Monday, February 27, 2012

अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही का समय

आधुनिक अर्थतंत्र की बढ़ती जटिलता के साथ अर्थशास्त्रियों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण और व्यापक होती गई है। ऊंचे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पदों पर आसीन अर्थशास्त्री जो भी निर्णय लेते हैं उनसे करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित होता है। जिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पदों से और संस्थानों से यह अर्थशास्त्री जुड़े होते हैं, उनका इतना दबदबा होता है कि प्राय: उनकी संस्तुतियों व सलाह को सरकारें स्वीकार कर ही लेती हैं। ऊंचे पदों पर आसीन अर्थशास्त्रियों, विशेषकर वित्तीय अर्थशास्त्रियों की शक्ति इस कारण और बढ़ जाती है क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी व्यवस्था बनी हुई है जिसके अन्तर्गत एक ही सोच के अर्थशास्त्रियों के विभिन्न देशों के ऊंचे पदों पर पहुंचने की संभावना बढ़ जाती है। यह सोच मुख्य रूप से निजीकरण, बाजारवाद और भूमंडलीकरण को बढ़ाने वाली सोच है। ऐसी एक ही सोच के अर्थशास्त्रियों की अंतरराष्ट्रीय पदों में अधिक उपस्थिति का एक परिणाम यह सामने आता है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापारिक संस्थानों में पहले कार्य कर चुके अधिकारी विभिन्न देशों के शीर्ष पदों पर आसानी से पहुंच सकते हैं। चूंकि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में प्रतिष्ठा और वेतन-भत्ते काफी आकषर्क होते हैं, अत: विभिन्न देशों के युवा अर्थशास्त्रियों में इन पदों के प्रति होड़ उत्पन्न हो जाती है। वहां जाकर वे एक विशेष विचारधारा में बंधी विशेषज्ञता हासिल करते हैं और फिर देर- सबेर इन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से अपने देश लौटकर किसी ऊंचे पद को इस प्रशिक्षण के अनुसार संभालते हैं। ऐसे अनेक अर्थशास्त्री बड़े कॉरपोरेट के सलाहकार भी बनते हैं। वैसे भी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थानों में काफी दखल है। अपनी इन विविध भूमिकाओं में सामंजस्य बिठाते समय यह संभावना बढ़ जाती है कि इनमें से अनेक अर्थशास्त्री आम लोगों के हितों के अनुरूप कार्य नहीं करते हैं व जनहित को उच्च प्राथमिकता नहीं देते हैं। इसकी एक अभिव्यक्ति यह है कि प्राय: शीर्ष के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों द्वारा सुझाई गई नीतियों की जन-संगठनों द्वारा जम कर आलोचना होती है, खुला विरोध होता है। उदाहरण के लिए अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष व वि बैंक द्वारा बड़े कर्ज देते समय जो शत्रे लगाई जाती हैं, उनकी प्राय: तीखी आलोचना हुई है, इसके बावजूद इन संस्थानों में नियुक्त या यहां से विभिन्न पदों पर भेजे गए विशेषज्ञों का इतना दबदबा होता है कि विभिन्न राष्ट्रीय सरकारें अपने यहां के जनिवरोध को अनदेखा करते हुए भी उनके द्वारा सुझाई नीतियों को स्वीकार ही नहीं करती बल्कि बाकायदा उन्हें लागू भी करती हैं। वैसे तो इन विसंगतियों पर पहले भी ध्यान अकषिर्त किया गया है, पर हाल के समय में अनेक विकसित देशों में गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न होने पर यह मांग अधिक जोरदार ढंग से उठने लगी कि शीर्ष पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों की भूमिका पर खुली बहस हो तथा उनकी जबावदेही सुनिश्चित की जाए। इसके साथ ही यह मांग उठी है कि सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने वाले अर्थशास्त्रियों के यदि उससे जुड़े निजी हित या आय अर्जन के स्रेत हों तो वे उनको घोषित करें। अमेरिका में सीनेट बैंकिंग समिति व सदन की वित्तीय सेवा समिति में 96 प्रस्तुतियों के आधार पर बताया गया है कि इस तरह अपने निजी हितों के बारे में स्वयं जानकारी देने के उदाहरण बहुत कम हैं। वर्ष 2010 में चाल्र्स फगरुसन की डाक्यूमेंट्री इनसाईड जॉबने वित्तीय सेवा उद्योग व अर्थशास्त्रियों के संबंधों पर जनता का ध्यान आकषिर्त किया। इसी समय के आसपास जॉर्ज डीमार्टिनो की पुस्तक द इकोनॉमिस्टस ओथने अर्थशास्त्रिायों में नैतिकता संबंधी मुद्दों की उपेक्षा की आलोचना की। अमेरिका में अर्थशास्त्रियों के प्रमुख संस्थान अमेरिकन इकनॉमिक एसोसिएशनको इस बारे में तीखी आलोचना सहनी पड़ी है कि उसने अपने सदस्यों की नैतिकता का कोई कोड अब तक तैयार नहीं किया। तीन सौ अर्थशास्त्रियों ने इस एसोशिएसन को अर्थशास्त्रियों के लिए एक आचार संहिता