Monday, May 28, 2012

मुनाफाखोरी का परिणाम है महंगाई


बाजार में कोई वस्तु महंगी क्यों हो जाती है? अर्थशास्त्र का एक सामान्य सिद्धांत कहता है कि उत्पादन में कमी और मांग की अधिकता से वस्तु महंगी हो जाती है और उत्पादन की अधिकता और मांग में कमी की स्थिति में वस्तु का दाम गिर जाता है। इसका तात्कालिक उदाहरण सोने का दाम है। सहालग का मौसम रहने तक मांग की अधिकता के कारण सोना ऐतिहासिक ऊंचाई पर रहा लेकिन सहालग खत्म होते ही यह नीचे उतरना शुरू हो गया है। हालांकि दाम में इस तरह के घट-बढ़ के अंतरराष्ट्रीय कारण भी होते हैं। लेकिन बाजार अगर अर्थशास्त्र के सिद्धांत के विपरीत व्यवहार करता है तो निश्चित ही उसके पीछे कोई प्रभावकारी ताकत होती है। इसी प्रभावकारी ताकत को नियंत्रित या निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, जो कि आज भारत में कहीं दिख नहीं रही है। प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक पिछले पांच वर्षो से प्राय: हर महीने कीमतों के घट जाने का आासन देते आ रहे हैं लेकिन महंगाई का ताप दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। आलू और चीनी का उदाहरण लें। फिलहाल खुदरा बाजार में आलू का दाम 15 रुपये प्रति किलो के आसपास है। पिछले साल इन्हीं दिनों यह पांच रुपये प्रति किलो के करीब था। आलू की इस साल बंपर पैदावार हुई है। गत वर्ष कुल 404 लाख टन आलू देश में हुआ था तो इस साल यह 10 प्रतिशत बढ़कर 437 लाख टन हुआ है। इस हिसाब से तो आलू का दाम घटे भले नहीं लेकिन स्थिर तो जरूर रहना चाहिए था, जबकि हो रहा है इसका उल्टा। गौरतलब यह भी है कि अभी 2-3 माह पूर्व जब आलू की फसल तैयार हुई थी तो इसके रेट इतने ज्यादा गिर गए थे कि बहुत से स्थानों पर किसानों ने बेचने के बजाय इसे सड़क पर फेंक देना ही ठीक समझा था और आज उसी आलू के दाम तिगुने हो गए हैं। अभी उत्तर प्रदेश की कई बड़ी मंडियों में आलू 119 प्रतिशत तक महंगा हो चुका है। इस साल आलू की फसल तैयार होने से पहले ही केंद्र सरकार ने बाजार हस्तक्षेपीय योजनायानी एमआईएसके तहत यूपी सरकार को एक लाख टन आलू न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की वित्तीय अनुमति दी थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने ऐसा करने में कोई रुचि ही नहीं दिखाई। यही हाल चीनी का है। देश में चीनी की सालाना खपत 2.2 करोड़ टन है। इस वर्ष चीनी की भी बंपर पैदावार देश में हुई है- कुल 2.52 करोड़ टन। यानी हमारी सकल घरेलू जरूरत से 32 लाख टन ज्यादा। बावजूद इसके बाजार में चीनी का दाम लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बीते अप्रैल माह के आखिरी सप्ताह में अंतरराष्ट्रीय चीनी परिषद यानी आईएससीको संबोधित करते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने देसी चीनी उद्योग से कीमतों पर अंकुश को कहा था लेकिन बाजार में चीनी के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। चीनी के अभूतपूर्व उत्पादन से उत्साहित सरकार ने चीनी उद्योग की मांग पर 30 लाख टन चीनी के निर्यात की भी अनुमति दे दी क्योंकि एक अरसे से चीनी उद्यमियों का कहना था कि यदि निर्यात की अनुमति मिल जाए तो वे