आर्थिक सुधारों की सफलता में शासन के बजाय निजी उद्यमिता का हाथ बता रहे हैं लेखक
इस साल हम भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की 20वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। आर्थिक सुधारों से हमने क्या हासिल किया है? आज हम किस स्थिति में हैं? क्रिकेट विश्व कप में भारत की जीत आत्मविश्वास का परिणाम है। यह वही आत्मविश्वास है, जो हमारे उद्यमियों को आगे बढ़ा रहा है और जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया है। आत्मविश्वास की यह राष्ट्रीय भावना 1991 से उभरनी शुरू हुई थी। 1991 का साल भारत के इतिहास में मील का पत्थर है। इस साल हमें अपनी आर्थिक स्वतंत्रता मिली थी। 1947 में हमने केवल राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की थी। हमें भूलना नहीं चाहिए कि राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता पर निर्भर करती है। ब्रिटिश राज से मुक्त होने के तुरंत बाद भारत ने आर्थिक विकास का गलत रास्ता अपनाया और हम समाजवादी राज के शिकार बन गए। इसने हमें चालीस साल तक बंधक बनाए रखा और हमारी राजनीतिक नैतिकता को क्षति पहुंचाई। अपने जवानी के दिनों में हम आधुनिक भारत के नेहरू के स्वप्न में खो गए थे। किंतु जैसे-जैसे समय बीता, यह साफ होता चला गया कि नेहरू का आर्थिक पथ अंधी गली में पहुंच गया है, जहां से आगे रास्ता बंद है। हमारे सपने टूट गए। भारत में समाजवाद की स्थापना तो नहीं हो पाई, लाइसेंस राज जरूर कायम हो गया। मोहभंग की रही-सही कसर इंदिरा गांधी के अधिसत्तात्मक शासन ने पूरी कर दी। आठवें दशक में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आशा की एक किरण नजर आई। 1991 में जब नरसिम्हा राव सरकार ने उदारीकरण की घोषणा की तो हमारे मन से हताशा-निराशा खत्म हो गई। हमें दूसरी आजादी मिल गई थी। धीरे-धीरे हमें दबंग और निरंकुश सत्ता से मुक्ति मिल गई। यद्यपि 1991 के बाद सुधारों की गति धीमी ही रही, फिर भी उन्होंने भारतीय समाज में आमूलचूल परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू कर दी। यह इसी प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन था जैसा चीन में देंग के नेतृत्व में 1978 में हुआ था। उल्लेखनीय पहलू यह नहीं है कि 1991 में क्या हुआ, बल्कि यह है कि इसके बाद तमाम सरकारें धीमी गति से ही सही, सुधारों को आगे बढ़ाती रहीं। नौवें दशक में देश भर की यात्राओं के दौरान मुझे आभास हो गया था कि भारत आर्थिक रूप से उभरने वाला है। किंतु फिर भी मैं इस अनुमान तक नहीं पहुंच पाया था कि यह 8-9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की संवृद्धि दर पकड़ सकता है। ईमानदारी से कहूं तो मैंने 7 प्रतिशत का अनुमान लगाया था। किंतु जब मैं भविष्य में झांक रहा था, तब भारत की संवृद्धि दर मात्र 3.5 फीसदी ही थी और हम समाजवादी अर्थव्यवस्था में रेंग रहे थे। यही नहीं, उस वक्त पश्चिम में औद्योगिक क्रांति की विकास दर मात्र तीन प्रतिशत ही थी। ऐसे में नौवें दशक में सात प्रतिशत खासा क्रांतिकारी आंकड़ा नजर आता था। पिछले दशक के दौरान जब हमारी संवृद्धि दर छह साल तक नौ प्रतिशत रही तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। प्रत्येक अतिरिक्त प्रतिशत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे एक करोड़ नए रोजगार सृजित होते हैं। 