लेखक ईरान से आने वाले तेल के भुगतान को लेकर उपजे संकट की तह में जा रहे हैं ……
भारत द्वारा आयातित ईंधन तेल का 16 प्रतिशत ईरान से आता है। ईरान के पास विश्व का दूसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार है। अत: दीर्घकाल में ऊर्जा सुरक्षा के लिए ईरान से सहयोग जरूरी दिखता है, परंतु भारत सरकार विपरीत दिशा में चल रही है। विषय विश्व के वित्तीय ढांचे से जुड़ा हुआ है। 2008 के वित्तीय संकट के पहले संपूर्ण विश्व का व्यापार मुख्यत: अमेरिकी डॉलर में होता था। मसलन भारत को जापान से कंप्यूटर का आयात करना हो तो भारत द्वारा जापानी कंपनी को डॉलर में भुगतान किया जाता था। भारतीय आयातक रुपये जमा कराकर डॉलर खरीदता था। इन डॉलरों को वह जापानी सप्लायर को भेजता था। जापानी सप्लायर इन डॉलरों को बेचकर अपनी मुद्रा येन प्राप्त करता था। इसी प्रकार तेल का भुगतान डॉलर में होता था। इससे अमेरिका को भारी लाभ हो रहा था। मान लीजिए किसी व्यापारी का सप्लायर जिद करता है कि स्टेट बैंक इंडिया के ड्राफ्ट में ही वह भुगतान स्वीकार करेगा। फलस्वरूप व्यापारी स्टेट बैंक में चालू खाता खुलवा लेता है। वह चालू खाते में बड़ी रकम रखता है। उसका चपरासी रोज स्टेट बैंक जाता है अत: व्यापारी ने घरवालों के बचत खाते भी स्टेट बैंक में खुलवा लिए। फिक्स डिपाजिट भी स्टेट बैंक में ही करवा लिए। ये सभी कार्य किसी दूसरे बैंक से भी कराए जा सकते थे, किंतु सहज ही स्टेट बैंक में कराए जाने लगे। इसी प्रकार तेल का भुगतान डॉलर में होने से अमेरिका को भारी लाभ हो रहा था। विश्व के सभी देशों द्वारा भारी मात्रा में रकम को अमेरिकी बैंक में रखा जाता था। विदेशी मुद्रा भंडार भी अमेरिकी सरकार द्वारा जारी ट्रेजरी बांड के रूप में रखा जाता था। अक्सर विकासशील देशों के पास इतनी मात्रा में डॉलर अमेरिकी बैंकों में जमा रखना कठिन हो जाता है। इस समस्या को साधने के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्था एस्केप के सहयोग से एशियन क्लीयरिंग यूनियन की स्थापना की गई। इस संस्था के सदस्य बांग्लादेश, भूटान, भारत, ईरान, नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव, म्यांमार एवं श्रीलंका हैं। इन देशों के बीच आपसी लेन-देन इस क्लीयरिंग यूनियन के माध्यम से होने लगा है। पूर्व में भारत को ईरान से आयातित तेल के भुगतान के लिए न्यूयॉर्क के बैंक के चालू खाते में बड़ी रकम रखनी पड़ती थी। अब यह जरूरी नहीं रह गया है। यह क्लीयरिंग यूनियन उसी तरह काम करता है जैसे किसी भी शहर में बैंक का क्लीयरिंग हाउस काम करता है। गत दिसंबर में रिजर्व बैंक ने ईरान को तेल के पेमेंट एशियन क्लीयरिंग यूनियन के माध्यम से करने पर प्रतिबंध लगा दिया। कराण रिजर्व बैंक ने स्पष्ट नहीं किया है। दूसरे विश्लेषकों एवं मेरा स्वयं का मानना है कि रिजर्व बैंक ने यह कदम अमेरिका के दबाव में उठाया है। क्लीयरिंग यूनियन पर रोक लगाने का एक कारण यह हो सकता है कि इसका मुख्यालय तेहरान में स्थापित है। इस समय अमेरिका ने ईरान को घेरने की मुहिम छेड़ रखी है। अमेरिकी इशारों पर यह निर्णय लिया गया लगता है। इस प्रतिबंध के लगने के बाद ईरान ने तेल का पेमेंट रुपये में लेना स्वीकार किया। मान लीजिए इंडियन ऑयल ने एक बैरल तेल का आयात किया, जिसका मूल्य 95 अमेरिकी डॉलर है। पूर्व में इंडियन ऑयल द्वारा इस रकम की खरीद के लिए 45 रुपये की दर से 4,275 रुपये एशियन क्लीयरिंग यूनियन के खाते में जमा करा दिए जाते थे। ईरान ने प्रस्ताव दिया कि इंडियन ऑयल