लेखक सरकार की गलत मौद्रिक नीतियों के कारण देश को फिर से मंदी की गिरफ्त में जाता देख रहे हैं...
एक साल पहले मैंने महंगाई की विभीषिका से निपटने के संबंध में सरकार की गलत नीतियों पर चिंता जाहिर की थी। शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक के ढुलमुल रवैये और भारत सरकार के जबानी जमाखर्च और अब आरबीआइ के अत्यधिक आक्रामक रुख के कारण देश पर फिर से मंदी के बादल मंडराने लगे हैं। भारत निम्न विकास दर और उच्च महंगाई के दोहरे भंवर में फंस रहा है। मौद्रिक अधिसत्ता के युद्ध सरीखे तेवरों ने पिछले छह माह में ब्याज दरों में 350 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर दी है। भारतीय मानकों के हिसाब से भी वित्तीय पूंजी बेहद महंगी हो चुकी है। अतिरिक्त राशि घटती जा रही है। इस कारण वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादक दाम बढ़ाने को मजबूर हो रहे हैं। 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान शिथिल पड़ गया क्षमता संवर्धन और कमजोर हो रहा है। परिणामस्वरूप महंगाई ने, जिसके बारे में शुरू में कुछ अर्थशास्ति्रयों का मानना था कि यह कमजोर मानसून के कारण खाद्यान्न की फसल में होने वाली गिरावट की चक्रीय श्रृंखला है, अब वस्तुओं और सेवाओं की तमाम श्रेणियों को अपनी चपेट में ले लिया है। अब इसकी पहचान संरचनात्मक मुद्दे के रूप में की जा रही है। मौद्रिक सत्ताओं के इस व्यवहार का पूरा असर अभी पड़ना शेष है। इस बीच चौथी तिमाही के विकास दर के आंकड़ों ने 2010-11 वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को नीचे खींच लिया। साथ ही 2011-12 के अनुमान को भी पुननिर्धारित करना पड़ा। वर्तमान रुख से पता चलता है कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर डेढ़ प्रतिशत गिरकर सात प्रतिशत के करीब सिमट गई है। बजट में अनुमान से कम जीडीपी दर से कर वसूली प्रभावित होगी। फलत: सरकार को मजबूरन अधिक उधारी करनी होगी, जिससे भविष्य में ब्याज दरों में और वृद्धि होगी। कच्चे तेल के ऊंचे दाम और पेट्रोल व गैस का आंशिक भार उपभोक्ताओं तक हस्तांतरित करने से महंगाई में और आग लग रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च बचत दर, बढ़ते निवेश और उद्यमियों के बढ़ते विश्वास के स्तर से दहाई अंकों की विकास दर में आसानी से प्रवेश कर सकती थी। दुर्भाग्य से, समुचित और पर्याप्त नीतिगत पहल के अभाव में अर्थव्यवस्था का पहिया धीमा पड़ता जा रहा है। अब रणसिंहा बजाने का समय आ गया है। क्षमताओं के संवर्धन के लिए निवेश में वृद्धि के मौद्रिक उपायों को अनुदान व खैरात बांटने की प्रवृत्ति पर वरीयता देनी होगी। अतिवादी सुझाव यह हो सकता है कि युद्ध सरीखे हालात मानते हुए, जैसाकि विपत्ति के समय होता है, नीति निर्माताओं, मौद्रिक अधिसत्ताओं और सिविल सोसाइटी को देश को उस गढ्डे से निकालने के लिए कमर कस लेनी चाहिए, जिसमें हमने इसे धकेल दिया है। सौभाग्य से, इकॉनोमिस्ट कमोडिटी प्राइस इंडेक्स के अनुसार मध्य फरवरी से वैश्विक स्तर पर वस्तुओं की कीमतों में हल्की गिरावट आई है। नीतिगत प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अल्पकालिक कमियों से निपटने के लिए हमें इन अवसरों का भरपूर लाभ उठाना चाहिए। साथ ही दीर्घकालीन आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए नई क्षमताओं के निर्माण में उत्साह से जुट जाना चाहिए। साथ ही, खासतौर से कृषि क्षेत्र में