Sunday, April 3, 2011

कारपोरेट चैरिटी


दुनिया को दान की महिमा बताने निकले अमेरिका के अग्रणी पूंजीपति वारेन बुफे और बिल गेट्स की भारत यात्रा के मौके पर उद्योगपतियों के अलग-अलग घरानों की तरफ से इस सिलसिले में किए जा रहे कदमों को बढ़-चढ़कर बताया जा रहा है और इसकी काफी प्रशंसा भी की जा रही है। इस संदर्भ में भारतीय कंपनी जीएमआर ग्रुप ने भी अपनी तरफ से 1500 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि दान देने की घोषणा की है। दान दिए जाने वाले इस धन के बारे में बताया गया कि ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर, हाइवे, एयरपोर्ट आदि के निर्माण में तेजी से आगे बढ़े इस ग्रुप के संस्थापक जीएम राव ने अपने निजी आय में से इस धनराशि का प्रबंध कराया है। पिछले साल ही इस सिलसिले में विप्रो के मालिक और चेयरमैन अजीम प्रेमजी का नाम तब सुर्खियों में आया था जब उन्होंने लगभग 2 अरब डॉलर की राशि उनके ही द्वारा संचालित संस्थाओं को देश में शिक्षा को बेहतर ढंग से चलाने के लिए देने की घोषणा की गई। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए इस घोषणा के समय कहा गया था कि उनके द्वारा दी गई राशि पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये का सूद मिलेगा जिसका इस्तेमाल केवल शिक्षा के काम के लिए किया जाएगा। कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की धूम के बीच यह पूछना लाजिमी हो जाता है कि चैरिटी के लिए दिए जाने वाले इन रुपयों का क्या वाकई सही इस्तेमाल हो पाता है? दूसरे क्या इस राशि को कंपनियों द्वारा सरकार को सौंपा जाता है अथवा किसी निजी ट्रस्ट में जाता है। भारत यात्रा पर आए बिल गेट्स और उनकी पत्नी मेलिंडा ने बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का गठन किया है और चैरिटी के लिए दी जाने वाली धनराशि इसी फाउंडेशन के माध्यम से कामों में लगाते है। बिल गेट्स के साथ भारत यात्रा पर आए वारेन बुफे ने भी अपनी धनराशि या तो बुफे फाउंडेशन में लगाई है या उसका अधिकतर हिस्सा बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के लिए दिया है। अगर हम कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी जैसे शब्द का यदि इतिहास देखें तो वह बहुत पुराना नहीं है। साठ के दशक के उत्तरा‌र्द्ध और सत्तर के दशक की शुरुआत में कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां वजूद में आई तभी से यह शब्द आम इस्तेमाल में प्रचलित होना शुरु हुआ। इस विचार के हिमायती कहते हैं कि इस तरह एक दूरगामी परिप्रेक्ष्य से काम करने पर कारपोरेट अधिक मुनाफा कमाते हैं जबकि आलोचकों का मानना है कि कारपोरेट सोशल रेस्पांसिबिलिटी यानी कारपोरेट जगत की सामाजिक जिम्मदारियों का निर्वहन की भावना उद्योगों की आर्थिक भूमिका से ध्यान हटाने का काम करता है। यह भी कहा जाता है कि यह एक महज शिगूफा है या ताकतवर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगरानी के लिए सरकारों की भूमिका को अप्रत्यक्ष तरीके से हथिया लेना है। यदि कंपनियों को देखें तो उन्हें इसमें कई तरह के फायदे नजर आते है। इसमें एक फायदा तो नए कर्मचारियो की भर्ती करने या उन्हें कंपनी के साथ जोड़े रखने में ही दिखता है। एक साधारण कर्मचारी के लिए वह कंपनी अधिक जुड़ने लायक लग सकती है जिसमें इस तरह की जिम्मेदारी के तहत काम हो रहा हो। एक प्रतिस्पर्धी बाजार में जहां कई प्रतिद्वंद्वी मौजूद होते हैं वहां कंपनियां अपने लिए एक अनोखी व विशिष्ट पहचान भी तलाशने की कोशिश करती हैं। कारपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की रणनीति लोगों में कंपनी की अलग छाप छोड़ने के लिए काफी मुफीद रहती है। इसी तरह कंपनियों द्वारा अपनाई जाने वाली यह रणनीति उनके अपारदर्शी व गलत कामों पर भी परदा डाले रखने में सहायक होती है और बुनियाद प्रश्नों से जनता का ध्यान बांटती है। यह बात ग्राहकों की मनोवृत्ति में आसानी से देखी जा सकती है। वाकिंग विद कामरेड्स शीर्षक से छपे अपने एक चर्चित लेख में अरुंधति राय ने छत्तीसगढ़ की अकूत खनिज संपदा एवं प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के लिए बेताब बड़ी-बड़ी कंपनियों की कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की नीतियों की चर्चा करते हुए बताया है कि किस तरह स्थानीय आबादी के जीवन में तबाही के नए मंजर रचने वाली कंपनियों ने वहां कुछ स्कूल खोले हैं अथवा थोड़े बहुत क्लीनिक चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा यह भी देखने में आता है कि चैरिटी के नाम पर एकत्रित धनराशि के दम पर कारपोरेट संगठन या पूंजीपति सरकार की नीतियों को भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। दुनिया को दान की शिक्षा देने के लिए निकले वारेन बुफे खुद एक दूसरे विवाद में भी फंसे नजर आए। जानकारों के मुताबिक वर्ष 2006 से बुफे ने विवादास्पद पोस्को परियोजना में पैसे लगाए हैं। उनकी इनवेस्टमेंट फर्म बर्कशायर हाथवे, गैर कोरियाई निवेशकों में सबसे बड़ी है जिसने पोस्को में पैसा लगाया है। सभी जानते हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियां जीरो टैक्स कंपनियां होती हैं। टैक्स अदायगी के दायित्व से न बंधे होने के कारण काफी अधिक संपत्ति का सृजन करने में सफल होती है। अगर जीरो टैक्स देने वाली ऐसी कोई कंपनी चंद स्कूल अथवा क्लीनिक आदि किसी आदिवासी इलाकों में चला भी देती हैं तो इससे इनकी कमाई पर क्या फर्क पड़ने वाला है? प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने भी अपने एक लेख में पूंजीपतियों की दानशीलता की सच्चाई को अनावृत किया है।


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