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद भारत एक ऊर्जावान, मुक्त बाजार लोकतंत्र के रूप में उभरा है। आज भारत वैश्विक सूचना अर्थव्यवस्था में एक शक्ति बन चुका है। पुराना केंद्रीयकृत, लालफीताशाही की बेडि़यों में जकड़ा राष्ट्र, जिसने हमारी औद्योगिक क्रांति की भ्रूण हत्या कर दी थी, का धीमे-धीमे पतन हो रहा था। किंतु चौंकाने वाली बात यह है कि शासन की सहायता से उभरने के बजाय अनेक रूपों में भारत शासन के सहयोग के बिना ही आगे बढ़ा है। भारत की सफलता की गाथा के केंद्र में स्पष्ट तौर पर निजी उद्यमिता है। आज भारत बेहद प्रतिस्पर्धी कंपनियों, छलांग मारते शेयर बाजार और आधुनिक व अनुशासित वित्तीय बाजार पर इतरा सकता है। आर्थिक सुधार के क्षेत्र में 1991 के बाद भारतीय सत्ता भी धीरे-धीरे रास्ते पर आ रही है। भारत में व्यापार बाधाएं और करों की दरें कम कर दी गई हैं, लालफीताशाही की जड़ता टूटी है, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिला है और शेष विश्व के लिए इसने अपने दरवाजे खोले हैं। हमारे सुधारों के संबंध में एक पहेली यह है कि 64 देशों में इसी प्रकार के आर्थिक सुधार शुरू हुए किंतु भारत ही विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था क्यों बना? मैं निश्चित तौर पर नहीं बता सकता कि किसी के भी पास इस सवाल का जवाब है। मैं केवल अनुमान लगा सकता हूं-अगर आप ऐसे समाज में सुधार चला रहे हैं, जहां विभिन्न समूह और समुदाय पूंजी कमाना और उसे संभालना जानते हैं, तो सुधारों की धूम मचनी ही है। हम भाग्यशाली हैं कि भारत में वैश्य समुदाय मौजूद है। हमारी विकृत जाति व्यवस्था से ही हमें प्रतिस्पर्धी लाभ मिला है। इसीलिए मुझे यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि फोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में पचास प्रतिशत से अधिक भारतीयों के उपनाम वैश्य थे। दुर्भाग्य से, पिछले 20 सालों से हम निजी सफलता और सार्वजनिक विफलता के साक्षी रहे हैं। निजी क्षेत्र ने उदारीकरण का प्रत्युत्तर दिया है। जैसे ही बंदिशें हटाई गईं इसने विश्व स्तर के दर्जनों उद्यमी पेश कर दिए। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह सब इतनी जल्दी हो जाएगा। जैसे ही सरकार व्यवसाय चलाने की जिम्मेदारी से मुक्त हुई, यह अपेक्षा की जाने लगी कि अब यह सुशासन और ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान केंद्रित करेगी। किंतु यह अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। अगर सरकार गरीबों को उच्च श्रेणी की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराती, तो हमारी संवृद्धि स्वत: ही समावेशी हो जाती। अगर देश में सुशासन होता तो हमें भ्रष्टाचार के नित नए खुलासे देखने को नहीं मिलते। शासन में हर स्तर पर खामियां हैं और इसका सबसे अधिक नुकसान गरीबों को उठाना पड़ा है। यही नहीं, शासन की विफलता के कारण ही सुधार भी पूर्णता हासिल नहीं कर पाए हैं। अगर हम कृषि, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में सुधार लागू कर पाते तो इतना भ्रष्टाचार न होता। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि हमारी अर्थव्यवस्था रात को बढ़ती है, जब सरकार सोई रहती है। भारत के विपरीत चीन के उदय में शासन का पूरा सहयोग रहा है। एक चीनी उद्योगपति ने मुझसे कहा कि भारत का उदय एक हाथ बंधा होने के बावजूद हुआ है। जबकि चीन में सरकार ने भी विकास में पूरा योगदान दिया है। इसलिए हमारे सामने असली काम है कि सरकार को किस प्रकार जिम्मेदार बनाया जाए। अब हमें आर्थिक विकास से भी अधिक प्रशासन, न्यायपालिका और राजनीति जैसे संस्थानों में सुधार की आवश्यकता है। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं|
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