लगातार बढ़ती महंगाई बीते कुछ वर्षो से सरकार के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। खाद्य वस्तुओं की कीमतों में लगी आग से आम लोगों में बढ़ती नाराजगी के चलते सरकार इसके सियासी कुप्रभाव से आशंकित है। इस पर काबू पाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगातार अपनी मौद्रिक नीतियों में बदलाव किए गए हैं लेकिन कतिपय घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारकों के चलते महंगाई पर लगाम लगाने की कवायद को नीति निर्धारकों की उम्मीदों के अनुरूप सफलता नहीं मिल रही है। महंगाई की घरेलू वजहों में उत्पादन-वितरण तंत्र में निहित खामियां, जमाखोरी और मांग-आपूर्ति में असंतुलन को गिना जा सकता है। केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा जवाबदेही एक-दूसरे पर ठेलना भी इसकी प्रमुख वजह है। लेकिन इसके अंतरदेशीय कारण भी हैं। जिनमें पेट्रो पदार्थो की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोतरी प्रमुख है। दुनिया में आर्थिक मंदी की आशंकाओं के कम होने और इससे भी बढ़कर विश्व के प्रमुख पेट्रो उत्पादक अरब देशों में चल रही अस्थिरता के चलते तेल की कीमतें नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर हैं। बताने की जरूरत नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थ आर्थिक-औद्योगिक गतिविधियों के मेरुदंड हैं और इनकी कीमतों में परिवर्तन का असर पूरी दुनिया की वित्तीय गतिविधियों पर पड़ता है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। महंगाई के मोर्चे पर अभी हो यह रहा है कि सरकार बाकी उपायों से हालात को जितना नियंत्रित करती है, बढ़ी हुई पेट्रो कीमतें सब गुड़-गोबर कर देती हैं। गौरतलब है कि भारत में पेट्रोलियम पदार्थो के भंडार बेहद सीमित हैं। वर्तमान में हम अपनी कुल जरूरत का महज 20 फीसद तक ही घरेलू जरिए से पूरा कर पाते हैं शेष 80 फीसद हिस्सा हमें आयात करना होता है। पेट्रोलियम आयात के इस भारी-भरकम बिल से सरकार की आर्थिक सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है। साथ ही बड़ी समस्या पेट्रोल, डीजल, एलपीजी और केरोसिन को लोगों तक रियायती दर पर उपलब्ध कराना भी है। इस क्रम में दी जाने वाली सब्सिडी सरकार के योजनाकारों को उदारीकरण की राह में बाधक दिखती है। नतीजा यह कि सरकार द्वारा आर्थिक सुधार के नाम पर पहले तो पेट्रोल की कीमतों को नियंतण्रमुक्त किया गया और अब डीजल के बाबत भी ऐसा करने पर विचार की बात हो रही है। अब तो शायद ही कोई महीना-दो महीना ऐसा गुजरता हो जब पेट्रो पदार्थो की कीमत न बढ़े। पहली नजर में तो सरकार का यह तर्क ठीक समझ आता है कि सब्सिडी के बढ़ते बोझ की एक सीमा है लेकिन लोगों पर किए जा रहे इस एहसान को जताते वक्त यह तथ्य छुपा दिया जाता है कि डीजल-पेट्रोल की कीमतों में एक मोटा हिस्सा उन करों का भी है जिसे केंद्र और प्रदेश सरकारें वसूलती हैं। दरअसल, समस्या सब्सिडी देने में नहीं बल्कि उसके तौर-तरीके और पात्र-अपात्र में भेद नहीं किए जाने के चलते है। यदि कोई गरीब केरोसिन से अपनी झोपड़ी रोशन करता है, कोई किसान डीजल से खेतों की सिचाई करता है और कोई निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति पेट्रोल का इस्तेमाल अपने दुपहिया वाहन को चलाने के लिए करता है तो उसे रियायती दर पर ये उत्पाद मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है और यह सब्सिडी का सही उपयोग है। लेकिन यदि केरोसिन का इस्तेमाल उद्योग चलाने और डीजल-पेट्रोल का उपभोग लाखों रुपये के लक्जरी वाहन चलाने में किया जाता है तो इन पर सब्सिडी सार्वजनिक धन की बर्बादी है। लेकिन दुर्भाग्य से अब तक ऐसी कोई पण्राली विकसित नहीं की जा सकी है जिससे इन चीजों के उपयोग और उपभोग में अंतर किया जा सके। परिणाम यह है कि मूल्य वृद्धि से जहां निम्न आय के तबके की कमर टूट रही है वहीं सब्सिडी का बड़ा लाभ ऐसे लोग उठा रहे हैं जिन्हें इसकी कोई वास्तविक जरूरत नहीं। बीते वर्षो में सरकार ने सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर निवेश बढ़ाया है। इसे जारी रखने तथा व्यापक स्वरूप देने के लिए सरकार की आर्थिक सबलता बेहद जरूरी है। लेकिन इस प्रयास में पेट्रोलियम सब्सिडी घटाते समय तथा बढ़े व्यय का भार जनता पर डालते समय सरकार को इस भार को उठाने वाले कंधे की मजबूती पर भी विचार करना होगा। रोजमर्रा की जरूरत की चीजों की ढुलाई करने वाले वाहन और वातानुकूलित टूरिस्ट बस को एक समान सब्सिडी का लाभ मिलना बिल्कुल न्यायसंगत नहीं है। सरकार यदि चाहती है कि उसका सब्सिडी बोझ कम हो तथा इसका कुप्रभाव निम्न आय वर्ग वालों के घरेलू बजट और महंगाई पर न्यूनतम हो तो उसे उपयोग और उपभोग के अंतर को समझकर दो स्लैब बनाने होंगे। अन्यथा अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर निर्भर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें यूं ही राजकोषीय घाटे की सेहत और लोगों के घरेलू बजट को डांवाडोल करती रहेंगी।
Wednesday, June 1, 2011
सब्सिडी के मुद्दे पर विचार जरूरी
लगातार बढ़ती महंगाई बीते कुछ वर्षो से सरकार के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। खाद्य वस्तुओं की कीमतों में लगी आग से आम लोगों में बढ़ती नाराजगी के चलते सरकार इसके सियासी कुप्रभाव से आशंकित है। इस पर काबू पाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगातार अपनी मौद्रिक नीतियों में बदलाव किए गए हैं लेकिन कतिपय घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारकों के चलते महंगाई पर लगाम लगाने की कवायद को नीति निर्धारकों की उम्मीदों के अनुरूप सफलता नहीं मिल रही है। महंगाई की घरेलू वजहों में उत्पादन-वितरण तंत्र में निहित खामियां, जमाखोरी और मांग-आपूर्ति में असंतुलन को गिना जा सकता है। केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा जवाबदेही एक-दूसरे पर ठेलना भी इसकी प्रमुख वजह है। लेकिन इसके अंतरदेशीय कारण भी हैं। जिनमें पेट्रो पदार्थो की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोतरी प्रमुख है। दुनिया में आर्थिक मंदी की आशंकाओं के कम होने और इससे भी बढ़कर विश्व के प्रमुख पेट्रो उत्पादक अरब देशों में चल रही अस्थिरता के चलते तेल की कीमतें नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर हैं। बताने की जरूरत नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थ आर्थिक-औद्योगिक गतिविधियों के मेरुदंड हैं और इनकी कीमतों में परिवर्तन का असर पूरी दुनिया की वित्तीय गतिविधियों पर पड़ता है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। महंगाई के मोर्चे पर अभी हो यह रहा है कि सरकार बाकी उपायों से हालात को जितना नियंत्रित करती है, बढ़ी हुई