग्रह में लक्ष्य से ज्यादा वृद्धि की उम्मीद


चालू वित्त वर्ष में कर संग्रहण बजटीय लक्ष्य से 37,000 करोड़ रुपए अधिक रहने की उम्मीद है। सरकार ने बजट में कर संग्रह का लक्ष्य 7.45 लाख करोड़ रुपए रखा था। राजस्व सचिव सुनील मित्रा ने सोमवार को यहां संवाददाताओं से कहा, ‘बजट में रखे गए कर राजस्व के लक्ष्य को 7.45 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 7.82 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है।मित्रा ने कहा कि प्रत्यक्ष कर संग्रह के लक्ष्य को 4.30 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 4.46 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है, वहीं अप्रत्यक्ष कर संग्रह के लक्ष्य को 3.15 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 3.36 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है। कर संग्रह के लक्ष्य में बढ़ोतरी ऐसे समय की गई है जब देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में उम्मीद से बेहतर 8.9 प्रतिशत रही है। अनुमानों के अनुसार चालू वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर नौ प्रतिशत रहेगी। इससे पिछले वित्त वर्ष में यह 7.4 प्रतिशत थी। अप्रत्यक्ष कर संग्रह में वृद्धि की एक वजह पिछले साल के बजट में आर्थिक प्रोत्साहनों की आंशिक वापसी भी है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2010-11 के बजट में उत्पाद शुल्क दो प्रतिशत बढ़ाकर दस फीसद कर दिया था। प्रत्यक्ष करों में आयकर, कंपनी कर आते हैं वहीं अप्रत्यक्ष करों में उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क और सेवा कर आते हैं।

