Monday, May 28, 2012

कब समझेंगे वैश्विक चुनौतियों का अर्थशास्त्र


यकीनन इस समय भारत के आर्थिक परिदृश्य पर वैश्विक और आंतरिक कारणों से उपजी आर्थिक चुनौतियां उभर रही हैं। ये आर्थिक चुनौतियां वर्ष 2008 में अमेरिका के लीमैन ब्रदर्स से शुरू हुई वैश्विक मंदी की चुनौतियों से भी भयावह हैं। वर्ष 2012 में भारतीय अर्थव्यवस्था को जहां ग्रीस से उठ रही वैश्विक सुस्ती का मुकाबला करना पड़ रहा है, वहीं आर्थिक सुधारों में पीछे रह जाने के कारण आंतरिक आर्थिक मुश्किलों का भी सामना करना पड़ रहा है। दुनिया की ख्यातिप्राप्त क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने भारत की क्रेडिट रेटिंग घटा दी है। हाल ही में 21 मई को देश के प्रमुख औद्योगिक संगठन एसोचैम ने शोध अध्ययन आधारित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनियाभर में कई अर्थव्यवस्थाएं कर्ज संकट के चलते डूबने की कगार पर हैं। ऐसे में भारत को सावरेन वेल्थ फंड गठित करने जैसे विभिन्न प्रयासों से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने की जरूरत है। इससे घरेलू अर्थव्यवस्था को काफी मदद मिलेगी। विश्व के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और इनवेस्टमेंट बैंकर जिम ओ नील का कहना है कि ब्रिक्स देशों यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर सबसे ज्यादा निराश भारत ने किया है। विकास के नीतिगत मोर्चो पर आर्थिक फैसले लेने में भारत ने तत्परता नहीं दिखाई है। अर्थ का अनर्थ होता गया निश्चित रूप से पिछले तीन साल के दौरान केंद्र की गठबंधन सरकार में आर्थिक सुधारों के सवाल पर एक ठहराव देखने को मिला है। दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों को लागू करने में सरकार के कदम धीमे रहे हैं। इंश्योरेंस, पेंशन और दूसरे वित्तीय सुधारों पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ी। घरेलू बाजार में ब्याज की ऊंची दरों की वजह से औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आई। निवेश और विस्तार रुक गया। कोयले और गैस की सप्लाई में कमी होने से ऊर्जा सेक्टर को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पूंजी निवेश में गिरावट आई। इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में निवेश की कोई बेहतर नीति नहीं रही। वित्तीय बाजारों में सुधारों के कानूनों को लागू करने में सरकार पीछे रह गई। राजकोषीय घाटे का आकार भी बढ़ता गया। विनिवेश के मोर्चे पर भी सरकार की रणनीति सफल नहीं दिखी। कृषि सुधारों में कोई नयापन देखने को नहीं मिला। जीएसटी पर सहमति नहीं बन पाई। रिटेल में एफडीआइ का बिल पारित नहीं हो सका। इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में सरकार ने कुछ टैक्स फ्री बॉन्ड लाने का जो कदम उठाया, उससे कोई खास लाभ नहीं हुआ। सरकार द्वारा कोयला सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रपति का आदेश लाया गया। खनन नीति पर कोई स्पष्ट फैसला नहीं हो सका। स्थिति यह बनी कि ऐसी नीतिगत विफलताओं की वजह से विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास कम हुआ। हालांकि टेलीकॉम क्रांति भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है, लेकिन सरकार के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जद में आने के बाद टेलीकॉम क्रांति का फायदा नहीं उठाया जा सका। बड़े-बड़े घोटालों में नौकरशाहों और कॉरपोरेट घराने के लोगों के अदालत में पहुंच जाने के बाद नौकरशाही कोई भी बड़ी परियोजना को हाथ में लेने से घबराती रही। स्थिति यह है कि कारगर आर्थिक कदमों के अभाव में महंगाई में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन की नकारात्मक दर दिखाई दे रही है। निस्संदेह देश के करोड़ों लोगों की आर्थिक मुश्किलें महंगाई ने बढ़ा दी है। करीब छह महीने तक शांत रहने के बाद मई 2012 में खाद्य महंगाई दर 10 फीसदी के आंकडे़ को पार कर गई। यह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में डेढ़ गुना अधिक है। बाजार में महंगाई की आग फिर से भड़कने लगी है। खाने-पीने की चीजों खासकर फल, दूध और सब्जियों की कीमतों में भारी वृद्धि ने महंगाई दर को बढ़ाया है। इसी तरह देश के शेयर बाजारों में कठिन दौर जारी है और निकट भविष्य में बाजार सुधरने की संभावना कम है। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का सेंसेक्स और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी गिरावट के साथ निराशाजनक स्थिति में है। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) और देशी निवेशक भी घबराहट में शेयर बाजार से अपना धन निकाल रहे हैं। देश का विदेश व्यापार परिदृश्य भी चुनौतियों के संकेत दे रहा है। नवीनतम आंकड़े बता रहे हैं कि भारत का विदेश व्यापार घाटा तेजी से बढ़ते हुए चिंताजनक रूप लेता जा रहा है। वस्तुत: वर्ष 2010-11 में भारत का विदेश व्यापार घाटा 132 अरब डॉलर के स्तर पर था, जो वर्ष 2011-12 के दौरान 184 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है। यही नहीं, वित्त वर्ष 2012-13 भारतीय निर्यातकों के लिए अपेक्षाकृत अधिक चुनौती वाला होगा। बढ़ता आयात, गिरता रुपया देश की आगे बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के साथ आयात की जरूरत बढ़ती जा रही है। देश में जिस तेजी से तेल का आयात बढ़ रहा है, उसके कारण भारत का तेल आयात खर्च चिंताजनक संकेत दे रहा है। भारत में तेल की खपत का तीन चौथाई तेल आयात किया जाता है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है। केवल तेल ही नहीं, बल्कि बीते सालों के दौरान दूसरी चीजों के आयात में भी तेजी दर्ज की गई है। इतना ही नहीं, इन दिनों डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चिंता बन गई है। 23 मई को भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले अब तक की सबसे बड़ी गिरावट के साथ दिखाई दिया। एक डॉलर की कीमत 56 रुपये को भी पार कर गई। ऐसी मुश्किल भरी आर्थिक चुनौतियों का सामना हम तभी कर पाएंगे, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे और आर्थिक सुधारों के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। अब सरकार को विनिवेश प्रक्रिया में तेजी लानी होगी। खासतौर से सार्वजनिक उपक्रमों में सरकारी हिस्सा खरीदने के लिए बैंकों, एलआइसी एवं विभिन्न सरकारी संस्थानों को आगे बढ़ाना होगा। सरकार को आर्थिक सुधार की दिशा में आगे बढ़ते हुए पेंशन सुधार, कंपनी विधेयक, वित्त एवं अन्य क्षेत्रों में सुधारों के लिए निर्णायक स्थिति में पहुंचना होगा तथा कर सुधारों को लागू करना होगा। कर कानून में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम प्रत्यक्ष कर संहिता भी है। इसे वर्ष 2012 में लागू करने के पुरजोर प्रयास होने चाहिए। इसी तरह सरकार द्वारा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून भी लागू कराने के कारगर प्रयास होने चाहिए। समस्या है तो समाधान भी विभिन्न आर्थिक कारणों से अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत देश के कारोबार और बाजार के लिए घातक सिद्ध हो रही है। अर्थव्यवस्था में बढ़ रही मुश्किलों को रोकने के लिए हमें कई कदम उठाने होंगे। हमें औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना होगा। एफडीआइ बढ़ाने के प्रयास करने होंगे। बढ़ते हुए विदेश व्यापार घाटे को कम करना होगा। सोने के आयात को नियंत्रित करना होगा। पेट्रोलियम उत्पादों पर वांछनीय रूप से सब्सिडी कम करनी होगी। जहां एक ओर मंदी की चुनौतियों के बीच भी निर्यात बढ़ाने होंगे, वहीं दूसरी ओर आयात को नियंत्रित करने की रणनीति बनानी होगी। यह जरूरी होगा कि रुपये की मजबूती के लिए आर्थिक सुधारों को गति दी जाए। क्या हम आशा करें कि सरकार अब आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर गंभीर होकर खासतौर से इन्फ्रास्ट्रक्चर सब्सिडी, राजकोषीय घाटे और निवेश के मुद्दे पर नए सिरे से कदम उठाकर देश की आर्थिक तस्वीर को संवारेगी? निस्संदेह हमें इस समय सबसे अधिक कर्ज में डूबे अर्थव्यवस्था वाले यूरोजोन के देश ग्रीस के प्रधानमंत्री लुकास की यह बात याद रखनी होगी कि यदि ग्रीस में उपयुक्त रूप से लोकलुभावन योजनाओं को नियंत्रित किया जाता और घोटालों को रोका जाता तो आज ग्रीस को आर्थिक बदहाली का सामना नहीं करना पड़ता। भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में भी ऐसे ही कठोर कदमों के अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

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