सखी सैंया तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाए जात है, पीपली लाइव के इस गाने को तो अब तक आप भूले नहीं होंगे। वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में शुरू महंगाई अब तक 5.8 लाख करोड़ रुपये हजम कर चुकी है। यानी तीन साल में भारतीय उपभोक्ताओं पर इतनी राशि का अतिरिक्त बोझ पड़ा है। वित्तीय परामर्श एवं शोध फर्म क्रिसिल ने अपने अध्ययन इन्फलेशन हर्ट्स में यह निष्कर्ष निकाला है। इसमें कहा गया है कि 2008-09 से 2010-11 के तीन साल में मुद्रास्फीति पांच फीसदी से बढ़कर आठ फीसदी हो गई है। इस कारण जहां भारतीय उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति घटी वहीं उनका बिल 5.8 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया। इस दौरान उपभोक्ताओं को खाने पीने पर ज्यादा खर्च करना पड़ा क्योंकि खाद्य उत्पादों की कीमतों में गैर खाद्य उत्पादों की तुलना में ज्यादा तेजी देखने को मिली। रपट के मुताबिक शुरुआत में तो मांग के मुकाबले आपूर्ति में कमी की वजह से खाद्य और ईधन की कीमतें चढ़ीं, जबकि बाद में यह मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों तक पहुंच गई। देश में अनाज के बंपर उत्पादन के बावजूद अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में तेजी का रुख है। इस वजह से भी महंगाई काबू में नहीं आ रही है। रपट में कहा गया है कि इन तीन सालों में जहां खाद्य मुद्रास्फीति औसतन 11.6 फीसदी रही, जबकि सामान्य मुद्रास्फीति का औसत 5.7 फीसदी रहा। रिजर्व बैंक के मुताबिक 3-4 फीसदी से ज्यादा की मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। क्रिसिल के अनुसार भारतीय परिवारों पर महंगाई में वृद्धि के कारण पड़े अतिरिक्त बोझ का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मौजूदा कीमतों पर देश की जीडीपी वित्त वर्ष 2010-11 में 78,75,627 करोड़ रुपये थी। सामान्य मुद्रास्फीति जनवरी 2010 से ही आठ प्रतिशत से ऊंची बनी हुई है। मई 2011 में यह 9.06 प्रतिशत थी। हाल ही में डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के दाम में वृद्धि के बाद महंगाई के भड़क कर फिर से दोहरे अंक में पहुंच जाने की पूरी संभावना है। मुद्रास्फीति पर अंकुश के लिए मार्च 2010 के बाद से रिजर्व बैंक 10 बार प्रमुख नीतिगत दरों में वृद्धि कर चुका है। हालांकि आरबीआइ ने मार्च 2012 तक इसके घटकर छह फीसदी पर रहने का अनुमान लगाया है।
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