Wednesday, June 15, 2011

विफल वार्ता का जश्न मनाएं


लेखक रोजगार और व्यापार को बचाने के लिए संरक्षणवाद की वकालत कर रहे हैं

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने 2001 में विश्व व्यापार को और खुला बनाने के लिए वार्ता शुरू की थी, जिसे दोहा चक्र के नाम से जाना जाता है। 1995 में डब्ल्यूटीओ के गठन के समय अमीर देशों ने कृषि सब्सिडी को भविष्य में कम करने का वायदा किया था। दोहा चक्र में विकासशील देशों की प्रमुख मांग थी कि इस वायदे को पूरा किया जाए जिससे उनके किसानों को अमीर देशों के बाजार में अपना माल बेचने का अवसर मिले। परंतु अपने वायदे को निभाने के स्थान पर अमीर देशों, विशेषकर अमेरिका ने उलटवार करते हुए मांग की कि विकासशील देशों को अपने बाजार को आयातों के लिए खोलना होगा। विकासशील देशों को यह मंजूर नहीं था चूंकि सस्ते आयातों से उनकी जनता की जीविका खतरे में पड़ती है। इन मुद्दों पर सहमति न बनने के कारण दोहा चक्र की वार्ता विफल हो रही है। अर्थात खुले व्यापार के वर्तमान स्वरूप में फिलहाल और सुधार नहीं किया जाएगा। अमीर देश भारी मात्रा में घरेलू कृषि सब्सिडी देते रहेंगे और विकासशील देश भारी मात्रा में आयात कर लगाते रहेंगे। खुले व्यापार को अपनाने के लिए न तो अमीर देश तैयार हैं और न ही विकासशील देश। सभी को शंका है कि खुले व्यापार से उनकी जनता को नुकसान हो सकता है। यानी विश्व का जीवंत अनुभव बताता है कि खुले व्यापार का लाभदायक होना जरूरी नहीं है। खुले व्यापार के महामंत्र की पहली समस्या श्रमिकों के पलायन की है। मध्यमार्गी अर्थशास्ति्रयों का कहना है कि माल एवं पूंजी के खुले आवागमन से उत्पादन उन देशों में केंद्रित हो जाएगा जो कुशल हैं। बांग्लादेश जूट का उत्पादन करेगा और मलेशिया पाम ऑयल का। पूरे विश्व की जनता को सस्ता माल उपलब्ध हो जाएगा। प्रमाण यह है कि आर्थिक सुधारों के बाद भारत में निर्मित कार, कम्प्यूटर, टेलीविजन आदि की गुणवत्ता में सुधार आया है। यह तर्क सही है। खुले व्यापार से उपभोक्ता को सस्ता एवं अच्छा माल अवश्य ही उपलब्ध होता है। समस्या यह है कि उपभोक्ता के पास उस माल को खरीदने की क्रयशक्ति होना जरूरी है। कल्पना करें कि बाजार में सस्ता एवं अच्छा टेलीविजन उपलब्ध है। इसे खरीदने के लिए किसान को छह हजार रुपये चाहिए। इस रकम को कमाने के लिए उसे गेहूं का उत्पादन करके बेचना होगा। परंतु ऑस्ट्रेलिया में गेहूं के उत्पादन की लागत भारत की तुलना में कम आती है चूंकि वहां की भूमि एवं जलवायु उसके उत्पादन के लिए ज्यादा उपयुक्त है। इसलिए भारतीय किसान गेहूं से धन नहीं कमा सकता है। तब वह सोचता है कि जूट का उत्पादन करे। परंतु बांग्लादेश का जूट सस्ता पड़ता है। इसी प्रकार श्रीलंका की चाय, मलेशिया का पाम ऑयल, ब्राजील की चीनी, वियेतनाम की कॉफी सस्ती पड़ती है। इस प्रकार विश्व के कई देशों की किसी भी माल के उत्पादन में पैठ नहीं होती है। इन देशों के किसान बेहाल हो जाते हैं। बाजार में उपलब्ध अच्छा टेलीविजन उनके लिए खयाली पुलाव मात्र रह जाता है। खुले व्यापार के सिद्धांत के अनुसार किसानों को ऑस्ट्रेलिया पलायन कर जाना चाहिए जहां की जलवायु गेहूं के उत्पादन के लिए ज्यादा अनुकूल है। पूर्व में मनुष्यों के ऐसे पलायन पर रोक नहीं थी। सिंधु घाटी सभ्यता की जलवायु प्रतिकूल हो जाने के बाद वहां के लोग गंगा घाटी की ओर पलायन कर गए थे। इसी तरह हरियाणा के किसान को ऑस्ट्रेलिया पलायन कर जाना चाहिए। वहां की अनुकूल जलवायु में वह जीवनयापन