पेट्रो कीमतें सब गुड़-गोबर कर देती हैं। गौरतलब है कि भारत में पेट्रोलियम पदार्थो के भंडार बेहद सीमित हैं। वर्तमान में हम अपनी कुल जरूरत का महज 20 फीसद तक ही घरेलू जरिए से पूरा कर पाते हैं शेष 80 फीसद हिस्सा हमें आयात करना होता है। पेट्रोलियम आयात के इस भारी-भरकम बिल से सरकार की आर्थिक सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है। साथ ही बड़ी समस्या पेट्रोल, डीजल, एलपीजी और केरोसिन को लोगों तक रियायती दर पर उपलब्ध कराना भी है। इस क्रम में दी जाने वाली सब्सिडी सरकार के योजनाकारों को उदारीकरण की राह में बाधक दिखती है। नतीजा यह कि सरकार द्वारा आर्थिक सुधार के नाम पर पहले तो पेट्रोल की कीमतों को नियंतण्रमुक्त किया गया और अब डीजल के बाबत भी ऐसा करने पर विचार की बात हो रही है। अब तो शायद ही कोई महीना-दो महीना ऐसा गुजरता हो जब पेट्रो पदार्थो की कीमत न बढ़े। पहली नजर में तो सरकार का यह तर्क ठीक समझ आता है कि सब्सिडी के बढ़ते बोझ की एक सीमा है लेकिन लोगों पर किए जा रहे इस एहसान को जताते वक्त यह तथ्य छुपा दिया जाता है कि डीजल-पेट्रोल की कीमतों में एक मोटा हिस्सा उन करों का भी है जिसे केंद्र और प्रदेश सरकारें वसूलती हैं। दरअसल, समस्या सब्सिडी देने में नहीं बल्कि उसके तौर-तरीके और पात्र-अपात्र में भेद नहीं किए जाने के चलते है। यदि कोई गरीब केरोसिन से अपनी झोपड़ी रोशन करता है, कोई किसान डीजल से खेतों की सिचाई करता है और कोई निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति पेट्रोल का इस्तेमाल अपने दुपहिया वाहन को चलाने के लिए करता है तो उसे रियायती दर पर ये उत्पाद मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है और यह सब्सिडी का सही उपयोग है। लेकिन यदि केरोसिन का इस्तेमाल उद्योग चलाने और डीजल-पेट्रोल का उपभोग लाखों रुपये के लक्जरी वाहन चलाने में किया जाता है तो इन पर सब्सिडी सार्वजनिक धन की बर्बादी है। लेकिन दुर्भाग्य से अब तक ऐसी कोई पण्राली विकसित नहीं की जा सकी है जिससे इन चीजों के उपयोग और उपभोग में अंतर किया जा सके। परिणाम यह है कि मूल्य वृद्धि से जहां निम्न आय के तबके की कमर टूट रही है वहीं सब्सिडी का बड़ा लाभ ऐसे लोग उठा रहे हैं जिन्हें इसकी कोई वास्तविक जरूरत नहीं। बीते वर्षो में सरकार ने सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर निवेश बढ़ाया है। इसे जारी रखने तथा व्यापक स्वरूप देने के लिए सरकार की आर्थिक सबलता बेहद जरूरी है। लेकिन इस प्रयास में पेट्रोलियम सब्सिडी घटाते समय तथा बढ़े व्यय का भार जनता पर डालते समय सरकार को इस भार को उठाने वाले कंधे की मजबूती पर भी विचार करना होगा। रोजमर्रा की जरूरत की चीजों की ढुलाई करने वाले वाहन और वातानुकूलित टूरिस्ट बस को एक समान सब्सिडी का लाभ मिलना बिल्कुल न्यायसंगत नहीं है। सरकार यदि चाहती है कि उसका सब्सिडी बोझ कम हो तथा इसका कुप्रभाव निम्न आय वर्ग वालों के घरेलू बजट और महंगाई पर न्यूनतम हो तो उसे उपयोग और उपभोग के अंतर को समझकर दो स्लैब बनाने होंगे। अन्यथा अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों पर निर्भर पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें यूं ही राजकोषीय घाटे की सेहत और लोगों के घरेलू बजट को डांवाडोल करती रहेंगी।
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