इस संकट के लिए सरकार की नीति ही जिम्मेदार है
इस देश में करोड़ों परिवार ऐसे हैं, जिन्हें भोजन में दाल या सब्जी नसीब नहीं होती, इसलिए वे मिर्च और प्याज-लहसुन की चटनी के साथ रोटी खाकर पानी पी लेते हैं। दाल की कीमत ने पिछले दो वर्षों में जो छलांग लगाई, उससे वह गरीबों की थाली से बाहर हो गई। यही हाल सब्जियों, खाद्य तेल और दूध-दही का हुआ। अब प्याज-लहसुन की आसमान छूती कीमतों ने गरीब जनता का आखिरी सहारा भी छीन लिया है। 40 से 75 रुपये किलो केबीच पहुंची प्याज की कीमतों ने अच्छे-अच्छों के आंसू निकाल दिए हैं। पिछले दिनों बिहार की नेपाल सीमा पर स्थित रक्सौल स्टेशन से प्याज की तस्करी पकड़ी गई। कभी सोना-चांदी, विदेशी घड़ियों और कैमरों की तस्करी होती थी, आज प्याज, लहसुन और दालों की तस्करी होने लगी है।
हमारी सरकार ऐसा दिखा रही है, मानो वह प्याज की कीमत नीचे लाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। वह कभी मौसम को, तो कभी जमाखोरों को कोसती है और कभी पाकिस्तान पर तोहमत लगा रही है, जिसने अपनी घरेलू कीमत पर काबू रखने के लिए भारत को प्याज निर्यात पर रोक लगा दी है। किंतु क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है? सच यह है कि पिछले वर्षों के कई खाद्य संकटों की तरह यह संकट भी काफी हद तक उसका बनाया हुआ है।
भारत दुनिया का प्रमुख प्याज उत्पादक और उपभोक्ता देश है। दुनिया में प्याज की खेती का सबसे ज्यादा रकबा यहीं पर है और चीन के बाद प्याज का सर्वाधिक उत्पादन यहीं होता है। सबसे ज्यादा प्याज महाराष्ट्र में पैदा होता है, उसके बाद कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि का नंबर आता है। उत्तर भारत में प्याज की खेती रबी में होती है, जबकि पश्चिम व दक्षिण भारत में दोनों सीजन में इसकी फसल होती है। भारत से प्याज का निर्यात भी होता है।
प्याज के मौजूदा अभाव के दौर की शुरुआत 2009 में हुई, जब असामयिक वर्षा के कारण इसकी फसल प्रभावित हुई थी। वर्ष 2008-10 में महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में प्याज उत्पादन 20 से 25 प्रतिशत गिर गया था। प्याज की कीमत तभी बढ़ने लगी थी। वर्ष 2009 केअंतिम तीन महीनों में प्याज के भाव एक साल पहले के मुकाबले 27 से 33 प्रतिशत तक अधिक थे, इसके बावजूद सरकार ने प्याज के निर्यात में कटौती नहीं की। मौजूदा वित्त वर्ष में भी खराब वर्षा के कारण कई जगहों पर प्याज उत्पादन में 30 से 40 प्रतिशत तक की कमी का अंदाज सितंबर-अक्तूबर तक लग गया था। फिर भी इसका निर्यात रोकने या कम करने की कोशिश नहीं हुई। उलटे विगत नवंबर में खाद्य मंत्रालय ने प्याज का निर्यात बढ़ाने केलिए न्यूनतम निर्यात कीमत को घटाने का फैसला किया। नतीजतन प्याज की घरेलू कीमत तेजी से बढ़ने लगी। आखिरकार सरकार को होश आया और उसने प्याज के निर्यात को पूरी तरह से रोकने का फैसला किया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी या कि सारा खेल हो चुका था। दो महीनों में अरबों रुपये भारतीय जनता की जेब से निकलकर बड़े व्यापारियों, सटोरियों, जमाखोरों और शायद कुछ नेताओं-अफसरों की जेब में चले गए थे।
बेशक बारिश और मौसम पर सरकार का नियंत्रण नहीं है, लेकिन बेहतर सिंचाई, नमी संरक्षण और अच्छे बीजों के विकास से स्थिति सुधारी जा सकती थी। फिर निर्यात रोकना तो पूरी तरह सरकार के हाथ में था। इस वित्त वर्ष में भी नवंबर तक 11.59 रुपये प्रति किलो के भाव से विदेशियों को प्याज बेचा गया, जो पिछले वर्ष की औसत निर्यात कीमत 15 रुपये से कम थी। अब हमारी सरकार वही प्याज 34 से 40 रुपये प्रति किलो की दर से आयात कर रही है।
खाद्य प्रबंधन के क्षेत्र में यह अकुशलता कोई नई बात नहीं है। इससे पहले गेहूं और चीनी का भी सस्ता निर्यात-महंगा आयात हो चुका है। कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार की भूमिका हर बार की तरह इस मामले में भी संदेहास्पद रही है। उन्हें प्याज की बढ़ती कीमत से ज्यादा चीनी निर्यात की चिंता थी और एक जनवरी को उनके मंत्रालय ने 50 हजार टन चीनी निर्यात की छूट की घोषणा की। विगत दिसंबर में उन्होंने बयान दिया था कि प्याज की खुदरा कीमत गिरने में तीन सप्ताह लगेंगे। यह बड़े थोक व्यापारियों, सटोरियों और जमाखोरों को मानो इशारा था कि तीन सप्ताह तक और कमा लो! यह संयोग नहीं है कि चीनी और प्याज के उत्पादन व व्यापार का बड़ा केंद्र महाराष्ट्र है और केंद्रीय खाद्य मंत्री भी महाराष्ट्र के हैं।
लेकिन मौजूदा स्थिति के लिए अकेले वह दोषी नहीं।काबिल और ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री, उनके वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी, उनके आर्थिक सलाहकार, उनके पहले की सरकारें-सबकी सोच जनता के बुनियादी हितों के खिलाफ जाती है। विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन ने उन्हें निर्यातोन्मुखी विकास की ऐसी गहरी घुट्टी पिला दी है कि वे आंख मूंदकर उसी का जाप करते हैं। देश की जरूरतों की उपेक्षा कर विदेशियों को सस्ते दामों पर माल बेचना मानो उनका धर्म बन गया है।
ऊपर से देश के शासक वर्ग की घोर संवेदनहीनता इसमें जुड़ गई है। करोड़ों-अरबों रुपयों से खेलने वाले इन लोगों के लिए प्याज, लहसुन, चीनी या दाल की बढ़ती कीमतों के कोई मायने नहीं हैं, हां शेयरों की कीमतों में मामूली उतार-चढ़ाव से वे जरूर घबड़ा जाते हैं। क्या केंद्र की सत्ता में बैठे हमारे मान्यवर एक वक्त भी भोजन में बगैर दाल-सब्जी-चटनी के रूखी रोटी या सूखा भात खाकर यह महसूस करेंगे कि उनके राज में आम भारतीय जनता का भोजन कैसा होता जा रहा है!
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