इन्हीं 4,275 रुपये को ईरान की तेल कंपनी के मुंबई के बैंक के खाते में जमा करा दे। ईरान इस रकम से भारत से दूसरे माल का आयात कर लेगा अथवा दूसरे व्यापारियों को बेच देगा। इंडियन ऑयल पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। डॉलर खरीदने में जो रकम क्षय होती है उससे इंडियन ऑयल बच जाएगा। यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी उत्तम था। इस माध्यम से ईरान को प्रोत्साहन होता कि वह भारत से ज्यादा माल का आयात करे। वर्तमान में भारत 12 अरब डालर का ईरान से आयात करता है, जबकि निर्यात केवल एक अरब डालर का है। निर्यात बढ़ने से यह असंतुलन कम होता, परंतु भारतीय रिजर्व बैंक ने ईरान का यह प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया है। कहा है कि आयात के असंतुलन के कारण रुपये में भुगतान करना उचित नहीं होगा। यह तर्क अमान्य है। रुपये में पेमेंट तो हर हालत में किया ही जाता है। सीधे ईरान को पेमेंट करने से यह असंतुलन कम ही होता। संभव है कि रिजर्व बैंक भारतीय मुद्रा का भंडार ईरान के हाथ में नहीं देना चाहता हो। संभावना बनती है कि भारत द्वारा अदा की गई रकम को ईरान भंडार के रूप में रखे और किसी समय इनका दुरुपयोग भारतीय मुद्रा को तोड़ने के लिए करे। वर्तमान में ऐसा ही भय अमेरिका को चीन के हाथ में पड़े 1400 अरब डॉलर के भंडार से उत्पन्न हो रहा है। मुझे यह भय भी अनुचित लगता है। भारतीय मुद्रा को यदि हम विश्व मुद्रा बनाना चाहते हैं तो रुपये का भंडारण केवल ईरान ही नहीं वरन पाकिस्तान समेत विश्व के तमाम देश करेंगे। अत: ईरान द्वारा संभावित भंडारण को रुपये के विश्व मुद्रा बनने की पहली कड़ी मानना चाहिए। इन लाभ के बावजूद रिजर्व बैंक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। ईरान ने जनवरी माह के तेल के आयात के लिए जर्मनी में स्थापित ईरान के बैंक में यूरो मुद्रा में पेमेंट लेना स्वीकार किया है। इस पूरे प्रकरण के पीछे अमेरिका का दबाव दिखता है। अमेरिका ने बीते समय में प्रमुख यूरोपीय एवं एशियाई बैंकों को ईरान से संबंध कम करने को कहा है। अमेरिका के इस दबाव का एक कारण ईरान का कथित परमाणु कार्यक्रम है। दूसरा कारण आर्थिक है। विश्व तेल व्यापार को डॉलर से हटाने के लिए ईरान द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। अब तक विश्व का अधिकतर व्यापार डॉलर में होता था। इससे अमेरिका को सहज ही भारी रकम मिल जाती थी, परंतु अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने से अमेरिकी डॉलर कमजोर पड़ रहा है। तमाम देश अपने व्यापार एवं मुद्रा भंडार दूसरी मुद्राओं में बदल रहे हैं। वेनेजुएला एवं संयुक्त अरब अमीरात ने भी अपने भंडार को दूसरी मुद्राओं में रखने का निर्णय लिया है। रूस ने तेल के निर्यात का का पेमेंट रूबल में स्वीकार किया है। जापान द्वारा ईरान से आयात किए जा रहे तेल का भुगतान घरेलू मुद्रा येन में किया जा रहा है। इन प्रयासों से अमेरिकी मुद्रा के साथ-साथ अमेरिकी प्रभुत्व खतरे में पड़ रहा है। ईरान को घेरकर अमेरिका द्वारा इन प्रयासों पर विराम लगाने का प्रयास किया जा रहा है। भारत का उपयोग अमेरिका द्वारा इस मुहिम के मोहरे के रूप में किया जा रहा है। हमें सचेत हो जाना चाहिए। ईरान से सहयोग करना चाहिए। अमेरिकी प्रपंच में पड़कर अपनी ऊर्जा सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाना चाहिए। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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