Wednesday, June 1, 2011

क्या होगी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मौज!


पश्चिम बंगाल में वामपंथ की हार से राजनीतिक समीकरण सिर्फ वहीं नहीं बदले हैं। केंद्र सरकार में भी समीकरण बदलते दिख रहे हैं। मोटे तौर पर केंद्र के स्तर पर माना जा रहा है कि अब सरकार की आर्थिक नीतियों को रोकने के लिए कहीं कोई मजबूत प्रतिरोध नहीं है। वामपंथी पार्टियां संसद और विधानसभा में लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं। ऐसी सूरत में उन नीतियों और कानूनों को पास करवाना ज्यादा आसान हो गया है, जिनका लेफ्ट लगातार विरोध करता रहा है। रिटेल क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश का मसला भी ऐसा ही है। हाल में केंद्र सरकार के एक महत्वपूर्ण समूह से यह सिफारिश आयी है कि महंगाई से निपटने का एक रास्ता यह हो सकता है कि हर तरह के रिटेल कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने की छूट दे दी जाये। इससे महंगाई कम होने का मोटा सा रिश्ता यह बनता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां रिटेल
में बहुत रकम बचाएंगी और इस बची हुई रकम का बड़ा हिस्सा वह उपभोक्ताओं को देंगी। इस तरह से चीजें सस्ती हो जाएंगी और आम आदमी को राहत मिलेगी। इस तर्क के पीछे का तर्क यह है कि बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बारगेनिंग पावर बहुत ज्यादा होती है। वे तोल मोल ज्यादा कर सकती हैं और तमाम वस्तुओं की कीमतों को गिरा सकती हैं। तमाम विक्रेताओं को बहुत सस्ते में माल बेचने के लिए विवश कर सकती हैं। संगठित रिटेल के भाव आम रिटेल की दुकानों से कम होते हैं। यह तर्क लगातार आते रहते हैं। सफल रिटेल कारोबारी के फ्यूचर बाजार का जोर अपने इश्तिहारों में अकसर इस बात पर रहता है कि हमसे अच्छा और हमसे सस्ता कोई नहीं बेच सकता। जितनी कीमतों पर हम बेच सकते हैं, उतनी कीमत पर बेच पाना औरों के वश की बात नहीं है। मोटे तौर पर यह तर्क अकसर दिया जाता है कि कुल रिटेल कारोबार में संगठित रिटेल या बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हिस्सा जितना ज्यादा होगा, उतनी ही ज्यादा चीजें सस्ती होंगी। यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि भारत में रिटेल क्षेत्र में तमाम बड़ी कंपनियां होने के बावजूद संगठित रिटेल का कुल रिटेल में हिस्सा सिर्फ चार प्रतिशत है। चीन में यह हिस्सा बीस प्रतिशत, इंडोनेशिया में 30 प्रतिशत है और मलयेशिया में 55 प्रतिशत है। यानी कुल मिलाकर यही बात सामने आती है सरकार की तरफ से कि रिटेल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने का यह सही टाइम है। उनके आने से तमाम वस्तुओं की कीमतों में गिरावट आ जायेगी। पर सोचने का मसला यह है कि जिन तौर-तरीकों से बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीजों को सस्ता कर सकती हैं, उन तरकीबों से क्या कोई और कीमतों को कम नहीं कर सकता। मसलन भारत में खाने-पीने की चीजों की महंगाई का एक कारण यह है कि खेती में पैदा होने वाली करीब चालीस प्रतिशत वस्तुएं बिकने से पहले ही खराब हो जाती हैं। पिछली बार देखने में आया कि किसानों ने टमाटर या प्याज जैसे उत्पाद इसलिए नष्ट कर दिये कि वे बाजार में इसकी लागत भी वसूल नहीं कर पा रहे थे। उनकी इतनी क्षमता नहीं थी कि कोल्ड स्टोरेज में अपने आइटमों को रखने की कीमत चुका पाते। जबकि बाजार में सप्लाई की अधिकता के चलते कीमतें गिर गयीं। मतलब