Monday, May 28, 2012

अमीरी-गरीबी की खाई


 एशिया की प्रमुख आर्थिक शक्तियों भारत और चीन द्वारा आर्थिक मंदी के इस दौर में भी जीडीपी दर सात फीसदी से ऊपर बनाए रखने पर दुनिया को आश्चर्य हो रहा है। इसके साथ ही 21वीं सदी को एशिया की सदी भी माना जा रहा है। जहां फो‌र्ब्स की सूची में शामिल होने वाले भारतीय अरबपतियों की संख्या में हर वर्ष इजाफा हो रहा है, वहीं दुनिया के अमीरों की फेहरिस्त में चीनियों का दबदबा भी बढ़ रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि क्या असल में ये देश इतना विकास कर रहे हैं, जितना दावा किया जा रहा है? क्या गरीबों की सेहत पर इस विकास दर का कोई असर पड़ रहा है। अगर आप किसी आम व्यक्ति से सवाल पूछेंगे तो जवाब नहीं में होगा, क्योंकि गरीबों की हालत और बदतर हो रही है। अब चीन सरकार ने भी अमीरी-गरीबी के बीच भारी अंतर को स्वीकार करते हुए कदम उठाने का निर्णय लिया है। इसके लिए एक नया इनकम-डिस्ट्रीब्यूशन फ्रेमवर्क तैयार किया गया है। यह फ्रेमवर्क ऐसे समय में बना है, जब देश में कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत एलीट क्लास सबसे गरीब 10 प्रतिशत का 23 गुना अधिक कमाता है। वर्ष 1988 में यह अंतर सिर्फ सात गुना था। इस फ्रेमवर्क को तैयार करने में आठ साल का समय लगा है। इसे स्टेट काउंसिल ने मंजूरी दे दी है। संभवत: इस साल के आखिर में लागू किए जाने की उम्मीद है। सामाजिक विकास शोध संस्थान के निदेशक यांग कहते हैं कि इस खाई को पाटने के लिए डिस्ट्रीब्यूशन रिफॉर्म के साथ-साथ केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारी एजेंसियां अधिक टैक्स वसूलेंगी और उद्योगों व निजी कंपनियों को इसके दायरे में लाया जाएगा। वहीं मिडिल इनकम गु्रप और उससे ज्यादा कमाने वालों को पहले से अधिक टैक्स देना पड़ेगा। यांग का मानना है कि सिर्फ एक योजना से सभी सवालों का समाधान नहीं होगा, क्योंकि देश की 1 अरब 30 करोड़ से अधिक आबादी में कुछ तो समय लगेगा ही। वैसे इस फ्रेमवर्क में शहरी और ग्रामीण आमदनी के बीच भारी असमानता और विभिन्न उद्योगों के बीच वेतन के बड़े अंतर को भी पाटने का लक्ष्य रखा गया है, जो किसी चुनौती से कम नहीं है। मगर हाल के वर्षो में चीन सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर नजर डालें तो कहा जा सकता है कि वह इस बाबत गंभीर है। चीन में आयकर एक बड़ी भूमिका निभाता है। चीन के इतर भारत की बात करें तो घोटालों और विदेशी बैंकों में जमा काले धन को देश में वापस लाने समेत तमाम मोर्चो पर नाकाम संप्रग सरकार शायद ही इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने का साहस दिखा पाएगी। प्यास कैसे बुझेगी यह हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी की सतह पर 70 फीसदी से अधिक हिस्से में जल मौजूद है। इसके बावजूद दुनिया के एक अरब से अधिक लोगों को स्वच्छ पेयजल नसीब नहीं हो पाता। कुल जल का 97 प्रतिशत भाग महासागरों में है, जिसे पीने लायक बनाना आसान काम नहीं है। भारत में दिल्ली सहित तमाम शहरों की स्थिति से सभी वाकिफ हैं, जबकि बीजिंग में भले ही खास संकट न हो, फिर भी विशेषज्ञों की नजर में भविष्य में बढ़ती आबादी के लिए अभी से वैकल्पिक उपाय सोचने की जरूरत है। इसके लिए समुद्री जल को पीने लायक बनाने पर जोर दिया जा रहा है। यहां कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव पेश किया है कि शोधित समुद्री जल को बीजिंग में पेयजल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए सरकार को सब्सिडी देनी चाहिए। चीन में समुद्री जल को शुद्ध करने वाले कुछ प्लांट हैं, लेकिन शुद्धिकरण की प्रक्रिया खर्चीली होने के चलते ये उतने कामयाब नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय समुद्री विज्ञान ब्यूरो से जुड़े रुआन क्वोलिंग कहते हैं कि सरकार को इस तरह के जल के इस्तेमाल पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार डिसैलिनेटेड वॉटर पीने में सामान्य शुद्ध जल से अलग नहीं होता। वैसे बीजिंग से कोई 260 किमी दक्षिण-पश्चिम स्थित थांगशान में समुद्र तट पर 50 हजार टन क्षमता का एक प्लांट स्थापित किया गया था, मगर वह भी बीजिंग में पेयजल की जरूरत को पूरा करने में सक्षम नहीं है। डिसैलिनेटेड सी वॉटर नेटवर्क बनाने के लिए कम से कम ऐसे तीन-चार प्लांट्स लगाने होंगे। इसके लिए लोगों को चार-पांच साल इंतजार करना पड़ सकता है। हालांकि भारत में भी कुछ वर्ष पहले इसी तरह का प्लांट लगाया गया था, जबकि सऊदी अरब वर्ष 2013 तक सोलर एनर्जी से चालित दुनिया का सबसे बड़ा डिसैलिनेटेड वॉटर प्लांट स्थापित कर लेगा। (लेखक चाइना रेडियो, बीजिंग से जुड़े हैं)

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