Tuesday, June 28, 2011

अर्थव्यवस्था पर तिहरा दबाव


वित्तीय घाटा बढ़ने से अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को रेखांकित कर रहे हैं  लेखक 
वर्तमान में अर्थव्यवस्था तीन तरह से दबाव में है। विश्व बाजार में तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। फरवरी में ये करीब 100 डॉलर प्रति बैरल थीं। आज 110 से 115 डालर पर पहुंच गई हैं। विश्व बाजार में तेल के दाम बढ़ने से सरकार को सब्सिडी अधिक देनी होती है, क्योंकि डीजल के घरेलू दाम न्यून निर्धारित किए गए हैं। इससे सरकार का घाटा बढ़ रहा है। दूसरे, अर्थव्यवस्था की विकास दर में भी हल्की गिरावट आ रही है। पूर्व की 9 प्रतिशत विकास दर के सामने वर्तमान अनुमान लगभग 8 प्रतिशत का है। विकास दर के गिरने से सरकार को टैक्स कम ंिमलता है। तीसरे, सरकार आम आदमी को राहत दिलाने के लिए भोजन सुरक्षा कानून बनाने जा रही है। इससे भी सब्सिडी खर्च बढ़ेगा। इस प्रकार अर्थव्यवस्था तीन तरफ से दबाव में है। ऐसे में सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ेगा। इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकार को नोट छापने पडें़गे। इससे महंगाई बढ़ेगी, जिसकी मार अंतत: आम आदमी पर ही पड़ेगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए योजना आयोग तथा अन्य द्वारा पांच बिंदु की रणनीति सुझाई जा रही है। पहला बिंदु है कि तेल, खाद्य सामग्री, एलपीजी गैस आदि पर दी जा रही सब्सिडी को घटाया जाए, परंतु ऐसा करने पर इन वस्तुओं के दाम बढ़ेंगे और आम आदमी त्रस्त होगा। दूसरा बिंदु है कि सरकारी कर्मियों को दी जाने वाली पेंशन में कटौती की जाए। यह सुझाव सही है, किंतु क्रियान्वयन कठिन है। सरकार ने कर्मियों के वेतन और पेंशन में अप्रत्याशित वृद्धि इसलिए की है कि यह फौज सरकार के प्रति वफादार रहे और जरूरत पड़ने पर आम आदमी का दमन करने से न चूके। मसलन रामदेव के शिविर पर रात में धावा बोलने वाले अनेक सिपाही सरकार के निर्णय से सहमत नहीं होंगे, लेकिन ऊंचे वेतन और पेंशन के लोभ में उन्होंने अपनी अंतरात्मा को दबा दिया और रात में सोते हुए निरीह लोगों पर डंडे बरसाए। अत: सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों के वेतन और पेंशन में कटौती करना अपनी नींव खोदने जैसा होगा। तीसरा बिंदु रक्षा खचरें में कटौती करने का है। यह उपयुक्त नहीं हैं। मैंने कुछ वर्ष पूर्व अध्ययन किया था तो पाया कि जिन देशों के रक्षा खर्च ऊंचे थे उनकी आर्थिक विकास दर भी ऊंची थी। रक्षा खर्च में कटौती से आर्थिक विकास दर घटेगी। चौथा बिंदु निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने का है। बुनियादी सेवाओं में निवेश को इन्हें आमंत्रित किया जा सकता है। यह दिशा सही है। दिल्ली के एयरपोर्ट तथा अनेक हाईवे इसी विधा से बनाए गए हैं, परंतु दूसरे क्षेत्रों में निजी क्षेत्रों की रुचि नहीं है, जैसे पानी के वितरण, ग्रामीण सड़कों के निर्माण, जंगल की रक्षा इत्यादि में। अत: निजी क्षेत्र की भागीदारी के बावजूद सरकारी निवेश में वृद्धि जरूरी होगी। पांचवां बिंदु खपत टैक्स आरोपित करने का है। इस संदर्भ में सुझाव यह है कि उच्च वर्ग द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं जैसे एयर कंडीशनर, कलर टीवी, लक्जरी कार आदि पर बिक्री कर के अलावा लग्जरी टैक्स लगा दिया जाए। यह सुझाव सही दिशा में है, परंतु इससे मिलने वाला राजस्व कम ही होगा। इससे मूल