प्याज की परतें


इस संकट के लिए सरकार की नीति ही जिम्मेदार है
इस देश में करोड़ों परिवार ऐसे हैं, जिन्हें भोजन में दाल या सब्जी नसीब नहीं होती, इसलिए वे मिर्च और प्याज-लहसुन की चटनी के साथ रोटी खाकर पानी पी लेते हैं। दाल की कीमत ने पिछले दो वर्षों में जो छलांग लगाई, उससे वह गरीबों की थाली से बाहर हो गई। यही हाल सब्जियों, खाद्य तेल और दूध-दही का हुआ। अब प्याज-लहसुन की आसमान छूती कीमतों ने गरीब जनता का आखिरी सहारा भी छीन लिया है। 40 से 75 रुपये किलो केबीच पहुंची प्याज की कीमतों ने अच्छे-अच्छों के आंसू निकाल दिए हैं। पिछले दिनों बिहार की नेपाल सीमा पर स्थित रक्सौल स्टेशन से प्याज की तस्करी पकड़ी गई। कभी सोना-चांदी, विदेशी घड़ियों और कैमरों की तस्करी होती थी, आज प्याज, लहसुन और दालों की तस्करी होने लगी है।
हमारी सरकार ऐसा दिखा रही है, मानो वह प्याज की कीमत नीचे लाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। वह कभी मौसम को, तो कभी जमाखोरों को कोसती है और कभी पाकिस्तान पर तोहमत लगा रही है, जिसने अपनी घरेलू कीमत पर काबू रखने के लिए भारत को प्याज निर्यात पर रोक लगा दी है। किंतु क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है? सच यह है कि पिछले वर्षों के कई खाद्य संकटों की तरह यह संकट भी काफी हद तक उसका बनाया हुआ है।
भारत दुनिया का प्रमुख प्याज उत्पादक और उपभोक्ता देश है। दुनिया में प्याज की खेती का सबसे ज्यादा रकबा यहीं पर है और चीन के बाद प्याज का सर्वाधिक उत्पादन यहीं होता है। सबसे ज्यादा प्याज महाराष्ट्र में पैदा होता है, उसके बाद कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि का नंबर आता है। उत्तर भारत में प्याज की खेती रबी में होती है, जबकि पश्चिम दक्षिण भारत में दोनों सीजन में इसकी फसल होती है। भारत से प्याज का निर्यात भी होता है।
प्याज के मौजूदा अभाव के दौर की शुरुआत 2009 में हुई, जब असामयिक वर्षा के कारण इसकी फसल प्रभावित हुई थी। वर्ष 2008-10 में महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में प्याज उत्पादन 20 से 25 प्रतिशत गिर गया था। प्याज की कीमत तभी बढ़ने लगी थी। वर्ष 2009 केअंतिम तीन महीनों में प्याज के भाव एक साल पहले के मुकाबले 27 से 33 प्रतिशत तक अधिक थे, इसके बावजूद सरकार ने प्याज के निर्यात में कटौती नहीं की। मौजूदा वित्त वर्ष में भी खराब वर्षा के कारण कई जगहों पर प्याज उत्पादन में 30 से 40 प्रतिशत तक की कमी का अंदाज सितंबर-अक्तूबर तक लग गया था। फिर भी इसका निर्यात रोकने या कम करने की कोशिश नहीं हुई। उलटे विगत नवंबर में खाद्य मंत्रालय ने प्याज का निर्यात बढ़ाने केलिए न्यूनतम निर्यात कीमत को घटाने का फैसला किया। नतीजतन प्याज की घरेलू कीमत तेजी से बढ़ने लगी। आखिरकार सरकार को होश आया और उसने प्याज के निर्यात को पूरी तरह से रोकने का फैसला किया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी या कि सारा खेल हो चुका था। दो महीनों में अरबों रुपये भारतीय जनता की जेब से निकलकर बड़े व्यापारियों, सटोरियों, जमाखोरों और शायद कुछ नेताओं-अफसरों की जेब में चले गए थे।
बेशक बारिश और मौसम पर सरकार का नियंत्रण नहीं है, लेकिन बेहतर सिंचाई, नमी संरक्षण और अच्छे बीजों के विकास से स्थिति सुधारी जा सकती थी। फिर निर्यात रोकना तो पूरी तरह सरकार के हाथ में था। इस वित्त वर्ष में भी नवंबर तक 11.59 रुपये प्रति किलो के भाव से विदेशियों को प्याज बेचा गया, जो पिछले वर्ष की औसत निर्यात कीमत 15 रुपये से कम थी। अब हमारी सरकार वही प्याज 34 से 40 रुपये प्रति किलो की दर से आयात कर रही है।
खाद्य प्रबंधन के क्षेत्र में यह अकुशलता कोई नई बात नहीं है। इससे पहले गेहूं और चीनी का भी सस्ता निर्यात-महंगा आयात हो चुका है। कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार की भूमिका हर बार की तरह इस मामले में भी संदेहास्पद रही है। उन्हें प्याज की बढ़ती कीमत से ज्यादा चीनी निर्यात की चिंता थी और एक जनवरी को उनके मंत्रालय ने 50 हजार टन चीनी निर्यात की छूट की घोषणा की। विगत दिसंबर में उन्होंने बयान दिया था कि प्याज की खुदरा कीमत गिरने में तीन सप्ताह लगेंगे। यह बड़े थोक व्यापारियों, सटोरियों और जमाखोरों को मानो इशारा था कि तीन सप्ताह तक और कमा लो! यह संयोग नहीं है कि चीनी और प्याज के उत्पादन व्यापार का बड़ा केंद्र महाराष्ट्र है और केंद्रीय खाद्य मंत्री भी महाराष्ट्र के हैं।
लेकिन मौजूदा स्थिति के लिए अकेले वह दोषी नहीं।काबिल और ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री, उनके वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी, उनके आर्थिक सलाहकार, उनके पहले की सरकारें-सबकी सोच जनता के बुनियादी हितों के खिलाफ जाती है। विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन ने उन्हें निर्यातोन्मुखी विकास की ऐसी गहरी घुट्टी पिला दी है कि वे आंख मूंदकर उसी का जाप करते हैं। देश की जरूरतों की उपेक्षा कर विदेशियों को सस्ते दामों पर माल बेचना मानो उनका धर्म बन गया है।
ऊपर से देश के शासक वर्ग की घोर संवेदनहीनता इसमें जुड़ गई है। करोड़ों-अरबों रुपयों से खेलने वाले इन लोगों के लिए प्याज, लहसुन, चीनी या दाल की बढ़ती कीमतों के कोई मायने नहीं हैं, हां शेयरों की कीमतों में मामूली उतार-चढ़ाव से वे जरूर घबड़ा जाते हैं। क्या केंद्र की सत्ता में बैठे हमारे मान्यवर एक वक्त भी भोजन में बगैर दाल-सब्जी-चटनी के रूखी रोटी या सूखा भात खाकर यह महसूस करेंगे कि उनके राज में आम भारतीय जनता का भोजन कैसा होता जा रहा है!