बनाने के लिए समिति गठित करने का सुझाव दिया। आलोचना से प्रभावित होकर इस संस्थान ने इस मुद्दे पर एक कार्यदल का गठन किया। हैगनबार्थ और एपस्टीन के एक चर्चित अध्ययन में 19 ऊंची प्रतिष्ठा के अर्थशास्त्रियों के आकलन से पता चला है कि 2005 से 09 के दौरान उनमें से 15 के निजी वित्तीय हित पाए गए। इनमें से अनेक ने सरकारों में व अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में उच्च पद भी प्राप्त किए। इन विभिन्न आलोचनाओं के बीच धनी देशों में यह पूछा जा रहा है कि हाल के आर्थिक संकट के लिए बड़े बहुरराष्ट्रीय बैंकों या सट्टेबाजी की प्रवृत्तियों से जुड़े अर्थशास्त्रियों की संस्तुतियां कहां तक जिम्मेदार थीं। गरीब व विकासशील देशों में भी यह सवाल पूछा जा रहा है कि इन देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों, निजीकरण व बाजारवाद को बढ़ाने वाली नीतियों की संस्तुतियां जिन अर्थशास्त्रियों ने बढ़- चढ़कर कीं, उनके अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थानों से क्या संबंध रहे हैं या उन अकादमिक संस्थानों से कैसे संबंध रहे हैं जहां से इन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में अधिकांश विशेषज्ञ जाते हैं। इस तरह की जांच पड़ताल से यह तथ्य सामने आए हैं कि ऐसे संबंध बहुत उच्च स्तर तक पहुंचते हैं व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों से आने वाले अधिकारी कई बार विकासशील व गरीब देशों में वित्तमंत्री के पद तक व कभी-कभी तो इसके भी ऊपर पहुंचते हैं। इस तरह अंतरराष्ट्रीय वित्त व व्यापार संस्थानों का एजेंडा गरीब व विकासशील देशों पर हावी होने का मैदान तैयार होता है। इन संस्थानों में धनी देशों की व बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गहरी पैठ के बारे में पहले ही बहुत जानकारी उपलब है। इन परिस्थितियों में अर्थशास्त्रियों के कार्य में पारदर्शिता लाने व उनकी जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। अर्थशास्त्रियों के लिए आचार संहिता तैयार करने के लिए आरंभ हुए प्रयास और तेज व व्यापक होने चाहिए। इसके साथ ही इस बारे में पुनर्विचार की जरूरत है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्त व व्यापार संस्थानों से जुड़े रहे अर्थशास्त्रियों ने भूमंडलीकरण, निजीकरण व बाजारवाद का जो एजेंडा दुनिया भर में लादने का प्रयास किया है, उसका औचित्य क्या है। इस बारे में तमाम साक्ष्य उपलब्ध हैं कि जो देश मौजूदा विकास की दौड़ में आगे निकले, वहां सरकार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई पर दूसरी ओर इन तथ्यों को नजर अंदाज कर इन अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न देशों में महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सरकार को हटने को कहा है। इसका खास परिणाम यह हुआ कि नए क्षेत्र बड़ी व बहुराष्ट्रीय निजी कंपनियों के लिए खुले छूटते गए व इस क्षेत्र में पहले से उपलब्ध सरकारी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों व उनकी परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्र की कंपनियों ने सस्ते में हथिया लिया। यह अनुचित नीतियां व लूट इस कारण संभव हुई कि इनके लिए एक सैद्धांतिक आधार तैयार किया गया जिससे बेहद अनुचित नीतियों व निर्णयों का औचित्य सिद्ध किया जा सके। इस सैद्धांतिक आधार को तैयार करने में एक संकीर्ण सोच की विचारधारा व उससे जुड़े विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अत: अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के साथ अनेक देशों को आर्थिक व वित्तीय संकट की ओर ले जाने वाली नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। आज के दौर में दुनिया भर में क्योंकि अर्थव्यवस्था की वैकल्पिक राह खोजने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है इसलिए अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही सुनिश्चित करना भी बहुत जरूरी हो गया है। जिन देशों को पूंजीवाद का गढ़ माना जाता रहा है, वहां आर्थिक संकट तेज होने के बाद विकल्प खोजने की यह बेचैनी देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे देश में भी अर्थशास्त्रियों की जवाबदेही की मांग उठने लगी है। यह एक अनुकूल समय है कि इस मांग को पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से आगे ले जाया जाए। साथ ही इस प्रक्रिया को विकल्पों की तलाश से जोड़ा जाए।

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