सुधार के माध्यम से देश को संकट से उबारने का प्रयास करना चाहिए। अल्पकालिक उपायों में महंगाई को बढ़ाने वाली आवश्यक वस्तुओं के आयात को बढ़ावा देना चाहिए। इसके लिए आयात शुल्क में कमी लानी होगी। इन वस्तुओं के उत्पादक इस विकल्प का इस्तेमाल न करने के लिए सरकार पर दबाव बनाएंगे। आपूर्ति में सुधार आम आदमी के हित में है, जो बढ़ती महंगाई से सर्वाधिक त्रस्त है। मध्य अवधि के उपायों के तौर पर सरकार को सुधारवादी एजेंडे की गति बढ़ा देनी चाहिए। इसे दो भागों में बांट देना चाहिए। सर्वप्रथम आर्थिक सुधार संबंधी, खासतौर पर वित्तीय सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए लंबित बिलों को संसद में पारित करने के लिए तत्परता दिखानी चाहिए। इन क्षेत्रों में बीमा, बैंकिंग, पेंशन, वैट और डीटीसी शामिल हैं। अगर प्रमुख विपक्षी दल की शंकाओं को दूर किया जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह इन बिलों पर समर्थन देने के लिए राजी हो सकता है। राज्यसभा में पीएफआरडीए बिल पेश करने में भाजपा के समर्थन से इस कथन की पुष्टि हो जाती है। इसके बाद सुधार का अगला चरण लागू करना चाहिए। इस चरण में लंबे समय से लंबित मांगें जैसे संगठित रिटेल की शुरुआत, निजी क्षेत्र द्वारा कृषि में निवेश, कृषि उत्पादों के वितरण में सुधार, श्रम नीतियां आदि आती हैं। यह सूची और भी लंबी हो सकती है लेकिन फिलहाल इतने भर से ही काम चल सकता है। इन तमाम क्षेत्रों में उदारीकरण की प्रक्रिया संबंधित मंत्रालयों को शुरू करनी चाहिए। यह देखने के लिए कि सुधार अपेक्षित गति से हो रहे हैं या नहीं, संबंधित मंत्रालयों की मासिक समीक्षा बैठक सुनिश्चित करनी चाहिए। सुधार प्रक्रिया में आने वाली तमाम दिक्कतों को दूर करने और अधिकारियों व मंत्रियों की जवाबदेही तय करने के स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए। उच्च पदों पर भ्रष्टाचार गंभीर रुख अख्तियार कर चुका है। पिछले कुछ महीनों से राजनीति और उद्योग जगत के कुछ चमकते सितारे फिलहाल तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। पूर्व में कुछ सामाजिक एक्टिविस्ट और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले एक स्वामी सरकार को भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। भ्रष्टाचार का दानव पूरे भारतीय समाज में रच-बस गया है। भ्रष्टाचार का सबसे अधिक खामियाजा भी आम आदमी को ही उठाना पड़ता है। सरकार की निष्कि्रयता से जनता अधीर हो रही है। इस दानव को अगर पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता तो फौरी तौर पर कम से कम ई-गवर्नेंस के माध्यम से इस पर अंकुश तो लगाया ही जा सकता है। यद्यपि सरकार ई गवर्नेस की दिशा में आगे बढ़ रही है, किंतु इसकी गति को तेज करने और तमाम विभागों में इसका विस्तार करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य में लगने वाली समयसीमा की सूचना प्रत्येक विभाग की वेबसाइट पर डाल दी जानी चाहिए। इससे पहले जनसांख्यिकीय लाभ जनसांख्यिकीय आपदा में बदल जाएं, राजनीतिक कार्यपालिका को नींद से जाग जाना चाहिए। हमें ऐतिहासिक अवसरों को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए। मंदी की गिरफ्त से बच निकलने के लिए और लोगों का जीवनस्तर उठाने के लिए हमें महंगाई के राक्षस का वध करना होगा। (लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)
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