गन्ना किसानों का बकाये पैसे का भुगतान शीघ्र कर देंगे। लेकिन निर्यात की अनुमति मिलने के बाद से चीनी के दाम में अप्रत्याशित उछाल आना शुरू हो गया है। यहां जिक्र सिर्फ आलू और चीनी का नहीं है बल्कि इनके बहाने बाजार और उस पर नियंत्रणकारी शक्तियों की चर्चा का है। आलू और चीनी आम आदमी के दैनिक भोजन के दो आवश्यक तत्त्व हैं। गरीब आदमी तो आलू के बगैर अपने दैनिक जीवन की भोजन संबंधी आवश्यकता पूरी ही नहीं कर सकता। अभी कुछ वर्ष पहले तक गरीब लोग चीनी के बजाय गुड़ से अपना काम चला लेते थे लेकिन गुड़ अब चीनी से भी ज्यादा महंगा हो गया है। ये कैसा खेल है? यह समझने की बात है कि देश में सिर्फ गेहूं और चावल ही दो प्रमुख खाद्यान्न हैं जिनका दाम सरकार के काबू में है क्योंकि यही दो जिंस हैं जिनका विपुल भंडार सरकार के पास है। मतलब यह कि अगर सट्टेबाज या जमाखोर इन दोनों जिंसों पर अपनी काली नजर डालना चाहें तो सरकारी भंडार उनमें सबसे बड़ी बाधा हैं। इसके उलट चीनी, उद्योगपतियों और बिचौलियों के हाथ में हैं तो आलू शीतगृहों के मोहताज हैं। देश में खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व बिहार में शीतगृहों की अत्यंत कमी है और जो हैं भी वे दलालों और कालाबाजारियों के हाथ में रहते हैं। आलू भंडारण का समय आते ही बिचौलिये व शीतगृह मालिक सांठगांठ करके फर्जी ढंग से शीतगृहों को भरा हुआ बता देते हैं। चूंकि आलू को किसान ज्यादा समय तक खुले में रख नहीं सकता, इसलिए वह उसे औने-पौने बेचने को मजबूर हो जाता है। लेकिन यही आलू जब बिचौलियों के हाथ में आ जाता है तो उसका रेट इन कालाबाजारियों का मोहताज हो जाता है। इस सारी प्रक्रिया में सरकार का कोई हस्तक्षेप किसी भी स्तर पर दिखाई ही नहीं पड़ता। सरकारी शीतगृह अगर पर्याप्त संख्या में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हों तो किसान अपनी उपज उसमें रखकर उचित समय आने पर बेच सकता है। सरकारी नीतियों के कारण बाजार अब सही मायने में मुक्त हो गए हैं। किसी वस्तु की उत्पादन लागत क्या आ रही है और वह बाजार में किस दर पर बेची जा रही है, इसके नियंतण्रकी कोई भी पण्राली दिखाई नहीं पड़ रही है। महंगाई के कारण उत्पादन लागत बढ़ती है, यह सही है; लेकिन किस लागत पर कितना लाभ लिया जा सकता है, क्या इसकी कोई नीति और उसका बाजार में क्रियान्वयन किसी को दिखाई पड़ रहा है? इस साल उत्तर प्रदेश के 10-12 जिलों में पाला और कोहरे के प्रकोप के कारण आलू का उत्पादन प्रभावित हुआ था लेकिन इसके उलट पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में आलू की बंपर पैदावार हुई। फिर उसके दाम में वृद्धि क्यों हो रही है? अब यह बाजार का मिजाज होता जा  रहा है कि उपलब्धता चाहे कितनी ही क्यों न हो, किसी न किसी वस्तु का दाम अचानक आसमान छूने लगता है और सरकार आंख-कान मूंदकर बैठी रहती है। यही प्याज के सिलसिले में हुआ, अरहर की दाल के बारे में हुआ और यही अब आलू को लेकर हो रहा है। क्या यह कालाबाजारियों का षड्यंत्र नहीं लगता कि किसी न किसी वस्तु का कृत्रिम अभाव पैदा कर व उसका दाम आसमान चढ़ाकर अपनी तिजोरियॉ भर ली जाएं?

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