Wednesday, May 23, 2012

रुपये की टूट के पीछे

डॉलर के मुकाबले रुपये के 55 रुपये से ऊपर तक टूटने ने सरकार की नींद हराम कर दी है। वैसे यह सब अचानक नहीं हुआ है। अर्थ मामलों के जानकार इसकी आशंका पहले से जता रहे थे। फिर एक स्थिति यह भी है कि मौद्रिक असंतुलन को बड़ा खतरा मानने को लेकर देश में एक बड़ी बहस भी छिड़ गई है। कुछ जानकार तो रुपए की हैसियत तय करने वाली प्रक्रिया को ही पारदर्शी नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक रुपये को अस्वाभाविक रूप से मजबूती देने की नीति से बाजार और अर्थव्यवस्था को बुनियादी आधारों पर सशक्त और टिकाऊ बनाने में बाधा पैदा होती है। फिर यह भी समझ लेना कि चूंकि रुपया टूटा है, इसलिए आयात महंगा होगा और इससे महंगाई बढ़ेगी, एकतरफा व्याख्या है। आज भारत बड़ा निर्यातक देश भी है और देश के आईटी सेक्टर की ग्रोथ तो तकरीबन विदेशी मुद्रा पर टिकी है। फिर अंदरुनी तौर पर भी देश में उत्पादन और खपत का एक प्रतियोगी बाजार तंत्र विकसित हो चुका है, जो काफी हद तक स्वावलंबी है। ऐसे में चौतरफा निराशा की बात सही नहीं है। अगर तेल निर्भरता की बात छोड़ दें तो रुपये का ऐतिहासिक रूप से टूटना कुछ बड़ी संभावनाओं के द्वार भी खोल सकता है। मसलन मेडिकल और टूरिज्म के क्षेत्र में हम बड़े डग भर सकते हैं। यहां एक और बात समझने की है। आज पूरी दुनिया की इकोनमी एकदू सरे से गहरे जुड़ी है। ऐसे में इस समय जो वैिक आर्थिक सूरते हाल है, उसमें भारत के लिए खतरे के कुछ संकेत जरूर हैं। लिहाजा मौद्रिक असंतुलन के पीछे एक कारण यह वैिक परिदृश्य भी निश्चित रूप से है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष से लेकर वित्तमंत्री तक यह बात कह चुके हैं। ग्रीस संकट के बाद से यूरोपीय बैंक भारतीय कंपनियों को कर्ज देने में हाथ खींच रहे हैं। इससे डॉलर के आवक का एक बड़ा जरिया तंग पड़ गया है। फिर देश में आर्थिक सुधारों की गति सुस्त पड़ने से विदेशी पूंजी निवेश की राह में चहल-पहल पहले की तरह नहीं रह गई है। यह सब मिलकर बाजार और उद्यम जगत को मनोवैज्ञानिक रूप से हताश कर रहे हैं। घबराहट में कुछ भारतीय कंपनियां बड़ी मात्रा में डॉलर की खरीद में भी जुट गई हैं। एक चिंता यह भी है देश में चालू खाते का घाटा काफी बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में बहुत कुछ दारोमदार सरकार पर है कि वह अपने कुछ फैसलों से कारोबार जगत से लेकर आम आदमी के बीच भरोसा पैदा करे। पर सरकार की कठिनाई यह है कि वह निशाने पर तो हर तरफ से है पर उसके कुछ करने की सूरत बहुत साफ नहीं है। कौशिक बसु से लेकर प्रणव मुखर्जी और कुछ मौकों पर तो प्रधानमंत्री भी सरकार की आंकिक कमजोरी का रोना रो चुके हैं, जिसके कारण सरकार की नीतिगत अस्पष्टता और बड़े सुधारवादी फैसले लेने में बार-बार हिचक नजर आती है। कॉरपोरेट जगत ने तो बहुत पहले इस सरकार को नीतिगत लकवे का शिकार बता दिया था। पर यह परेशानी अकेली यूपीए सरकार की है, ऐसा समझना ठीक नहीं होगा। अभी देश में जो एक गैरजवाबदेह राजनीतिक संस्कृति विकसित हो रही है, उसमें क्षेत्रवादी ताकतें केंद्र को घुटने के बल टिकाकर अपने हित साधने को अपनी नीतिगत जीत के रूप में देख रही हैं। यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है। राज्य और केंद्र के बीच तालमेल एक राष्ट्रीय दरकार है। गठबंधन राजनीति की खासियत अर्थ और विकास के हर पहलू को सर्वसमावेशी बनाने में है, न कि किसी विखंडनवादी दुराग्रह में।

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