यह है कि अगर कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था हो जाये तो किसान और उपभोक्ताओं दोनों को राहत मिल जाये। किसान जहां बहुत कम भाव पर बेचने से बचेंगे वहीं उपभोक्ता बहुत ज्यादा कीमत देने से बच जायेंगे। पर क्या यह जरूरी है कि कोल्ड स्टोरेज विकसित करने का काम बहुराष्ट्रीय कंपनियां या बड़ी भारतीय कंपनियां ही करें। कोआपरेटिव व्यवस्था के तहत इस तरह के काम क्यों नहीं हो सकते, जिनका लाभ भारतीय किसानों और भारतीय कारोबारियों को मिले। यह बात सही है कि वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल कंपनियां जहां भी जायेंगी, उनके पास जबर्दस्त बारगेनिंग पावर होगी। पर क्या यह बारगेनिंग पावर समाज के वृहत्तर और दूरगामी हितों में होगी। वालमार्ट का सारा फोकस इस बात पर है कि चीजें सस्ती कैसे हों। कैसे कर्मचारियों की सेलरी में से बचाया जाये। कैसे सप्लायरों को और अधिक निचोड़कर बचाया जाये। 2010 में वालमार्ट ने लागत कम करने के लिए 13,000 कर्मचारियों की छंटनी की। अधिक से अधिक परमानेंट कर्मचारियों के बजाय टेंपरेरी या पार्ट टाईम कर्मचारियों से काम चलाया। बेरोजगारी इतनी है कि बहुत कम पैसे पर भी कर्मचारी मिल जायेंगे। पर क्या यह स्थिति समाज के लिए ठीक होगी कि कर्मचारियों का एक हिस्सा खराब स्थितियों में काम करे। अगर बारगेनिंग पावर के बूते ही कीमतों में गिरावट लानी है तो फिर यह काम भारतीय कोआपरेटिव बनाकर क्यों नहीं किया जा सकता। अमूल जैसा सफल सहकारी उदाहरण हमारे सामने है। इस गुजराती प्रयोग को क्यों नहीं राष्ट्रीय प्रयोग बनाया जा सकता। इसका फायदा भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं- सबको मिलेगा। जो रोजगार पैदा होगा, जो कमाई पैदा होगी, वह भारतीय होगी। किसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी के खाते में नहीं जाएगी। वालमार्ट जैसी बड़ी रिटेल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के तीन असर साफ तौर पर देखे जायेंगे। छोटे रिटेल स्टोर, जिन्हें अर्ध बेरोजगार या बहुत कम पढ़े-लिखे लोग चलाते हैं, वे बंद हो जाएंगे यानी रोजगार का एक साधन छिनेगा। वालमार्ट में नौकरी उन्हें मिलेगी, जो उनके हिसाब से तमाम योग्यताओं या मानकों पर खरे उतरते हैं। पर इससे बेरोजगार वो लोग होंगे, जिनकी क्षमता कुछ और करने की नहीं है। दूसरा, समाज में तमाम तरह के सांस्कृतिक बदलाव दिखायी देंगे। तीसरा असर यह होगा कि पूरे विश्व में जहां कहीं भी आइटम सस्ते होंगे या उन्हे सस्ता करवाना संभव होगा, तमाम रिटेल बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां जायेंगी। बड़े ग्राहक अपनी तरह से बाजार को खराब करते हैं, अपनी तरह से बाजार का शोषण करते हैं। बहरहाल, जिस तरह की स्थितियां आज दिखायी पड़ रही हैं, उनसे साफ होता है कि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हर तरह के रिटेल कारोबार में आने की इजाजत दे देगी। वामपंथ इस मसले को लेकर गंभीर है पर उसके पास अब शक्ति नहीं है। सरकार पर अब उसका कोई दबाव नहीं है। भारतीय जनता पार्टी इस संबंध में सकारात्मक विपक्ष की भूमिका कितना निभा पायेगी, यह भी स्पष्ट नहीं है। इस मसले पर उसकी गंभीरता कतई स्पष्ट नहीं है। कुल मिलाकर साफ यही हो रहा है कि सरकार अब जो चाहे कर सकती है, उसे रोकने वाला कोई नहीं है। यह स्थिति लोकतंत्र और अर्थतंत्र दोनों के लिए ही ठीक नहीं है।

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