Monday, July 11, 2011

शहर में रोना गांव में बरसे सोना


सुरसा राक्षसी की तरह मुंह फाड़ती खाद्य पदार्थो की महंगाई ने शहरों में लोगों के बजट को बुरी तरह बिगाड़ा है। उन्हें तमाम जरूरी चीजों में कटौती करनी पड़ी है। जीवनस्तर की चमक बढ़ाने वाले महंगे साबुन, सुगंधित तेल, ब्रांडेड डियोड्रेंट और परफ्यूम जैसे फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी उत्पाद) के बजट में तो कटौती हुई ही है, कार मोटरसाइकिलों की खरीद भी प्रभावित हुई है। अलबत्ता गांवों में इन चीजों की खपत जोरदार ढंग से बढ़ी है। यहां एफएमसीजी और ऑटोमोबाइल के साथ प्लाज्मा टीवी और वॉशिंग मशीन जैसे महंगे उत्पाद भी खूब खरीदे जा रहे हैं। पिछले साल हुई बंपर फसल और मनरेगा जैसी योजनाओं से गरम ग्रामीण भारतीयों की जेब इसकी अहम वजह हैं। करीब 6.27 लाख गांवों से बने ग्रामीण भारत में देश की 70 प्रतिशत आबादी रहती है। कंपनियों के लिए ये संभावनाओं की खान हैं। उद्योग मंडल एसोचैम की मानें तो 2012 तक गांवों में एफएमसीजी उत्पादों की मांग में 50 प्रतिशत बढ़त की संभावना है, जबकि शहरों में यह 25 प्रतिशत तक सीमित रहेगी। गांवों में साबुन, डिटर्जेट, कोल्ड डिं्रक्स, टूथपेस्ट, बैटरी, बिस्कुट, नमकीन, रिफाइंड तेल और हेयर ऑयल की मांग में सबसे ज्यादा तेजी रहने वाली है। बदलते गांव : हाथ धोने के लिए अब गांव में लोग न राख और मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं और न दांत साफ करने के लिए नीम के दातून का। बाराबंकी (उप्र) में बदलीपुरवा गांव के समृद्ध किसान हरिहर शरण कहते हैं कि पिछले तीन-चार साल में गांवों में तेज बदलाव हुआ है। शायद ही कोई घर हो, जिसमें टीवी न हो। मोबाइल फोन भी हर घर में हैं। शादी में पहले घर की महिलाएं ही खाना बना लिया करती थीं, अब यहां भी कैटरिंग होने लगी है। नहीं रहे गए गुजरे : गांवों के प्रति कंपनियों का नजरिया बदला है। कभी गांवों को गया गुजरा समझने वाली कंपनियों को अब यहीं अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं। हिंदुस्तान यूनीलीवर, आइटीसी, डाबर, गोदरेज, ब्रिटानिया और मारिको जैसे ब्रांडों ने यहां जगह बनाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। टेलीकॉम, रिटेल और ऑटोमोबाइल कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। रेटिंग एजेंसी नीलसन के आंकडों पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश में 40 प्रतिशत फेयरनेस क्रीमों की खपत गांवों में होती है। रेडी-टु-कुक (आरटीसी) खाने को लेकर जहां कंपनियों के लिए शहरों में बढ़ना मुश्किल हो रहा है, वहीं गांवों में उन्हें हाथों हाथ लिया जा रहा है। आरटीसी में गांव का हिस्सा अभी भले 10 प्रतिशत है, लेकिन वर्ष 2010 में इसमें गांवों में 160 प्रतिशत की बढ़त दर्ज हुई। लिप ग्लॉस, नूडल्स, मिल्क पाउडर की भी मांग बढ़ी है। चुनौतियां भी : गांवों में सबसे बड़ी चुनौती नकली उत्पादों को लेकर है। ब्रांडों के नकली उत्पाद से गांव पटे पड़े हैं। बोरोप्सल की जगह बोरूप्लस और फेयर एंड लवली के स्थान पर फास्ट एंड लवली का कब्जा है। गांवों में मूलभूत ढांचा अभी मजबूत नहीं है। इनका विकल्प कंपनियों को खोजना होगा।


अमित शुक्ला, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 10 जुलाई, 2011

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