Tuesday, November 22, 2011

विकास की गलत वर्णमाला

महंगाई को काबू में करने के लगातार दावे और उनकी विफलताओं ने यूपीए सरकार की नई आर्थिक नीतियां और तेज विकास के दावों को तीखे सवालों का सामना करना पड़ रहा है। निगमित विकास पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद के दावे जितने फूले हुए और चमत्कारिक दिखाई देते हैं; उनकी वास्तविकता उतनी ही चौंकाने वाली है। दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं एक तरफ अर्थिक मंदी से जूझते हुए सकल घरेलू उत्पाद की नकारात्मक वृद्धि के करीब खड़ी हैं तो वहीं विकासशील चीन और भारत नव उदारवादी व्याख्याओं के अनुसार वि आर्थिक पण्राली के विकास के इंजन कहे जा रहे हैं। वर्तमान समय में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के आंकड़ों को अर्थव्यवस्था के विकास के तौर पर पेश किया जा रहा है जबकि सकल घरेलू विकास की वर्तमान तेजी और महंगाई के बीच एक अंतर्संबंध है जो आज आम आदमी के भोजन, वस्त्र और आवास के लिए गंभीर चुनौतियां बन रहा है। चीनी उद्योग के नमूने से हम विकास के नाम पर पूंजी के इस छल को समझ सकते हैं। 2009 में चीनी उद्योग के मुनाफे में बम्पर उछाल आया। यह उछाल उत्पादन में बढ़ोतरी या लागत में कटौती से नहीं वरन चीनी के दामों में आए कई गुने उछाल के कारण था। स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 33 चीनी कम्पनियों ने दिसम्बर में खत्म तिमाही में अपना मुनाफा 2900 गुना बढ़ा कर 901 करोड़ कर लिया जो पिछले साल 2008 की इसी तिमाही में महज 30 करोड़ था। विशेषज्ञ के अनुसार यदि गैर सूचीबद्ध निगमों और सहकारी निगमों का मुनाफा भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो यह इससे दोगुना हो जाएगा। 2008 की तीसरी तिमाही में घाटा दिखाने वाली चीनी मिलों का मुनाफा 2009 में चीनी के बढ़े दामों के कारण फूट पड़ा। परंतु उत्पादन के बढ़ने से इस सकल घरेलू उत्पाद का अधिक संबंध नहीं है बल्कि सकल घरेलू उत्पाद की बढ़ोतरी कई बार उत्पादन में बढ़त को अपने लिए अहितकर समझती है। मसलन, मार्च 2010 में जब इस वर्ष चीनी उत्पादन के आंकड़ों की गणना करते हुए विशेषज्ञों ने यह आशा जाहिर की कि पिछले साल की तुलना में इस वर्ष चीनी का उत्पादन बढ़कर 17 मिलियन टन तक पहुंच जाएगा तो सट्टेबाज चीनी निगमों में घबराहट हो गई जिससे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कम्पनियों के शेयरों के दाम आठ से 11 प्रतिशत नीचे गिर गए। उत्पादन के विकास से शेयर बाजार का यह विरोधी संबंध ही वर्तमान विकास की वास्तविकता को जाहिर करता है। निगमीकृत विकास के इस खेल की वास्तविकता का उदाहरण इस वर्ष भी तब उजागर हुआ, जब नासिक के प्याज उत्पादकों ने प्याज की बिक्री मना कर दिया। दरअसल, पिछले सीजन में बड़े खुदरा व्यापारियों ने किसानों से डेढ़ रुपये किलो प्याज खरीद कर स्टॉक के बाद में उसे बाजार में 30 से 50 रुपये किलो तक में बेचा जिसके विरोध में किसानों ने हड़ताल किया। निगमीकृत अर्थव्यवस्था का यही जन विरोधी चेहरा सकल घरेलू उत्पाद की तेज वृद्धि के गुबारे में हवा भर रहा है। खाद्यान्नों में 3.2 प्रतिशत की वाषिर्क वृद्धि रहने के बावजूद भारतीय खुदरा व्यापार में 2004-05 के 35000 करोड़ के मुकाबले 2010 में 111000 करोड़ तक की बढ़ोतरी हुई। 2009-10 में खाद्यान्नों में 2007-08 की तुलना में गिरावट रही परंतु उसके बावजूद खुदरा व्यापार और खाद्यान्नों के व्यापार में संलिप्त निगमों में जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की गई। यही स्थिति पूरे खुदरा व्यापार और खाद्यान्नों की है; जहां 1996-97 से खाद्यान्नों के उत्पादन में बढ़ोतरी की दर 1.8 या दो प्रतिशत तक सीमित रही तो वहीं बढ़े दामों के कारण खुदरा व्यापार में 40 प्रतिशत वाषिर्क की दर से बढ़ोतरी दर्ज की गई। यह बढ़ोतरी खुदरा व्यापार में किसी क्रांतिकारी परिवर्तन या उत्पादन में जबरदस्त उछाल से नहीं, कीमतों में भारी वृद्धि से हुई। यदि चीनी या दालों के दाम राजग के सरकार में आने से पहले की स्थिति में पहुंच जाएं या सरकार पेट्रोलियम पदाथरे के दामों को नियंतण्रमुक्त करते हुए भी महंगाई कम करने के लिए भारी करों में कटौती करती है और इससे महंगाई 1996-97 के स्तर पर पंहुच जाती है तो शर्तिया सकल घरेलू उत्पाद का यह गुब्बारा औंधे मुंह गिरेगा। राजग सरकार ने महंगाई से सकल घरेलू उत्पाद में उछाल का सूत्रपात करते हुए भारत उदय का नारा दिया था। कीमतें इस निगमित विकास के स्वामियों के पक्ष में किए गए अनिवार्य वस्तु अधिनियम और वायदा कारोबार में बदलावों से है। विकसित देशों की मांग पर निर्भर सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर निर्माण और खनन उद्योग तक सभी के विकास की कहानी का यथार्थ कमोबेश यही है।

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