समस्या का समाधान नहीं होता है। मेरी समझ में योजना आयोग द्वारा सुझाए गए बिंदु मूल समस्या का समाधान हासिल करने में सफल नहीं हैं। योजना आयोग ने समस्या को सही ढंग से चिह्नित नहीं किया है। आयोग सरकारी कल्याणकारी खचरें में वृद्धि की वकालत कर रहा है। आयोग की चिंता मात्र इन खचरें के लिए पर्याप्त रकम जुटाने की है, परंतु रकम जुटाने में तमाम कठिनाइयां हैं, जैसा कि ऊपर बताया गया है। इसके अलावा आयोग को समझना चाहिए कि जनता समझदार हो गई है। वह कल्याणकारी खर्चो से प्रभावित नहीं हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार को इसके बावजूद सत्ताच्युत होना पड़ा था कि उन्होंने तमाम कल्याणकारी योजनाएं चालू की थीं। करुणानिधि ने मुफ्त टेलीविजन सेट बांटे, लेकिन सत्ता खोनी पड़ी। कारण यह है कि सरकारी योजनाओं से जनता को लाभ कम ही पहुंचता है। सरकारी स्कूलों में बच्चे फेल होते हैं, मनरेगा के प्रधान कमीशन खाते हैं इत्यादि। मूल समस्या इस प्रकार है। कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ाने के लिए रकम चाहिए। इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। घाटा बढ़ने से महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी त्रस्त हो रहा है। साथ ही निवेशकों का भरोसा भी कम हो रहा है और आर्थिक विकास पर खतरा मंडराने लगा है। इस समस्या का हल छिटपुट कदम उठाने से नहीं निकलेगा, जैसा कि योजना आयोग इंगित कर रहा है। इस समस्या का हल सर्जरी से निकलेगा। पूंजी सघन उद्योगों एवं मशीनरी पर टैक्स लगा दिया जाए तो श्रम का उपयोग सहज ही ज्यादा होने लगेगा और आम आदमी को राहत मिल जाएगी। जैसे ट्रैक्टर पर टैक्स लगा दिया जाए तो हलवाहे का कारोबार स्वत: चल पड़ेगा और उसे मनरेगा की जरूरत नहीं रह जाएगी। अथवा यूं समझें कि चाकलेट खाने से बच्चे का स्वास्थ बिगड़ रहा है। इस समस्या का समाधान च्यवनप्राश पर खर्च बढ़ाकर किया जा सकता है अथवा चाकलेट पर टैक्स लगाकर। चाकलेट पर टैक्स लगाने से दोहरा लाभ है। स्वास्थ्य ठीक रहेगा और आय भी होगी। इसी प्रकार पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स लगाकर श्रम की मांग बढ़ानी चाहिए। दूसरा सुझाव है कि आम आदमी को राहत देने के नाम पर भारी भरकम कल्याणकारी माफिया को पोषित करने की जरूरत नहीं है। इस मद पर खर्च की जाने वाली रकम को सीधे जनता को नकद दे देना चाहिए। मेरा आकलन है कि सभी सब्सिडी एवं कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके प्राप्त रकम को वितरित किया जाए तो प्रति परिवार प्रति माह 2500 रुपये दिए जा सकते हैं, जो मूल जरूरत के लिए पर्याप्त होंगे। तीसरा सुझाव है कि डीजल के मूल्य में वृद्धि करके उस रकम से आम आदमी द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं पर टैक्स में छूट देनी चाहिए। डीजल पर दी जा रही सब्सिडी भी अंतत: आम आदमी से ही टैक्स के रूप में वसूली जाती है। यह व्यर्थ का प्रपंच है। डीजल सब्सिडी समाप्त करके उतनी रकम की छूट आम आदमी द्वारा खपत की जाने वाली वस्तुओं पर दी जानी चाहिए। तेल के बढ़ते मूल्य एवं विकास दर में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था पहले ही दबाव में है। कल्याणकारी खचरें में वृद्धि से यह दबाव और बढ़ रहा है। इन खचरें की सर्जरी करके आम आदमी की रक्षा करनी चाहिए। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं).

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