कर सकता है। परंतु डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विद्वानों द्वारा प्रतिपादित खुले व्यापार के सिद्धांत में श्रमिकों के पलायन की छूट नहीं होती। हरियाणा का किसान ऑस्ट्रेलिया नहीं जा सकता। साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया का सस्ता गेहूं प्रवेश कर के उसके पारंपरिक बाजार को भी ध्वस्त कर देता है। निष्कर्ष यह है कि खुले व्यापार का सिद्धांत ठीक है परंतु श्रमिकों का पलायन प्रतिबंधित होने से उसका प्रभाव नकारात्मक हो जाता है। इस समस्या का हल संरक्षणवाद है। मान लीजिए हरियाणा में गेहूं के उत्पादन की लागत 15 रुपये आती है जबकि ऑस्ट्रेलिया में 10 रुपये। ऐसी स्थिति में भारत सरकार यदि ऑस्ट्रेलियाई गेहूं पर पांच रुपये का आयात कर लगा दे तो ऑस्ट्रेलिया का गेहूं भारत में 15 रुपये का पड़ेगा और हरियाणा का किसान जीवनयापन कर सकेगा। इसलिए अपनी जनता का हित साधने का सही मार्ग संरक्षणवाद का है न कि खुले व्यापार का। खुले व्यापार के सिद्धांत में दूसरी समस्या श्रमिक के वेतन में गिरावट की है। खुले बाजार में जो सस्ता माल बनाएगा उसकी विजय होगी। आउटसोर्सिंग का उदाहरण लें। अमेरिका में सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर का वेतन लगभग 8,000 रुपये प्रतिदिन है। भारत में समतुल्य प्रोग्रामर का वेतन लगभग 1,000 रुपये प्रतिदिन है। स्वाभाविक है कि अमेरिकी कंपनियों के लिए लाभदायक होगा कि सॉफ्टवेयर बनाने का कार्य भारत में कराएं। फलस्वरूप अमेरिकी प्रोग्रामर बेरोजगार हो रहे हैं। अंतत: उन्हें कम वेतन पर कार्य करना मंजूर करना होगा। खुले बाजार में कंपनियां वैश्विक स्तर पर सस्ते माल की खोज में विचरण करती हैं। सस्ता माल वही बना सकता है जो श्रमिक को न्यून वेतन दे। अत: खुले बाजार का तार्किक परिणाम श्रमिकों के वेतन में गिरावट है। आम जनता के लिए खुले बाजार का अर्थ गरीबी है। इसलिए अमेरिका आदि देशों में आउटसोर्सिंग का विरोध तथा संरक्षण की मांग बढ़ रही है जोकि ठीक ही है। खुले व्यापार को नहीं बल्कि संरक्षण को अपनाना होगा। तब हर देश सस्ते आयातों पर रोक लगाकर अपनी जनता के रोजगार बचा सकेगा एवं अपनी चहारदीवारी के अंदर उनके ऊंचे वेतन बनाए रख सकेगा। परंतु संरक्षण में दूसरी समस्या है। इसका सरकारी तंत्र दुरुपयोग कर सकता है। मसलन ऑस्ट्रेलिया में 10 रुपये में उत्पादित गेहूं पर भारत सरकार छह रुपये प्रति किलो का आयात कर लगा सकती है, जिससे भारतीय बाजार में उसका मूल्य 16 रुपये प्रति किलो पडे़गा। साथ-साथ भारत सरकार घरेलू किसान द्वारा 15 रुपये में उत्पादित गेहूं पर भी एक रुपये अनावश्यक टैक्स लगा सकती है और इस रकम को सरकारी दुरुपयोग में लगा सकती है। इससे संरक्षण का लाभ भारतीय किसान को कम और सरकारी तंत्र को अधिक मिलेगा। अत: संरक्षण जरूरी है परंतु साथ-साथ घरेलू सुशासन की व्यवस्था भी उतनी ही जरूरी है। हमें ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि संरक्षण का लाभ जनता को मिले न कि सरकारी तंत्र को। अत: मनमोहन सिंह को खुले व्यापार पर ध्यान कम एवं सरकार तंत्र द्वारा जनता के शोषण पर ध्यान ज्यादा देना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में डब्ल्यूटीओ की वार्ता का विफल होना शुभ समाचार ही है। कम से कम जनता खुले व्यापार के कारण होने वाली बेरोजगारी एवं वेतन में कटौती से बच जाएगी। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)


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